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Magazine - Year 1973 - Version 2

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मनुष्य की तेजस्विता का अंतर्निहित स्रोत भंडार

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मानवीय चुम्बकत्व को तेजोवलय के रूप में अनुभव किया जा सकता है। यों समस्त शरीर में उसकी मात्रा रहती है और वह आवाज की तरह दूर क्षेत्र में जाते जाते हलका पड़ता जाता है। शरीर से निकलते ही यह विद्युत धारा तीव्र होती है इसलिये स्पर्श का अधिक प्रभाव पड़ता है। जिनके शरीर में अधिक प्रखर तेजोवलय होता है उनकी समीपता उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है। यह ‘वलय’ भला भी हो सकता है और बुरा भी। अपने-अपने ढंग का आकर्षण एवं प्रभाव दोनों में रहता है, इसी के कारण आमतौर से समीपवर्ती व्यक्ति अथवा पदार्थ प्रभावित होते रहते हैं।

यह तेजोवलय चेहरे पर सबसे अधिक मात्रा में रहता है। देवताओं के चित्रों में उनके के आस पास सूर्य जैसा चमकदार एक घेरा चित्रित किया जाता है यह इसी अदृश्य तेजोवलय का चित्रण है। आँखों से इसकी लपटें उठती रहती हैं, जीभ भी जब शब्दोच्चारण करती है-विशेषतया किसी भावावेश में तब भी इस तेजस् के स्फुल्लिंग उड़ते देखे जा सकते हैं। ज्ञानेन्द्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का वित्त भंडार एक ही जगह है इसलिये चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली रहता है। मोटे तौर पर चेहरे को देखकर दूसरे लोग बहुत कुछ जानने समझने में सफल होते हैं। आकृति देखकर मनुष्य की पहचान करने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान आदि की बनावट को नहीं वरन् चेहरे के इर्द-गिर्द उमड़ते घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आंतरिक व्यक्तित्व का प्रभाव परिचय प्राप्त करते हैं।

चेहरे की तरह तेजोवलय का एक केंद्र जननेन्द्रिय क्षेत्र में छाया रहता है। पर चूँकि उसमें प्रजनन संबंधी आकर्षण अधिक रहता है इसलिये उस वलय का प्रभाव यौन आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है भिन्न लिंग की समीपता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। इन अड़चनों को देखते हुए ही कटि क्षेत्र से वहाँ भी चेहरे की अपेक्षा मात्र कम नहीं होती। पर उपरोक्त बाधाओं ने उसे सीमित प्रयोजन के लिये ही उपयोगी रहने दिया है,, दाम्पत्य स्तर पर भी उसका लाभ मिलता है, इस असुविधा के कारण ही उसे ढका हुआ, केवल प्रणय प्रयोजन के लिये सीमित अवरुद्ध किया गया है।’ यदि यह दोष न होता तो यह तेजोवलय चेहरे पर छाये रहने वाले तेजोवलय से न्यून नहीं अधिक ही प्रभावशाली सिद्ध होता। चेहरे का तेजोवलय इस प्रकार के बंधन प्रतिबंध से मुक्त है। वह जैसा भी भला-बुरा होगा अपने निकटवर्ती क्षेत्र को- संपर्क आने वाले व्यक्तियों तथा स्पर्श व्यवहार में आने वाले पदार्थों को प्रभावित करता है। जिस प्रकार जीवाणु एक से दूसरे शरीर में प्रवेश करते रहते हैं उसी प्रकार यह तेजोवलय विद्युत मंडल समीपवर्ती क्षेत्र में अपनी मानसिक एवं आत्मिक स्थिति का प्रकाश प्रभाव फैलाता रहता है।

