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Magazine - Year 1974 - Version 2

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शिक्षा की ही नहीं विद्या की भी आवश्यकता समझी जाय

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शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण का स्तर, साधन, परिस्थितियाँ एवं शिक्षार्थी का बौद्धिक स्तर सही होना पर्याप्त है। यह साधन जहाँ भी जुट जायेंगे वहाँ शिक्षा का लाभ सफलतापूर्वक मिलने लगेगा। शिक्षा हमारे लौकिक जीवन की सुव्यवस्था के काम आती है। जानकारी बढ़ने से सोचने की परिधि बढ़ जाती है—लिखने और बोलने की भाषा परिष्कृत होती है—अर्थोपार्जन की क्षमता बढ़ती है, विभिन्न शिल्प एवं कला−कौशल अभ्यास में आते हैं। इन आधारों पर मनुष्य नौकरी अथवा स्वावलम्बी उपार्जन में अधिक सफल होता है। ऐसे−ऐसे अनेक लाभों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा का प्रचलन किया गया है। पढ़ने पर सर्वत्र बहुत जोरी दिया जाता है। सर्वत्र स्कूल, कॉलेज खुले हैं−−खोले जा रहे हैं—यह उचित ही है। मस्तिष्कीय विकास की दृष्टि से—अर्थोपार्जन जैसी आवश्यकता पूरी करने की दृष्टि से −अति आवश्यक शिक्षा का विकास होना ही चाहिए—उससे हर व्यक्ति को लाभान्वित होना ही चाहिए। इसमें दोरायें नहीं हो सकतीं।

भौतिक जानकारियों से सम्बन्धित शिक्षा की आवश्यकता और उपयोगिता को हम जानते हैं पर उसके दूसरे पक्ष को भूल जाते हैं जिसके बिना हमारी ज्ञान−वृद्धि सर्वथा अधूरी और अपंग बनी रहती है। ज्ञान की दूसरी धारा है—विद्या। विद्या का अर्थ है दृष्टिकोण का परिष्कार—चिन्तन और भावोल्लास में उत्कृष्टता का निखार। इसके बिना मनुष्य के अंतराल में छिपी हुई रहस्यमय दिव्यता का विकास नहीं हो सकता। मानवता एवं महानता की आन्तरिक श्रेष्ठता का विकास जिस क्रम से होता है उसी क्रम से मनुष्य की आकाँक्षाएँ, विचारधाराएँ और गतिविधियाँ उच्चस्तरीय बनती जाती है। गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से उसका स्तर उठता जाता है। मन, वचन, कर्म में ऐसी विशेषताएँ दीख पड़ती हैं जिनके संपर्क में आने वाला हर मनुष्य प्रसन्नता अनुभव करता है, प्रकाश ग्रहण करता है। इन दिव्य सम्पदाओं से सुसज्जित व्यक्ति अपने आप में हर घड़ी सन्तुष्ट एवं प्रफुल्ल रहता है भले ही उसे अपेक्षाकृत अभावग्रस्त एवं कष्ट−साध्य परिस्थितियों में रहना पड़ रहा हो, यही है विद्या का चमत्कार— महात्म्य और प्रतिफल।

प्राचीन काल में विद्या का महत्व समझा जाता था और उसे शिक्षा का अविच्छिन्न अंग बनाकर रखा गया था। गुरुकुलों की प्रशिक्षण पद्धति में जहाँ भाषा, गणित, भूगोल, शिल्प आदि विषयों का समावेश था वहाँ ऐसा वातावरण भी जुड़ा रहता था जिसमें शिक्षार्थी को अपनी आत्म−चेतना का स्तर आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुरूप ढालने का अवसर मिल—उसके व्यक्तित्व का—गुण, कर्म, स्वभाव का विकास−परिष्कार अनवरत गति से ऊर्ध्वगामी बनता चले। बौद्धिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण की ऐसी धाराएँ उस शिक्षा−पद्धति में जुड़ी हुई थीं जिनके सहारे न केवल भौतिक योग्यताएँ वरन् आत्मिक विशेषताएँ भी शिक्षार्थी को समान रूप से मिलती रहें।

