हम अन्तरिक्ष को ही नहीं, अन्तर को भी खोजे
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विज्ञान कली महिमा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, उसकी सार्थकता तभी है जब वह विकृतियों और विभीषिकाओं के जाल जंजाल में उलझी हुई मानवता के परित्राण में सहायक सिद्ध हो सके।
विज्ञानी शोधकर्ताओं और उनकी आश्रयदात्री सरकारों तथा संस्थाओं को इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि संसार की दृष्टि से जितनी खोज हो चुकी वह पर्याप्त है। इस पृथ्वी को भून डालने के लिए और प्राणियों का अस्तित्व सदा के लिए मिटा देने वाले साधन अब पर्याप्त है। यदि समस्त ब्रह्माण्ड को नष्ट करना हो तो बात दूसरी है यदि पृथ्वी ही अपना कार्य क्षेत्र हो तो जितना धन और धन विघातक शोध कार्यों पर लग चुका वही पर्याप्त है। अब सृजन की दिशा में ही वैज्ञानिक अन्वेषणों और प्रयोगों का क्रम चलना चाहिए।
युग की समस्याओं पर दूरगामी तत्व दृष्टि से विचार करने वाले चिन्तक डा. वेस्टलेक ने अपने निष्कर्ष लाइफ थेटेण्ड- जीवन संकट- नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराये है। उन्होंने अपनी चिन्ता और वेदना व्यक्त करते हुए कहा- पुराना युग जा तो रहा है पर क्या आ नहीं रहा। उत्क्रान्ति के मोड़ पर खड़ा हुआ मानव अब सर्वनाश की ओर बढ़ेगा या आत्मिक प्रगति की ओर मुड़ेगा यह धूमिल है। यही घड़ियाँ है जिनमें उसे अपने जीवन और मरण में से एक का चयन करना पड़ेगा।
विज्ञान क्रमशः जड़ पदार्थों की मूलशक्ति को पकड़ने और उँगली के इशारे पर चलाने के लिए आतुर होता जा रहा है जहाँ पहुँचने पर पदार्थों का ही सर्वनाश हो जायेगा और विज्ञान के लिए कुछ करना ही शेष न रह जायेगा।
विज्ञान की दिशा अब मानवी अस्तित्व, चिन्तन, आस्था ,दृष्टि एवं आकांक्षा के द्वारा उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया को खोजना चाहिए। जड़ पदार्थों को जिस उत्साह से खोजा जा रहा है उसी उत्साह से चेतना की भावसत्ता का अन्वेषण किया जाना चाहिए। और ऐसे तथ्य सामने लाने चाहिये जिससे मनुष्य अपनी शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक सत्ता का सही प्रयोग कर सके साथ ही जो भौतिक पदार्थ उपलब्ध है उनका श्रेष्ठतम उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है इसकी रीति-नीति निर्धारित करने वाले विज्ञान के प्रामाणिक तथ्य विज्ञान को ही प्रस्तुत करने चाहिए। सदाचरण के प्रति डगमगाती जा रही निष्ठा इस प्रकार के शोध कार्यों से पुनः स्थापित की जा सकती है। परस्पर मिल जुल कर रहने और स्नेह सौहार्द भरा उदार व्यवहार करने में घाटा नहीं वरन् लाभ यह तथ्य थोड़े से प्रयत्नों से भौतिक विज्ञान के आधार पर ही प्रतिष्ठापित किया जा सकता है और अध्यात्म की उच्चस्तरीय दार्शनिक मान्यताओं को विज्ञान को ठोस समर्थन मिल सकता है। इस लक्ष्य को सामने रख कर यदि विज्ञानी अपना शोध कार्य प्रारम्भ करे तो उसमें उस पाप का प्रायश्चित हो सकता है जिसके कारण मानवी सभ्यता के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है आदर्शवादी संस्थाएँ लड़खड़ाने लगी है।
स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर इस संसार की हर समस्या का कारण और निवारण मनुष्य की आन्तरिक स्थिति में जुड़ा हुआ है। अब उसी क्षेत्र में शोध अन्वेषण के लिए हमारा उत्साह मोड़ा मरोड़ा जाना चाहिए।