चुम्बक का स्पर्श करने से साधारण लोहे से भी चुंबक की विशेषता उत्पन्न हो जाती है। प्रचंड प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों में भी ऐसी ही मानवी विद्युत भरी पड़ी रहती है। उनके परामर्श न सहयोग का भी समीपवर्ती लोगों को लाभ मिलता है पर सबसे बड़ा लाभ उस तेजोवलय का होता है जो अपनी शक्तिशाली क्षमता को निरंतर निसृत करता रहता है और जो भी उस संपर्क सान्निध्य की लपेट में आता है उसे देखते-देखते बदलने में प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के दर्शन, चरणस्पर्श, आशीर्वचन, दृष्टिपात में जो सत्परिणाम विद्यमान् रहते हैं उसमें उनका प्रकाशपुँज तेजोवलय ही काम करता रहता है। दूसरे शब्दों में इस सूक्ष्म सत्ता को ही अदृश्य व्यक्तित्व कह सकते हैं। दृश्य व्यक्तित्व शरीर के रंग, रूप सुडौलता, अंगों की बनावट आदि पर निर्भर रहता है, पर अदृश्य व्यक्तित्व पर इस दृश्य स्थिति का कोई प्रभाव नहीं होता है। कोई काला कुरूप दुर्बल, वृद्ध व्यक्ति भी अत्यंत तेजस्वी और प्रतिभा का धनी हो सकता है। जबकि वह बाहर से उपहासास्पद ही लगेगा। इसके विपरीत सुंदर और आकर्षक नवयौवन सम्पन्न काया का व्यक्ति हेय और हीन स्तर का हो सकता है। आँखों को आरंभिक दर्पण में काय कलेवर के अनुरूप किसी की वस्तुस्थिति समझने में भ्रम हो सकता है पर जैसे ही उसकी यथार्थता अनुभव की जाएगी वह भ्रम दूर हो जाएगा वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

साधारणतया रंग रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध मोहित करता है पर यदि तेजोवलय तद्नुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्यांकन बदल जाता है। रूपवान् काया में विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो जाती है और कुरूपों को अष्टावक्र, सुकरात , गाँधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। शरीर की कुरूपता सज्जा-साधना से एक हद तक छिपाई भी जा सकती है पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता। जिनका अंतःकरण थोड़ा जागृत हो चला है और किसी की भीतरी स्थिति समझने देखने योग्य जिनकी सूक्ष्म दृष्टि जागृत हो गई है वे रंग, रूप की उपेक्षा करके तेजोवलय में संव्याप्त सुंदरता एवं कुरूपता को देख सकते हैं और उसी के अनुरूप किसी के प्रति श्रद्धालु अश्रद्धालु होने की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की शक्ति बाहर निकल कर बिखरने न पाये इसके लिये वस्त्रों का आवरण चढ़ाया जाता है। नग्न शरीर रहने वाले साधु संन्यासी भी शरीर पर भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इसका कारण सामाजिक मान्यता भी है पर आत्मिक कारण यह है कि कोई शरीर नग्न होने की दशा में अपनी शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बखेरता रहेगा, साथ ही दूसरों के भले-बुरे प्रबल प्रभावों से अपने को बचा भी न सकेगा। नग्न शरीर पर धूप का प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार दूसरों का चुंबकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। रेशम एवं ऊन शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है इसलिए प्रायः पुरश्चरण परक प्रबल साधना प्रयोजनों में सूती वस्त्रों की अपेक्षा ऊनी या रेशमी कपड़ों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यहाँ एक बात और नोट कर ली जानी चाहिए कि वध करने के उपरांत भेड़ों की उतारी हुई ऊन अथवा कीड़ों को उबाल कर उन्हें मार डालने के उपरांत पाया जाने वाला रेशम आत्मिक प्रयोजनों काम आने लायक नहीं रह जाता। वध के समय निकला हुआ चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता है। शरीरगत विद्युत के आवागमन में प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता तो ऐसे ऊन या रेशम में हो सकती है पर उनसे उच्च आध्यात्मिक प्रयोजन में तो उलटी बाधा ही पड़ेगी। उससे तो धुला हुआ सूती वस्त्र ही अच्छा है।

