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Magazine - Year 1972 - Version 2

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रक्त-परिवर्तन एक अद्भुत, किंतु आवश्यक प्रक्रिया

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थोड़ा-सा रक्तदान बड़े आपरेशनों के समय अक्सर दिया जाता है। शल्यक्रिया के समय इतना रक्त निकल जाता है कि शेष थोड़े खून से शरीर का काम नहीं चल पाता है। ऐसी दशा में, किसी अन्य व्यक्ति का रक्त रोगी के शरीर में चढ़ाना पड़ता है।

लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अशुद्ध रक्त को पूरी तरह निकाल दिया जाए, उसकी एक बूँद भी शेष न रहने दी जाए और उसके स्थान पर शुद्ध रक्त को पूरे शरीर में भर दिया जाए। ऐसी आवश्यकता शल्यक्रिया के अवसर पर नहीं, वरन तब पड़ती है जब पैतृक रक्त बच्चे के रक्त से तालमेल नहीं खाता। यह पारस्परिक संघर्ष यदि यथावत् चलने दिया जाए तो बच्चे का जीवन ही संकट में पड़ जाता है। इस स्थिति में, कुशल चिकित्सक यही उपाय करते हैं कि वंश-परंपरा से उपलब्ध रक्त को पूरी तरह निकालकर बालक की नाड़ियों में किसी स्वस्थ मनुष्य का ऐसा रक्त भर दें, जो उसकी प्रकृति के अनुरूप पड़ता हो। इस रक्त-परिवर्तन की क्रिया को चिकित्सकों की भाषा में—‘एक्सचेंज ब्लड ट्रांसफ्यूजंशन’ कहते हैं।

साधारणतया वंश-परंपरा के अनुरूप शिशु की रक्तसंरचना भी होती है, पर कभी-कभी इसका अपवाद भी देखा जाता है। ऐसा भी होता है कि पैतृक रक्त बालक के लिए जीवनदाता होने के स्थान पर प्राणघातक सिद्ध हो। जब ऐसा विग्रह होता है तो परंपरागत रक्त का मोह नहीं किया जाता; वरन उसके परित्याग के लिए बेझिझक कदम बढ़ाया जाता है।

‘जो पुराना सो अच्छा’, 'जो पुरखे दे गए हैं सो सही’— यह मान्यता विवेकसंगत नहीं, रूढ़िवादी है। लकीर का फकीर बने रहने से पुरातन मोह की कट्टरता भर सिद्ध होती है। ऐसे आग्रह को न उपयोगी कहा जा सकता है और न दूरदर्शितापूर्ण। ऐसा विग्रह उत्पन्न होने पर बुद्धिमान चिकित्सक और विवेकशील अभिभावक रक्त-परिवर्तन का ही समर्थन करते हैं।

चेतना-क्षेत्र में भी कई बार ऐसे विग्रह उत्पन्न होते रहते हैं। साधारणतया पैतृक परंपरा के अनुरूप ही बालकों की रुचि और प्रकृति होती है। कई बार सुसंस्कारी आत्माएँ ऐसे घरों में आ जाती हैं, जहाँ की अधोमुखी परंपराएँ उनके अनुकूल नहीं पड़तीं। यदि उसी स्थिति में रहकर आत्महनन करते रहने के लिए उन्हें विवश किया जाए तो एक प्रकार से उनकी आध्यात्मिक मृत्यु ही हो जाती है। यह स्थिति और भी अधिक दुखद है।

प्रहलाद ऐसे परिवार में जन्मे, जहाँ की परंपराएँ उनके प्रतिकूल पड़ीं। शंकराचार्य के अभिभावक उन्हें कुछ और भी देखना चाहते थे। जवाहरलाल नेहरू के माता-पिता उन्हें सत्याग्रही नहीं देखना चाहते थे। बुद्ध को उनके घरवाले विरक्त देखने के लिए तैयार न थे। नानक के पिता भी सहमत न थे। विभीषण के भाई को यह पसंद न था कि वह भक्त बनकर जिए। सदन कसाई और अजामिल की परंपराएँ परमार्थप्रेरक न थीं। घरवालों ने अंतिम समय तक प्रतिरोध किया और उन्हें परंपरागत मार्ग से पृथक न होने के लिए रोका। उच्च आत्माएँ यदि ऐसे तुच्छ स्वार्थों से प्रेरित परिवारी आग्रह को मान लें तो उनकी जन्म-जन्मांतरों की संग्रहीत महानता नष्ट हो जाएगी और उसी सड़ी कीचड़ में कीड़े की तरह बिलबिलाते हुए मरना पड़ेगा। ऐसी स्थिति स्वीकार करना एक प्रकार से श्रेष्ठ आत्माओं की जीवित ही मृत्यु कही जाएगी। इससे बचने के लिए उन्हें भी रक्त-परिवर्तन की चेतनात्मक प्रक्रिया का सहारा लेना पड़ता है। यह कार्य उठती उम्र में जितनी अच्छी तरह हो सकता है, बड़े हो जाने पर उन कुसंस्कारों की अभ्यस्त स्थिति में परिवर्तन कठिन ही पड़ता है।

