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Magazine - Year 1974 - Version 2

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Language: HINDI
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आशातीत सफलता सम्पन्न प्रत्यावर्तन साधना कुछ समय के लिए स्थगित

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मानवी सत्ता को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) अस्थि माँस का—पंच तत्वों का बना पिण्ड जिसे स्थूल शरीर कहते हैं, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा इसके द्वारा विविध विधि क्रियायें सम्पन्न की जाती हैं। (2) मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार द्वारा विनिर्मित— शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राओं से बना हुआ अनुभूतियों, इच्छाओं और प्रेरणाओं का आधार सूक्ष्म शरीर जिसे मस्तिष्क में अवस्थित ज्ञान संस्थान कहा जाता है। (3) आस्थाओं, मान्यताओं और आकाँक्षाओं का उद्गम जीवन का दिशा निर्देशक कारण शरीर जिसे अन्तरात्मा अथवा अन्तःकरण भी कहते हैं। संक्षेप में इन तीनों को क्रमशः क्रिया शक्ति, ज्ञान शक्ति और इच्छा शक्ति का उद्गम कह सकते हैं। इन तीनों का समन्वित रूप ही मानवी सत्ता है।

इन तीनों की महत्ता और सामर्थ्य एक दूसरे से अधिक एवं आगे है। स्थूल शरीर द्वारा सम्भव श्रम का मूल्य स्वल्प है। उसका कार्य पशुओं एवं मशीनों से भी लिया जा कसता है। शारीरिक श्रम द्वारा वस्तुओं का उत्पादन अभिवर्धन एवं उपयोग हो सकता है। उसकी कमाई स्वल्प है।

सूक्ष्म शरीर—मन, मस्तिष्क द्वारा हम वैज्ञानिक डाक्टर, कलाकार, व्यवसायी, नेता, विद्वान आदि विशिष्ट व्यक्ति बनते हैं। बौद्धिक क्षमता द्वारा धन ही नहीं यश पद आदि भी प्राप्त करते हैं। विनोद, मनोरंजन, प्रसन्नता, तृप्ति की सरस अनुभूतियाँ भी इसी शरीर द्वारा उपलब्ध होती हैं। वासना, और तृष्णा का उद्भव उसी में होता है और तरह−तरह की महत्वाकाँक्षाओं को पूर्ण करने वाला ताना−बाना इसी में बुना जाता है बुद्धिमान, दूरदर्शी, कुशल, चतुर और प्रतिभा सम्पन्न इसी क्षेत्र को विकसित करके बना जाता है।

सबसे ऊँचा और शक्तिशाली स्तर है कारण शरीर इसमें आस्थाओं, मान्यताओं, विश्वासों की गहरी परतें जमी होती हैं। संवेदनाऐं और आकाँक्षाऐं यहीं उत्पन्न होती हैं। शौर्य, साहस एवं आदर्शवादी प्रेरणाओं का उभार उसी क्षेत्र में आता है। अपने स्वरूप का निर्धारण−जीवनयापन की रीति−नीति—अभिरुचियाँ और आकाँक्षाओं की दिशा का निर्धारण यहीं से होता है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैंकि इसी केन्द्र बिन्दु से मस्तिष्क और शरीर को अपनी हलचलें आरम्भ करने की दिशा मिलती है। यह सबसे सूक्ष्म—गहरा और सामर्थ्यवान स्तर है। व्यक्तित्व का निर्धारण और निखार यहीं से सम्भव होता है। पतित या समुन्नत बनने की सारी प्रक्रिया इसी स्थान पर सम्पन्न होती है।

