मृत्यु से क्यों तो डरें और क्यों घबराये?
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स्वामी विवेकानन्द ने मृत्यु के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए कहा था- जब मैं मृत्यु के सम्बन्ध में सोचता हूँ तो मेरी सारी कमजोरियाँ विदा हो जाती है। उस कल्पना में न मुझे भय लगता है न शंका सन्देह भरी बेचैनी अनुभव होती है तब मेरे मन में उस महायात्रा की तैयारी के लिए योजनाएँ भर बनती रहती है। मरने के बाद एक अवर्णनीय पुँज का साक्षात्कार होगा इस कल्पना से मेरा अन्तराल पुलकन और सिहरन से गदगद हो जाता है।
मरने से डरने का कारण केवल मनुष्य की वह भीरुता और भयभीत मनः स्थिति है जो अपरिचित स्थिति में जाने और एकाकी रहने की आशंका से उभरती है। सम्बन्धित व्यक्तियों अथवा वस्तुओं से सम्पर्क छूट-टूट जायेगा यह डर भी मनुष्य को मौत से बहुत डराता है। पर जिसने मर कर देखा है उनका कथन है कि मौत में डरने की कोई बात नहीं है।
मरने से पूर्व कैसा अनुभव होता है यह मनुष्य की अन्तः स्थिति पर निर्भर है। वह आजीवन जैसा सोचता रहा है अन्तिम अनुभूतियाँ क्षण भर में प्रस्तुत हुआ उसी का सार तत्व कहा जा सकता है। किन्हीं को प्रकाश दीख पड़ता है , किन्हीं को मृदुल संगीत सुनाई देता है किन्तु कुछ को दम घुटने और डूबने जैसी अकुलाहट भी होती है। प्राणिशास्त्र विलियम हण्टर ने मरने से पूर्व मन्द स्वर में कहा था- यदि मुझ में लिखने की ताकत होती तो विस्तार से लिखता कि मृत्यु कितनी सरल और सुखद है।
डिट्रोयट (अमेरिका) के अख़बार में उस पार शीर्षक से लेखमाला कुछ समय पूर्व छपी थी उसमें उन लोगों के अनुभव संस्मरणों का संकलन था जो मरने के बाद भी जी उठे थे। इन संस्मरणों में एक अनुभव मियानी निवासी लिनमेलविन का है जिन्होंने बताया कि मृत्यु से पूर्व उन्हें तीव्र ज्वर के कारण मस्तिष्क में भारी जलन हो रही थी कि अचानक सब कुछ शान्त हो गया और मैं शान्ति और शीतलता अनुभव करती हुई हवा में तैरने लगी। अपने चारों ओर मुझे रंगीन और सुहावना लगा। किन्तु यह स्थिति अधिक नहीं रही। किसी ने मुझे पुनः शरीर में धकेल दिया और जीवित हो उठी। देखा तो पाया मरे मृत शरीर को दफनाने के लिये परिवार के लोग आवश्यक तैयारी करने में लगे हुये थे। मर कर फिर जी पड़ने पर उन्होंने भी प्रसन्नता अनुभव की, खासतौर से मेरी छोटी लड़की ने।
टिट्राइज आन सस्पेडेस ऐन्टी मेशन नामक ग्रन्थ के लेखक बोस्टन निवासी डा. मूर रसेल फलेचर ने लगातार 25 वर्षों तक इस तथ्य का अन्वेषण किया कि मरने के उपरान्त मनुष्य को किस प्रकार की अनुभूति होती है। मैसाचुसेटस मेडिकल सोसाइटी के वे आजीवन अग्रणी नेता रहे। इस संदर्भ में उन्हें ऐसे लोगों से भी वास्ता पड़ा जो कुछ समय मृत रहने के उपरान्त पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे लोगों को खोज कर डा. फलेचर ने उनके बयान लिये और उन्हें अपनी पुस्तक में छापा।
इन बयानों में एक गानर्निर नगर निवासी श्रीमती जान डी. ब्लेक का है। वे तीन दिन तक मृत स्थिति में पड़ी रही थी। डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था पर कुछ लक्षण ऐसे थे जिनके कारण घर वालों ने उन्हें दफनाया नहीं और पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में लाश को सम्भाले रहे। तीन दिन बाद वे जी उठी। पूछने पर उनने बताया वे एक ऐसे लोक में गई जिसे परियों का देश कह सकते हैं। वहां बहुत आत्माएँ थी जिसमें उसकी मृत सहेलियाँ भी थी वे बिना पैरों के आसमान में उड़ती थीं और सब प्रसन्न थीं।
