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हे भिक्षुओं, जब तक तुम संयमी रहोगे, मित्र भाव रखोगे, मिल बाँटकर खाओगे सत्य और धर्म पर दृढ़ रहोगे तब तक असीम विपत्तियाँ आने पर भी तुम्हारी पराजय नहीं होगी। - बुद्ध
कानून पत्थर की लकीर नहीं है। क्रिया के बदले क्रिया प्रस्तुत कर देना न्याय की विडम्बना भर है, कोई समय था जब चोरी करने वाले के हाथ काट लिये जाते थे, राजद्रोह में मृत्यु दंड दिया जाता था। व्यभिचारी की आँखें फोड़ दी जाती थीं। खून का बदला खून के रूप में लिया जाता था। कोणे मार कर चमड़ी उखाड़ देने से लेकर मल द्वार में कील ठूँसकर, कुत्तों से माँस नुचवाने की, तड़पा-तड़पा कर देर में मारने वाली नृशंस दण्ड प्रक्रियाओं का प्रचलन था। शासन के अतिरिक्त व्यक्ति भी अपना बदला चुकाने में स्वतंत्र थे। इसमें राज्य कुछ हस्तक्षेप नहीं करता था। उस जमाने में कानून थे तो पर उनमें क्रिया के बदले क्रिया का ही सिद्धान्त कार्य करता था। उन दिनों प्रायः शासकों ओर पुरोहितों की इच्छा ही कानून थी। वे चाहे जिस अपराध पर चाहे जो दृष्टिकोण अपना लेने में प्रायः स्वतन्त्र ही थे। ऐसी दशा में न्याय का ब्रह्म स्वरूप भी जो दीखता हो- उसके आतंक से लोगों को आतंकित कितना ही कर दिया जाता हो पर उस तत्व की रक्षा नहीं होती थी जिसे ‘न्याय की आत्मा’ कहना चाहिए और जिसे प्राप्त कर सकना स्वस्थ समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उपलब्ध होना ही चाहिए। विधि विज्ञान- जूरिस प्रूडेन्स- इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
सालमंड कानून का औपचारिक उद्गम स्थल राज्य के संकल्पित निश्चय- बिल आव दी स्टेट को मानते हैं और उसे नागरिकों द्वारा शिरोधार्य करने का परामर्श देते हैं , पर यह तभी सम्भव है जब वह संकल्पित निश्चय वस्तुतः “राष्ट्र” का हो। अनेक छल, छद्म अपनाकर एक छोटा गुट किसी प्रकार चुनाव जीत लेता है और सत्ता पर अधिकार जमा लेता है, ऐसी दशा में उसके बनाये हुये कानून किस प्रकार राष्ट्र की आत्मा का संकल्प मान लिये जाये? और यदि वे अनुचित है तो कैसे जन मानस उनके सामने नत मस्तक हो जाय? अधिनायकों- राजवंशियों तथा सैनिकों द्वारा हथियायी निरंकुश सत्ता को तो राष्ट्र का संकल्प मानना और भी अधिक उपहासास्पद है, ऐसी दशा में उनकी इच्छानुसार बनाये गये कानूनों का पालन करने के लिए जनसाधारण को विवश भले ही किया जाय उसे हृदयंगम या स्वीकार्य नहीं बनाया जा सकता है।
टीलियालाजिकल वर्ग के विचारक यह माँग करते हैं कि कानून बनाने के अधिकार राजसत्ता को नहीं वरन् इसके लिए निष्पक्ष और दूरदर्शी विचारकों को एक स्वतंत्र न्याय संस्था रहे। राजसत्ता पर आरुढ वर्ग अपने लोगों के लिए लाभदायक ऐसे कानून भी बना सकता है जो अनुचित एवं अन्याय युक्त हो। पाउण्ड ने इस बात पर जोर दिया है कि न्याय को यदि ढकोसला ही न बनाये रहना हो तो उसकी वर्तमान परिधि को विस्तृत किया जाना चाहिए। चुनाव जीतने वाले अथवा सत्तारूढ़ दल की इच्छा ही कानून बन जाय तो मानव की वह माँस पूरी नहीं हो सकेगी जिसके लिए कानून विज्ञान का सृजन हुआ है।
