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Magazine - Year 1974 - Version 2

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सर्वतोमुखी सफल जीवन की साधना

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जीवन रथ का संचालन सही रीति−नीति से किया जाय तो इसके प्रत्येक चरण पर प्रगति और समृद्धि के—प्रसन्नता और प्रफुल्लता के आधार उपलब्ध होते चले जायेंगे। मनुष्य जीवन से बढ़कर सुविधाओं की सम्भावनाओं से भरा−पूरा सौभाग्य और कुछ है ही नहीं।

रुचिकर एवं सुविधाजनक वस्तुओं की बहुलता के साथ हम सुखी रहने की बात सोचते हैं और सम्बन्धित व्यक्तियों को आज्ञानुवर्ती इच्छानुकूल देखना चाहते हैं। पर यह दोनों ही बातें लगभग असम्भव हैं। रुचिकर वस्तुओं की एक सीमा तक ही प्राप्ति हो सकती है पर हमारी तृष्णा तो असीम है। अग्नि में घी डालने की तरह वह सफलताओं से तृप्त नहीं होती वरन् और भी अधिक की कामना करके अभाव और असन्तोष यथावत बनाये रहती है।

लोग यह भूल जाते हैं कि जीवन को सुविधाओं और सफलताओं से भर देने वाली विभूतियाँ हमारे भीतर भरी पड़ी हैं। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करके हम सच्चे अर्थों में विभूतिवान बन सकते हैं। अपने दृष्टिकोण को दूरदर्शिता और विवेकशीलता के आधार पर सुसंस्कृत बनाकर हम ऐसे व्यक्तित्व विकसित कर सकते हैं जिसके आगे अभावों और विद्वेष—विग्रहों की जड़ ही कट जाय। प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदला जा सकता है। इसके दो उपाय हैं—एक यह कि प्रबल पुरुषार्थ करके इच्छानुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त करें। दूसरा यह कि उपलब्धियों और आवश्यकताओं का सन्तुलन मिलाकर सन्तोषपूर्ण निर्वाह का क्रम बना लें। इन दोनों तथ्यों का समन्वय भी किया जा सकता है। एक ओर प्रगति के लिए पुरुषार्थ दूसरी ओर साधनों और आवश्यकताओं का सन्तुलन। इस प्रकार दायाँ−बायाँ कदम बढ़ाते हुए—प्रसन्नता भरा जीवन जी सकते हैं और क्रमिक प्रगति से सन्तुष्ट रह सकते हैं।

भौतिकवादी दृष्टिकोण यह है कि हम सही हैं गलती और कमी बाहर है। लोगों को परिस्थितियों को हमारे अनुकूल बनना चाहिए। इसके विपरीत अध्यात्मवादी दृष्टिकोण यह है कि हमारे प्रयत्न पुरुषार्थों की—स्वभाव और चिन्तन की त्रुटियों से गुत्थियाँ उलझती हैं समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और विपन्न विपरीतताएं सामने आ खड़ी होती हैं। अस्तु व्यक्तियों और परिस्थितियों को सुधारने के साथ−साथ अपनी दुर्बलताओं, विकृतियों और विसंगतियों को सुधारने पर जुट जाना चाहिए। हम सर्वथा सही ही हैं यह मानना अत्यन्त हानिकारक, अवाँछनीय, अवास्तविक और पाखण्डपूर्ण है जितनी कमियाँ हम दूसरों में सोचते हैं शायद उससे अधिक दूसरे हमारे सम्बन्ध में सोचते हैं। दोनों पक्ष अपनी−अपनी बात पर अड़े रहे—विपरीत मान्यताएँ बनाये रहे तो मिलन−समन्वय का कभी अवसर ही न आवेगा और खाई चौड़ी होती जायगी।

