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Magazine - Year 1969 - Version 2

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हमारा दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं विशाल हो

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राज दण्डों में एक दण्ड काल-कोठरी भी है। यह दण्ड बड़ा कष्टदायक माना जाता है। अपराधी को एक छोटी -सी कोठरी में बन्द कर दिया जाता है। बस, इस के सिवाय न तो उसे कोई कष्ट दिया जाता है और न यातना। यहाँ तक कि उससे कोई काम भी नहीं लिया जाता है। खाना-पीना आदि सब उसे सामान्य रूप से मिलता रहता है। यदि स्थूल दृष्टि से उसकी तुलना दूसरे कैदियों से की जाये, तो ऐसा लगता है कि एकान्तवास का बन्दी उनकी अपेक्षा अधिक आराम में है। न कोई काम और न कोई कष्ट, किन्तु यदि उससे पूछा जाये कि वह उस काल-कोठरी के दण्ड को कितना अधिक कष्ट कारक मानता है तो वह बता देगा और सी अन्य सजा में बदलने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जायेगा।

ऐसा क्यों? उस एकान्त-वास में उसे ऐसा कौन-सा कष्ट मिलता है, जो वह अपने उस दण्ड से बदलने को तैयार हो सकता है?

काल-कोठरी का दण्ड और कुछ नहीं केवल संकीर्णता का दण्ड होता है। उसकी जीवन परिधि इतनी संकीर्ण हो जाती है कि उसके प्राण, उसकी आत्मा उसमें घुटने लगती है। उस संकीर्णता में उसे विविध प्रकार की दुष्कल्पनाएँ सताने लगती है। चारों ओर की तंग चहार-दीवारी उसे काट खाने को दौड़ती हैं कुछ ही दीनों में वह उस संकीर्णता में इतना घबरा उठता है कि अपने तक से डरने लगता है। उसकी आसुरी वृत्तियाँ जाग कर प्रबल हो उठती है। कभी उसे ईर्ष्या सताती है, कभी क्रोध जलाता है, कभी घृणा उभर उठती है तो कभी ग्लानि अनुभव होने लगती है।

हर्ष, उल्लास और अभिरुचि जैसी आनन्ददायक वृत्तियाँ मर जाती है। उसका जीवन भार बनकर हर जाता है। खाना-पीना यहाँ तक कि सोना-जागना तक अच्छा नहीं लगता। अधिकांश एकान्त बन्दी खाना-पीना तक छोड़ देते हैं और यदि बेमन खाते-पीते भी रहते हैं तो वह उनके काम नहीं आता। सारा स्वास्थ्य चौपट हो जाता है। बन्दी शीघ्र बीमार हो जाते हैं और बहुत बार तो उस संकीर्णता में घुट-घुट कर मर भी जाते हैं। संकीर्णता का दण्ड सबसे भयानक दण्ड होता है।

मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति व्योमबिहारी पक्षी जैसी ही होती है। उसका वास्तविक सुख स्वच्छन्दता, स्वतन्त्रता और उन्मुक्तता में ही निवास करता है। जिस मनुष्य का दायरा जितना ही तंग-जीवन परिधि जितनी सीमित और संकीर्ण होगी, वह उतना ही दुःखी और त्रस्त रहेगा। इसके विपरीत जो जितना ही विस्तृत और विशाल वृत्ति वाला होगा, जिसकी जीवन-परिधि जितनी ही प्रसारपूर्ण होगी, वह उतना ही सुखी और प्रसन्न रहेगा।

