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Magazine - Year 1972 - Version 2

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असली और नकली चमत्कारों का अंतर समझें

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मनुष्य की आत्मशक्ति का अंत नहीं है। ईश्वर की समस्त शक्तियाँ और विशेषताएँ उसके अंश अथवा पुत्र समझे जाने वाले मनुष्य में बीजरूप से विद्यमान हैं। वह चाहे तो उन्हें विकसित कर सकता है और ईश्वर की हर कृति में, जो उसका अद्भुत चमत्कार दीख पड़ता है, उसी प्रकार उसके कर्तृत्व भी एक से एक बढ़कर सराहनीय, अभिनंदनीय और अनुकरणीय हो सकते हैं।

ऋषि, योगी, तपस्वी, ज्ञानी, सिद्धपुरुष और महामानव इसी चमत्कारी स्तर के हुए हैं। उनका जीवनक्रम इतनी उच्चकोटि का रहा है कि उसे सामान्य नर-पशुओं की तुलना में उच्चकोटि का कह सकते हैं। उनने मानव जाति के लिए जो त्याग और बलिदान किए हैं और अनुदान छोड़े हैं, उसका स्मरण करके उनके देवोपम अस्तित्व के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। आदर्शवादिता अपनाए रहने एवं कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए भी उत्कृष्टता की राह पर अड़े रहने को एक चमत्कार ही कह सकते हैं। बुद्ध, महावीर, गाँधी, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद आदि महामानवों को चमत्कारी सिद्धपुरुष ही कहा जाएगा। उच्चस्तरीय महापुरुषों के कर्तृत्व के पीछे उच्चस्तरीय परंपराएँ ही सन्निहित रहती हैं।

असल की नकल बनाने में कुशल इस दुनिया में बहुत हैं। नकली दाँत, नकली आँख, नकली घी, नकली हीरा, नकली सोना, जो चाहिए सो मिल जाएगा। असली चीज महँगी और कष्टसाध्य होती है, पर नकल आसानी से उतारी जा सकती है। असली गाय आठ सौ रुपए की आती है, पर मिट्टी की गाय दस पैसे की मिल जाती है। बालबुद्धि के लोग अक्सर सस्ते से ही मन बहलाना चाहते हैं। इस मानवी दुर्बलता को चतुर लोग जानते हैं और नकली चीजों से बाजार पाट देते हैं, वे बिकती भी खूब हैं।

नकली अध्यात्म भी बहुत फैला पड़ा है। असली हीरे जितने बिकते हैं, उससे हजारों गुने अधिक नकली बिकते हैं। असली आत्मबल कठिनाई से संचित होता है, उसके लिए संयम, तप-साधना और व्यक्ति का समग्र निर्माण जैसे कठिन मार्ग पर चलना पड़ता है। चतुर लोग इस झंझट में पड़कर अपनी विलासी और महत्त्वाकांक्षी प्रवृत्ति कैसे छोड़ सकते हैं? वे नकलीपन का आश्रय लेते हैं। ऐसे संत-महात्मा और सिद्धयोगियों की कमी नहीं, जो हाथ ऊपर करके आसमान में से इलायची मँगाते और भक्त और दर्शकों को खिलाते हैं। यह जादूगरों द्वारा रुपया बनाने जैसे खेलों की भोंड़ी नकल है। संत का बाना पहने होने के कारण लोग उन्हें बाजीगर नहीं मानते, उस अचंभे जैसी बाजीगरी को सिद्धि या चमत्कार मान लेते हैं और उन धूर्तों द्वारा बेतरह ठगे जाते हैं।