यही बात अभीष्ट साधनों के सम्बन्ध में है। जिस स्तर की—जितनी मात्रा में वस्तुएँ हमें अभीष्ट हैं वे इच्छा मात्र से तो नहीं मिल जातीं। सामयिक परिस्थितियों का हमारे स्तर एवं प्रयत्न का भी बहुत कुछ आधार उपलब्धियों के साथ जुड़ा रहता है। यह सब कुछ इच्छा करने मात्र से जादुई ढंग से पूरा नहीं हो सकता। साधना से सिद्धि मिलती है। अनवरत पुरुषार्थ—जिसमें उपलब्धियों के लिए श्रम और अपने स्तर का विकास दोनों ही बातें सम्मिलित हैं, यह ठीक प्रकार किया जाय तो समयानुसार उसका प्रतिफल अनुकूल साधन मिलने के रूप में सामने आ सकता है। सो भी सुनिश्चित नहीं क्योंकि हमारी आकाँक्षाएँ अनियन्त्रित होती है, वे न अपने स्तर, प्रयास, साधन, का अनुमान लगाती हैं और न परिस्थितियों की बात सोचती हैं। ऐसे ही आँधी तूफान की तरह उमड़ पड़ती हैं चाहने मात्र से ही यदि सब कुछ मिल जाया करे तो फिर मनुष्य−मनुष्य न कहलाये तब उसका नाम कल्पवृक्ष कहलाये। बुद्धिमान मनुष्य वस्तुस्थिति को देखता समझता है। तदनुकूल इच्छाओं को नियन्त्रित करता है। ऐसे ही लोग सुख सन्तोष की साँस लेते हुए हर्षोल्लास भरा समय गुजारते हुए हलका फुलका, हँसता हँसाता जीवन जीते देखे गये हैं। यही है जीवन−विद्या का स्वरूप और प्रतिफल जिसे पाकर मनुष्य जन्म की सफलता, सार्थकता अनुभव की जा सकती है।

संजीवनी विद्या का आधार यह है कि हम अपने व्यक्तित्व को—दृष्टिकोण को परिष्कृत करने में जुट जाँय और गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर अधिकाधिक सुविकसित करते चले जाँय ताकि सामान्य साधनों की—अनगढ़ साथियों की, स्थिति रहते हुए भी हर्षोल्लास को खोये बिना शान्ति पूर्वक निर्वाह किया जा सके। जीवन विद्या का यह निर्वाह पक्ष है। प्रगति पक्ष यह है कि कैसे हमारी वे क्षमताएँ विकसित हों जो प्रगति का मूलभूत आधार सिद्ध होती रही हैं और होती रहेंगी।

देवताओं के रूप में वस्तुतः हमारे सद्गुणों को ही चित्रित किया गया है। उन्हीं की साधना वास्तविक देव साधना है। अदृश्य, अविज्ञात और अनिश्चित अस्तित्व वाले देवता प्रसन्न होकर वरदान देते हैं या नहीं यह संदिग्ध है पर यह पूर्णतया सुनिश्चित है कि हमारे सद्गुण रूपी देव पग−पग पर आकाश कुसुम बरसाते और ऐसी उपलब्धियाँ प्रदान करते हैं जिन्हें देखकर दूसरे लोग दाँतों तले उँगली दबायें और हम स्वयं अपनी प्रगति पर गहरा सन्तोष अनुभव करें।

जीवन के अनेक पहलू हैं। जिनमें मनःस्थिति को सन्तुलित बनाना सर्वप्रथम है। आलस्य और प्रमाद में कटने वाले समय को किस प्रकार अभीष्ट प्रगति की दिशा में सुनियोजित की जाय? मन में उत्साह और शरीर में स्फूर्ति कैसे पैदा हो? मस्तिष्क को अशान्त बनाये रखने वाले उद्वेगों से छुटकारा कैसे मिले? चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, रोष, असन्तोष जैसे मनोविकारों से छुटकारा पाकर निर्भय निश्चिन्तता की मनःस्थिति कैसे सम्भव हो? टूटे हुए मनोबल को शौर्य, साहस भरा कैसे बनाया जाय? अकारण तुनकने, खीजने, चिड़−चिड़ाने और आवेश आक्रोश में भर जाने की—अपने को और दूसरों को जलाने वाली आग्नेय आदत से कैसे पिण्ड छूटे? किसी भी काम में जम कर चित्त न लगने निरन्तर बन्दर की−सी उछल−कूद करने वाली चंचल अस्थिरता किस प्रकार निरस्त हो? कठिन प्रसंगों में भी सन्तुलन बनाये रखने की—विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय सुझाने वाली—विवेकशीलता का विकास कैसे हो? अपनी समस्याओं को हल करने के लिए दूसरों के सामने नाक रगड़ने की दीनता के स्थान पर स्वाभिमान एवं स्वाभिमान भरा आत्मबल कैसे ऊँचा उठे? वर्तमान ज्ञान परिधि को किस प्रकार निरंतर समुन्नत बनाने का प्रवाह जारी रहे? दिनचर्या निर्धारण करके उस पर सुदृढ़ कैसे रहा जाय? निरर्थक नष्ट होने वाली शक्तियों को किस प्रकार सुनियोजित किया जाय और उन्हें उपयोगी दिशा में कैसे सुसंलग्न करके अभीष्ट सफलता को सुनिश्चित बनाया जाय? यह मनःक्षेत्र से सम्बन्धित प्रश्न है जिनके हल खोजना और निकले हुए निष्कर्षों को तत्परता पूर्वक अपनाना ऐसा प्रयास है जिसके आधार पर कोई भी व्यक्ति मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी और प्रचण्ड प्रतिमा सम्पन्न बन सकता है।