जो मनुष्य अज्ञानवश स्वार्थों से घिरे और शारीरिक भोगों से बँधे रहते हैं, अहंकार से प्रभावित ओर तृष्णाओं से सम्बन्धित रहते है वे कितने ही धनवान्, बलवान् और जनवान् क्यों न हों, जीवन का सच्चा सुख-संतोष नहीं पा सकते। वे भोग-विलासों साधन, सम्पन्नता के बीच भी काल-कोठरी के बन्दी की तरह घुटते और दुःखी होते रहेंगे। मनुष्य जीवन का वास्तविक सुख उन्मुक्तता एवं विशालता में है, स्वार्थ एवं संकीर्णता को शारीरिक परिधि से निकल कर आत्मिक परिसर में आने का उपदेश किया है और जो बुद्धिमान् उनके उपदेशों पर चलकर भोगवाद से विरत होते हैं, उनकी आत्मा शारीरिक संकीर्णता से बढ़कर अनन्त आनन्द रूप परमात्मा में मिलकर भव-बन्धन से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाती जाती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य भव-बन्धन से छूटने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। आत्मा का अपनी संकीर्ण परिधि से निकल कर अपने उद्गम परमात्मा में तादात्म्य पाना ही भव-बन्धन से मुक्ति कही गई है।

किन्तु खेद है कि अधिकांश लोग अपने इस जीवन लक्ष्य से अपरिचित रहते हैं और जो परिचित भी है, वे अपनी सकी वृत्तियों के कारण न तो उसको महत्व दे पाते हैं और न उसको पाने के लिए प्रयत्नशील हो पाते है। भोग-विलास और वासना, तृष्णा से लिपटे इसी भव-सागर में पड़े गोते खाते रहते हैं।

जीवन का वास्तविक लक्ष्य देखने, ठीक से पहचानने और पाने के लिए अपनेपन के संकीर्ण दायरे से निकल कर विस्तारपूर्ण परिसर में आना होगा निम्न स्तर से उठकर उच्चतर स्थिति में जाना होगा। गीध और चील जैसे बड़े-बड़े पक्षी अनन्त आकाश में एक बड़ी ऊँचाई पर उठते और तैरते देखे जाते है। उनको देखकर केवल यही न समझ लेना चाहिये कि वे अपने उड्डयन स्वभाव की पूर्ति कर मनोरंजन कर रहे होते हैं। उनकी उस ऊँची उड़ान में एक लक्ष्य भी निहित रहता है और वह होता है अपने भोजन का पता लगाना। उस ऊँचाई पर पहुँचकर वे संसार को दूर-दूर तक गहराई से साफ-साफ देख पाते हैं और अन्य सहस्रों वस्तुओं के बीच पड़े अपने भोजन को पहचान लेते हैं। यदि वे घोंसलों, वृक्षों और कोटरों के संकीर्ण दायरे में ही पड़े ओर जमीन से मिली ऊँचाई तक ही सीमित रहें तो दूर-दूर तक नहीं देख सकते, जिसके फलस्वरूप अपने भोजन के उस लक्ष्य को नहीं पा सकते जिसकी उन्हें अपेक्षा और आवश्यकता होती है।

मनुष्य की स्थिति भी इससे कुछ अधिक भिन्न नहीं होती। वह जब तक अपने शरीर के दायरे तक ही सीमित रहता और वासना-तृष्णा की नीचाइयों में पड़ा रहता है, तब तक अपना जीवन लक्ष्य ठीक से नहीं पहचान पाता। स्थूल-दृष्टि और मोटी बुद्धि का उपयोग करने से वह अपने आस-पास के संसार का सच्चा स्वरूप नहीं देख समझ पाता। निदान उन्हीं में भटक कर अपने उच्च लक्ष्य को भूल जाता है। यदि वह उन पक्षियों की तरह अनन्त में ऊँचे उठकर अपनी दूर और स्थूल-दृष्टि से संसार को देखे तो उसके वास्तविक स्वरूप और उसी में निहित अपने लक्ष्य को भी परख-पहचान सकता है। लक्ष्य की ना जानकारी के कारण ही तो उसकी क्रियायें और व्यवहार भी उसके अनुरूप नहीं हो पाते। वह अनजान की तरह संसार सागर में हाथ-पैर मारता हुआ जीवन बिता देता है ओर उसी में डूब कर रह जाता है। विशाल दृष्टि पाये बिना लक्ष्य नहीं देखा जा सकता और जब तक लक्ष्य का पता न हो, तब तक उसके अनुरूप जीवन पद्धति को नहीं निश्चित किया जा सकता। योंहीं अज्ञान के अंधेरे में भटकते रहना होगा।