यदि लोग थोड़ी समझदारी से काम लें तो वह इस तथ्य पर विचार कर सकते हैं कि इस प्रकार चमत्कार दिखाने की इन्हें फुरसत कैसे मिली और आवश्यकता क्या प्रतीत हुई? जिनमें आत्मबल होता है, वे उसके महत्त्व को समझते और उसका भोंड़ा प्रदर्शन नहीं करते। नोटों की गड्डी और जेवर, जवाहरातों की पोटली कोई बाजार में उछालता नहीं फिरता और न यह ढोल पीटता है कि लोगों! आओ, देखो मेरे पास कितनी दौलत है। संपन्न व्यक्ति अपने धन को सुरक्षित रखते हैं और उसे मजबूत तिजोरी में रखते हैं। अविश्वस्त व्यक्तियों को उसका विवरण भी नहीं बताते। पूछने पर चुप हो जाते हैं या टाल देते हैं। कारण स्पष्ट है— बहुमूल्य उपलब्धियाँ यदि खुली पड़ी रहें तो उनके खोने अथवा चोरी जाने का पूरा खतरा है। वास्तविक आत्मबलसंपन्न न कभी अपना विज्ञापन कर सकते हैं और न चमत्कारों का प्रदर्शन। वे उसे केवल आत्मकल्याण और लोकमंगल जैसे महान प्रयोजनों में ही प्रयुक्त कर रहे हैं।

जहाँ अलौकिक चमत्कारों का विज्ञापन और प्रदर्शन किया जा रहा है, वहाँ पूरा खतरा है। यह हर समझदार आदमी को जान लेना चाहिए। ऐसे प्रसंगों में ढोंग, चालाकी और हाथ की सफाई के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। जो इनके फेर में पड़ेगा, वह बुरी तरह पछताएगा। चमत्कारी लोगों के वेश में अक्सर ठग और जेबकट ही इस प्रकार के प्रदर्शन करते हैं।

बाजीगरी में अपेक्षाकृत ईमानदारी है। वे संत या बाबाओं की तरह अनैतिक प्रतिपादन नहीं करते। वे अपनी चतुरता का ही दावा करते हैं और हाथ की सफाई की बात कहकर अपना गुजारा करते हैं। यह मनोरंजक व्यवसाय है। जादूगर को ‘चतुर’ भर कहा जा सकता है, उसे ठग कहने की गुंजाइश नहीं है। जहाँ कोई अपनी अलौकिकता की बात करे, समझना चाहिए कि यहीं ठगी आरंभ हो गई।

यद्यपि आमतौर से जादूगर अपने कार्यों में चतुराई भर होने की बात स्पष्ट कर देते हैं, पर लोग उनके खेलों के पीछे कोई अलौकिकता, सिद्धि या चमत्कार होने की बात सोचते रहते हैं। जब तक बात प्रकट नहीं होती तब तक ऐसी ही रहस्यवादी चर्चाएँ होती रहती हैं और लोग आश्चर्य अनुभव करते रहते हैं। कई बार कुछ गलती हो जाने से उनकी चतुरता का भेद खुल भी जाता है। कई बार खतरनाक खेलो में उन्हें भारी संकट सहना पड़ता है। तब कहीं लोग असलियत समझते हैं और अनुभव करते हैं कि सिद्धियों की बात निरर्थक है। जहाँ सिद्धि है, वहाँ प्रदर्शन पर कठोर प्रतिबंध रहता है। जहाँ बाजीगरी है, वहाँ चालाकी भर है। बुद्धिभ्रम उत्पन्न कर देने का नाम ही जादू है। जो इस तथ्य को समझते हैं, वे चमत्कारों की बात से ही अपने मन को विरत कर लेते हैं। उन्हें विवेक की कसौटी पर असली और नकली वाली सिद्धि में भेद करना कुछ भी कठिन प्रतीत नहीं होता।

जादू के चमत्कारों की पोल खोलने वाली कुछ घटनाएँ इस प्रकार है—

सन् 1918 की बात है। उन दिनों चीनी जादूगर ‘चुँग लिंग शू’ की सारे इंग्लैंड में धूम थी। वह ऐसे अद्भुत जादू के खेल दिखाता था कि एक ही प्रकार के खेलों को देखने के लिए दर्शक बार-बार आने का लोभसंवरण न कर पाते थे। उसके खेल वस्तुतः ऐसे ही थे।

चुँग अपनी पत्नी को एक विशाल समुद्री सीप के मुँह में धकेलकर उसे बंद कर देता। खोलने पर वह गायब हो जाती और फिर दर्शकों की गैलरी में हँसती हुई प्रकट होती थी। इसी प्रकार वह स्टेज पर एक बड़ी तोप मँगाकर उसमें अपनी पत्नी को ठूँस देता था। नीचे बारूद, ऊपर लोहे का गोला और बीच में चुँग की पत्नी सुई सीन।, तोप चलती, पर गोला दूर न जाकर स्टेज पर ही लौट आता और सुई अन्यत्र प्रकट होती थी।

