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Magazine - Year 1969 - Version 2

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महासर्पिणी कुण्डलिनी और उसका महासर्प

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वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर निकल आये हैं कि शरीर में विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्र स्थूल इन्द्रियाँ नहीं वरन् उनसे भी सूक्ष्म और संवेदनशील कोई स्थान शरीर में हैं, जिन्हें न तो यन्त्रों के द्वारा पकड़ा जा सकता है और न स्थूल आँखों से देखा जा सकता है तो भी अत्यन्त शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और अनेक रहस्यों से परिपूर्ण हैं।

विज्ञान जगत् में परमाणु शब्द आज बहुत प्रचलित हो रहा है और उसे अत्यन्त गूढ़ रहस्य की दृष्टि से देखा जा रहा है। परमाणु को अँगरेजी में एटम कहते हैं, यह ग्रीक भाषा से आया है, उसका अर्थ होता है, ऐसी वस्तु जिसका विभाजन न हो सके। कोई 50 वर्ष पूर्व तक परमाणु को पदार्थ की लघुतम इकाई माना जाता था, किन्तु जब वैज्ञानिकों ने परमाणु का भी विखंडन किया तो उन्हें 30 अन्य अत्यन्त सूक्ष्म इकाइयाँ समझ में आईं, यह प्रत्येक ईकाई बड़े ही रहस्यपूर्ण संस्थान माने गये हैं, उनमें किसी में तो सूर्य जैसी चमक है, किसी में पृथ्वी जैसी विशालता, जिसमें हजारों नदी, नद-झील और पर्वत हैं। उस अणु का आकाश ही इतना विस्तृत है कि वैज्ञानिक चकित रह गये, पदार्थ का न्यूक्लियस प्रोटोन और न्यूट्रान से बना है, शेष स्थान खाली है, जिसमें इलेक्ट्रान चक्कर लगाते हैं, इस चक्कर वाले स्थान का समानुपाती व्यास 2000 फुट है। यथार्थ व्यास तो अनन्त है, अर्थात् एक अणु में विराट् जगत् समाया हुआ है।

जो अणु में, विराट जगत में है, वही शरीर में है। ऊपर जिन सूक्ष्म संस्थानों की चर्चा कर आये हैं, वह एक एक लोक है, जो मेरुदण्ड के पोले भाग में अवस्थित हैं, इन्हें अँगरेजी में ‘एस्ट्रल” कहते हैं, यह सुषुम्ना नाड़ी से सम्बन्धित है। इस सुषुम्ना के ही पृष्ठ भाग से अनेक रेशे निकल कर शरीर और मस्तिष्क में फैल जाते हैं और स्पृश्, ताप, झनझनाहट आदि समाचार ले जाते हैं, उसी प्रकार काम करने की आज्ञा भी लाते हैं। इससे अधिक की जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं हो पाई।

शरीर में कुछ स्थान ऐसे भी हैं, जिनकी जानकारी हो जाने पर विराट् जगत के सन्देश और शक्तियों को उसी प्रकार खींचकर शरीर के विभिन्न अंकों तक पहुँचाया जा सकेगा, जिस प्रकार मस्तिष्क के सन्देश रेशों के माध्यम से शरीर के विभिन्न अवयवों तक पहुँचा देते हैं। इस क्रिया में मेरुदण्ड के पोले भाग में अवस्थित यह चक्र सहायता करते हैं, जिस तरह दूर-दूर रखे हुए दो वायरलैस सैट जब एक फ्रीक्वेंसी में जोड़ दिये जाते हैं तो सैकड़ों मील दूर बैठे हुए दो आदमी ऐसे बातचीत कर लेते हैं, जैसे कोई आमने-सामने बैठकर बातचीत कर रहा हो। कोई जान-पहचान का आदमी हो तो उसकी आवाज से ही जाना जा सकता है कि अमुक व्यक्ति बोल रहा है। इतनी सुन्दर और साफ पकड़ तो अब वैज्ञानिकों ने ही कर ली है।

परमाणु के इन लोकों को भगवान ने मनुष्य शरीर में बड़ी खूबसूरती के साथ स्थापित किया है, उनका अध्ययन करने के लिए यद्यपि साधनायें करनी पड़ती हैं पर भारतीय योगियों ने जो उपलब्धि की है, उससे यह पता चलता है कि इन साधनाओं से विराट जगत की हलचलों को वायरलैस से भी अधिक स्पष्ट सुना और टेलीविजन से भी अधिक अच्छी तरह देखा जा सकता है। यह लोक ब्रह्माण्ड स्थित लोकों की फ्रीक्वेंसियाँ है और उन्हें जोड़ने वाली या साधने वाली शक्ति का नाम ‘शेषनाग’ है, पौराणिक कथाओं में यह बताया जाता है कि शेष नाग पर पृथ्वी अवस्थित है या पृथ्वी को शेषनाग ने साध रखा है और शेषनाग की शैया में ही भगवान लेटे हुए हैं, विश्राम कर रहे हैं।

