Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वर्ग का अधिकार
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कुछ थोड़ी-सी विशेषताएँ ऐसी होती हैं जिनके बिना समय तो कट सकता है, पर आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं। प्रगतिशीलों का पर्यवेक्षण करने पर उनमें कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ पाई हैं जिनने उन्हें सामान्य परिस्थितियों से घिरे होते हुए भी आगे बढ़ाया और आश्चर्यजनक उपलब्धियों का अधिकारी बनाया। जिनमें उनकी कमी रही वे सुविधा सम्पन्न होते हुए भी गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहे और उपलब्ध अवसरों को एक-एक करके चूकते चले गये।
ऐसी विशेषताओं में सर्वप्रथम है-जागरुकता। इसका अर्थ है अपनी हर गतिविधियों पर कड़ी निगाह, हर समय मुस्तैदी फुर्ती का होना। न वर्तमान को अधिक अच्छा बनाने के सम्बन्ध में लापरवाही बरती जाय और न भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाले साधनों के उपार्जन में शिथिलता अपनायी जाय। अपने भीतर भी अनेकों छिद्र हो सकते हैं। कार्य पद्धति को अधिक परिष्कृत करने के लिए बहुत कुछ सोचने, खोजने एवं सुधारने की आवश्यकता बनी रहती है। यह एक दिन का प्रसंग नहीं, आये दिन अच्छे से बेहतर, बेहतर से सर्वोत्तम की प्राप्ति के लिये प्रयत्नरत रहना होता है। इस प्रयास में जागरुकता की नितान्त आवश्यकता पड़ती है। सतर्कता ही, सुधार-परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाती है और उसी अवलम्बन के सहारे आगे बढ़ने का अवसर मिलता है।
दूसरी अनिवार्यता है परिश्रम और मनोयोग का उत्साह भरा समन्वय। जिसके स्वभाव में इनका समावेश हो जायेगा, उसके प्रयत्न उथले न होंगे। चंचल चित्त, अस्थिर मति किसी प्रसंग की गहराई में नहीं उतरते और उथले चिन्तन, उथले प्रयासों में बन पड़ने वाले छुटपुट क्रिया-कलापों को ही सब कुछ मान बैठते हैं। उतावले उतने होते हैं कि हाथों हाथ फल न मिले तो ऊबने लगते हैं। परिणामों की आतुरता में न कठोर परिश्रम ही करते बनता है और न तन्मयता भरा मनोयोग ही एकाग्र होता है। ऐसी दशा में वे लाभ किस प्रकार मिले जो अनवरत श्रम, उत्साह भरे मनोरोग एवं लम्बे समय तक टिके रहने वाले धैर्य की कीमत पर ही खरीदे जाते रहे हैं। इस मनोयोग को प्रकारान्तर से तल्लीनता की साधना भी कहा जा सकता है। जिस भी काम को हाथ में लिया जाय उसे मेहनत पूर्वक, पूरा मनोयोग लगाकर काम में रस लेते हुए जब सम्पादित किया जाने लगेगा तो जो परिणाम निकलेंगे उन्हें चमत्कारों की सत्ता दी जा सकती है।
तीसरी महत्वपूर्ण बात है उत्तरदायित्वों को समझना उन्हें निभाना। यह मनुष्य के भारी भरकम होने के चिन्ह हैं। व्यक्तित्व की प्रौढ़ता-परिपक्वता इसी आधार पर आँकी जाती है। किसी काम में हाथ डाल देना-कुछ भी घोषणा कर देना और किसी भी पद पर जा बैठना एक बात है और जो सम्भाला गया है, उसे पूरा कर दिखाना दूसरी। सफलता-असफलता में अन्य बातें उतनी बाधक नहीं होतीं जितनी कि लापरवाही और गैर जिम्मेदारी। कन्धे पर आये हुए उत्तरदायित्वों से इस या उस बहाने बचना बुरी बात है। जो उठाया गया है-उसे बहन भी करना चाहिए। काम को पूरा करना और खूबसूरती के साथ पूरा करना, यह मनुष्य की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। जो इसे समझते हैं और अपने प्रयासों में कमी नहीं आने देते, वे असफल रहने पर भी सफलों की श्रेणी में गिने जाते हैं। निन्दा असफलता की उतनी नहीं होती जितनी गैर जिम्मेदारी और लापरवाही की।
