
मुक्तोहमद्भुतात्माअहम्
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प्रत्यक्षवादियों की मान्यता है कि जिन चीजों का अस्तित्व है वे प्रत्यक्ष दिखायी पड़ती है। यही स्थूल कसौटी वे ईश्वर के लिए भी प्रयुक्त करते हैं तथा उस पर खरा नहीं उतरने पर वे उस परम सत्ता को मानने से इन्कार करते हैं। गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वरीय सत्ता का परिचय पाने के लिए बनाया गया यह माप दण्ड कितना उथला, अविवेकपूर्ण एवं अवैज्ञानिक है।
हर अस्तित्ववान चीज के मापदण्ड के लिए एक सुनिश्चित पैमाना होता है। यही पैमाने द्वारा ही दृश्य अथवा अदृश्य वस्तुओं का यथार्थ परिचय पा सकना सम्भव है। यदि निर्धारित पैमाना ही गलत सिद्ध हुआ तो भला सम्बन्धित वस्तु का सही विश्लेषण कर सकना कैसे सम्भव है। भार मालूम करने के लिए विभिन्न प्रकार के बाट प्रयोग किए जाते हैं। वस्तुओं की लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई गहराई मापने के लिए गज, फीट, मीटर जैसे मापदण्ड प्रयुक्त होते हैं। कोई वस्तु कितना स्थान घेरती है, यह उसका आयतन माना जाता है। वातावरण की सर्दी-गर्मी मनुष्य के शरीर का तापक्रम बैरोमीटर, थर्मामीटर जैसे यन्त्रों से ज्ञात होते हैं। समय-काल समापन के लिए दो विधियाँ प्रचलित है, एक पुरातन, दूसरी नवीन। पुरातन प्रक्रिया सूर्य की गति पर आधारित है जबकि नवीन मनुष्य कृत घड़ियों पर। गति मापक यन्त्रों द्वारा वस्तुओं की गति मालूम की जाती है। विद्युत चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, ध्वनि जैसी शक्ति को नापने के लिए विभिन्न प्रकार के यन्त्र प्रचलित है।
भौतिक वस्तुओं एवं शक्तियों का परिचय ठीक तरह प्राप्त कर सकना तभी सम्भव है जबकि निश्चित वस्तु अथवा शक्ति के लिए निर्धारित पैमाने का प्रयोग किया जाये। मापदण्ड के लिए चुना गया आधार ही गलत हो तो सम्बन्धित वस्तु की सही जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती। भार मापक यन्त्रों द्वारा वस्तुओं की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई अथवा गहराई मालूम करने के प्रयास से असफलता एवं निराशा ही हाथ लगेगी। लम्बाई, चौड़ाई मापने वाले मापक से भला वस्तुओं का भार कैसे निकाला जा सकता है ? थर्मामीटर से किसी चीज की गति मालूम की जाये तो इस प्रयास को उपहासास्पद ही कहा जायेगा। अभिप्राय यह है कि निश्चित जानकारी के लिए निर्धारित पैमाने का प्रयोग करने पर अभीष्ट प्रयोजन में सफलता मिलती है।
थोड़ा और आगे बढ़े तो ज्ञानेन्द्रियों का क्षेत्र सामने आता है जहाँ कि भौतिक यन्त्रों की पहुँच नहीं हैं रूप रगड़ स्पर्श तन्मात्रा की अनुभूतियाँ सचेतन इन्द्रियों को होती है। आंखें दृश्य देखती है। कान ध्वनियों को सुनते हैं। ज्ञानेन्द्रियों अच्छे-बुरे गन्ध की अनुभूति कराती है। जिह्वा स्वाद का बोध कराती है। त्वचा, शीत एवं गर्मी का अनुभव करती है। ज्ञानेन्द्रियों से होने वाली अनुभूतियां किसी यन्त्र के माध्यम से प्राप्त करना चाहें तो ऐसा सम्भव नहीं है। इस प्रकार का कोई भी वैज्ञानिक उपकरण अब तक नहीं बन सका है जिनसे ज्ञानेन्द्रियों का काम लिया जा सके। इन इन्द्रियों की भी भौतिक उपकरणों की भाँति सीमा एवं मर्यादा है। कान सुनने की भूमिका निभा सकते है--देखने अथवा बोलने की नहीं। नेत्र दृश्यों को देख सकते है--सुनने अथवा सूँघने की नहीं। घ्राणेंद्रिय द्वारा गंध के अतिरिक्त देखने अथवा बोलने के कार्य में असफलता ही हाथ लगेगी। अर्थात्् शरीर की ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी निर्धारित सीमा में निर्धारित भूमिका निभा पाने में ही सक्षम है।
थोड़ा और भी गहराई में चले तो सूक्ष्म जगत का क्षेत्र सामने आता है। विचारणा एवं भावना का। इनके स्वरूप एवं सामर्थ्य की जानकारी पूर्णतया प्राप्त कर सकना वैज्ञानिकों के लिए अभी सम्भव न हो सका है।
मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की नवीनतम जानकारियाँ भी अपनी बाल्यावस्था में है। मात्र इतना जाना जा सका है कि भौतिक शक्तियों की भाँति विचार एवं भाव भी एक शक्ति है जो मनुष्य को असामान्य रूप से प्रभावित करती है। तथ्य से परिचित होते हुए भी वैचारिक क्षमता एवं भाव शक्ति को नापने के लिए अब तक कोई यन्त्र आविष्कृत नहीं हो सका है। एक ही वातावरण में पले एवं एक ही माता-पिता के सन्तान होते हुए भी एक बच्चा मेधावी, सुसंस्कृत एवं महान बन जाता है। जबकि दूसरा दुष्ट प्रवृत्तियों में निरत होकर परिवार एवं समाज के लिए भारभूत सिद्ध होता है। मनोविज्ञान मूलभूत प्रवृत्तियों की प्रेरणा को कारण मानकर चुप हो जाता है। भली-बुरी प्रवृत्तियाँ क्यों उत्पन्न होती है ? एक व्यक्ति के मन में सद्मार्ग पर पर चलने की तथा दूसरे को दुष्कर्म करने की प्रेरणा क्यों उठती है, इसका रहस्योद्घाटन अभी भी सम्भव नहीं हो सका है। उनका स्वरूप सामर्थ्य की जानकारी के प्राप्त करने के लिए यदि वैज्ञानिक यंत्रों का सहारा लिया जाये तो यह कार्य असम्भव ही होगा। मन की सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम परतों की उधेड़-बुन करने, विचारों एवं भावनाओं के स्तर स्वरूप एवं सामर्थ्य समझने के लिए मनोविज्ञान को अभी और भी गहराई में प्रविष्ट करना होगा।
दृश्य एवं मनोजगत का परिचय प्राप्त करने के लिए निर्धारित पैमाना एक निश्चित सीमा मर्यादा के भीतर रहते हुए सीमित जानकारी देने के का प्रयोजन पूरा करना है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि बोध का क्षेत्र जितना इन्द्रियों के पकड़ में आता है वहीं तक सीमित है। ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित विषयों का भी एक बड़ा भाग जानकारी से अछूता रह जाता है । उदाहरणार्थ देखने-सुनने एवं अनुभव करने की एक निश्चित सीमा है। कान 10 से 20 हजार हर्ट्ज (ध्वनि तरंग नापने की ईकाई) के बीच की ध्वनि तरंगों को ही सुन पाते हैं। इससे ऊपर अथवा कम डेसीबल की ध्वनियाँ इन कानों से नहीं सुनी जा सकती है। जबकि हर क्षण ऐसी तीव्र ध्वनियां उठती है। जिनको हमारे कान नहीं पकड़ पाते। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह स्वयं 29 किलो मोटर प्रति सेकेंड की गति से भयंकर गर्जन-तर्जन करती हुई सूर्य की परिक्रमा के लिए दौड़ी चली जा रही है, पर उसकी गर्जना को हम कहाँ सुन पाते हैं। ऐसी अनेकों तीव्र एवं मन्द आवाज की ध्वनियाँ निरन्तर प्रवाहित हो रही है जिनकी कोई जानकारी हमें नहीं मिल पाती। यही बात दीखने गंध फैलाने वाली वस्तुओं के संदर्भ में लागू होती है। अर्थात्् दृश्य जगत एवं सम्बन्धित पदार्थों की सापेक्ष जानकारी मानव द्वारा निर्धारित पैमाने द्वारा प्राप्त हो पाती हैं। ये पैमाने भी सीमा का अतिक्रमण करने पर अपनी असमर्थ व्यक्त करने लगते हैं।
परमात्मा को रंग रूप, स्पर्श आकार से परे माना गया है। अध्यात्म का मूल प्रतिपादन है। कि वह कर्मेंद्रियों ज्ञानेन्द्रियों की ही नहीं बुद्धि की भी पकड़ सीमा से परे है। गीता कहती है।--
इन्द्रियाणि परामण्य्राहुरिन्द्रिभ्य पर मनः!
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्ध परतस्तु सः!!
इन्द्रियाँ शरीर से परे, इन्द्रियों से परे मन, मन से परे बुद्धि है और वह परमात्मा बुद्धि से भी परे हैं।
दृश्य एवं अदृश्य का बोध कराने वाले हमारे निर्धारित पैमाने एवं ज्ञानेन्द्रियाँ जब वस्तु जगत की ही पूरी जानकारी नहीं दे पाते तो भला उस परम सत्ता की जानकारी किस प्रकार दे सकते हैं ऋषियों ने पवित्र अन्तःकरण को ईश्वरीय अनुभूति का आधार माना है और यह कहा है कि उस विराट् सत्ता का अंश जीवा अनुभूति कर सकना हर किसी के लिए सम्भव है। अन्तः की निर्मलता, पवित्रता एवं समानता ही एकमात्र एवं अनुभूति सम्भव है।