भगवान और पृथ्वी दोनों एक ही आधार पर होने का अर्थ वह जोड़ने वाली शक्ति या क्रिया ही है, जो पृथ्वीवासी निवासी को विराट ब्रह्माण्ड के साथ जोड़ती है। आगे जब शरीर की रचना और शेषनाग के रहस्य पर प्रकाश डालेंगे तो यह बात साफ समझ में आ जायेगी। अभी तक जो कहा गया है, उनमें से ध्यान रखने वाली बातें यह हैं कि मनुष्य शरीर को भगवान ने विराट ब्रह्माण्ड की एक परमाणु शक्ति के रूप में विकसित किया है, अर्थात् जिस प्रकार पदार्थ की सारी शक्तियाँ परमाणु में सन्निहित होती हैं, उसी प्रकार संसार में जो कुछ है, उसे शरीर में परमाणु रूप में स्थापित कर दिया गया है।

सात लोक (भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्) प्रसिद्ध हैं, यह ऊर्ध्वगामी लोक हैं, सात अधोगामी लोक भी हैं। इसके बाद आकाश गंगा में घूमने वाले जो भी नक्षत्र हैं, वह सब इस शरीर में बीज रूप से आ बैठे हैं, उनका चिन्तन, अध्ययन और स्मरण करने से इन लोकों की हलचलों का ही पता नहीं लगाया जा सकता वरन् उनसे पृथ्वी पर अब से हजारों वर्ष बाद तक पड़ने वाले प्रभाव को भी देखा जा सकता है। चार युग बाँटकर उनमें होने वाले क्रिया-कलापों को योगियों ने पहले ही लिखकर रख दिया था, वह आज अक्षरशः सत्य उतर रही हैं। अब तो हम भविष्य के सम्बन्ध में कहा करते हैं उनकी सत्यता को संसार शीघ्र ही स्वीकार करेगा।

इन सूक्ष्म लोकों के अवस्थान को चक्र कहते हैं। सात लोकों के सात चक्र हैं, इनका विवरण गायत्री महाविज्ञान प्रथम भाग में विस्तृत रूप से दिया गया है। पाठक जिन्हें जिज्ञासा हो उसे पढ़ सकते हैं। उन चक्रों में अंतिम चक्र मूलाधार है, जो मूत्रेन्द्रिय से दो अंगुल नीचे गुदा के समीप सीवन भाग में स्थित है। इसे पृथ्वी-लोक का प्रतिनिधि मानते हैं, मूलाधार में पहुँचा हुआ साधक पृथ्वी की सारी गतिविधियों का न केवल दर्शन और ज्ञान कर सकता है, वरन् वह पृथ्वी का स्वामी हो जाता है। सारी पृथ्वी उसके लिए गेंद की तरह हो जाती है, वह किसी भी स्थान, किसी भी स्थान के निवासी की सूक्ष्म से सूक्ष्म चित्त वृत्तियाँ इच्छाओं तक का पता कहीं भी बैठा हुआ लगा सकता है।

इसी तरह मस्तिष्क में शून्य चक्र हैं, इसे सहस्रार भी कहते हैं। यह शिर के ऊपर अवस्थित हैं। यह जगने पर बहुत प्रकाशमय रंगों की अति सुन्दरता युक्त अति वेग वाली गति का हो जाता है। इसमें गिनने पर 960 दल पाये गये हैं, इसके केन्द्र में 12 दलों का एक छोटा सा कमल है, उसमें चमकता हुआ श्वेत रंग है, जिसके भीतर सुनहला रंग समाया है। यह सत्य-लोक का प्रतिनिधि स्थान है और यह प्रकाश सत्य-लोक स्थिति भगवान का परमाणु बीज है। अर्थात् सहस्रार को जान लेने का अर्थ भगवान के दर्शन कर लेना है। यहाँ आकर आदमी की इच्छाएँ और वासनायें सब शांत हो जाती हैं, वह आनन्द स्वरूप हो जाता है। उसके लिए संसार में सब कुछ सत्य, शिव, और सुन्दर प्रतीत होने लगता है।