छोटी उम्र में रक्त का बदल दिया जाना संभव है। जैसे-जैसे आयु बड़ी होती जाती है वैसे-वैसे यह कार्य कठिन होता जाता है।

माता के रक्त से कभी-कभी गर्भस्थ शिशु के रक्त में कुछ घातक तत्त्व मिल जाते हैं और वे शिशु के लाल रक्ताणुओं (रेड ब्लड सेल्स) को नष्ट करने लग जाते हैं। यदि यह प्रक्रिया कुछ समय चलती रहे तो बालक सूखकर काँटा होने लग जाएगा, पागल या विकलांग हो जाएगा  और यदि विनाश की गति तेज रही तो वह मर ही जाएगा। बाहरी कोई रोग न होने पर भी अंतर की यह प्रक्रिया इतनी घातक होती है कि बच्चे की जिंदगी दूभर कर दे। कई बार कई स्त्रियों की संतान होती और इसी प्रकार मरती रहती है। बाहर का तीर-तुक्का इलाज होता रहता है, पर भीतर के इस माता और शिशु के रक्त में चलने वाले संघर्ष का कुछ पता ही नहीं लगता।

इस विभीषिका का उपयुक्त इलाज यह है कि बालक का सारा रक्त निकाल दिया जाए और उसके स्थान पर स्वस्थ रक्त का प्रवेश करा दिया जाए। जो रक्त दिया जाए, उसमें समानता होनी चाहिए। मोटी आँख से देखने में सभी का रक्त लाल और पतला होता है, पर उनमें चार तरह के भेद पाए जाते हैं। चार वर्ण,चार आश्रम,चार दिशा और चार पुरुषार्थ की तरह रक्त के भी चार भेद हैं। अपने गुण-कर्म-स्वभाव का रक्त ही अपनी जाति वाले में ठीक ‘फिट’ बैठता है। भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में पटरी नहीं बैठती और न भिन्न वर्गों के रक्त आपस में घुलते-मिलते हैं। उलटे देवासुर संग्राम खड़ा कर देते हैं, इसलिए किसी के शरीर में रक्त चढ़ाया जाना हो तो यह प्रबंध करते हैं कि समान जाति का रक्त मिल जाए।

रक्त की इस जाति-विभाजन के आविष्कारक हैं— विज्ञानी 'लैंड स्टीनर'। उन्होंने अपने प्रयोगों में यह पाया कि लाल रक्ताणुओं में कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं, जो ‘सीरम’ के कुछ तत्त्वों से प्रतिघाती समानता करते हैं। इस वर्ग के रक्ताणु ‘एग्ल्युटिनो जींस’ कहलाते हैं और ऐसे सीरम को ‘एग्ल्यूटिनिंस’ कहते हैं। खून में से लाल रक्त कणों को पृथक कर लिया जाए तो बचा हुआ हिस्सा ‘सीरम’ कहा जाएगा।

रक्त की चार जातियाँ हैं। डाॅक्टरों की भाषा में उनके नाम हैं— (1) अ, (2) ब, (3) अ-ब, और (4)ओ। 'अ' वर्ग में किसी एक प्रकार के हानिकारक ‘एग्ल्यूटिनो जींस’ का असर होता है। 'ब' वर्ग में दूसरे प्रकार वालों का। 'अ-ब' में दोनों प्रकार के असर होते हैं और ‘ओ’ वर्ग में किसी प्रकार का असर नहीं होता। इसी प्रकार 'अ' और' 'ब' वर्ग के सीरम में ‘एग्ल्यूटिनिंग‘ रहता है। ‘अ-ब’ वर्ग में किसी प्रकार का नहीं और 'ओ' वर्ग में दोनों प्रकार का रहता है। एक ही प्रकार के एग्ल्युटिनिस वर्ग में उसी प्रकार के एग्ल्युटिनो जींस की समानता रहती है। यदि शरीर में प्रतिद्वंद्वी प्रकार का ‘एग्ल्यूटिनिन’ होगा तो रक्त नहीं होगा, किंतु यदि विपरीत स्थिति हुई तो प्रतिक्रिया होगी और हानि पहुँचेगी।