हममें से अधिकाँश लोग रुग्ण रहते हैं। सृष्टि में ऐसी विशेषताओं से भरा शरीर अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला। मनुष्य शरीर की—उसके मस्तिष्क की मशीनरी ऐसी अद्भुत है जिस पर मनुष्यकृत अब तक की सारी याँत्रिक सफलताओं को निछावर करके फेंका जा सके सचमुच यह ईश्वर की अनुपम रचना है यदि हम शरीर का ठीक से उपयोग कर सके तो उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ पग−पग पर हर्षोल्लास से भरा−पूरा रख सकती हैं और कर्मेन्द्रियाँ समृद्धि के अनुदान दे सकती हैं, जिन पर कुबेर और इन्द्र को भी ईर्ष्या करनी पड़ी सचमुच मनुष्य अद्भुत है—अनुपम हैं−असाधारण है− अभिनव है।

शरीर गत दुर्बलता और रुग्णता निश्चित रूप से हमारी बनाई और बुलाई हुई है। मनुष्य बन्धनों में जकड़े हुए पशु−पक्षियों को छोड़कर उन्मुक्त प्रकृति की गोद में खेलने वाले वन्य प्राणियों में से कोई भी बीमार नहीं पड़ता। मौत और बुढ़ापा तो सबको आता है पर प्रकृति पुत्र प्राणियों को रुग्णता नहीं सताती। अकेला मनुष्य ही है जिसने अपनी तथाकथित बुद्धिमत्ता के अभियान में चूर होकर आहार−विहार की सरल प्रक्रिया को अत्यन्त विकृत बना दिया। रहन−सहन की समस्त मर्यादाओं का अतिक्रमण करके ऐसा आचरण आरम्भ कर दिया मानो वही सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। चाहे जो कर गुजरने में—इन्द्रियों का बुरे से बुरा दुरुपयोग करने में वह स्वतन्त्र हैं। इसी दर्प के चूर करने के लिए प्रकृति के हन्टर उसकी पीठ पर रुग्णता और दुर्बलता के रूप में पड़ते हैं। तिलमिला कर वह दवादारू के कुचक्र में पड़ता है जहाँ जले पर नमक बुरकने की तरह शरीर गत विषाक्तता को और अधिक बढ़ाते हुए—रोगों की स्थिर जड़ जमाते हुए मात्र तात्कालिक कष्ट शमन का जादू भर दिख जाता है।

स्वास्थ्य का संरक्षण, संवर्धन और शिथिलीकरण मनुष्य जीवन की एक महती आवश्यकता है। इसके बिना कुछ पाना, कमाना, भोगना तो दूर हर घड़ी रोते, कराहते, घर वालों को दुखी बनाते, दवादारू के खर्च सहते भार भूत जिन्दगी जीनी पड़ती है। इस नारकीय स्थिति से उबरने की चाबी मनुष्य के अपने ही हाथ में है। दूसरा कोई यहाँ तक कि हकीम डाक्टर और जादू यन्त्र वाले भी अस्वस्थता निवारण में कुछ सहायता नहीं कर सकते। खान−पान, आहार−विहार, रहन−सहन में अवाँछनीय अप्राकृतिकता की जो भरमार हो गई है उसमें आमूल चूल परिवर्तन करने का साहस जिस सीमा तक जुटाया जा सकेगा उसी अनुपात से रोगों की निवृत्ति और स्वास्थ्य रक्षा का दैवी वरदान पाया जा सकेगा।