इन दो स्थानों के बीच में अन्य चक्रों का वर्णन नहीं कर रहे उनका यह कोई प्रयोजन नहीं है। इन दोनों चक्रों को लेने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य यह जान ले कि पृथ्वी निवासी के लिए अन्तिम पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधि मूलाधार और सत्य-लोक का सहस्रार दोनों को इसलिए जोड़ दिया गया है कि मनुष्य पृथ्वी को ही सब कुछ न समझें वरन् अपने मूल ब्रह्म को जानने की चेष्टा करें।

शेष भगवान उस कार्य में सहायता करते हैं, उनका ध्यान करने से विज्ञान बुद्धि जागृत होती हैं और भगवान के दर्शन होते हैं ऐसा कहा जाता है। आईये इस रहस्य को भी जान लें।

मेरुदण्ड के शीर्ष सत्य-लोक और मूलाधार दोनों को मेरुदण्ड के क्रमशः सबसे ऊपर और नीचे रखा गया है। मूलाधार से दो नाड़ियाँ-इड़ा और पिंगला - ऊपर की ओर उठती हैं, इनके मिलने से एक तीसरी नाड़ी सुषुम्ना बनती है। सुषुम्ना के भीतर भी एक त्रिवर्ग है। बज्रा और चित्रणी नाम की दो अत्यन्त सूक्ष्म धारायें बहती हैं। उनके योग से एक तीसरी ब्रह्म नाड़ी का प्रादुर्भाव होता है, यह सबसे सूक्ष्म प्रकाश पथ है। जो आकाश से पृथ्वी तक बहता रहता है। इसे ही जीवन कह सकते हैं, ब्रह्म नाड़ी मेरुदण्ड के अन्तिम भाग के समीप एक काले वर्ण के षट्कोण वाले परमाणु से लिपट कर बंध जाती है, इस परमाणु को कूर्म कहा गया है, उसकी आकृति कछुए जैसी है। इस कूर्म में ही आकर ब्रह्म नाड़ी तीन फेरे लगाकर लिपट गई है। इसलिये यह स्थान ऐसा लगता है जैसे कुण्डली मारे हुये कोई सर्प हो और उस पर कूर्म अर्थात् कछुआ और उसके ऊपर मूलाधार अर्थात् पृथ्वी टिकी हुई हो।

इसलिये पहली बात तो यह सिद्ध हुई कि शेषनाग पृथ्वी को साधे हुए हैं, यदि यह आधार कूर्म से अलग हो जाये तो मूलाधार चक्र अर्थात् मनुष्य के जीवन क्रम के नष्ट हो जाने में क्षण भर की भी देर न लगे, इसलिए यह कहा गया है कि शेष भगवान् पृथ्वी को साधे हुए हैं, यह कोई अत्युक्ति वर्णन नहीं है वरन् इस रचना का अलंकारिक वर्णन मात्र है।

यह हो गया पृथ्वी के शेषनाग पर टिके होने का रहस्य। अब शेष भगवान के हजार फनों का रहस्य समझने के लिए ऊपर चलिए और वहाँ पहुँचिये जहाँ ब्रह्म नाड़ी श्वेत दल कमल पर बैठे हुए प्रकाश ब्रह्म-मूल से मिलती है। ब्रह्मरंध्र में पहुँचकर यह ब्रह्मनाड़ी हजारों भागों में फैल जाता है। हर नाड़ी एक-एक दल में प्रविष्ट होकर सूक्ष्म लोकों के उन संस्थानों के सम्पर्क में आता है। यहाँ उनके रहस्यों को स्पष्ट करना हमारा प्रयोजन नहीं। केवल उस आकृति का बोध कराना चाहेंगे, जो नाड़ियों के फैलने से हजारों फनों की तरह लगती है। विष्णु भगवान की शैया शेष के सहस्र फनों पर होने का अलंकार इसी सहस्र दल कमल से लिया गया है।