अर्वाचीन समाज निर्माताओं का विचार कुछ दूसरा ही है वे भौतिक जानकारियों वाली अर्थकारी शिक्षा को पर्याप्त मानते हैं। अस्तु शिक्षण संस्थाओं का कार्य क्षेत्र बहुत सीमित रह गया है वे साक्षरता से अपने प्रयास आरम्भ करती है और स्नातक बनाकर अपना प्रयोजन पूरा कर लेती हैं। शिक्षार्थी को जानकार एवं अमुक क्षेत्र में क्रिया कुशल बनने का लाभ तो मिल जाता है, पर उसे वहाँ ऐसा कुछ नहीं मिलता जिस अन्त चेतना के परिष्कार में सहायक कहा जा सके। इस कमी के कारण शिक्षार्थी की उपलब्धियाँ सर्वथा अधूरी रह जाती हैं। उसकी जानकारी एवं कुशलता अपनी सीमा में कितनी ही बढ़ी−चढ़ी क्यों न हो व्यक्तित्व का स्तर ऊंचा उठ नहीं पाता। वक्त खिलाड़ी, शिल्पी, कला−कुशल आदि वह कुछ भी बन जाय पर एक ऐसी कमी अपने भीतर अनुभव करता है जिसके अभाव में वह चेतनात्मक प्रगति की दिशा में अपंग असमर्थ ही बना रहा।

विज्ञान, अर्थोपार्जन, शिल्प, कला आदि का अपना महत्व और कार्यक्षेत्र है। भौतिक प्रगति के लिए उन सबकी जरूरत है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि व्यक्तित्व को परिष्कृत करना अपने आप में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य क्षेत्र है। इसमें अनजाने बने रहने से कोई भी ऐसी स्थिति नहीं पा सकता जिसके आधार पर वह भीतर आत्म−सन्तोष प्राप्त करे और बाहर आत्म−गौरव का पोषण कर सकने वाला वातावरण पाये। जीवन जीना एक महान् शिल्प है। जिसे सलीके का जीवन जीना नहीं आया उसका सारा शिक्षा लाभ अपंग है। धन से सुविधा साधन खरीदे जा सकते हैं—प्रतिभा से दूसरों को आतंकित अथवा चमत्कृत किया जा सकता है—इतनी ही तो जीवन को आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को इससे ऊँचा भी कुछ चाहिए इससे आगे की भी मंजिल पार करनी उसे अभीष्ट होना चाहिए। यह अभाव विद्या के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है।

विद्या का स्वरूप है—विचारणा एवं भावना के स्तर को उच्चस्तरीय बनाने वाला ज्ञान, अनुभव एवं अभ्यास। यदि उसे प्राप्त किया गया होगा तो जीवनयापन की शैली में उत्कृष्टता का ऐसा समावेश होगा जिसके आधार पर वह अपने सहचरों सहकर्मियों संपर्क में आने वालों का हृदय जीतता चला जायगा। जहाँ भी सम्बन्ध स्थापित करेगा वहीं अपने लिए श्रद्धा एवं सम्मान का बीजारोपण करेगा। धनवान, गुणवान एवं शक्ति वान का अपना महत्व है, पर सबसे बड़ा महत्व परिष्कृत व्यक्तित्व का है आत्मवान मनुष्य कितना बड़ा कितना समर्थ और कितना प्रभावी होता है इस तथ्य को समझने में तो आज हम सब प्रायः असमर्थ ही हो रहे हैं।