आमतौर से हम शरीर पर ही अधिक ध्यान देते हैं। खाने, सोने से लेकर तरह−तरह के इन्द्रिय उपभोग से इसी पिण्ड का परितोष किया जाता है। रंग, रूप, स्वर, व्यवहार का आकर्षण इसी में होता है। रुग्णता और स्वस्थता यहीं से उत्पन्न होती हैं। धन तथा दूसरे उपार्जन इसी से होते हैं इसलिए प्रायः सभी लोग शरीर को भोजन, वस्त्र व्यायाम, शृंगार, सज्जा, चिकित्सा, सुविधा आदि से सन्तुष्ट करते हैं। निम्न वर्ग के लोगों की गतिविधियाँ इसी शरीर तक केन्द्रित रहती हैं। उनके लिए खाओ, पियो, और मौज उड़ाओ का आकर्षण ही पर्याप्त होता है।

जिनका चेतना स्तर मध्यवर्ती विकास तक पहुँच चुका है उनको मस्तिष्कीय विकास का महत्व समझ में आता है ये शिक्षा प्राप्त करने, कुशल और बुद्धिमान बनने में लाभ देखते हैं और ज्ञान सम्पादन में अधिक रुचि लेते हैं, अधिक प्रयत्न करते हैं। स्कूली शिक्षा से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, पर्यटन एवं ज्ञान संचय के अन्यान्य प्रयोजनों में संलग्न रहते हैं। सम्मान पाने, नेतृत्व करने, यशस्वी होने सम्पन्न बनने, अवरोधों को निरस्त करने—और उपभोग की सरलता चखने जैसी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति का ताना−बाना यहीं बुना जाता है। इसके लिए मस्तिष्क को अधिक विकसित करने के जो भी विनोदात्मक, उपभोगात्मक एवं संवर्धनात्मक साधन उपलब्ध हो सकते हैं उन्हें निरन्तर जुटाया जाता रहता है।

तीसरे सर्वोच्च साथ ही सबसे शक्तिशाली स्तर कारण शरीर का स्वरूप समझना और उसे परिष्कृत करने का प्रयत्न करना मात्र उच्चभूमिका में विकसित व्यक्तियों के लिए ही सम्भव होता है। इस स्तर की गरिमा एवं उपयोगिता भी समझ में नहीं आती और न प्रत्यक्ष कोई प्रतिफल ही दीखता है। भाव संवेदनाऐं, आस्थायें समूचे व्यक्तित्व को दिशा देती हैं, उसका स्वरूप निखारती हैं और शरीर एवं मस्तिष्क को अमुक कार्यों में संलग्न होने के लिए—अमुक चिन्तन में निमग्न होने की प्रेरणा देती हैं इसे समझना और अनुभव करना हर किसी के बस−बूते का नहीं है। अस्तु यह स्तर अविकसित अछूता ही पड़ा रहता है। परिस्थिति वश उसका जैसा भी कुछ भला बुरा निर्माण हो गया उसी लीक पर जीवन संकट चलता लुढ़कता रहता है। स्वभाव बदलता नहीं, आदत सुधरती नहीं, जैसी बातें अक्सर सुनी जाती हैं जिनका अर्थ होता है आस्था स्तर की गहराई में उतर कर वहाँ सुधार परिष्कार करना अशक्य हैं। बात बहुत अंशों में है भी ऐसी ही। जब आस्था स्तर के बारे में कुछ जाना समझा ही नहीं गया है उसका प्रतिफल एवं उपयोग भी सोचने में नहीं आया है तो उस संदर्भ में कुशलता भी कैसे पाई जाय? आदतों से मजबूर, स्वभाव संस्कार का गुलाम बना मनुष्य ऐसे ही भौंड़ा, घिनौना, असंबद्ध, असंस्कृत एवं अस्त−व्यस्त असफल जीवन जीकर यों ही मौत के मुँह में चला जाता है। व्यक्तित्व के—अस्तित्व के—इस मूल उद्गम की सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान सत्ता को यदि समझा गया होता तो लगता कि अतीन्द्रिय, चमत्कारी, दैवी सिद्धि शक्तियों की अद्भुत चर्चाएँ सुनी जाती हैं वे और कुछ नहीं केवल हमारे कारण शरीर के विकासोन्मुख उभार है। अब इनका थोड़ा थोड़ा विवेचन वैज्ञानिक क्षेत्रों में मैटाफिजिक्सपैरा साइको लौजी, साइकोमैटरी, ह्यूमन मिस्टी आदि के रूप में होने लगा है। अचेतन मन की ज्ञानेन्द्रिय शक्ति के सम्बन्ध में जो रहस्यमय परतें विज्ञान द्वारा खोली जा रही हैं और मानवी सत्ता को अद्भुत अप्रकाशित संभावनाओं से सम्पन्न कहा जा रहा है वह वस्तु साधारण शरीर का ही उथला सा शोध प्रयास है। अगले दिन यह समझा और स्वीकारा जायगा कि व्यक्तित्व का उद्गम जिन भाव संवेदनाओं और आस्थाओं पर अवलम्बित है वस्तुतः वही मानवी सत्ता का मूल आधार है। इसे विकसित करने पर शारीरिक कायाकल्प—मानसिक प्रत्यावर्तन एवं अति सूक्ष्म मर्म स्थल में अनुभव किये जाने वाले स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य वरदानों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। लघु से महान—नर से नारायण एवं आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। संसार के महामानवों का शारीरिक, मानसिक स्तर सामान्य रहा है वे धनवान, विद्वान या साधन सम्पन्न भी नहीं थे उनकी विशेषताओं एवं सफलताओं का केन्द्र आस्था संस्थान का परिष्कृत स्तर ही रहा है। यही है वह मर्म स्थल जिसकी स्थिति के अनुरूप मनुष्य दीन दुर्बल बना रहता है—असुर या पिशाच बनता है—दिव्य जीवन के प्रकाश में अन्तः एवं बाह्य जगत को ज्योतिर्मय बनाता है।