यह चित्र अब डाक्टरों ने भी प्राप्त कर लिये हैं। मस्तिष्क को आड़ा दो भागों में विभाग करने पर उसके भीतरी सतह पर मस्तिष्क के एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र पर जाने वाले रेशों को देखा गया तो उनकी संख्या असंख्य दिखाई दी। यद्यपि उसके भीतरी प्रवाह को डाक्टर समझ नहीं सके पर अब वे भी यह विश्वास करने लगे हैं कि कई बार अज्ञात ढंग से स्वप्न या जागृत अवस्था में लोगों को जो सच्ची घटनायें दिखती या अनुभूति में आ जाती हैं, उनको ग्रहण करने वाली इन्हीं नाड़ियों में से कोई नाड़ी होती है। मस्तिष्क का वह भाग जहाँ से फनों की तरह हजारों नाड़ियाँ फैलती हैं, सेरीबेलम कहलाता है यहाँ एक पुरकुन्जी नामक कोश का पता डाक्टरों ने लगाया है। सम्भवतः यह वही स्थान है, जिसके भीतर बारह दलों वाले चक्र में भगवान विष्णु का प्रकाश स्वरूप अवस्थित है। ऊपरी जानकारी डाक्टरों को मिली है, भीतरी रहस्य केवल योगियों को ही प्राप्त है।

यदि इन कोषों का विस्तृत अध्ययन किया जा सका तो जीव के पूर्व जन्मों के सम्बन्ध की अनेक बातें मालूम की जा सकेंगी, साथ ही आरोग्य शास्त्र में भी एक क्राँतिकारी परिवर्तन लाया जा सकेगा। तब सम्भव है अज्ञात शक्तियों और तत्त्वों को खींचकर रोग ठीक करने का वह क्रम चल पड़े जिस तरह किन्हीं सिद्ध पुरुषों के द्वारा आशीर्वाद मात्र से लोग अच्छे हो जाते हैं।

शेषनाग के इस अलंकारिक चित्रण को केवल शरीर की ही एक प्रणाली नहीं माननी चाहिये वरन् यह एक विश्वव्यापी चेतना का भी अलंकारिक चित्रण है। ऊपर कह चुके हैं कि मनुष्य शरीर की सारी रचना विराट ब्रह्माण्ड की ही नकल है। तब फिर पृथ्वी को घेर कर कोई ऐसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति या वह पथ भी हो सकता है जो अनेक दूरवर्ती लोकों को मिलता हुआ ब्रह्मलोक तक पहुँचता हो, (ऐसे एक विराट लोक की जानकारी वैज्ञानिकों को हुई है, उनकी यह मान्यता है कि यह तारा बिलकुल काला है। यदि यह सत्य है तो उससे भी भुजंग शेषनाग के फनों में भगवान का शयन होना सत्य माना जायेगा।)

यदि अब किसी अन्य लोक से बैठ कर देखें जैसा कि योगियों ने सूक्ष्म दृष्टि से देखा तो सम्भव है, यह रचना ठीक ऐसी ही समझ में आये जैसा पुराणों में वर्णन मिलता है। यह निश्चित है कि आगे जो वैज्ञानिक खोजें होगी और जब दूसरे लोकों में पृथ्वीवासी पहुँचेंगे तो इन रहस्यों पर और भी विस्तृत प्रकाश पड़ेगा।

शेषनाग का तीसरा रहस्य सर्पाकार गति में जीवन का भ्रमण भी है। सर्प एक चैतन्य जीव है उस पर पृथ्वी के टिके होने और भगवान के शयन करने, दो रहस्यों का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। मनुष्य शरीर से विलग सर्प शरीर में जीवन की संज्ञा कुछ अटपटी सी लगती है पर हमें यह मालूम होना चाहिये कि जीवन के प्रत्येक हावभाव और गतिविधियाँ मानसिक स्थिति पर निर्भर करती हैं। मानसिक स्थिति इड़ा और पिंगला नाड़ियों की गति पर निर्भर है, जिस समय इड़ा अर्थात् चन्द्र नाड़ी चलती है, उस समय शांति, प्रेम, करुणा आदि उद्गार उठते हैं, इसलिए उस समय मनुष्य वैसे ही काम करने लगता है। पिंगला नाड़ी को गर्म नाड़ी भी कहते हैं, जिस समय साहस, शक्ति-प्रदर्शन क्रोध जैसे गर्म विचार उठते हैं, उस समय पिंगला का उत्तेजन होता है। इसलिए वैसे ही क्रिया-कलाप भी बन पड़ते हैं पर जब दोनों नाड़ियाँ समवेत चलती हैं और चेतना का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी हो जाता है, तब ईश्वर प्रेम, भक्ति, श्रद्धा भाव-विभोरता ऐसे भाव उमड़ते हैं।