जीवन लक्ष्य को देखने, परखने और पाने के लिए पक्षियों की तरह ऊँचा उठना होगा। किन्तु पक्षी तो ऊपर शून्य में उड़ते और भोजन की तलाश करते हैं पर मनुष्य का जीवन लक्ष्य उनकी तरह भोजन की तलाश नहीं है। उसका जीवन लक्ष्य- आत्मा की मुक्ति, अस्तु उसकी उड़ान उसके अनुरूप दिशा में ही होनी आवश्यक है और वह ऊँचाई है परमात्मा। आत्मा को मुक्ति के लिए परमात्मा की ओर उड़ान भरना होगा। क्योंकि उसका लक्ष्य ही अथवा उसका गंतव्य ही वह अनन्त आनन्द, अक्षय शान्ति और शाश्वत तृप्ति रूप वह आत्मा की मुक्ति अथवा भव -बंधन से छुटकारा एक ही स्थिति के अनेक नाम है।

मनुष्य ज्यों-ज्यों परमात्मा की ओर बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसमें सूक्ष्मदर्शिता, निरहंकार और विवेक का उज्ज्वल आलोक बढ़ता जाता है। जिसके प्रकाश में बह अपना, अपने आस-पास की वस्तुओं और इस संसार का वास्तविक रूप पूरी तरह से देख लेता है। सत्य का अन्वेषण हो जाने पर फिर अज्ञान का अन्धकार नहीं रहने पाता। मनुष्य के सारे भ्रम, सारी भ्रांतियाँ और सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। वह संकीर्णता की परिधि से बाहर आकर विशाल एवं निरन्तर प्रसार में बिहार करने लगता है। यही स्थिति तो वह स्थिति है, जिसे मुक्तावस्था कहा जाता है।

अपनी अभीष्ट ऊँचाई की ओर बढ़ने के लिए आस्तिकता का होना तो आवश्यक है ही पर केवल इतने से ही काम चल सकना कठिन होगा। उसके लिए परमात्मा के एक ऐसे स्वरूप का दर्शन भी करना होगा, जो साध्य और ग्रहणीय भी हो। परमात्मा का ग्रहण अनुभूति द्वारा ही सम्भव है और उस अनुभूति का जागरण भी इस संसार के सहारे ही करना होगा, क्योंकि इसके अतिरिक्त हमारे पास अन्य साधन भी क्या हो सकते हैं?

इस संसार साधन में परमात्मा की अनुभूति करने के लिये अपना स्थूल अथवा सामान्य दृष्टिकोण बदल कर दार्शनिक बनाना होगा और अपनी निष्ठा को इतना उदार कि वह एक आध्यात्मिक भाव से सब पर स्थिर की जा सके। संसार का कोई भी भाग अथवा अंश ले लीजिये। सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र, पर्वत, सरिताएँ, सागर, वन, वृक्ष, फूल-पौधे कुछ भी सही- जो कुछ भी देखिये एक गहरी और सूक्ष्म दृष्टि से देखिये और विचार करिये कि जब इन सब वस्तुओं का अस्तित्व है, तब अवश्य ही इनका निर्माता और नियामक भी होगा। यदि ऐसा न होता तो न तो ये वस्तुएँ बन पातीं और न इनका अस्तित्व दृष्टि गोचर होता।