शरीर शास्त्र, मनः शास्त्र की उथली गहरी जानकारियाँ प्रायः सभी लोगों को होती हैं पर आत्म सत्ता के उत्थान पतन का आधार एवं उपाय कदाचित ही कोई जानते हैं। यों अध्यात्म विज्ञान की—ब्रह्म विद्या की संरचना इसी प्रयोजन के लिए हुई थी और योग तथा तप की बहुमुखी साधनात्मक प्रक्रिया इसी प्रयोजन के लिए गढ़ी गई थी। पर अब तो उसका स्वरूप भी विकृत हो गया और जो लाभ उस विज्ञान द्वारा कारण शरीर के विकास के लिए मिल सकता था वह अब सम्भव नहीं रहा। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का अपना दर्शन हैं और अपना प्रयोग। कभी उसे ठीक तरह समझा गया था और प्रयोग का सुव्यवस्थित आधार मौजूद था। उस आधार पर अनुभवी तत्वदर्शी अपने छात्र शिक्षार्थियों का मार्गदर्शन करते थे। उन्हें साधना संलग्न करते थे और अपनी निज की आत्म शक्ति का अनुदान देकर उनकी सफलता सुनिश्चित बनाते थे। भारतीय साधना विज्ञान की धुरी यही थी। हठ योग द्वारा शरीर का—राजयोग से मस्तिष्क का और ब्रह्म योग द्वारा अन्तःकरण का परिशोधन किया जाता था। इन्हीं का सरल एवं व्यावहारिक रूप कर्म योग—ज्ञान योग एवं भक्ति योग था। साधनात्मक विशिष्ट तपश्चर्याऐं एवं व्यावहारिक जीवन की परिष्कृत रीति−नीति यही थी योग एवं तप की मूल आधार, जिसे सही रूप में अपनाकर किसी समय भारतीय मनीषियों ने इस देश की धरती पर स्वर्ग का, सतयुग का अवतरण किया था और मनुष्य में देवत्व का उदय सम्भव कर दिखाया था।