होम्योपैथी के आविष्कर्ता उसे हानीमन कहते थे- रोग का नहीं रोगी का इलाज किया जाना चाहिये।
डा. वाच इस नतीजे पर पहुँचे है कि जब तक भौतिक और आत्मिक संतुलन बना रहेगा तब तक मनुष्य निरोग रहेगा जब इस संतुलन में गड़बड़ी पैदा होगी तो बीमारियों का अड्डा शरीर में जमने लगेगा एक के बाद दूसरे रोग का क्रम चलता रहेगा।
डा. होप ने कहा है- पाप और बीमारी में कोई अन्तर नहीं है। सच्चा चिकित्सक रोगी को दवा देकर छुटकारा नहीं पा सकता, वरन् उसे रोगी की आन्तरिक विकृतियों को भी समझना देखना होगा। इसके बिना अधूरी चिकित्सा के आधार पर रुग्णता का उन्मूलन नहीं किया जा सकेगा।
मनुष्य को रासायनिक उत्पादन मान कर चलने से काम नहीं चलेगा। अनैटमी - फिजियोलॉजी- पैथालॉजी- मालिक्यूलर बायोलॉजी - साइकोलॉजी आदि विज्ञान की धाराएँ हमें भौतिक शरीर की संरचना की जानकारी दे सकती है और उसके उतार चढ़ावों सम्बन्धी मार्ग दर्शन कर सकती है, पर मनुष्य इतना ही तो नहीं है। आस्थाएँ और आकांक्षाएँ ही उसे दिशा देती है और इसी रीति-नीति पर व्यक्तित्व का स्तर निर्भर रहता है। हमें उस आत्मा का विज्ञान भी समझना चाहिए जिसका चेतनास्तर और शारीरिक क्रिया-कलाप पर पूरी तरह नियंत्रण है।
सिद्धान्त रहित वैज्ञानिक शोध और प्रयोग हमें विपत्ति में ही फँसाता चला जायेगा। कला-कला के लिये की तरह यदि विज्ञान-विज्ञान के लिये ही, सीमाबद्ध कर दिया गया और उसके पीछे कोई आदर्श न रहे तो फिर इस प्रगति से मनुष्य की विपत्तियाँ ही बढ़ेगी।
वेल्स यूनिवर्सिटी के डा. होलमन ने कहा है- आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की एक देन है- कैन्सर। नशेबाजी का बढ़ता हुआ व्यसन मनुष्य की जीवनी शक्ति का बेतरह क्षय कर रहा है भीतर से खोखले बने हुए मनुष्य तनिक सी प्रतिकूलता में उलटे हो जाते हैं और विषाक्त वातावरण की विभीषिका उन्हें सहज ही अल्सर रक्तचाप, अनिद्रा, धड़कन, गैस, अपच, मधुमेह, सनक, आवेश आदि शारीरिक मानसिक रोगों से ग्रसित कर लेती है। अब तो कैन्सर जैसा प्राण घातक और तड़पा-तड़पा कर मारने वाला रोग भी इस सभ्यता प्रदत्त अनुदान में से ही एक बन गया है। इस पर शारीरिक मानसिक रुग्णता की अभिवृद्धि का प्रभाव सामाजिक रुग्णता के रूप में भी सामने आ रहा है। आक्रमण, अपहरण, बलात्कार, व्यभिचार, छल की बढ़ती हुई घटनाएँ बताती है कि वैयक्तिक विकृति बढ़ने से सारा समाज उससे किस प्रकार प्रभावित होता है।
प्रगतिशील समझे जाने वाले देशों में शुद्ध अन्न, शुद्ध जल और शुद्ध वायु का मिलना दिन-दिन कठिन से कठिनतर होता चला जा रहा है इस तथ्य को ध्यान में रख कर स्वास्थ्य विज्ञानी बेतरह चिन्तित हो रहे है इन दिनों बंद डिब्बों में, यंत्र निर्मित, सुरक्षित रह सकने योग्य भोजन की भर मार है। रसायनों और मशीनों द्वारा बनाया गया- सिन्थैटिक फूड- सारूप भोजन- उत्साह पूर्वक बनाया और खाया जा रहा है। पर प्राकृतिक उत्पादन की तुलना में इसे ‘मृतक’ ही ठहराना पड़ रहा है कि विज्ञापन और पैकिंग की तड़क-भड़क से लोगों को बहकाया फुसलाया जा सकता है पर तथ्य तो जहाँ के तहाँ रहेंगे। फैक्टरी फार्मिंग से स्वास्थ्य सम्बन्धी स्थिरता और सुविधा का स्वप्न तथ्यों की कसौटी पर निरर्थक ही सिद्ध हो रहा है।