जोखिम उठाने का उत्साह रहना प्रगतिशीलता का अगला महत्वपूर्ण चिन्ह है। दौड़ने में ठोकर लगने और पिछड़ने पर भद्द पिटने का खतरा तो रहेगा ही। जो इसी पक्ष को बढ़ा-चढ़ा कर सोचते हैं उन पर हमेशा दब्बूपन, भय, संकोच ही चढ़ा रहता है फलतः यथा स्थिति ही उन्हें संतोषजनक लगती है। प्रगतिपथ न तो सरल है और न सुनिश्चित है, उसमें जोखिम भी है। इतने पर भी जिन्हें श्रेय की गरिमा से लगाव है वे खतरे उठाकर भी उस मार्ग पर चलते हैं। तैराक, पर्वतारोही, सरकस के कलाकार आये दिन खतरे उठाते और अपने पराक्रम का परिचय देते गौरवान्वित होते देखे गये हैं। इसी शौर्य साहस को जो जीवनोत्कर्ष की योजनाओं को पूर्ण करने में नियोजित करते हैं, उनकी प्रतिभा निखरती और गरिमा बढ़ती है, भले ही अभीष्ट सफलता में विलम्ब या व्यतिरेक ही क्यों न उत्पन्न होता रहे।
अगली प्रमुख अड़चन प्रगतिशीलता के मार्ग में है-प्रलोभनों, आकर्षणों और दबावों से विचलित हो उठना और सदुद्देश्य से पैर पीछे हटा लेना। महानता का मार्ग चुनने वालों के लिए यह अशोभनीय है। व्यापार में हानि लाभ को देखते हुए नई नीति अपनाने में हर्ज नहीं किन्तु जहाँ तक चरित्र का-सदुद्देश्यों में संलग्नता का प्रश्न है-वहाँ उस दुर्बलता की भर्त्सना ही की जायगी। प्रगतिशील ऐसी द्विविधा आने पर दृढ़ता का परिचय देते हैं और उस नीति को नहीं बदलते जो आदर्शों और सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। जीवट के नाम से इसी सत्प्रवृत्ति को सराहा जाता है।
सज्जनता और प्रगतिशीलता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दुराग्रही और उद्दण्ड भी डरा धमका कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। इतने पर भी उन्हें न साथियों का सम्मान मिल सकता है और न भावभरा सहयोग। इस अभाव में साधनों की सफलता तो मिल सकती है किन्तु वह प्रगतिशीलता हस्तगत नहीं होती जो व्यक्तित्व को गरिमा सम्पन्न बनाती और सर्वतोमुखी प्रतिभा उभारने में काम आती है। सद्भाव सम्पादन एक ऐसा लाभ हैं जिसे जितना उपार्जित किया जा सके उतना ही श्रेयस्कर है। उसके आधार पर न केवल सफलता का पथ प्रशस्त होता है वरन् गरिमा एवं क्षमता भी बढ़ती चली जाती है। इसके लिए कुछ अतिरिक्त रूप में सीखना नहीं पड़ता वरन् स्वभाव में विनय और व्यवहार में दूसरों के प्रति सम्मान का समावेश करने भर से काम चल जाता है। इतनी कम पूँजी में इतना अधिक लाभ उपार्जित करने का और कोई आधार नहीं है जितना कि सज्जनोचित व्यवहार के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।
सर्वतोमुखी प्रगति की यही रीति-नीति है। व्यक्तित्व निर्माण एक पुरुषार्थयुक्त कला-कौशल है। उपरोक्त सिद्धान्त तो शाश्वत है एवं प्रकारान्तर से कई रूपों में जनमानस उनसे अवगत भी है, पर इसे सही रूप में अपने ऊपर उतारने के लिए जो अध्यवसाय करना होता है, समय-समय पर आत्म समीक्षा करके अपने को ‘एलर्ट’ बनाना होता है। उसे अधिकाँश व्यक्ति भूल जाते हैं। अध्यात्म के इस पहले चरण ‘व्यक्तित्व निर्माण’ को सही ढंग से समझ कर अपने जीवन रथ को प्रगति पथ पर दौड़ा सकना सम्भव है।
एक छोटा-सा कुत्ता अपने पूरे वेग से गाड़ी के साथ दौड़ा जा रहा था। वह जी तोड़ दौड़ रहा था। हिजहाइनेस आगाखाँ का घोड़ा भी डर्नी की दौड़ में इससे तेज और क्या दौड़ता रहा होगा ?
तीन पल में वह पिछड़ गया। और अब वह धीरे-धीरे लौट कर फिर अपने मालिक के खाट के पास जा बैठा। रोज ही गाड़ी अपने पर उसके साथ दौड़ता है रोज हारता है, पर शर्म से डूब नहीं मरता, निर्लज्ज कहीं का ?
रोज-रोज की पराजय से जिसकी आँखों में समाया विजय का स्वप्न और पैरों में उमड़ा अभियान का संकल्प परास्त नहीं होता। वह कुत्ता हो या किसी राष्ट्र का सिपाही क्या एक प्रेरक चरित्र का संरक्षक नहीं है ?