वरमान्य- हद्रिगेट की एक अध्यापिका ने भी कुछ समय मृत रहने के बाद पुनर्जीवन पाया था उसने बताया मृत्यु देश के सभी निवासी प्रसन्न थे। किसी के चेहरे पर विषाद नहीं था। सभी आमोद प्रमोद में मग्न थे।
वोस्टन से सेन्टजान जाने वाला जलयान समुद्र में डूबा तो उसमें से केवल एक लड़की बची। पानी में एक घण्टा डूबी रहने के बाद लहरों के साथ किनारे पर लगी। डा. फलेचर को उसने बताया मृत्यु और जीवन के बीच का समय उसने सुनहरे प्रकाश के बीच बड़े आनन्द के साथ बिताया।
हृदय की धड़कन बन्द हो जाना और साँस का रुक जाना आमतौर से मृत्यु का चिन्ह माना जाता है, पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह दोनों क्रियायें कृत्रिम रूप से भी जारी रखी जा सकती है। आपरेशन करते समय रोगी की हृदय की धड़कन बंद हो जाने पर डाक्टर लोग कृत्रिम रूप में धड़कन चालू कर देते हैं। असली मृत्यु मस्तिष्कीय कोशों को अपना काम अन्तिम रूप से बन्द करने पर होती है।
मस्तिष्क को खुराक रक्त त्वचा आक्सीजन से मिलती है। जहाँ यदि यह दोनों चीज न पहुँचे तो मस्तिष्क के लिये देर तक काम करते रहना सम्भव नहीं होता। अधिकतम वह छः मिनट बिना नये रक्त और आक्सीजन के पुरानी संचित पूँजी के आधार पर कार्य रत रह सकता है। इस बीच श्वास और रक्त की उपलब्धि पुनः आरम्भ हो जाय तो वह प्रायः आधा घण्टे में अपने पुराने ढर्रे पर आ सकता है किन्तु यदि अधिक देरी हो जाय तो मरण निश्चित ही है।
मृत्यु उतनी कष्टप्रद नहीं है जितनी कि समझी जाती है। मरने का ठीक समय आने से पूर्व बेहोशी आने लगते हैं और पीड़ा के समस्त लक्षण विदा हो जाते हैं। आमतौर से बूढ़े लोग शान्ति और संतोष पूर्वक मरते हैं और जवानी में अधिक बेचैनी होती है यह उद्विग्नता उनकी महत्त्वाकाँक्षाओं की अतृप्ति के कारण होती है। जिनके सपने जितने अधूरे रहते हैं वे मरते समय उतने ही बेचैन पाये जाते हैं। मौत का डर भी कई बार मरने वालों को व्यथित कर देता है।
मरने के समय सामान्यतः शरीर का तापमान 98.6 फारेनहाइट होता है। इसके बाद वह एक घण्टे में डेढ़ डिग्री के हिसाब से गिरने लगता है। इस आधार पर यह पता लगाया जा सकता है कि मृत्यु हुए कितना समय बीत गया। मृत्यु के उपरान्त माँसपेशियाँ ढीली पड़ती हैं। शरीर भी धीरे-धीरे ठण्डा होता है। इसके बाद लाश में सड़न आरम्भ हो जाती है। रक्त का लाल रंग बदल कर मटमैला और पतला हो जाता है।
यदि मरते समय व्यक्ति को काँच के बक्स में मजबूती से बंद कर दिया जाय तो कुछ समय में सन्दूक कही न कही से टूट जायेगा और दरार पड़ जाएगी। इसे आत्मा का अन्तरिक्ष में पलायन माना जाता है। पर विज्ञानी इसका कारण शरीर में होने वाले रासायनिक तथा गैसीय परिवर्तनों को मानते हैं। मरने के बाद किसी का चेहरा विकृत और किसी का शान्त दिखाई पड़ता है। इसका कारण यह समझा जाता है कि मृतक की आत्मा शान्त या उद्विग्न स्थिति में विदा हुई। पर वैज्ञानिकों की दृष्टि में ऐसा सोचना निरर्थक है। जीवित अवस्था में मस्तिष्क का, मनोभावों का दबाव चेहरे की माँसपेशियों पर रहता है