भारत की प्राचीन गरिमा उसके अध्यात्म वैभव के साथ जुड़ी हुई है। आरोग्य, शिक्षा, उत्पादन, व्यवसाय, शासन, आचार, कला−कौशल, शिल्प−विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में उन्होंने असाधारण प्रगति की थी और अपनी उपलब्धियों से समस्त संसार को लाभान्वित करने के उनने प्रबल प्रयास किये थे। पर उस भौतिक प्रगति में असाधारण सफलता प्राप्त करने का—उसका सदुपयोग कर सकने का श्रेय उनके आत्मिक उत्कर्ष को ही दिया जायगा कारण कि उनका चिन्तन एवं कर्त्तव्य इसी आधार पर विकसित हुआ था। यह एक सनातन शाश्वत एवं अकाट्य तथ्य है कि अन्तरात्मा का गहन स्तर ही व्यक्तित्व को दिशा देता एवं समर्थ बनाता है। अति महत्वपूर्ण—अतिमानव कहे जाने वाले व्यक्ति अपने इसी स्तर का दिशा विशेष में परिपुष्ट करके आगे बढ़े हैं। जिसका अन्तस्—अहम्—खोखला होगा वह प्रचुर साधन सम्पन्न होते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से ओछा, बौना एवं गया गुजरा ही बना रहेगा। ऐसे मनुष्य भौतिक सफलताएँ, सम्पदाएँ प्राप्त करलें तो भी उनका सदुपयोग नहीं कर पाते। संग्रह, व्यसन, अपव्यय जैसे दुर्गुण बढ़ने से—ईर्ष्यालुओं एवं शत्रुओं से घिर जाने के कारण वे सामान्य व्यक्तियों से भी अधिक चिन्तित, उद्विग्न पाये जाते हैं। व्यक्तित्व रहित स्थिति में कन्धे पर लद पड़ा वैभव किसी के लिये भी मात्र अभिशाप सिद्ध होगा उससे अपने लिये और दूसरों के लिए विपत्तियाँ ही खड़ी होंगी।

व्यक्ति की सर्वांगीण प्रगति एवं सुख−शान्ति के लिए उसका अन्तरात्मा—कारण शरीर—परिष्कृत, परिपुष्ट होना चाहिए। समाज के स्वस्थ, सुदृढ़ और सर्वतोमुखी विकास के लिए सुसंस्कारी व्यक्तियों का बाहुल्य होना चाहिए। इस आवश्यकता को पूरा किये बिना प्रगति के भौतिक प्रयास असफल ही नहीं होंगे उलटे अधिकाधिक विग्रह उत्पन्न करेंगे। उत्थान और पतन व्यक्ति और समाज का एक साथ होता है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। समग्र प्रगति एवं सुख−शाँति के लिए व्यक्तियों का परिष्कृत बनाये बिना कोई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हाथ नहीं लगेंगी।

उपरोक्त तथ्यों पर विचार करने—एवम् प्रयोगात्मक अनुभव करने का शान्ति कुञ्ज के संस्थापक का कुछ कहने लायक अवसर मिला है। उसके जीवन का अधिकाँश समय इसी क्षेत्र में प्रयोग परीक्षण, अनुभव, अभ्यास करते हुए बीते हैं। अन्तःकरण को प्रभावित करने वाले अध्यात्म विज्ञान के दार्शनिक एवं प्रयोग पक्ष को विवेचनात्मक दृष्टि से पढ़ा परखा है। इन दिनों इस क्षेत्र में अन्धाधुन्ध अंधविश्वास, गुरुडम एवं अवाँछनीय प्रतिपादनों का जो घटाटोप घुस पड़ा है उसे भी उसने दुखी मन से देखा, परखा और छाँटा है। एक शब्द में यों कहा जा सकता है कि अध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने, परखने का उसका प्रयास ऐसा रहा है जिसे अप्रामाणिक अवैज्ञानिक एवं सन्देहास्पद नहीं कहा जा सकता। उसके उपार्जन का लाभ यदि सर्वसाधारण को दिया जाय तो कम से कम इतना तो निश्चित है कि किसी को कोई हानि नहीं होगी। पात्रता और प्रयत्नशीलता के अनुरूप उससे लाभ ही मिलेगा।

