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Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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युगान्तर चेतना के लिये भाव भरे अनुदान का आह्वान

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First 19 21 Last
शान्ति कुञ्ज की प्रस्तुत गतिविधियों की चर्चा पिछले पृष्ठों पर की जा चुकी है। लोक−मानस के—जन−समाज की सर्वतोमुखी प्रगतिशील लोक−शिक्षण में हमारी समस्त गतिविधियाँ केन्द्रित हैं। चिन्तन और कर्तृत्व में जो कायाकल्प उत्पन्न किया जा सके उसी विचारक्रान्ति के लिये हमारे विविध−विध प्रयत्न चल रहे हैं। लक्ष्य एक है—कार्यक्रम समय की माँग पूरी करने के लिये कई बनाने पड़ रहे हैं। वस्तुतः हम युगान्तर प्रस्तुत करने वाली चेतना का ज्ञान गंगा का अवतरण करने के लिये भागीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। हमारा ज्ञान यज्ञ सतयुग की कल्पना को साकार करने वाले नवयुग को धरती पर उतारने के लिए है। हम मनुष्य में देवत्व का उदय देखना चाहते हैं और इन्हीं स्वप्नों को साकार करने के लिए समुद्र को पाट कर अपने अण्डे पुनः प्राप्त करने के लिये चोंच में बालू भर−भर डालने में निरत टिटहरी की तरह उत्कट संकल्प लेकर जुटे हैं। हमें विश्वास है कि हमारे न सही—महर्षि अगस्त्य के सही ऐसे प्रयास सफल होकर रहेंगे जो समुद्र को सुखा सकें और अपहरण किये अण्डों को अवाँछनीयता के मुख में चले जाने पर भी वापिस लाया जा सके।

इन प्रयत्नों को सच्चे अर्थों में विश्व−विद्यालय कहा जा सकता है। ‘विश्व’ इसलिए कि उसका लक्ष्य कोई सीमित वर्ग या क्षेत्र नहीं, वरन् समस्त विश्व वसुधा है—विश्व−मानव का समूचा परिकर हमारा सेवा क्षेत्र है। ‘विद्यालय’ इसलिये कि शिक्षा की स्वल्प उपलब्धि केवल भौतिक प्रगति का द्वारा खोलती है, व्यक्तित्व का परिष्कृत विकास तो विद्या पर ही आधारित है। हम ‘विद्या’ की गरिमा समझाने और जन−मानस में उसकी पुनः प्राण−प्रतिष्ठा करने में निरत है। इन प्रयत्नों का केन्द्र यह छोटा सा आश्रम है जिसे ‘आलय’ कहा जा सकता है। विश्व−विद्यालय के नाम से कितने ही परीक्षा संस्थान और कालेजों का समन्वय सम्बन्धित किया जाता है, पर शब्द के अर्थ को सार्थक करने वाले विद्यापीठ कहीं भी दृष्टि−गोचर नहीं होते। भारतीय संस्कृति को सुविकसित, सुविस्तृत बनाने वाली इस लुप्त प्रायपुण्य परम्परा के पुनर्जागरण का यह अभिनव प्रयास है इन प्रयत्नों को विश्व विद्यालय की अन्तरात्मा कहा जाय और युगान्तर चेतना कहा जाय तो यह उचित ही होगा। हम सचमुच ही युगान्तर प्रस्तुत करने जा रहे हैं। प्रस्तुत नरक जैसी सड़ी कीचड़ में धँसी हुई मनुष्य जाति को सड़ने नहीं दिया जा सकता। हम उसे मानवी गरिमा के उच्च शिखर तक पहुँचाकर ही चैन लेंगे। ‘करों या मरो’ हमारा निश्चय है। इसी संकल्प का एक छोटा−सा मूर्तिमान शिलान्यास शान्ति−कुञ्ज है। कुछ कदम उठाये जा चुके हैं−−कुछ उठाये जा रहे हैं और कुछ उठाये जाने हैं। जो हो रहा है वह शुभारम्भ श्रीगणेश है जो होने वाला है वह अति विस्तृत है—अकल्पनीय है। आज के अपने प्रयासों का प्रत्यक्ष स्वरूप नगण्य है, पर उसकी सम्भावनाओं की यदि कल्पना की जा सके तो वे हिमालय से ऊँची और समुद्र से गहरी है। इस दुस्साहस को आज की परिस्थितियों में यदि अद्भुत और अनुपम कहा जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