हम खाते तो बहुत कुछ हैं—स्वाद भी विविध−विधि लेते हैं और व्यंजन पकवानों से विविधता में भी खूब रस लेते हैं—इस स्वाद लिप्सा पर पैसा और समय भी कम खर्च नहीं होता पर शरीर को शक्ति सामर्थ्य देने और उसे हरा−भरा बनाये रखने के लिए क्या, कितना, कब और कैसे खाया जाय? इस सम्बन्ध में पूर्णतया अनाड़ी होते हैं। न खाने योग्य खाते हैं और खाने योग्य फेंकते हैं। कौरवों को पाण्डवों के एक घर में जल में थल और थल में जल दीखा था और उन्हें द्रौपदी द्वारा ‘अन्धों के अन्धे ही होते है’ का व्यंग−उपहास सहना पड़ा था। वह पौराणिक कथा है पर हमारे आहार−व्यवहार में वह घटना सर्वथा सही सिद्ध होती हैं।

हर कार्य उलटा, हर आदत उलटी। कालिदास के आरम्भिक जीवन की यह घटना प्रसिद्ध है कि वे जिस डाली पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। पीछे को गिरे और घायल हो गये। हम आज के पूरे और पक्के कालिदास हैं जिस शरीर रूपी पेड़ से हमें विविध सुख−सुविधाओं का उपार्जन करना है—उसी का विकृत आदतों के शिकार होकर बेतरह काटते हैं। पीछे जब बीमारियाँ घेरती हैं तो देवी देवताओं से लेकर दुर्भाग्य तक को कोसते हैं। इस आत्म−प्रवंचना का नशा पीकर थोड़ा चैन सन्तोष मिल सकता है पर गुत्थी तो जहाँ की तहाँ उलझी पड़ी रहेगी हम चारपाई पर लिटा देने वाले तीव्र रोगों के शिकार न सही—आये दिन कष्ट देने वाले जुकाम, कब्ज, सिरदर्द, अनिद्रा, बेचैनी जैसे रोग तो निरन्तर बने ही रहते हैं। वे तो अब सभ्यता के अंग भी बन गये हैं और ‘बड़े आदमियों’ के लिए फैशन जैसी एक आवश्यकता मानी जाने लगी है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना से छुटकारा कैसे पाया जाय, इसका अत्यन्त सरल किन्तु अत्यन्त कठिन—अत्यन्त स्पष्ट किन्तु अत्यन्त रहस्यमय मार्ग है जिसे हर जीने वाले को अनिवार्य रूप से जानना चाहिए। प्रयत्न किया जायगा कि जीवन जीने की कला का—संजीवनी विद्या का जो दस दिवसीय प्रशिक्षण शान्ति कुँज में आरम्भ किया जा रहा है उसमें शरीर और मन जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों का सुसंचालन साँगोपाँग रीति से सिखाया समझाया जाय और बताया जाय कि कैसे अपनी शारीरिक मानसिक स्वस्थता के लिए किस क्रम से क्या उपाय करने चाहिए?

घर−परिवार मनुष्य को मिला हुआ एक सुरम्य उद्यान−उपवन है उसमें आनन्द और उल्लास के फल−फूल हर घड़ी उपलब्ध रहने चाहिए। उसकी शोभा सुषमा से—सुगन्ध−सुन्दरता से मन में हर समय आनन्द, उल्लास की गुदगुदी उठनी चाहिए। परिवार एक छोटा सा किन्तु समूचा राष्ट्र है−−समाज है। उसे बुद्धिमानी और दूरदर्शिता के साथ चलाया जाय तो हम कुशल राष्ट्रपति−−लोक नायक सिद्ध हो सकते हैं। इस छोटी से प्रयोगशाला में ऐसे आविष्कार किये जा सकते हैं—ऐसे प्रतिफल प्राप्त किये जा सकते हैं जिनसे अपना मन प्रमुदित रहे—गर्व गौरव अनुभव करे—परिजनों में हर्षोल्लास फूटता रहे, वे सभी सुसंस्कृत और सुविकसित बनते चले जाँय—बाहर के व्यक्ति उस परिवार को देखकर प्रेरणा ग्रहण करें—यह स्वप्न नहीं एक तथ्य है, जिसे कोई भी क्रियाकुशल व्यक्ति सहज ही सँजो सकता है।