कारण शरीर को—अन्तरात्मा को सुविकसित बनाने की दिशा में कहीं भी—कुछ भी प्रयत्न न होने को खेदजनक ही कहा जा सकता है। विशेषतया भारत भूमि जो सदा सर्वदा से समस्त संसार को प्रकाश देती रही वही अब अपनी इस महत्वपूर्ण विशेषता को खो बैठे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायगा। इससे भी बड़ी दुर्घटना यह है कि अध्यात्म के स्थान पर प्रतिगामी पलायनवादी, परावलम्बन शोषक अंधविश्वास आविराजे और उपासना क्षेत्र को दयनीय दुर्गति का शिकार बनना पड़े। इन विडम्बनाओं को निरस्त करने के लिए आवश्यक समझा गया कि अध्यात्म के शाश्वत सत्य और तथ्य को जन साधारण के सम्मुख रखा जाय और उसके प्रयोग परीक्षण को कसौटी पर कस कर खरा खोटा सिद्ध होने दिया जाय।

इस विचार मंथन ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि शाँति कुँज में एक ऐसी प्रशिक्षण व्यवस्था चलाई जाय जिसमें अध्यात्म मार्ग में रुचि रखने वालों को उस महाविज्ञान का स्वरूप समझने एवं प्रयोगात्मक अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिले। यह प्रयोग अब से लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व आरम्भ किया गया। उसे प्राण प्रत्यावर्तन साधना सत्र के नाम से प्रस्तुत किया गया। पाँच−पाँच दिन के शिविर लगाये गये और यथा सम्भव अधिकारी व्यक्तियों को ही उसमें प्रवेश दिया गया। यों कौतूहल वश उथले दर्जे के लोग भी उसमें कुछ तो घुस ही पड़े। तीर्थ स्थानों में पर्यटन करने वाले और मनोकामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद माँगने वाले भी रोके नहीं जा सके। छद्म वेष में वे भी धक्का−मुक्की करके इस वैज्ञानिक प्रयोग प्रयोजन में धँस पड़े। फिर भी सन्तोष इसी बात का है कि उन्हें यथा सम्भव निरस्त किया गया और उनकी संख्या इतनी नहीं बढ़ पाई कि मूल प्रयोग ही नष्ट हो जाता।

प्राण प्रत्यावर्तन सत्र पाँच−पाँच दिन के लिए लगाये गये थे उनमें कुल मिलाकर दो हजार के करीब व्यक्तियों ने शिक्षण प्राप्त किया। शान्ति कुँज में उसका प्रयोग प्रारम्भ में क्रियात्मक रूप से समझाया गया और कहा गया कि इस चिन्तन एवं साधन को अपने−अपने घरों पर देर तक चालू रखें। उसके परिणामों के बारे में सूचित करते रहें। यह प्रयोग पिछले दिनों छोटे किन्तु व्यवस्थित रूप में चलता रहा है। उसके जो परिणाम सामने आये हैं उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह प्रशिक्षण तीन चौथाई परिणाम में बहुत ही सफल रहा। उसे उत्साह वर्धक और आशातीत भी कहा जा सकता है। असफलता अथवा स्वल्प प्रगति के भी परिणाम सामने आये हैं पर वे इतने कम हैं कि उनके आधार पर प्रयोग को असफल नहीं कहा जा सकता।

जून 73 की अखण्ड−ज्योति का पूरा अंक प्राण प्रत्यावर्तन साधन प्रक्रिया के परिचय रूप में प्रकाशित किया गया था। उसमें ने केवल सिद्धान्तों का वर्णन था वरन् साधन पद्धति का स्वरूप एवं विवेचन भी सर्वसाधारण के सामने रखा गया था ताकि जो लोग हरिद्वार नहीं आ सकें तो उस आधार पर स्वयं ही साधना कर सकें और जो आ सकते हैं वे तथ्यों की पूर्व जानकारी प्राप्त करके आवें ताकि यहाँ उन्हें कुछ भी अनजाना न लगे और अभ्यास में सरलता प्रतीत हो।