युगान्तर चेतना को द्रुतगति से अग्रगामी बनाया जाय समय दान सबसे बड़ी और सबसे प्रमुख माँग है। इसे पूरा करने के लिए हम अन्यमनस्क मनःस्थिति और मंथर गति लेकर नहीं चलेंगे वरन् आपत्तिकालीन संकट का सामना करने के लिए जिस प्रकार युद्धस्तरीय दुस्साहस किये जाते हैं वैसे ही हम भी करेंगे। शान्ति−कुञ्ज सत्प्रवृत्तियों का प्रेरक छोटा सा आश्रम है तो जरूर पर उसका उतना सीमित रूप भविष्य में न रखा जा सकेगा और बालक आज खिलौना जैसा लगता जरूर है पर भविष्य में उसे प्रौढ़−वयस्क और परिपुष्ट लौह पुरुष के रूप में विकसित होने की हमारी पूरी पक्की कल्पना है। इस संस्थान को इतने छोटे रूप में सीमित नहीं रखा जायगा जितना कि वह अब है। यह अंकुर खाद पानी प्राप्त करेगा तो क्रमशः विशालकाय वटवृक्ष के रूप में विकसित होगा और अपनी शानदार भूमिका का निर्वाह करेगा। यह सपने सदा सपने ही न रहेंगे, उन्हें मूर्तिमान बनाने के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए वह सब कुछ किया जायगा।

ऊपर की पंक्तियों में जहाँ भी ‘हम’ शब्द का प्रयोग हुआ है उसका अर्थ इन पंक्तियों का लेखक—एक व्यक्ति नहीं—वरन् वह अखण्ड−ज्योति मिशन का समूचा परिवार है। हम का अर्थ है—हम लोग—हम लोग का अर्थ है वे लोग जिनके सहयोग से हमारी गतिविधियाँ बढ़ती और फलती−फूलती रही हैं। जिन हाथों को हम अपनी भुजाएँ समझते हैं और अपने को दो हाथ वाला नहीं वरन् ‘सहस्रबाहु’ मानते हैं। प्रेरणाएँ और योजनाएँ भले ही हमारी रही हों, पर उन्हें मूर्तिमान, अग्रगामी और फलवती बनाने में अपने इसी परिवार की श्रद्धा, भक्ति, श्रम एवं मनोयोग लगा है। साधनों की आवश्यकता पड़ी है उसकी 99 प्रतिशत पूर्ति अपने ही परिजनों ने पेट काटकर की है। बाहर के लोगों का सत्कार तो एक प्रतिशत से भी कम मिला है।

तन और मन के अतिरिक्त तीसरा साधन है—धन। अब उसके लिये मात्र संकेत न करके—स्वेच्छा सहयोग के लिए प्रतीक्षा करने में काम चलता दिखाई नहीं पड़ता। अब इस स्तर के अनुदानों को अधिक त्याग और साहस का समावेश करने के लिये आग्रह करना पड़ेगा। क्योंकि साधनों के अभाव में काम की गति में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। योजनाएँ बड़ी हैं—उनके लिए शान्ति−कुञ्ज का स्थान बहुत ही अपर्याप्त है। मात्र 150-200 आदमी जहाँ किसी प्रकार ठूँसे जा सकें उतनी जगह में—देशव्यापी−−विश्व−व्यापी अभियान के लिए किस प्रकार प्रचुर परिमाण में सुयोग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। युगान्तरकारी साहित्य का विशाल परिमाण में सृजन और प्रकाशन किया ही जाना है। जीवन−साधना और युग−चेतना की दोनों मोर्चों पर सफल लड़ाई लड़ने के लिये जो गोला बारूद चाहिए उसकी पूर्ति अगले दिनों लिखे जाने वाले युगान्तरीय उद्बोधन के द्वारा ही सम्भव होगी। उसके लिए साहित्य सृजा और छापा जायगा। यह कार्य बिना पूँजी के सम्भव कैसे होगा।