परिवार के हर सदस्य का स्वार्थ और परमार्थ एक दूसरे के लिए घनिष्टता एवं मधुरता भरे सम्बन्ध बनाये रहने में है पर देखने में आता है कि उनके बीच कटुता और मनोमालिन्य की चौड़ी खाई बनी रहती है। यहाँ तक कि पति पत्नी—जिनके कि अनेक सहज स्वाभाविक कारणों से व्यक्तित्व अत्यन्त घुले−मिले होने चाहिए उनके बीच भी नारंगी की फाँकों की तरह पृथकता पाई जाती है—रोष, असन्तोष छाया रहता है—जब कि दोनों के बीच गंगा यमुना के संगम की तरह परम पवित्र स्नेह, सौजन्य निरन्तर उमँगता रहना चाहिए। परस्पर दोनों को एक प्राण दो शरीर बनकर रहना चाहिए। पर ऐसा दिखाई कहीं कदाचित् ही किंचित् ही पड़ता है। इसका कारण दृष्टिकोण की, स्वभाव की—आदतों की मलीनता ही है। यदि इसे परिष्कृत किया जा सके तो पति−पत्नी के बीच अनेकों असमानताएँ रहते हुए भी स्नेह सहयोग की सुदृढ़ता बनी रह सकती है और उसका लाभ पूरे परिवार को मिल सकता है। यह तो पति−पत्नी की बात हुई। बच्चों को शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक दृष्टि से सुविकसित होना—वयोवृद्ध का सन्तोष—संयुक्त परिवार के अनेक वयस्क अवयस्कों का समन्वय संतुलन अपने आप में बहुत बड़ा काम है। जिसे परिवार का अध्यक्ष अथवा उसका प्रभावशाली सदस्य सुव्यवस्थित बनाये रहने में आसानी से सफल हो सकता है।

घर की आर्थिक स्थिति—शोभा सज्जा—स्वच्छता, व्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि परिवार का प्रत्येक सदस्य अपना कर्त्तव्य उत्तरदायित्व समझे और उसे ठीक तरह निबाहे। इसके लिए उन्हें निरन्तर प्रशिक्षित करने और जागरूक रखने की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य झल्लाने से नहीं वरन् अत्यन्त मधुर, मृदुल और सहज स्वाभाविक रीति−नीति से ही हो सकता है। इसके लिए एक आचार संहिता होनी चाहिए और परिपाटी जिसमें बँधकर हर परिजन को अनुशासन और कर्त्तव्य की धुरी पर घूमते रहने का अभ्यास होना चाहिए यह कार्य सहज है। कठिन वे कार्य दीखते हैं जो अभ्यास में नहीं आते। जब इस प्रयोग को अपनाने के लिए उतरा जायगा तो प्रतीत होगा कि यह सब कुछ कितना सरल सुखद और स्वाभाविक है।

कहा जा चुका है कि परिवार संचालन एक राष्ट्र संचालन, समाज संरचना, उद्यान विकास जैसा कठिन किन्तु अधिक से अधिक विनोद−प्रमोद से भरा हुआ बहुत ही हलका−फुलका काम है। इस प्रयास में खाद पानी देने से लेकर नोंचने, उखाड़ने और काट−छाँट करने तक के अगणित उतार−चढ़ाव और क्रिया−कौशल सम्मिलित हैं। राजनेता, लोकनायक—मनोवैज्ञानिक—व्यवस्थापक, प्रशासक, चिकित्सक, सन्त और न्यायाधीश के समस्त गुणों का समन्वय परिवार के सफल संचालन में अभीष्ट होता है। जिन्हें इसका ज्ञान है उन्हीं को परिवार बसाना चाहिए। अन्यथा अनाड़ी कारखानेदार जिस प्रकार दुर्घटनाएँ करता है, दिवालिया बनता है और निन्दित, लाँछित होता है, वही दुर्गति उसकी होती है जो कामवासना से प्रेरित होकर कौतुक कौतूहल बस विवाह कर लेता है—परिवार बसा लेता है पर उसके संचालन की कला से सर्वथा अपरिचित होता है। हमारे परिवार आज इसी अनाड़ीपन की चट्टान से टकरा कर चूर−चूर हो रहे हैं। पर परिवार में नरक की ज्वालाएँ जल रही हैं और हर परिजन अपने को प्रतिबन्धित कैदी की तरह बँधा जकड़ा दुख भोगता अनुभव करता है।