प्रत्यावर्तन सत्र में वस्तुतः गायत्री की पंचमुखी—पंचकोशी उच्चस्तरीय साधना पद्धति सिखाई गई थी। अन्नमय कोश—प्राणमय कोश—मनोमय कोश—विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश यह पाँच आवरण आत्मा पर चढ़े हुए हैं इनका अनावरण होने पर आत्मसाक्षात्कार हो सकता है। कोश का एक अर्थ भण्डार या खजाना भी हो सकता है। पाँच शक्ति स्रोत हमारे अन्तःक्षेत्र में अनन्त सम्भावनाओं को छिपायें हुए पड़े हैं। इन्हीं को पंचमुखी गायत्री के रूप में चित्रित किया गया है। नचिकेता और यम के उपनिषद् संवाद में जिस पंच अग्नि विद्या की चर्चा की गई है वह इन पाँच कोशों का ही शक्ति विवेचन है। षट्चक्रों में से एक आज्ञाचक्र स्वतन्त्र भी माना गया है और शेष मेरुदण्ड से सम्बन्धित पाँच चक्र इन पाँच कोशों के ही शक्ति संस्थान हैं। पुराण देवताओं में पाँच को अग्रिम पंक्ति में रखा गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, और दुर्गा को पंच देव कहते हैं। उनके द्वारा प्राप्त हुए वरदानों के चमत्कारी लाभों की कथा−गाथाओं का पुराणों में विशद् वर्णन है। वस्तुतः अलंकारिक रूप से यह देव वर्णन मनुष्य के भीतर विद्यमान पाँच कोशों का ही फलवान सत्परिणाम है। हर व्यक्ति की अपनी ही आत्मसत्ता परिपुष्ट होकर उपयोगी वरदान प्रस्तुत करती है। इसी को देव अनुकम्पा कहा जाता है। पाँच कोशों की साधना ही गायत्री की पंचमुखी उच्चस्तरीय साधना है। प्राण प्रत्यावर्तन सत्र में इसी को प्रारम्भिक जानकारी पाँच दिनों के प्रशिक्षण में कराई जाती रही है और जप योग, बिन्दु योग, लय योग, प्राण योग, ब्रह्म योग के पाँच योगाभ्यासों के रूप में इनकी साधना का शुभारम्भ कराया जाता रहा है।