बंदूक की गोली चलाई जाती, जो सुई की छाती को चीरती हुई पार निकलती और सुई मर जाती। पीछे वह फिर जी उठती थी। 

काँटा-बाँशी लेकर वह हवा में से जीवित मछलियाँ पकड़कर दिखाता। इसी तरह उसका एक खेल था— छाती पर चीनी की प्लेट रखना और उस पर बंदूक की गोली रोकना।

23 मार्च 1918 की रात को वह यही प्लेट पर गोली रोकने का खेल दिखा रहा था कि गोलियाँ उसके सीने में पार निकल गईं और वह स्टेज पर ही ढेर हो गया।

भूतों के करिश्मे दिखाने में पारंगत अमेरिकी जादूगर राबिनसन ऐसे करतब दिखाता था, जिनमें भूतों के अस्तित्व और क्रियाकलाप को प्रत्यक्ष देखा जा सके। अंत में वह बता भी देता था कि यह विशुद्ध बाजीगरी है और उसके खेलों का असली भूतों से तनिक भी संबंध नहीं है।

पेरिस में जादूगर ‘चिंग लिंग फू’ का प्रसिद्ध खेल था— शून्य आकाश में से पानी का भरा घड़ा उत्पन्न करना तथा पक्षियों को पकड़ना। वस्तुतः घड़ा उसकी लंबाई में पीछे की ओर छिपा रहता था और उसी में पक्षी भी दबे रहते थे। उस दिन गलती से घड़ा फूट गया और भीगे हुए पक्षी बेतरह चिल्लाने लगे। जादूगर की खिल्ली उड़ गई। खेल कई दिन चलने का प्रोग्राम था, पर हाल के मैनेजर ने उसे दूसरे ही दिन भगा दिया।

30 अक्टूबर 1966 के ‘धर्मयुग‘ में श्री तिलकचंद श्रीवास्तव का एक विवरण छपा है। वे एक बार अपने गाँव गए तो वहाँ देखा कि दूरस्थ पीपल के पेड़ पर से आग के अंगारे झर रहे हैं और सारा गाँव उसे भूत-प्रेतों की करतूत समझकर भय और आश्चर्य से उस दृश्य को देख रहा है।

इस कौतूहल को गाँव में बाहर से आए हुए एक हट्टे-कट्टे अतिथि ने आश्चर्यजनक ढंग से भंग कर दिया। वे सज्जन इस तरह की घटनाओं के पीछे प्रेतविद्या के नाम पर उल्लू सीधा करने वाले ओझाओं की करतूत से परिचित थे। वे टार्च हाथ में लेकर उस पेड़ के पास जाकर निर्भयतापुर्वक ऊपर चढ़ गए और आग बरसाने वाले भूत को पकड़कर साथ ले आए।

किया यह गया था कि डेढ़ फीट लंबी तथा दो इंच चौड़ी कपड़े की एक पतली थैली बनाई गई थी। उसमें एक तह बालू की और एक तह लकड़ी के बुरादे की जमाकर भर दी गई थी। उसे मिट्टी के तेल में भिगोया गया था और थैली के निचले सिरे में आग लगाकर उसे पेड़ की ऊँची डाली पर टाँग दिया गया था। मिट्टी के तेल में डूबा हुआ बुरादा जलता और नीचे गिरता। बालू के परत कुछ देर के लिए उस अग्नि-वर्षा को रोक देते और जैसे ही बालू नीचे गिर जाती फिर बुरादे का परत नीचे गिरने लगता और अग्नि-वर्षा दिखाई पड़ती।

लोगों ने इस करतूत को भली प्रकार देखा और समझा कि प्रेतविद्या के नाम पर लोगों को डराने और पैसा ऐंठने वाले लोग भोले लोगों को किस प्रकार भ्रम में डालकर अपना व्यवसाय चलाते हैं।

जादूगर डेविड डेवांट की उन दिनों इंग्लैंड में बहुत ख्याति थी। रुपये बनाने वाले जादूगर के रूप में उसे बच्चा-बच्चा जानता था। जब वह खेल दिखाता तो देखने वाले हैरत में रह जाते। हवा में हाथ मारता और रुपया पकड़ लेता। इस तरह वह डिब्बे भर-भरकर रुपये बनाता और देखने वालों को स्तब्ध कर देता।