जिन्होंने अभी नया परिवार नहीं बसाया है उन्हें भी वर्तमान परिवार के प्रति अपनी वफादारी जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए। व्यक्ति और समाज के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी ही परिवार है। उसे सुसंतुलित रखने से घर के सदस्यों के व्यक्तित्व निखरेंगे और समाज को सुयोग्य नागरिकों का अनुदान मिलेगा। जिनने अभी विवाह नहीं किया है—नया परिवार नहीं बसाया है—उन्हें तो उस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने की कला का सांगोपाँग अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है ताकि श्री गणेश ही श्रद्धा भरे वातावरण में किया जा सके। जिनके परिवार बन गये हैं—जो किसी परिवार के सदस्य हैं उन्हें भी यह जीवन कला जाननी चाहिए ताकि नरक को स्वर्ग में−अवगति को प्रगति में−−असन्तोष को स्नेह−सहयोग में बदलने की कुछ कहने योग्य सफलता प्राप्त की जा सके।

जीवन कला, संजीवनी विद्या कितनी महत्वपूर्ण है, उसका महात्म्य कह सुनकर समझाया नहीं जा सकता वह तो अनुभव करने की ही चीज है। जिसे हर आस्तिक नास्तिक को—हर शिक्षित अशिक्षित को−−हर नर−नारी को हर मत सम्प्रदाय वाले को सीखना समझना ही चाहिए। शान्ति कुँज को इस प्रशिक्षण के शुभारम्भ का केन्द्र बनाकर वस्तुतः अध्यात्म, धर्म और तत्व ज्ञान के अति प्राचीन आधार को आज की परिस्थिति में व्यवहार योग्य बनाने का अति नवीन प्रयत्न है। इस शिक्षा के आधार पर हमारे शरीर, मन और परिवार इस स्थिति में पहुँच सकते हैं जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा जा सके। मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो उसे मनुष्य में देवत्व का उदय होने के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यह अभिशप्त मानव जीवन के लिए दैवी वरदान से कम उपलब्धि नहीं है। जीवन कला वस्तुतः मनुष्य जीवन की सफलता सरलता का सर्वोच्च सोपान है।

आवश्यकताएँ बढ़ रही हैं—साथ ही महंगाई आकाश छू रही है ऐसी दशा में जनसाधारण का अर्थ सन्तुलन बिगड़ रहा है। पैसे की तंगी हर व्यक्ति अनुभव करता है। इतने पर भी यह कहा जा सकता है इस तंगी के लिए हम अपने को सर्वथा निर्दोष नहीं मान सकते। यदि अपनी अर्थ व्यवस्था के आय और व्यय स्रोतों पर पुनर्विचार करें तो स्थिति में आशाजनक परिवर्तन हो सकता है। बचे हुए समय का घर के वयस्क लोग उपार्जन के लिए उपयोग करें उपार्जन का कला−कौशल सीखें—श्रम से प्यार करने की आदत डालें—अधिक आजीविका देने वाले कार्यों को तलाश करते रहें—अपनी उपार्जन योग्यता बढ़ाते रहें तो कोई कारण नहीं कि उन सामूहिक प्रयत्नों से अधिक उपार्जन में योगदान न मिले।