कारखानों और वाहनों में जितना ईंधन इन दिनों जलाया जा रहा है और उससे जितनी अतिरिक्त गर्मी उत्पन्न हो रही है उसका संकट कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। वर्तमान क्रम चलता रहा तो आगामी 25 वर्षों में वातावरण में कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा अत्यधिक बढ़ जायेगी और उसकी गर्मी से ध्रुव प्रदेशों की बर्फ तेजी से पिघलने लग जायेगी। इसका प्रभाव समुद्र तल ऊँचा उठने के रूप में सामने आता जायेगा और वह क्रम यथावत चला तो सारी बर्फ गल जाने पर समुद्र का जल लगभग 400 फुट ऊँचा उठ जायेगा। और वह संकट धरती का प्रायः आधा भाग पानी में डुबोकर रख देगा। वह आज के क्रम से बढ़ती हुई समुद्री संकट को 25 वर्ष बाद उत्पन्न करना आरम्भ कर देगी और 400 वर्षा में वह संकट उत्पन्न हो जायेगा, जिसके कारण आज वैज्ञानिक उत्साह को मानवी विनाश के लिए उदय हुआ अभिशाप ही माना जाने लगे।
इंजनों में धक्के करने के लिए पैट्रोल में शीशा मिलाया जाता है किन्तु उससे जो जहरीला धुँआ होता है उससे वायुमण्डल की विषाक्तता बढ़ती जा रही है।
अमेरिका के कल कारखानों के विषैले अवशेष, इन दिनों जलाशयों में गिराये जा रहे हैं। इसके कारण वह जल मानवी प्रयोजनों के लिए अनुपयुक्त बनता चला जा रहा है। नदी , तालाबों के जल जीव बेतरह मर रहे हैं। अनुमान है कि वर्तमान क्रम में आगामी पच्चीस वर्षों में उस देश में शुद्ध जलाशयों के दर्शन दुर्लभ हो जाएँगे। कारखानों से, तेल वाहनों से निकलने वाला धुँआ आसमान में एक प्रकार का कुहरा बन कर छाया रहता है और वह श्वास सम्बन्धी अनेक बीमारियाँ पैदा करता है।
‘डेली टेली ग्राफ’ के सम्पादक ने सत्ताधारियों से पूछा है- कुछ लोग कम समय में जेट विमान द्वारा जल्दी अटलांटिक पार करने इस सुविधा के लिए करोड़ों लोगों की नींद जेट की भयंकर ध्वनि के कारण क्यों बिगाड़ी जा रही है?
आदमी के कान साधारणतः 60 डेसीबल की आवाज सहन कर सकता है जब कि रेले, मोटरें कारखाने लाउडस्पीकर आदि के कारण 120 डेसीबल तक की आवाज पैदा होती है। यह शोर आदमी के मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ कर ऐसी अर्ध विक्षिप्तता उत्पन्न करता है जिससे आत्म हत्या की, अपराधों की, सनक उद्दण्डता और गैर जिम्मेदारी की प्रवृत्ति बनाये। चन्द लोग अधिक सुख सुविधा उपार्जन कर सके इसलिए शरीर उत्पन्न करने वाले माध्यमों का बढ़ते जाना- समग्र मानव जीवन के लिए संकट उत्पन्न करना ही तो है।
अधिकाधिक लाभ कमाने के लोभ ने अधिकाधिक उत्पादन पर ध्यान केन्द्रित किया है। मानवी रुचि में अधिकाधिक उपयोग की ललक उत्पन्न की जा रही है ताकि अनावश्यक किन्तु आकर्षक वस्तुओं की खपत बढ़े और उससे निहित स्वार्थों को अधिकाधिक लाभ कमाने का अवसर मिलता चला जाय। इस एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया है कि इस तथाकथित प्रगति और तथाकथित सभ्यता का सृष्टि संतुलन पर क्या असर पड़ेगा। इकॉलाजिकल वेलेन्स गवां कर मनुष्य सुविधा और लाभ कमाने के स्थान पर ऐसी सर्प-विभीषिका को गले में लपेट लेगा जो उसके लिए विनाश का संदेश ही सिद्ध होगी। एकांगी भौतिकवाद अनियंत्रित उच्छृंखल दानव की तरह अपने पालने वाले का ही भक्षण करेगा। यदि विज्ञान रूपी दैत्य से कुछ उपयोगी लाभ उठाना हो तो उस पर आत्मवाद का नियंत्रण अनिवार्य रूप से करना ही पड़ेगा।
हमारा धर्म ‘आत्मा के राज्य में प्रवेश’ करने पर जोर देता रहा है। उपनिषद्कार ने अपने को जानने और परिष्कृत स्थिति प्राप्त करने का कल्याण साधन बताया है। हम अन्तरिक्ष में उड़ते हैं पर यह भूल जाते हैं कि अन्त की खोज उससे भी अधिक आवश्यक है।