एक दिन डेवांट कहीं चले जा रहे थे। रास्ते में अकेले पाकर उन्हें एक हट्टे-कट्टे आदमी ने पकड़ लिया और कहा— "आजकल मैं बहुत तंगी में हूँ। मेरी टोपी रुपयों से भर दीजिए; इतने से ही मेरा काम चल जाएगा।"

डेवांट ने उसे टालने-बहलाने की कोशिश की, पर वह तो अड़ ही गया और मरने-मारने पर उतारू हो गया। उस मुस्टंडे ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि, "यदि रुपये न दिए गए तो उनकी जान ही चली जाएगी।" 

जादूगर महोदय सिटपिटाए। उनने यह कभी सोचा तक न था कि वह कला कभी उनके लिए इस प्रकार प्राणघातक भी बन सकती है। कुछ सूझ न पड़ रहा था कि क्या किया जाए? उनकी जेब में सिर्फ छः शिलिंग थे। एक शिलिंग बनाकर देते और फिर उसे बातों में उलझा देते। इस प्रकार उनने पाँच शिलिंग बनाकर दे दिए। एक ही बचा था, वे इस ताक-झाँक में थे कि उधर से कोई मुसाफिर आ निकले तो उसकी सहायता से अपने प्राण बचाएँ। छठा शिलिंग बनाकर देने को ही थे कि उधर से राहगीरों का एक जत्था आ गया। मालूम पड़ा कि वे घर से भागे हुए इसी विक्षिप्त को खोज रहे थे। वे उसे पकड़कर ले गए और इस प्रकार डेवांट की जान जाते-जाते बची।

फ्रांसीसी जादूगर ‘वूय तिये दे कोलता’ ने कपड़े से ढँककर वस्तुएँ गायब करने का जादू चलाया था। उसी विधि को अंग्रेज जादूगर चार्ल्स कारट्राम ने विकसित किया। वे भरी सभा में कपड़े से ढँककर एक समूची महिला को गायब कर देते थे।

डेविड ने भी यही कला सीखी। एक दिन वे महिला उड़ाने का खेल दिखा चुके तो उनके घर एक व्यक्ति आया और कान के पास मुँह ले जाकर बोला— "आप मेरी बताई एक महिला को इस तरह उड़ा दीजिए कि वह फिर कभी प्रकट न हो। आपको मुँह-माँगी फीस दूँगा।" डेविड ने मुसकराते हुए कहा— "मेरा जादू उड़ाने भर में समर्थ है। उड़ाई हुई महिला को वापिस न आने की गारंटी नहीं कर सकता, पर आप बताइए कि आखिर वह महिला कौन है?" उस व्यक्ति ने गंभीर स्वर में दीनता प्रकट करते हुए कहा— "वह है मेरी अक्खड़ सास, जो मुझे आए दिन सताती है और तरह-तरह की धमकी देती है।"

जादूगर जहाँ अपनी चतुरता से लोगों को चकित करके वाहवाही लूटने तथा धन कमाने का लाभ प्राप्त करते हैं, वहाँ कई बार उनकी यह चतुरता खतरनाक खेल दिखाते समय उनके लिए जीवन-संकट भी उत्पन्न कर देती है। बंदूक से चली हुई गोली पकड़ने का खेल ऐसा ही है, जिसे दिखाने के उत्साह में कई बाजीगरों को जान से हाथ धोना पड़ा है।

सन् 1785 में जादूगर फिलिप यस्टली की एक पुस्तक प्रकाशित हुई— ‘नेचुरल मैजिक’। इसमें उनने गोली चलने पर भी मृत्यु न होने के प्रयोग का वर्णन किया है। उन दिनों लोग शत्रुता होने पर एकदूसरे को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारते थे और जो चुनौती स्वीकार न करे, उसे कायर मानते थे। किसी प्रसंग पर दो सैनिकों ने ऐसे ही द्वन्द्वयुद्ध की परस्पर चुनौती दे डाली। उसे रोका तो नहीं जा सका, पर उपरोक्त जादूगर ने वह चतुरता बरती, जिससे एकदूसरे पर गोली दाग देने पर भी किसी की मृत्यु नहीं हुई। हुआ यह था कि गोली भरते समय जादूगर उपस्थित था और उसने असली गोलियों की जगह नकली गोलियाँ बदल दी। वे ही बंदूकों में भरी गई और आवाज मात्र होकर बात समाप्त हो गई, कोई मरा नहीं। तब से यह खेल दूसरे जादूगरों ने भी अपनाया। उससे जहाँ बहुतों ने बहुत धन और यश कमाया, वहाँ कइयों ने अपनी जान भी गँवाई।