इसी आधार पर रक्त के दो समूह बने— (1) रीसस पाजेटिव और (2) रीसस नेगेटिव। यदि गर्भावस्था में भ्रूण और माता के रक्त का तालमेल न बैठा तो प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी और बालक के लिए संकट खड़ा हो जाएगा।

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है। भ्रूण केवल माता की ही प्रतिकृति नहीं है, उसमें पिता के जींस भी माता के जींस की तरह मिश्रित हैं। फलतः किसी एक से कुछ मिलता-जुलता होने पर भी उस मिश्रण के आधार पर शिशु का सारा ढाँचा अलग से ही बनता है। वह पूर्णतया माता या पिता किसी से भी नहीं मिलता। यद्यपि दोनों की विशेषताएँ भी उसमें मौजूद रहती है। रक्त के बारे में भी यही बात है। बालक का रक्त माता से भिन्न ही नहीं, प्रतिरोधी भी हो सकता है और उसका सम्मिश्रण घातक परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। ऐसी ही गड़बड़ी को डॉक्टर लोग ‘विलिरुवित’ कहते हैं। जब यह स्थिति हो तो रक्त-परिवर्तन—एक्सचेंज ब्लड ट्रांसफ्यूजन ही कारगर उपाय रह जाता है।

उच्च आत्माओं के उपयुक्त शुद्ध रक्त— तपस्वी तत्त्वज्ञानी और महापुरुषों का होता है। यह नसों में बहने वाले लाल पानी की बात नहीं, अंतःकरण की चैतन्यभाव कलिकाओं में बहने वाले उल्लास की है। किन्हीं में यह बहुत प्रखर होता है, किंतु उनकी पैतृक परंपराएँ ओछे और घटिया स्तर का जीवन जीने की— स्वार्थी और संकीर्ण रीति-नीति अपनाए रहने की होती हैं। वे उसी के अभ्यस्त होते हैं। उच्चसंस्कारी आत्माएँ उस स्थिति में रहकर अंतर्द्वंद्व में फँस जाती हैं। उनके दोनों ही द्वार रुक जाते हैं। पैतृक निकृष्टता उनकी आत्मा स्वीकार नहीं करती। जो अंतरात्मा चाहती है, उसे पारिवारिक बंधन सफल नहीं होने देते। इस संघर्ष में वे कुंठाग्रस्त आत्माएँ घुट-घुटकर बेमौत मरती हैं और जीवन के हर क्षेत्र में असफल रहती हैं।

पैतृक न होकर कई बार अपने कुसंस्कार भी इतने प्रबल होते हैं कि आत्मा की उच्च आकांक्षाओं को फलवती होने में पग-पग पर अवरोध उत्पन्न करते रहते हैं। भावना उठती है कि मनुष्य जीवन के सुरदुर्लभ अवसर का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिए, जिससे भविष्य उज्ज्वल हो और दूसरों को अनुकरण का प्रकाश मिले। यह आकांक्षा निरंतर उठती रहती है, पर जब कुछ कदम बढ़ाने का अवसर आता है तो लोभ, मोह, संकोच, डर आदि कितने ही कारण इकट्ठे होकर मार्ग रोक देते हैं। ऐसी दुर्बल मनोभूमि में भी यदि बाहरी रक्त मिल जाए, किसी महामानव का संपर्क अथवा अनुग्रह सध जाए तो ऐसे साहसपूर्ण कदम उठाने की शक्ति मिल जाती है, जिसके आधार पर अंधकार को प्रकाश में बदला जा सके।

पारिवारिक अवरोध एवं स्वभावजन्य दुर्बलता की विपन्न आंतरिक जटिल परिस्थिति में बाहर का रक्त मिलना ही आवश्यक है। रक्त-परिवर्तन का उपचार ही अभीष्ट है। महामानवों का स्नेह-मार्गदर्शन ही नहीं, उनका शक्ति-अनुदान भी जब मिलता है, तब नया रक्त मिलने पर वह प्रयोजन पूरा होता है। नारद जी ने बाल्मीक, प्रह्लाद, पार्वती, सावित्री आदि कितनों का ही रक्त-परिवर्तन कर दिया। ऐसा सुयोग जिन सुसंस्कारी आत्माओं को मिल जाए, उन्हें सौभाग्यशाली ही कहना चाहिए।


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