भूतकाल में प्रचलित परम्पराएँ ही कानून थी। यह सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती थी कि उन प्रथाओं एवं मान्यताओं में औचित्य का अंश कितना था। रोमन ला का लैक्सटैलियानिस सिद्धान्त यह कहता था- अपनी रक्षा आप करो। उसमें ‘जैसे को तैसा’ आधार की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि - जितनी चोट तुम्हें लगी है बस उतनी ही चोट तुम आक्रमणकारिता के ऊपर लगा सकते हो। नकली सिक्का बनाने वाले को उबलते पानी में डालकर मार डालने, विवाहित स्त्री का चुम्बन लेने पर होठ सी देने, कर्ज अदा न करने पर ऋणी को गुलाम की तरह बेच कर वसूली करने, राजकर्मचारियों के साथ अभद्रता करने वालों के अंग काट लिये जाते थे। उन दिनों की यह न्याय व्यवस्था तब उचित समझी जाती थी। हो सकता है आज की विधि व्यवस्था भविष्य में अनीति युक्त समझी जाय। साम्यवादी विचारक इसी प्रकार सोचते भी है। वे प्रचलित कानूनों को निहित स्वार्थों को खुल खेलने की मान्यता देने वाली पद्धति भर मानते हैं। वर्तमान न्यायालय उनकी दृष्टि में न्याय की आत्मा से बहुत दूर है।
आधुनिक विधि वेत्ता सामान्य समझदारी विवेक, प्राकृतिक न्याय, युक्ति तर्कवाद, सुविधाजनक वास्तविकता सार्वजनिक नीति, जनहित, मानवता आदि तथ्यों को ध्यान में रखकर न्याय सिद्धान्तों के निर्धारण पर बल देते हैं और इसकी सामयिक विवेचना का निर्णय राजसत्ता के हाथों में सौंपते हैं। राज्य की प्रभुसत्ता सार्वजनिक हित के संरक्षण में विनिर्मित होनी चाहिए तभी वह विधि निर्धारण कर सकेगी अन्यथा डाकुओं के गिरोह की तरह यदि किसी वर्ग विशेष ने बलात् शासन तंत्र पर कब्जा कर लिया है तो उसके कानून न्यायालयों में प्रयुक्त होने पर भी न्याय की आत्मा का संरक्षण न कर सकेंगे मानव अधिकारों के सार्वभौम शाश्वत स्वरूप की रक्षा की कानून व्यवस्था में समुचित सुरक्षा होनी ही चाहिए।
विचारक सैग्विनी कहते हैं किसी जमाने में मनुष्यों को खरीदने बेचने की गुलाम प्रथा को कानूनी मान्यता प्राप्त थीं। राजसत्ता ने उसके समर्थन में नियम बनाये थे और न्यायाधीश उसी आधार पर फैसले करते थे इतने पर भी उनसे न्याय की आत्मा के साथ न्याय हुआ यह नहीं कहा जा सकता।
फक्शनल स्कूल शैली के विचारक डीन पाउण्ड ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि न्यायाधीश की स्वतन्त्र चेतना को बाधित न किया जाय। राजसत्ता उसे यह भी निर्णय करने दे कि अपराध करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली परिस्थितियों को भी दोषी ठहराया जाय और उन्हें भी निरस्त करने के लिए आवश्यक सुझाव अथवा आदेश दे सकने का भी न्यायाधीशों को अधिकार दिया जाय। जिस व्यवस्था में अधिक लोगों को अधिक सुख मिले, उसकी दृष्टि में कानून का लक्ष्य वही होना चाहिए।
आस्टीन ने कर्त्तव्य, अधिकार, हानि, दण्ड, अधिवाचना की व्याख्या करते हुए कानून सर्वदेशीय और सर्वकालीन तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया है पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। कोई कानून सर्वजनीन, सर्वकालीन सर्वदेशीय एवं शाश्वत नहीं हो सकता उसमें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन होता है और होना चाहिए।
समाज में सुरक्षित जीवन, उचित व्यवस्था की स्थिरता एवं पारस्परिक विवादों के निपटारे के लिए कानून का विकास हुआ है। पर देखना यह है कि मात्र अपराधी को दोषी दण्डनीय मानकर अपराधों का निराकरण किया जा सकता है? क्या समाज व्यवस्था के दोष व्यक्ति को अपराध करने के लिए विष या प्रोत्साहित नहीं करते? यह सामाजिक पक्ष जब तक विकृत बना रहेगा तब तक अपराधों की शृंखला भी गुप्त या प्रकट रूप से चलती ही रहेगी। विद्वान् केल्सन ने इस बात पर खेद व्यक्त किया है कि न्याय तंत्र में न्यायाधीश एक यांत्रिक इकाई मात्र है। उसे राजसत्ता द्वारा निर्धारित निर्देशों को ही सब कुछ मानना पड़ता है और न्याय प्रकृति की उपेक्षा करनी पड़ती है। नियम निर्धात्री राजसत्ता न तो निर्दोष होती है और न निभ्रान्त। दोषयुक्त कानूनों के आधार पर किसी ऐसे व्यक्ति को दण्ड दिया जा सकता है जो वस्तुतः अपराधी न हो अथवा उसे अपराध करने के लिए विवश किया गया हो।