रामस्वामी संप्रदाय के एक भारतीय जादूगर ने योगविद्या के नाम पर लंदन में इस खेल से धूम मचा दी। सन् 1818 में वे डबलिन (आयरलैंड) में यह खेल दिखाने गए। दाँत से छूटी हुई बंदूक की गोली पकड़ने वाला जादू यहाँ असफल रहा और जादूगर की स्टेज पर ही मृत्यु हो गई। नकली गोली पकड़ने के स्थान पर असली गोली का उपयोग हो जाने से यह दुर्घटना घटी।

पोलैंड के जादूगर देलिंस्की ने यह खेल आर्चस्टाउट के युवराज के राजदरबार में दिखाने का आयोजन किया। इसमें सफलता प्राप्त करने पर उन्हें बहुत धन और सम्मान मिलने वाला था। जादूगर की पत्नी मदाम लिंस्की को स्टेज पर खड़ा होना था। युवराज के छः अंगरक्षकों को एक साथ उन पर गोली चलानी थी। मदाम को यह छहों गोलियाँ हाथ से पकड़कर दिखानी थीं। यहाँ भी नकली कारतूसों की जगह एक कारतूस असली ही चढ़ गया और उसने उस सुकोमल महिला की रंगमंच पर ही जान ले ली।

फ्रांसीसी जादूगर रवेयार उदयाँ को स्ट्रास वर्ग नगर के एक कलामंच पर अपना जादू दिखाना था। लड़का जिडमानि एक सेब दाँतों के बीच दबाकर रखता था। सामने से पिस्तौल की गोली चलती थी और वह सेब के बीच में ही अटकी रह जाती थी। धातुओं के चूरे से बनी गोली देखने में असली जैसी लगती थी, पर वह चूरा पिस्तौल दागते ही इधर-उधर बिखर जाता था और सेब में पहले से ही ठूँसी हुई गोली निकालकर दिखा दी जाती थी। यहाँ भी वही भूल हो गई और नकली-असली का अंतर उस झमेले में विस्मृत हो गया। लड़का आर्त्तनाद के साथ गोली खाकर गिर पड़ा और एक-दो बार छटपटाकर वहीं ढेर हो गया। अपने ही पुत्र की मृत्यु का कारण बनने में जादूगर को कितनी मार्मिक वेदना हुई होगी, इसका उल्लेख शब्दों में नहीं हो सकता।

कलकत्ता के जादूगर राजा बोस को एक दिन हरीसन रोड पर एक ऐसे ही चमत्कारी से पाला पड़ गया जो साधु के वेश में रहता था और करिश्मे दिखाकर लोगों को ठगता था। साधु ने बोस को कोई खाता-पीता नागरिक समझा, इसलिए उसे रोका और कहा— "बेटा! लो सिगरेट पीते जाओ। यह कहकर उसने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और सिगरेट निकालकर दे दी। इसके बाद कुछ और दूसरी चीजें भी दाढ़ी में से निकालकर दीं। बोस कुछ देर तो चुप रहे। पीछे उनने भी साधु के विभिन्न अंगों में से कितने ही पैसे निकालकर उसे दे दिए और जितना सामान साधु ने दिया था, उसका मूल्य चुका दिया। साधु झेंपता हुआ एक ओर चला गया।

सिद्धि और चमत्कारों के पीछे दौड़ने वालों की आँखें उपरोक्त उदाहरणों से खुल जानी चाहिए। बुद्धिमत्ता का एक ही निष्कर्ष है कि मनुष्य की आंतरिक महानता ही उसकी चमत्कारिता है। जो ईश्वर के मार्ग पर चलता है और उसके जैसा बनता है। वही ईश्वरोपम गरिमा का अधिकारी बनता है। यदि चमत्कारों की बात में कुछ तथ्य है तो इतना ही है।


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