इस युग का सबसे प्रचण्ड और सबसे व्यापक प्रचार साधना सिनेमा है। उसे विकृत स्तर पर पड़ा रहने दिया जाय तो भी वह अपना प्रभाव तो डालता ही रहेगा और जितना हम पूरे जोर से सुधार करेंगे उससे अधिक वह चुपचाप ही बिगाड़ करता रहेगा। जमा खर्च के हिसाब में छुट्टल उच्छृंखल सिनेमा हमारे प्रयासों को मटियामेट ही करता रहेगा। इस क्षेत्र की उपेक्षा नहीं की जा सकती। साहित्य की तरह ही हमें फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ेगा। योजना सौ फिल्मों की—भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रत्येक पक्ष की—अति कुशलतापूर्वक निर्माण करने की है; जिनमें देश भर के सिनेमा−गृह आच्छादित रहें। लोकरंजन और लोकमंगल का समुचित समावेश करने का ध्यान रखा जाय तो उसके फेल होने का कोई कारण नहीं।

सौ फिल्म बनाने की योजना मस्तिष्क में है। उतना न सही दस सही—दस न सही पाँच या दो सही पर कार्य तो आरम्भ करना ही है ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि प्रगतिशील फिल्में असफल नहीं होतीं। कौशल की कमी ही असफल होती है। एक−एक करके यह प्रयत्न महंगा पड़ेगा। वे सस्ती तभी पड़ेगी जब उनके एक साथ और लगातार बनाने की प्रक्रिया हाथ में ली जाय। वह कार्य कितना खर्चीला है। इसका अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं। पर उस पर्वत को भी आखिर लाँघना ही पड़ेगा। कठिनाई का रोना रो−रोकर युग की पुकार को अनसुनी कब तक किया जाता रहेगा। अब दुस्साहसपूर्ण कदम उठाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

संसार के कोने−कोने में भारतीय संस्कृति को सार्वभौम विश्व संस्कृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए—प्रवासी भारतीयों को स्नेह पोषण प्रदान कर उनकी धर्म−निष्ठा को सुस्थिर बनाये रखने के लिए मिशिनरी भावना लेकर जान वाले धर्म−प्रचारकों के जत्थे बाहर भेजने हैं। उनके प्रशिक्षण एवं मार्ग व्यय की व्यवस्था करनी पड़ेगी।

प्रशिक्षण की प्रक्रिया शान्ति−कुञ्ज में रुक−रुककर इस प्रकार चलती है मानो कोई मुर्दा मर−मरकर जीता हो। एक सत्र बन्द करके दूसरा चलाना पड़ता है। एक वर्षीय कन्या शिक्षा कितनी उपयोगी थी और अब वह रोक दी गई;इसका एक ही कारण है कि महिला जागरण को शिक्षा देने के लिये उन साधनों को प्रयुक्त करना पड़ा। एक को भूखा सुलाकर दूसरे बच्चे को रोटी देने का क्रम चलाना पड़ रहा है। दोनों बच्चों को रोटी देते रहने की व्यवस्था कहाँ है? प्रत्यावर्तन सत्रों को भी इस कारण बन्द नहीं किया गया कि उनकी उपयोगिता कम थी अथवा शिक्षार्थियों के आवेदन पत्र घट गये थे। उसकी उपयोगिता, लोकप्रियता प्रयोग और अनुभव के बाद अधिकाधिक गहरी होती चली गई है। किन्तु भारी तो जीवन साधना को भी माना जाना चाहिए। उपेक्षित तो उसे भी नहीं रखा जा सकता। यदि साधन रह होते तो किसी को रोकने, किसी को बढ़ाने का ‘वन वे ट्रैफिक’ क्यों करना पड़ता। यदि सड़क चौड़ी होती तो गाड़ियाँ बिना रुके अपनी दिशा में अनवरत गति से दौड़ती रह सकती थीं।