लक्ष्य परायण व्यक्ति का दृष्टिकोण संसार के पदार्थों के प्रति औरों से भिन्न रहता है। जहाँ एक सामान्य व्यक्ति किसी वृक्ष को देखकर केवल इतना सोच पाता है कि यह वृक्ष अमुक जाति का है। इसमें इस प्रकार और इस रस के फल लगते और इस रंग के फूल खिलते हैं और यदि उसका ज्ञान कुछ अधिक हुआ तो यह सोच लेगा कि यह इस ऋतु में फलता-फूलता और इसके फल-फूल का उपयोग करने से अमुक हानि या लाभ होता है। बस इससे अधिक आगे बढ़कर वह नहीं सोच पाता। जबकि लक्ष्य परायण आस्तिक का सोचना इससे भिन्न होता है। वह केवल किसी पदार्थ के ऊपरी रूप तक ही सीमित नहीं रहता। वह यदि वृक्ष के विषय में सोचेगा तो इस प्रकार सोचेगा-

“ यह विशाल वृक्ष एक छोटे से बीज से उत्पन्न हुआ है। उस छोटे से बीज में अवश्य ही कोई ऐसी महान् शक्ति सन्निहित रहती है, जो बीज को वृक्ष रूप में बदल देती है। वह शक्ति क्या हो सकती है? उसका निवास कहाँ हो सकता है। निश्चय ही इतने बड़े ब्रह्माण्ड में चमत्कार करने वाली शक्ति विशाल विस्तृत और महान् है तो वह किसी एक परिधि में सीमित रहकर एक देशीय नहीं हो सकती। निश्चय ही वह व्यापक है, अणु-अणु में परिव्याप्त है, चींटी से लेकर हाथी तक में और जड़ से लेकर चेतन तक में। वह नदी, पहाड़, वृक्ष, आदि सबमें है, मुझमें भी है ओर दूसरों में भी।

कहना न होगा कि लक्ष्य परायण व्यक्ति का यह सूक्ष्म और विशाल दृष्टिकोण उसमें एक विराट् भावना का उदय कर देता है और वह कुछ ही समय में शक्ति के रूप में सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड के रूप में विराट परमात्मा की अनुभूति पाने लगता है। ऐसे हर वस्तु और हर पदार्थ के बाह्य और आन्तरिक रूप में उस एक परमात्मा के ही दर्शन होने लगते हैं। उसे संसार से लेकर अपने तक की हर क्रिया में उसकी प्रेरणा और उसी की इच्छा सक्रिय होती दृष्टिगोचर होने लगती है। परमात्मा के इस विराट् रूप के बीच व्यापक चिन्तन करे रहने से मनुष्य स्वयं ही विराट रूप होकर संसार और शरीर की संकीर्णता से मुक्त होकर भव-भावना से छूट जाया करता है। उसको अपना जीवन लक्ष्य मिल जाता है, उसकी आत्मा परमात्मा के तादात्म्य प्राप्त कर लेती है।

अस्तु अपना जीवन लक्ष्य पहचानने के लिए परमात्मा की ओर ऊपर उठिये, परमात्मा की अनुभूति के लिये उसमें विराट् रूप की उपासना करिये, स्वयं विराट् बन कर जीवन की संकीर्ण काल कोठरी से छूटकर मुक्त हो जाइये।

पूना में उन दिनों भयंकर प्लेग फैला था। लोकमान्य तिलक का बड़ा पुत्र प्लेग से पीड़ित हो गया था। पुत्र की दशा चिन्ताजनक होने के बावजूद तिलक ‘केसरी’ के अंग का अधूरा काम पूरा करने के लिए कार्यालय जाने लगे। किसी ने उन्हें टोका-लड़का मौत से जूझ रहा है अगर आप कार्यालय न जायें तो क्या न चलेगा”।

गम्भीर एवं संयत स्वर में तिलक ने उत्तर दिया -” सारा महाराष्ट्र ‘केसरी’ की प्रतीक्षा में बैठा है, तब कार्यालय न जाने से भला कैसे चलेगा?”

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