बाहर के लोग किसी की सम्पदा, रूप, प्रतिमा एवं पदवी से प्रभावित हो सकते हैं पर अपने आप को जो सन्तोष तथा चैन मिलता है उसका आधार केवल अपनी आन्तरिक सम्पदाओं से—विभूतियों से ही जुड़ा रहता है। दुष्ट, दुर्गुण, व्यसनी, अनाचारी व्यक्ति अपने आप में कितना अशान्त, उद्विग्न रहता है इसे उसके अतिरिक्त और किसी बाहरी व्यक्ति के लिए समझ सकना कठिन है। वह अपने आप ही अपनी आग में जलता, झुलसता रहता है। ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, रोष, उद्वेग, विक्षोभ के अनेकानेक उतार−चढ़ाव उसे प्रेत−पिशाच की तरह अशान्त किये रहते हैं। मनः शास्त्र के अनुसार यह स्थिति अगणित ऐसी शारीरिक और मानसिक आधि−व्याधियों को जन्म देती हैं जिनका उपचार न तो औषधियों से होता है और न सान्त्वना देने वाले विनोदात्मक उपचारों से। ऐसे उद्विग्न मनुष्य नशेबाजी, व्यभिचार, ठाठ−बाठ, पर्यटन व्यसन, विलास आदि की योजनाएँ बनाकर उद्विग्नता का समाधान खोजते रहते हैं। दवादारू एवं बहुमूल्य आहार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, पर उनका शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सुधरने ही नहीं पाता। खर्चीली और निन्दात्मक दौड़धूप कुछ क्षण भी राहत नहीं दे पाती और सारे प्रयास निरर्थक चले जाते हैं। अन्तःक्षेत्र को निकृष्टता कितनी आत्म−प्रताड़ना देती है; काश हम इसे समझ सके होते तो अनुभव करते कि इससे बढ़कर जीवन का अभिशाप दूसरा नहीं हो सकता।

दुर्गुणी, कुकर्मी एवं दुर्भावनाग्रसित व्यक्ति प्रतिभाओं एवं कुशलताओं से सम्पन्न होते हुए भी संपर्क क्षेत्र में अपने लिए श्रद्धा उत्पन्न नहीं कर सके फलतः उन्हें सच्चे सहयोग से वंचित रहना पड़ता है यह एक तथ्य है कि निकटवर्ती संपर्क क्षेत्र की सहायता से ही कोई व्यक्ति ऊँचा उठने में समर्थ हुआ है। जिसकी निकृष्टता संपर्क क्षेत्र में घृणा और तिरस्कार के भाव उत्पन्न करती है वह कभी भी सच्चे सहयोग का—सच्चे सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। किसी प्रयोजन विशेष के लिए लोग उसकी चापलूसी कर सकते हैं और लाभ में हाथ बटा सकते हैं पर सितारा गिरते ही वे पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं इतना ही नहीं गिरे में दो लात लगाने की उक्ति भी चरितार्थ करते हैं। दुरात्मा अनुभव करता है कि कुसमय में उसका एक भी सच्चा मित्र या सच्चा सहायक नहीं है। वस्तुतः ऐसे एकाकी मनुष्य को ही अभागा कह सकते हैं। मात्र अपने पुरुषार्थ के बल पर सीमित प्रगति ही की जा सकती है। उच्चस्तरीय और चिरस्थायी सफलताएँ उसी को मिलती हैं जिसने अपने लिए श्रद्धा और सम्मान का वातावरण उत्पन्न कर रखा होगा। यह लाभ केवल उन्हीं के लिए सुरक्षित है जिनकी आन्तरिक स्थिति उत्कृष्टता के आधार पर विकसित—परिष्कृत हुई है।

मनुष्य जीवन को समग्र सफलता के लिए उस ज्ञान की महती आवश्यकता है जिसे विद्या के नाम से पुकारा जाता है—जिसके आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव, का परिष्कृत व्यक्तित्व का निर्माण होता है। न केवल वैयक्तिक समृद्धि के लिए—सुख−शान्ति के लिए—वरन् सामाजिक सुव्यवस्था एवं प्रगति के लिए भी ऐसे ही परिष्कृत व्यक्तित्वों की आवश्यकता है। किसी राष्ट्र अथवा समाज का भवन व्यक्ति घटकों की ईंटों से चुना जाता है। जिस देश के नागरिक ओछे और निकृष्ट होंगे वहाँ विविध−विधि संकट, विद्रोह, अनाचार उभरते रहेंगे और गृह युद्ध जैसी स्थिति बनी रहेगी। अनाचार का जुड़वा भाई असहयोग है। जहाँ सहयोग नहीं वहाँ प्रगति कहाँ। दुष्प्रवृत्तियाँ रोष−प्रतिशोध उत्पन्न करती हैं फलतः क्लेश−कलह के अनेकानेक दुर्भाग्य पूर्ण घटना क्रम सामने आते रहते हैं। ऐसे अन्तः द्वंद्वों की—गृह−क्लेशों की—विभीषिकाओं में उलझा हुआ राष्ट्र कभी भी प्रगति नहीं कर सकता कभी समर्थ नहीं हो सकता उसकी सारी शक्ति उन्हीं विडम्बनाओं को सुलझाने दबाने में—नष्ट होती रहती है। प्रगति के लिए जब समस्त साधन इन्हीं अव्यवस्थाओं, विस्फोटों से निपटने में लग जाँय तो आखिर प्रगति के लिए साधन बचेंगे ही कहाँ?