कार्य का विस्तार जितना बढ़ता है उसी हिसाब से स्थान की—कार्यकर्त्ताओं की—साधनों की आवश्यकता बढ़ती है। अपनी परम्परा समर्थ−असमर्थ सबको अवसर देने की रही है। इसलिये जो लोकसेवा के लिये समर्पित शिक्षार्थी अपना भोजन व्यय नहीं उठा पाते उनकी उमंगें टूटने न देने के लिए वह साधन भी जुटाने पड़ते हैं अस्तु भोजनालय खाते में हर महीने बहुत बड़ा घाटा रहता है। बिजली, इमारत, सफाई, बगीचा, पत्र−व्यवहार आदि की मदें भी अपनी माँगें घटाने के स्थान पर बढ़ाती ही चली जाती हैं। टैप रिकार्डरों वाली योजना अभी−अभी चालू की गई है उसने ही ढेरों पैसा माँग लिया और भविष्य के लिये लगातार खर्च की आवश्यकता बताई हैं। प्रकाशन और फिल्म के कदम अगले दिनों बढ़े तो उनकी झोली भी भरनी ही पड़ेगी। शान्ति−कुञ्ज का अकेला चना ही भाड़ नहीं फोड़ सकता। यहाँ के कार्यकर्ता जगह−जगह जाकर वैसी ही प्रशिक्षण प्रक्रियाएँ आरम्भ करेंगे और वहाँ भी जो नये ढाँचे खड़े किये जायेंगे उनकी प्राथमिक आवश्यकता कुछ न कुछ खर्चा ही करावेगी।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ संकेत है जिनके लिये पैसा चाहिए। लक्ष्य इतना ही नहीं उससे भी बढ़ा−चढ़ा है जिनको कार्य रूप में परिणत करते समय अनेकानेक शाखा प्रशाखाएँ सामने आयेंगी और वे न जाने क्या−क्या माँग खड़ी करेंगी। अभी तो हाथ में लिये काम ही, असहाय स्थिति में पड़े हुए, साधनों की माँग कर रहे हैं। भविष्य में यह माँग घटेगी नहीं बढ़ेगी ही। इसकी पूर्ति के लिये हमें अपने परिवार पर ही आश्रित रहना पड़ेगा।

बाहर के लोगों के सोचने का तरीका दूसरा है। उनके पास पैसा तो है, पर सोचने का सही तरीका वे खोज नहीं पाये हैं। अपना या अपने पूर्वजों का स्मारक बनाने की कीमत पर ही वे कुछ टुकड़े फेंकना चाहते हैं। यश, विज्ञापन का ढोल जोर−जोर से कोई पीटे तो तब वे अपनी उदारता दिखायें। धर्मशाला, मन्दिर, दवाखाने, कुएँ तालाब आदि दृश्यमान संस्थानों को ही चर्मचक्षु महत्वपूर्ण समझती हैं। सदावर्त बाँटने और प्याऊ खोलने में उनकी रुचि है ताकि असमर्थ लोग उनकी समर्थता के आगे मस्तक झुका सकें। दबाव में आकर या बदले की आशा से ही वे कुछ देने की बात सोचते हैं। कोई उन्हें निचोड़ तो सकता है, पर पिघला नहीं सकता। आज का धनी−मानी वर्ग इसी वर्ग का है। वहाँ अप्रत्यक्ष—दूरगामी, भावना क्षेत्र में काम करने वाली योजनाओं को समर्थन नहीं मिल सकता। आजीवन भौतिकवाद में व्यस्त रहे लोगों की भौतिक प्रगति से आगे की बात समझ में नहीं आती ज्ञान−यज्ञ की गरिमा उनके गले उतारना कठिन है। ऐसी दशा में हमें उस क्षेत्र से कुछ आशा नहीं। द्वार खटखटाने पर भी कुछ हाथ न लगेगा इसलिए अच्छा है बालू में से तेल निकालने की बात सोचना ही छोड़ दें।