अपने देश में केवल एक दो व्यक्ति ही कमाते हैं और शेष सारा परिवार बैठकर खाता है। जो असमर्थ हैं, जो व्यस्त हैं वे न कमायें सो ठीक है पर यह बुरा है कि काम करने में बेइज्जती समझी जाय और ठाले बैठे रहते हुए श्रम से जी चुराया जाय। इसी बुरी आदत ने ही अपने देश को दरिद्र बनाया है। उद्यमी पुरुषार्थी, परिश्रमी और कमाऊ बनने की आदत समस्त परिवार में उत्पन्न करनी चाहिए। दूसरी ओर मितव्ययिता की बात सोचनी चाहिए। असावधानी से और अनावश्यक चीजों में नशेबाजी जैसी बुरी आदतों में हमारा ढेरों धन नष्ट होता है यदि अनावश्यक को छोड़ने और आवश्यक मदों में खर्च बढ़ाने की बात नये सिरे से सोची जाय तो वर्तमान मदों में भारी हेर−फेर करने की आवश्यकता प्रतीत होगी। बजट बनाकर चला जाय। आमदनी और खर्च का—आवश्यक−अनावश्यक का−ध्यान रखते हुए किस मद में कितना खर्च किया जाय इसका सन्तुलन बनाया जाय तो कम आमदनी के लोग भी एक उपयोगी व्यवस्था बना सकते हैं और इस आधार पर कम आमदनी होते हुए भी प्रसन्नता और सन्तोष का जीवन जी सकते हैं।

इन मोटी बातों को सिद्धान्ततः सभी लोग जानते हैं पर ऐसे बहुत कम हैं जो साहस पूर्वक इन अनभ्यस्त सिद्धान्तों के वर्तमान ढर्रे को पलट कर फिर से नई अर्थ नीति निर्धारित कर सकें और नया प्रयास अभ्यास चालू कर सकें। जीवन जीने की विद्या के अंतर्गत इस संदर्भ में शुभारम्भ से लेकर उसके क्रमिक विकास की प्रक्रिया उदाहरण देकर समझाने का प्रयत्न किया जाना है ताकि आर्थिक तंगी से, ऋण ग्रस्तता से छुटकारा पाने का नैतिक एवं बुद्धि संगत और व्यावहारिक मार्ग प्राप्त किया जा सके। बाल बुद्धि के उपहासास्पद उपाय तो सट्टा, लाटरी, जुआ, चोरी से लेकर भाग्योदय, गढ़ा खजाना मिलने और लक्ष्मी देवी को सिद्ध करने जैसे अनेकानेक हैं, पर उनसे निरर्थक समय नष्ट होता है और निराशा ही हाथ लगती है। मंजिल तो दो पैरों से ही चली जाती है। उड़ानें और कुदानें मधुर तो लगती हैं पर व्यावहारिक नहीं हैं।