कि सी देश की गरिमा उसकी भौतिक उपलब्धियों से नहीं आँकी जाती, वास्तविक सम्पदा तो वहाँ के चरित्रवान एवं आदर्शवादी नागरिक ही होते हैं। यही वास्तव में बहुमूल्य मणि माणिक्य हैं। सच्ची समृद्धि इसी रत्न राशि की—बहुलता पर निर्भर है। सम्पन्नता धन पर आधारित नहीं है—शक्ति का माप आयुधों से नहीं किया जाता—बड़प्पन क्षेत्र—विस्तार या जनसंख्या पर टिका हुआ नहीं है। किसी राष्ट्र का गौरव उसके लौह नागरिक ही होते हैं। पिछले दिनों जर्मनी, इसराइल, जापान आदि छोटे देशों ने जो ऐतिहासिक भूमिकाएँ निबाही हैं और संसार को चमत्कृत किया है उसमें वहाँ के नागरिकों का मनोबल ही प्रधान था। किसी समय भारत विश्व का मुकुट मणि था। इसमें उसके अर्थ साधन कारण नहीं थे, और न शिक्षा शिल्प, कौशल आदि का ही महत्व था उसकी संस्कृति और जीवनयापन की रीति−नीति ही वह कारण थी जिससे भारत अपने आप में स्वर्ग समतुल्य बना सतयुगी सुख−शान्ति से सम्पन्न रहा और समस्त संसार को ऊँचा उठाने आगे बढ़ाने में अद्भुत योगदान देता रहा। उत्कृष्ट व्यक्ति ही अपने देश, समाज एवं युग को धन्य बनाया करते हैं।

व्यक्ति का अस्तित्व गीली मिट्टी जैसा है। शिक्षा संस्कृति एवं परिस्थितियाँ उसे बल देती हैं और ऊँचा उठाती हैं। यदि इस क्षेत्र में विकृतियाँ घुस पड़ें तो फिर मनुष्य उनसे प्रभावित होकर नीचे गिरता चला जायगा। यह ठीक है कि आत्मा का अपना स्वरूप और बल है वह परिस्थितियों को अपनी अन्त शक्ति के आधार पर बदल सकता है। पर साथ ही इस मान्यता में इतना और जोड़ रखना चाहिए कि उस अन्त शक्ति को सुविकसित करने के लिए वातावरण युक्त विद्या का खाद पानी भी दिया जाना चाहिए। बिना इन साधनों के अन्तः शक्ति का बीज अपने स्थान पर पड़ा भले ही रहे वह उगेगा, बढ़ेगा और फलेगा−फूलेगा नहीं। अस्तु आत्म शक्ति के विकास का सीधा सम्बन्ध मनुष्य की विचारणा भावना एवं क्रियाशीलता में उत्कृष्टता का समावेश कर सकने वाली विद्या के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