वर्तमान परिस्थितियों में सरकार से भी इन प्रयोजनों में कोई सहयोग मिलने की आशा नहीं। जो लोग इन दिनों सरकार का सूत्र सञ्चालन करते हैं वे ‘जन−मानस’ के भावनात्मक नव−निर्माण की उपयोगिता कदाचित ही समझ पायेंगे। फिर उनके सामने आर्थिक, सुरक्षात्मक, अपराध, नियन्त्रण, दलबन्दी आदि की इतनी अधिक समस्याएँ हैं कि उनसे आगे की बात सोचना उनके लिये कठिन ही है। फिर सरकारी सहायता प्राप्त करके, ‘सरकारी संत’ बनने पर जो दुर्गति होती है वैसी हम अपनी कराना भी नहीं चाहते।

घुमा फिराकर हमारा आशा केन्द्र अपनी ही सत्ता है—जिसे हम अपना परिवार कहते रहे हैं, उन्हीं थोड़े से स्वजनों से अधिक त्याग करने की—अधिक उदारता बरतने की बात कहेंगे और समझायेंगे कि जिस प्रकार कोई आपत्ति कालीन परिस्थितियाँ सामने आ जाने पर अपने अन्य आवश्यक काम रोककर भी—खर्चों में असाधारण कटौती करके भी उस विपन्नता से जूझा जाता है उसी स्तर पर युग की पुकार को पूरी करने के लिये हम अधिक साहसिकता का परिचय दें। घर में कभी बीमारी का प्रकोप घुस पड़ता है—कोई मुकदमा लग जाता है—चोरी, दुर्भिक्ष, मन्दी−बेकारी का कोई दौर सामने आ खड़ा होना असम्भव नहीं। अकाल मृत्यु, असमर्थता, दुर्घटना आदि के कारण कई बार आर्थिक दबाव बढ़ जाता है और उसका सन्तुलन विवशतापूर्वक बनाना पड़ता है। यह विवशता पक्ष यदि युग की पुकार के साथ भी जोड़ लिया जाय तो आर्थिक तंगी रहते हुए भी कुछ न कुछ किया बचाया ही जा सकता है। कटौती की बात सोची जाय और अपनी आवश्यकता का स्तर थोड़ा गिरा लिया जाय तो भी उस बचत को इस महान प्रयोजन के लिए समर्पित करने का मार्ग निकल सकता है। निस्सन्देह अपने परिवार के अधिकाँश लोग आर्थिक दृष्टि से दुर्बल हैं फिर भी अभावग्रस्त लोग महान प्रयोजनों के लिये कुछ न कर सकें ऐसी बात नहीं। वे महीने में एक दिन की आजीविका बचा सकते हैं और शेष 29 दिनों में थोड़ी−थोड़ी कमी करके उसकी पूर्ति कर सकते हैं। चाह होगी तो राह जरूर निकल आवेगी।