और वह भाव भंगिमा से प्रकट होता रहता है किन्तु वह दबाव जब हट जाता है तो माँसपेशियाँ शिथिल पड़ जाती हैं यह शिथिलता ही चेहरे की विकृति के रूप में दीखती है। मृतक की चेतना का अन्त ही माँसपेशियों को उनकी बनावट के आधार पर शिथिल कर देता है ओर ये किधर भी लुढ़क पड़ती हैं, देखने वाले इस दृश्य को अपने-अपने ढंग से सोचते हैं। वस्तुतः मृतक की मुखाकृति का उसके मरण काल में दुखी या संतुष्ट होने का अनुमान लगाना निराधार है। शिथिलता के कारण चेहरे की माँसपेशियाँ किधर लुढ़की पड़ी रही मृतक के चेहरे को देख कर अनुमान लगाया जाना चाहिए।
पूर्ण मृत्यु अचानक ही नहीं हो जाती। यह तीन किश्तों में तीन बार में धीरे-धीरे होती है। इन किश्तों को 1. स्लेनिकल 2. बायोलॉजिकल 3. सेल्युलर कहते हैं।
प्रथम स्लेनिकल मौत वह है जिसमें साँस , धड़कन एवं मस्तिष्कीय विद्युत लहरों का प्रवाह रुक जाता है। इस स्तर पर मरे हुए व्यक्ति को हृदय की मालिश जैसे उपचारों से पुनर्जीवित किया जा सकता है।
दूसरी बायोलॉजिकल मौत वह है जिसमें कुछ अंग विसंगठित होते हुए भी इस स्थिति में बने रहते हैं कि विद्युत संसार से उनमें पुनः हलचल उत्पन्न की जा सके। और तीसरी अन्तिम मौत रुक सके।
तीसरी सेल्युलर मौत वह है जिसमें शरीर के कोश विगलन की स्थिति में पहुँच जाते हैं और फिर किसी भी स्थिति में जीवन वापिस लौटने की संभावना नहीं रहती।
कई बार तो यह तीनों मौतें कुछ ही घण्टों के अन्तर से आ जाती हैं किन्तु कई बार पहली मौत से तीसरी तक पहुँचने में दो दिन लग जाते हैं। हिन्दू समाज में मृतक के समीप रोने धोने उसे स्नान आदि क्रियाकृत्य कराने और श्मशान ले जाने आदि कार्यों में इतना समय लगाने की परम्परा है कि मृतक तीनों मौतें पूरी कर चुका हो।
मस्तिष्कीय विद्युत तरंगों को मापने वाले यंत्र ‘इलेक्ट्रो एन्सिफेलो ग्राफ’ का निष्कर्ष यह है कि मरने के समय मस्तिष्क की विद्युत तरंगें मंद होती चली जाती हैं और गहरी मूर्छा आने लगती है। उस स्थिति में मृतक को कोई स्मरण रह सके ऐसा संभव नहीं है।
यदि मनुष्य आरम्भ से ही मृत्यु को जीवन का अन्तिम अतिथि मान कर चले, उसकी अनिवार्यता को समझे और अपनी गतिविधियाँ इस स्तर की बनाये रखे जिससे मृत्यु के समय जीवन व्यर्थ जाने का पश्चाताप न हो तो मृत्यु हर किसी के लिए सरल एवं सुखद हो सकती है। थकान मिटाने के लिए निद्रा की गोद में जाना जब अखरता नहीं तो कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि कुछ अधिक लम्बी निद्रा प्रदान करने वाली मृत्यु से न कोई डरे न घबराये।
जार्ज वाशिंगटन मरने लगे तो उनने कहा- मौत, आ गई, चलो अच्छा हुआ, विश्राम मिला। हेनरी थोरो ने शान्त और गंभीर मुद्रा में कहा- मुझे संसार छोड़ने में कोई पश्चाताप नहीं है। कोहन्स ने और भी अधिक प्रसन्नता व्यक्त की तथा कहा- लगता है मेरे बदन पर फूल ही फूल छा गये। हेनरी ने मृत्यु के समय अलंकारिक भाषा में कहा- बत्तियाँ जला दो, मैं अन्धकार में नहीं जाऊँगा। विलियम ने अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करते हुए कहा- मरना कितना सुखद है। स्वामी दयानन्द ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए मरण के क्षणों का स्वागत किया और कहा- ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हुई।