अपने समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हम विद्या के महत्व को लगभग पूरी तरह भूल गये हैं। शिक्षा के क्षेत्र में से उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया है। धर्म और अध्यात्म के आधार इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए ही विनिर्मित विकसित हुए थे। उनने भी अपनी दिशा बदल दी अब वे परम्पराओं के दुराग्रह में निरत हैं अथवा सस्ते कर्मकाण्डों से स्वर्ग मुक्ति का सिद्धि चमत्कार का काल्पनिक प्रसाद वितरण करते हैं। सन्त−साधु और ब्राह्मण पुरोहितों की कमी नहीं, पर वे अपने मूल कर्त्तव्य से सर्वथा विमुख होकर धन और सम्मान लूटने के जाल बुनने में निरत हैं। शिष्य और यजमान अब उनके सेवा साध्य नहीं रहे वरन् दुधारू गाय मात्र रह गये हैं। विद्या संवर्धन के लिए खड़ा किया गया धर्म क्षेत्र भी जब इन्हीं विडम्बनाओं में डूब गया तो शिक्षा शास्त्रियों समाज के कर्णधारों और राजनेताओं को किस मुँह से दोष दिया जाय?

आज की स्थिति कुछ भी क्यों न हो—मानवी प्रगति और सुख−शान्ति की आधार शिला ‘विद्या’ की अवमानना नहीं हो सकती—उसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता—निरर्थक नहीं ठहराया जा सकता। उसका महत्व जनसाधारण को समझाना ही पड़ेगा और इस तथ्य को हृदयंगम कराना पड़ेगा कि विद्या के बिना न व्यक्ति को शान्ति मिलेगी न समाज की प्रगति होगी। विद्या की आवश्यकता को झुठलाते रहना अपने ही दुर्भाग्य को सिर पर लादे रहना है। भौतिक प्रगति कितनी ही विस्तृत क्यों न हो जाय यदि मनुष्य का आन्तरिक स्तर गिरा रहा तो उस प्रगति का उपयोग संग्रहित बारूद में जल मरने जैसा ही होगा।

वैयक्तिक चरित्र निष्ठा—चिन्तन की उत्कृष्टता और क्रिया कलाप में आदर्शवादिता का जो समावेश कर सके ऐसी विद्या का बीजारोपण उत्पादन एवं अभिवर्धन इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस तथ्य को समझा जाना चाहिए और उसके लिए प्रबल प्रयत्न किया जाना चाहिए। रक्त शोधन से ही दाद, खाज, फोड़े, चकत्ते, चेचक विस्फोट अच्छे होंगे ऊपरी उपचारों का क्षणिक परिणाम ही मिलेगा। चर्म रोगों की जड़ काटने के लिए रक्त−शोधन आवश्यक है। आज की अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों, कुत्साओं और कुण्ठाओं का निराकरण मनुष्य के चिन्तन परिष्कार से ही सम्भव होगा। यह प्रयोजन विद्या तत्व की आवश्यकता समझने और उसे उपलब्ध करने के साधन खड़े करने से ही सम्भव होगा। अपने युग की यह सबसे बड़ी माँग, पुकार और आवश्यकता है। सर्वनाश की ओर दौड़ी जा रही नामक जाति को सामूहिक आत्म हत्या से विरत करने की रोकथाम विद्या अभिवर्धन के बिना और किसी प्रकार हो नहीं सकेगी। उज्ज्वल भविष्य की आशा विद्या प्राप्त करने के साधन खड़े किये बिना और किसी प्रकार फलित नहीं हो सकती।

डडडड चिन्तन के उपरान्त हरिद्वार में अवस्थित शान्ति−कुञ्ज आश्रम ने विद्या तत्व की प्रयोगशाला के रूप में अपने को प्रस्तुत किया है। विद्यालय के नाम तो सर्वत्र सुने जाते हैं, पर नाम को सार्थक करने वाली उपलब्धियाँ जहाँ से मिलती हों ऐसे संस्थान ढूंढ़ने में निराशा ही हाथ लगती है। शिक्षालय हैं—रहें और रहने चाहिएँ पर विद्यालयों की परम्परा समाप्त नहीं हो जानी चाहिए। इस अभाव से जूझने के लिए—इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए शान्ति−कुञ्ज न सत्र शृंखला के अंतर्गत एक विनम्र प्रयास प्रारम्भ किया है। आशा की जानी चाहिए कि स्वल्प साधनों से प्रारम्भ किया गया यह छोटा सा प्रयास अपने युग की एक महती आवश्यकता को पूरा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करेगा।

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