जिनकी स्थिति गुजारे से आगे बढ़कर कुछ बचत कर सकने योग्य है वे उस सौभाग्य का श्रेष्ठतम उपयोग करके अपने को सच्चे अर्थों में भाग्यवान बना सकते हैं। जनक वाजिश्रवा आदि के अगणित उदाहरण भारतीय संस्कृति के आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं वे अति आवश्यक खर्चा से जो कुछ बचाते थे उसे समय−समय पर सर्वमेध−यज्ञ के रूप में पूरी तरह खाली कर देते थे। यह उनकी महान आध्यात्मिकता साहसिकता थी जिसे बड़ी तपश्चर्या से कम नहीं आँका जा सकता। कर्ण अपनी बचत को इसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए समाप्त कर देता था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अपने अच्छे वेतन का एक चौथाई अंश ही खर्च में लाते थे और तीन चौथाई विद्या दान के लिये समर्पित करते रहते थे। विश्वामित्र की ठीक ऐसी ही आवश्यकताएँ थीं जैसी कि आज हमारी हैं उसकी पूर्ति के लिए राजा हरिश्चन्द्र ने न केवल अपनी सारी सम्पदा वरन् अपना अपने परिवार का श्रम−समय भी दाँव पर लगा दिया था। सुदामा का गुरुकुल ऐसी ही संकटापन्न स्थिति में चल रहा था। कृष्ण ने अपनी सम्पदा उसी के लिये समर्पित कर दी। इन परम्पराओं को कथा वार्ता की रोचक चर्चा का विषय बनाकर हवा में नहीं उड़ा देना चाहिए वरन् प्रयत्न करना चाहिए कि उन्हें जीवित भी रखा जा सके। धर्म का बखान ही नहीं होते रहना चाहिए उसे कर्म में भी स्थान मिलना चाहिए। कृपणता यदि उदारता में नहीं बदली जा सकी तो फिर अध्यात्म का−आदर्शवाद का सारा ढाँचा, मात्र विडम्बना बनकर रह जायगा। जिस तत्व दर्शन को हम विश्व−व्यापी बनाना चाहते हैं। जन−मानस में गहराई तक प्रतिष्ठापित कराना चाहते हैं उनके उदाहरण हमें अपने में से प्रस्तुत करने पड़ेंगे। वस्तुतः वह कार्य रूप में परिणत हुई आदर्शवादिता ही वास्तविक प्रेरणा बनकर लोगों को प्रभावित कर सकेगी। उपदेशों में नहीं उदाहरणों में दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति होती है। महान् आदर्शों की पूर्ति के लिए किया गया त्याग, बलिदान ही वह आधार है जिनके सहारे भावना क्षेत्र में ऊँचा उठने की चेतना जन−मानस में उभारी उमँजई जा सकती है।

इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम अपने परिवार की ओर ही आशा भरे नेत्रों से निहारेंगे। गुरु गोविन्दसिंह, मोरध्वज, मदालसा, कुन्ती, सुमित्रा आदि ने अपने पुत्रों को आदर्शों के लिये बलिदान दिया था। पतियों को युद्ध क्षेत्र में तिलक लगाकर भेजने वाली पत्नियों से हमारे इतिहास के अगणित पृष्ठ सुनहरी स्याही से लिखे गये हैं। पिताओं को सन्तोष देने के लिये राम, लक्ष्मण, श्रवणकुमार, भीष्म, सत्यवान आदि के न जाने कितने उदाहरण मौजूद हैं। हम अपने परिवार में से एक सुयोग्य एवं समर्थ सदस्य लोक−मंगल के लिए समर्पित करके मानवता को संकटग्रस्त स्थिति से उबारने में अपना सराहनीय योगदान दे सकते हैं। कुमारियाँ जिनके विवाह की चिन्ता में अभिभावक घुले जा रहे हैं—विधवाएँ, परित्यक्ताएँ जो अभिशाप की तरह जी रही हैं यदि भावनाशील हों तो इस अभिशप्त स्थिति से राहत पा सकती हैं और इतिहास को नया मोड़ देने की अग्रिम भूमिका निभा सकती हैं। परिवार निवृत्त लोगों को मोहासिक्त की तमिस्रा से अपना पिण्ड छुड़ाना ही चाहिए और सृजन सैनिकों की पंक्ति में सम्मिलित होना चाहिए। नव−निर्माण के लिये सुयोग्य और सक्षम जनशक्ति की आवश्यकता बड़े परिमाण में है उसकी पूर्ति के लिए हम अरण्य रोदन न करेंगे वरन् स्वजनों का ही दरवाजा खटखटायेंगे। हमारा परिवार पाण्डव परिवार की तरह−−हरिश्चन्द्र परिवार की तरह—ऋष्यमूक पर्वत निवासी वानर परिवार की तरह—मथुरा के गोप परिवार की तरह होना चाहिए जिसका हर घटक बसन्ती परिधान ओढ़े भावभरी उमंगों को साकार करने के लिये आतुरता प्रकट करता हुआ दिखाई दे।