इस स्थिति में यदि भावनायें निम्नगामी हो जाती हैं और कोई सम्भोग के लिए उतावला हो जाता है तो चेतना अधोमुखी हो जाती है पर आनन्द वैसे ही मिलता है, जिस तरह ईश्वर भक्ति में। अधः प्रवाह में शक्तियों का ह्रास होता है, इसलिए उसे अनावश्यक बताया गया है पर यहाँ यह निर्विवाद है कि जीवन की गतिविधियों का मूल इन्हीं नाड़ियों में स्थित है। यह नाड़ियाँ सर्प के समान लहराती हुई जाती हैं, सुषुम्ना नाड़ी बीच में गहरे नीले रंग की होती है, जैसी कि रेखा सर्प के पेट में बीच में होती है और ऊपर मगज में (मेडुला आवलांगेटा) में जाकर समाप्त हो जाती है, जहाँ से फन की आकृति बनती है। इसलिए बीच के भाग भी सर्प के शरीर से तुलना में फिट बैठ जाते हैं।

नाड़ियों के इस प्रवाह के साथ जीवन के सम्बन्ध को ‘जाबाल दर्शनोपनिषद् ’ में विस्तृत रूप से समझाया गया है और यह बताया गया है कि किस नाड़ी में कौन -सा देवता निवास करता है। उसका अर्थ यही है कि उस समय जो नाड़ी चल रही है उस देवता के गुणों का भी संचार हो रहा होगा। (नाड़ियों की इस रचना पर कभी विस्तृत प्रकाश डालेंगे) इसी उपनिषद् में 39 से लेकर 47 लोकों के प्रवाह की संगति बैठाते हुए शास्त्रकार ने बताया है कि-

विश्वोदराभिघायास्तु भगवान्यावकः पतिः इडायां चन्द्रमा नित्यं चरत्येव महापुने। 36-47,

इड़ा नाड़ी में चन्द्रमा और पिंगला में सूर्य नित्य प्रति संचरण करते हैं, पिंगला से इड़ा में जो संवत्सर से सम्बन्धित प्राणायाम सूर्य का संक्रमण होता है, उसे ही वेदान्त वेत्तागण उत्तरायण कहते हैं, इसी प्रकार इड़ा से पिंगला में सूर्य का संक्रमण होना दक्षिणायन कहा गया है। हे पुरुष श्रेष्ठ ( जब प्राण इड़ा और पिंगला की संधि में पहुँचता है। उस समय देह में ही अमावस्या कहते हैं। प्राण मूलाधार में प्रविष्ट होता है, तब तत्त्व-ज्ञानी महर्षियों ने अन्तिम विषुव योग में स्थित होना बताया है। सभी उद्वास और निःश्वास मास संक्राति माने गये हैं। इड़ा द्वारा जब प्राण कुण्डलिनी स्थान पर आ जाता है, तब चन्द्र ग्रहण का समय कहा जाता है, परन्तु जब पिंगला नाड़ी से प्राण कुण्डलिनी पर आता है, तब सूर्य ग्रहण का समय होता है।

यह गणित इतना सच्चा है कि प्राचीन समय में लोग बिना किसी गुणा-भाग के सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण की घोषणा कर दिया करते थे। यह सब इस जीवन तत्त्व के संचरण की गति के ज्ञान के कारण ही था।

शेषनाग भगवान का फणि, पृथ्वी का धारण और जीवन के मूल होने का रहस्य इन पंक्तियों में बताया गया है। सर्प में जिह्वा और होती है, जिह्वा का काम रसास्वादन करना होता है। शेषनाग की हजार फणि में हजारों जीभें हैं, जो बाहर और भीतर लपलपाती रहती हैं। सहस्रार के हजार दलों पर फैली हजारों नाड़ियों से चेतना भी, विश्व सौंदर्य का रसास्वादन करती है, अर्थात् जब मानसिक चेतना को ध्यानावस्थित कर (जैसा कि भगवान बुद्ध के चित्रों में दिखाया गया है।) बाह्य जगत से सम्बन्ध जोड़ते हैं तो संसार के सौंदर्य का आनन्द मिलता है पर उसे अन्तर्मुखी कर लेते हैं तो साधक यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है कि भीतर भी वही आनन्द भरा हुआ है। सहस्रार शक्तियों से विश्व-व्यापी हलचलों का भी पता चलता है और शरीर व्यापी शक्तियों का भी। सर्प के जीभ लपलपाने की यह क्रिया भी सर्प की गति से मेल खा जाती है।

इन्हीं सब तात्त्विक रहस्यों के लिए एक नाम चुना जाना था, वह ‘शेषनाग’ चुना गया जो पूर्ण वैज्ञानिक और सत्य है।

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