वस्त्रों तथा अन्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यहीं बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य उन वस्तुओं पर अपना प्रभाव अधिक छोड़ते हैं जिन्हें वे अधिक रुचिपूर्वक प्रयोग करते हैं। सच्चे साधु संतों की माला, जनेऊ, खड़ाऊँ, लँगोटी आदि को कोई व्यक्ति उपहार आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते रहते हैं कलम, घड़ी, अँगूठी, बटन जैसी वस्तुओं का भी ऐसा ही महत्त्व है। भगवान बुद्ध का एक दाँत लंका में सुरक्षित है। हजरत मुहम्मद साहब का एक बाल काश्मीर की किसी मस्जिद में रखा है। शरीर के साथ जुड़े हुए अवयव, बाल या नाखून अपना महत्त्व रखते हैं। उनके माध्यम से तान्त्रिक लोग भले-बुरे प्रयोग करते हैं।

व्यक्तित्व पर तेजोवलय की भारी छाप रहती है। प्रायः यह जनम-जन्मान्तरों के अभ्यास, प्रयास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है पर मनुष्य अपनी स्वतंत्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल भी सकता है। सामान्य स्तर के लोग इस बने बनाये तेजोवलय के अनुसार अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते हैं। पर मनस्वी लोग अपनी सुदृढ़ संकल्प शक्ति से अपनी अभ्यस्त आंतरिक एवं बाह्य स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन भी कर सकते हैं। तब विनिर्मित तेजोवलय में भी वैसा ही परिवर्तन हो जाता है। उसके रंगों में कम्पनों की चाल में इस परिवर्तन का हेर-फेर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। सुकरात कहते हैं प्रकृतिः मैं कुख्यात हत्यारा ही हो सकता था पर मैंने प्रयत्न पूर्वक अपने को बदलने में सफलता प्राप्त की।

देखा गया है कि कई व्यक्तियों में रास्ता चलते मित्रता हो जाती है। अपरिचित होते हुए भी वे ऐसा अनुभव करते हैं। मानो चिर-परिचित हों- और पास आये, बात किये बिना रह ही नहीं सकते। इस अनायास आकर्षण के पीछे पूर्व जन्मों का संबंध परिचय भी हो सकता है पर प्रत्यक्ष कारण दोनों के तेजोवलय की समानता है जो एक दूसरे को समीप खींचती रहती हैं। बात की बात में वे परस्पर परिचित, घनिष्ठ और विश्वस्त बन जाते हैं। तर्क के आधार पर यह आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और ऐसी जल्दबाजी में खतरे की आशंका की जा सकती है। पर तथ्य इतने प्रबल होते हैं कि इन सम्भावनाओं को निरस्त करते हुये घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं, उसी प्रकार यह भी देखा जाता है कि स्वजन संबंधी से भी अकारण अरुचि रहती है और उसकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूँढ़ने पर वैसा कुछ कारण प्रतीत नहीं होता तो भी ऐसी विषमता बनी ही रहती है। इसमें तेजोवलय के कम्पनों की गति में ऐसी असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है। इसी को कवियों ने “प्रकृति मिले मन मिलता है, अनमिल से न मिलाय’ की उक्ति के साथ चित्रित किया है। यह -प्रकृति’ मात्र आहार-बिहार वेष-भूषा आदि की समानता पर निर्भर नहीं रहती वरन् कारण गहरा होता है, इसे तेजोवलय के स्तर की समानता में ही खोजा जा सकता है। अनुशासन के पालन एवं उल्लंघन में प्रायः इसी समानता असमानता के कारण उत्तेजन, उत्साह मिलता है।

योग साधना के आत्मविश्वास का अभिवर्धन और तप तितीक्षा द्वारा तेजोवलय के प्रखरीकरण का प्रयोजन पूरा किया जाता है। यह दोनों ही उपलब्धियों ऐसी है जिनके आधार पर भौतिक और आत्मिक जीवन का आशातीत और आश्चर्यजनक विकास संभव हो सकता है।

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