जन−शक्ति के बाद दूसरी शक्ति है—धन शक्ति। इसके लिए हम अपने परिवार की उस सारी संचित सम्पदा को आमन्त्रित करेंगे जो सात पीढ़ियों तक मुफ्तखोरी, आरामतलबी के साथ खाने खुरतराने के लिए जमा करके रखी जा रही है। बैंकों में, लाकरों में, जमीन में, ब्याज−भाड़े में, अचल सम्पत्ति में, जेवरों में न जाने कितना धन सड़ रहा है। संग्रह और लोभ, मोह, की संकीर्णता ने उसे न जाने कब के लिये—न जाने किस के लिए दान कर रखा है? पैसे से पैसा बढ़ाने के व्यवसायों में न जाने कितना धन लगा है—पर इस निरन्तर बढ़ते जाने वाले पैसे का आखिर होगा क्या इसे कोई नहीं सोचता, स्मरण रखा जाना चाहिए मुफ्त के उत्तराधिकार में मिली दौलत से नहीं संस्कार और सद्गुणों की सम्पत्ति से सन्तान का भला होता है। हराम का पैसा तो व्यसन, दुर्गुण और दुर्गति ही उत्पन्न करता है।

हम लोग मिल−जुलकर एक−एक बूँद जमा करेंगे तो वह उदाहरण प्रस्तुत होगा जिसमें ऋषियों ने अपना बूँद−बूँद रक्त जमा करके उसे एक घड़े में जमा किया था और उसे जमीन में गाढ़ कर सीता के जन्म का आधार बनाया था। कथा के अनुसार वह ऋषि−रक्त−घट ही जनक के हल से सीता के रूप में परिणत हुआ था और उस सीता के कारण ही आसुरी साम्राज्य की सत्ता निरस्त हुई थी। राम दल के वानर—कृष्ण दल के गोप यदि मिल−जुलकर बहुत कुछ कर सकते थे तो अखण्ड−ज्योति परिवार—युग की चुनौतियों का सामना कर सकने योग्य−अभिनव सृजन का आरम्भिक ढाँचा खड़ा कर सकने योग्य अनुदान प्रस्तुत न कर सके ऐसी कोई बात नहीं है।

अनिवार्य खर्चों में जिसकी आवश्यकता न पड़ रही हो। यदि ऐसा कुछ हो तो उसे प्रस्तुत ज्ञान−यज्ञ के लिए समर्पित करने का साहस जुटाना चाहिए। परिग्रह को पातक माना गया है जिनके पास यह संचय पातक जमा हो उसे उसमें से पूरा या अधूरा भाग हलका करने की बात साहसपूर्वक सोच ही डालनी चाहिए। इस संग्रह का इससे अच्छा उपयोग दूसरा नहीं हो सकता कि नवयुग के अवतरण में, धर्म और संस्कृति की पुनः प्राण−प्रतिष्ठा में उसकी कुछ भूमिका रह सके। वस्तुतः ऐसा ही धन धन्य होने योग्य बन सकेगा।

अखण्ड−ज्योति परिवार के प्रत्येक परिजन को युगान्तर चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रस्तुत ज्ञान−यज्ञ में अपनी कुछ कहने योग्य आहुति देने का साहस करना चाहिए। जिस आदर्शवादिता का प्रसार, प्रशिक्षण हम संसार भर में करना चाहते हैं उसका शुभारम्भ अपने घर से ही होना चाहिए। घर में आदर्शों का स्थापन करते हुए जब हम बाहर चलेंगे तो फिर सफलताओं की सम्भावना में कोई अवरोध शेष न रह जायगा।

गिलहरी अपने बालों में रेत भर समुद्र पाटने चली थी, राम दल के सहयोग का वह नगण्य सा कर्तृत्व अमर बन गया, हमारा छोटा परिवार भी युग की आवश्यकताएँ पूरी करने में उस गिलहरी का अनुकरण तो करेगा ही यह निश्चित है।

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