समाज व्यवहार—शिष्टाचार दूसरों के साथ निभाना और उन्हें अपने साथ निभाना−−प्रतिष्ठित, प्रामाणिक और सम्मानित होकर जीना सबसे बड़ा कला−कौशल हैं। जिसे लोग भावनापूर्वक सहयोग प्रदान करें—जो लोगों को सहयोग देकर अपनी गरिमा का गर्व अनुभव कर सके वह सफल कलाकार है। जिसने हँसना सीखा और हँसना सिखाया उसका गौरव किसी सम्पत्तिवान से कम नहीं है। “टूटे को बनाना और रुठे को मनाना” जिसे आता है उसे सब कुछ आता है। जिसकी वाणी से मधुरता और व्यवहार से सज्जनता टपकती है वह सच्चे अर्थों में शालीन है। उदारता, आत्मीयता, सहृदयता, सज्जनता, ऐसे गुण हैं जिनसे आकर्षित होकर हर कोई खिंचता और चिपकता चला आता है। जो अपने को प्रामाणिक—विश्वस्त और चरित्रवान सिद्ध कर सका मानो उसने सबका हृदय जीत लिया। ऐसे व्यक्तित्व हर काम में सफल होते हैं। जन सहयोग प्राप्त कर सकना दूसरों पर अपनी छाप छोड़ सकना बहुत बड़ी उपलब्धि है। प्रगति और सफलता के अनेक द्वार इसी आधार पर खुलते हैं। कोई व्यक्ति एकाकी प्रयत्नों से कहने लायक उन्नति नहीं कर सकता। जन सहयोग पग−पग पर चाहिए और वह प्रभावी एवं आकर्षक व्यक्तित्व के आधार पर ही मिलता है। उसे उपार्जित किया जा सकता है बशर्ते कि अपने आप का नये सिरे से निर्माण आरम्भ किया जाय। जीवन कला के अंतर्गत व्यक्तित्व को प्रतिभाशाली बनाने के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक आधारों को सीखने हृदयंगम करने एवं अभ्यास में लाने की प्रेरणा मिलती है। स्व परिवर्तन वृद्ध शरीर को युवा बनाने वाले तथाकथित कायाकल्प विधान से कम नहीं कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण है। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हर मनुष्य के कुछ परम पवित्र कर्त्तव्य हैं। आत्मा और परमात्मा के लिए बिना कुछ किये किसी को शान्ति नहीं मिल सकती। परमार्थ, लोक मंगल और सर्वोत्कर्ष की आदर्शवादी रीति−नीति को जीवन में कोई स्थान न रहे तो वह सर्वथा नीरस और निरर्थक बन जायगा भले ही उसके साथ कितनी ही बढ़ी−चढ़ी सम्पन्नता क्यों न जुड़ी हो। धर्म और अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा इसीलिए खड़ा किया गया है कि मनुष्य न केवल व्यक्तिगत उत्कृष्टता प्राप्त करे वरन् सामाजिक क्षेत्र में भी आदर्शवादी क्रिया−कलापों में उत्साह पूर्वक बढ़े−चढ़े अनुदान प्रस्तुत करने का समुचित प्रयास करे। उभय−पक्षीय प्रयोजनों का सन्तुलन बनाये रहकर—स्वार्थ एवं परमार्थ का समन्वित क्रिया−कलाप क्या होना चाहिए—अपनी स्थिति में कौन क्या कर सकता है यदि इसकी समुचित जानकारी एवं प्रेरणा मिल सके तो मनुष्य सच्चे अर्थों में सुख शान्ति पा सकता है और सुखी सन्तुष्ट रह सकता है उसके चेहरे पर प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता नाचती पाई जायगी।

ऊपर की पंक्तियों में सफल जीवन की दिशा में कुछ विचारणीय आधारों की चर्चा है। इनकी सिद्धान्त रूप से पुस्तकों और सत्संगों में कभी−कभी अधूरी चर्चा पढ़ने सुनने को भी मिल जाती है पर क्रमबद्ध सामयिक एवं व्यक्ति विशेष की स्थिति समस्या को ध्यान में रखते हुए तदनुकूल परामर्श मिलना कहीं कदाचित् ही सम्भव होता है। न लोग ठीक तरह अपनी स्थिति व्यक्त कर पाते हैं और न आदर्श एवं व्यवहार को मिलाकर चलने का चिन्तन अनुभव किन्हीं को है फलतः यदि पूछने बताने की बात भी निरर्थक सिद्ध होती है कई बार तो उलटे परामर्श देकर भौंड़े सलाहकार कई बार गुत्थी और भी अधिक उलझा देते हैं। आदर्शवादी सिद्धान्त जिनका आज बहुत ढोल पीटा जाता है—इन परिस्थितियों में किस हद तक—किस प्रकार−−किस स्तर पर प्रयुक्त किये जा सकते हैं और क्रमिक पग बढ़ाने की प्रक्रिया क्या हो सकती है। इसे कोई विरले ही जानते हैं। आदर्श और व्यवहार की संगति न बैठ पाने के कारण अब उन्हें केवल कहने सुनने की—चर्चा विनोद की अव्यावहारिक प्रक्रिया भर मान लिया गया है। यह कितनी दुखद विडम्बना है।

जीवन जीने की कला—संजीवन विद्या—आज की स्थिति में आज के मनुष्य के लिए पूर्णतया व्यवहार में आने योग्य है। उसमें किसी प्रकार की हानि होने की बात रत्ती भर भी नहीं है। हर दृष्टि से उसमें हर प्रकार का लाभ ही लाभ है। ऐसी जीवन विद्या को सीखना और सिखाना निश्चित रूप से अति महत्वपूर्ण और अति आवश्यक है।

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