गायत्री उपासना में स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरों को संलग्न करके उसे जपयोग के रूप में परिणत करना—सूर्यार्ध्य दान के माध्यम से समर्पण योग की धारणा—प्रभात कालीन सूर्य की स्वर्णिम किरणों का तीनों शरीरों में प्रवेश और उनसे समग्र व्यक्तित्व का ज्योतिर्मय होना—खेचरी मुद्रा के माध्यम से उलटी जिह्वा को तालु से लगाकर सोमरस का पान करना—कामधेनु गौर का स्तन पान करते हुए आनन्द अमृत को चूसना—मस्तिष्क में कैलाश, मानसरोवर अवस्थित शिव की अथवा क्षीर सागर में शेषशायी विष्णु की भावना करना यह लय योग की अनुभूति है। अजपा जाप सोऽहम् साधना प्राणयोग में आती है। आत्मबोध और तत्त्वबोध की द्विविधि ध्यान धारणा से ब्रह्मयोग की साधना बनती है। यह सब कैसे किया जाय यह पाँच घण्टे प्रतिदिन की भाव साधना में प्रत्यावर्तन सत्र के छात्रों को सिखाया और कराया जाता रहा है। साथ ही प्रवचनों के माध्यम से चिन्तन एवं कर्तृत्व को अध्यात्म दर्शन के अनुरूप कैसे ढाला जाय—व्यावहारिक जीवन में उत्कृष्टता एवं आदर्शवाद का समन्वय कैसे किया जाय इसकी विशद् एवं सुबोध चर्चा की जाती रही है। प्रत्यावर्तन सत्रों की अवधि थोड़ी ही रखी गई थी क्योंकि उस समय आवश्यक जानकारियाँ देना ही अभीष्ट था। साधना का शुभारम्भ मात्र इस अवधि में कराया गया। अभ्यास तो अपने−अपने घरों पर ही लम्बे समय तक करना था। पाँच दिन का स्वल्प समय सर्वसाधारण की व्यस्तता को ध्यान में रख कर निर्धारित किया गया था। उतने से भी अभीष्ट उद्देश्य की भली प्रकार पूर्ति होती रही और शिक्षार्थी बहुत कुछ सीखकर तथा बहुत कुछ अनुदान पाकर गये। मात्र सिखाना ही तो इन सत्रों का प्रयोजन नहीं था। इस मार्ग पर चल सकने की आवश्यक शक्ति का अतिरिक्त आधार मिलना भी अभीष्ट था। इस दृष्टि से भी शिक्षार्थी खाली हाथ नहीं गये। सब मिलाकर यह प्रशिक्षण क्रम ऐसा बना रहा जिसे सन्तोषजनक उत्साहवर्धक और सफल सार्थक कहा जा सके।

बँधी हुई दिनचर्या परम सात्विक आहार बिहार, गंगा स्नान और गंगा जल पान, उच्चस्तरीय वातावरण, सद्भाव सम्पन्न व्यक्तियों का सान्निध्य, स्नेह मैत्री और आदर्शवादी भाव भूमिका का समन्वय शान्ति कुँज की ऐसी विशेषताएँ हैं जिनमें रहने मात्र से अन्तःकरण में उत्कृष्टता के उभार आते हैं। फिर पाँच घण्टे की सघन साधना और प्राण भरी प्रेरणाप्रद शिक्षा व्यवस्था की गंगा यमुना मिल जाने से उसका संवर्धन होना स्वाभाविक ही है। प्रत्यावर्तन सत्रों में आने वाले प्रायः सभी लोग इस विशेषता का लाभ लेकर गये। यहाँ बोये गये उगाये गये बीजाँकुरों को उन्होंने अपने−अपने यहाँ जाकर पोसा, सींचा और बढ़ाया तदनुसार कितने ही शिक्षार्थियों ने अनुभव किया कि हम नव जीवन लेकर आये पुरानी स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन पाया।

प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों की शृंखला अब कुछ दिन के लिए स्थगित कर दी गई है। जो किया गया उसकी प्रतिक्रिया गम्भीरतापूर्वक देखी परखी जा रही है और उसमें यदि कुछ सुधार परिवर्तन आवश्यक हुआ तो अगली बार वैसा हेर−फेर करने की बात सोची जा रही है। यों शान्ति−कुँज की आधार शिला ही आत्मिक प्रगति के साधन जुटाने के लिए रखी गई है। वैसा प्रशिक्षण छुट−पुट रूप में सदा ही चलता रहेगा। विशिष्ट साधकों को उनकी सुविधा, स्थिति, अभिरुचि एवं पात्रता को ध्यान में रखते हुए यह सुविधा मिलती रहेगी कि वे यहाँ आकर साधना करने, मार्ग दर्शन परामर्श पाने की सुविधा ले सकें। यह क्रम विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित रहेगा। पर सर्वसाधारण के लिए अभी इन सत्रों की शृंखला स्थगित कर दी गई है। पुनः कब चालू की जायगी यह सुविधा और आवश्यकता के अनुसार यथा समय घोषित किया जायगा। अभी तो जिन पाँच प्रकार के प्रशिक्षणों की तात्कालिक आवश्यकता समझी गई है उन्हें आरम्भ किया गया है। इन शिक्षाओं का क्षेत्र अधिक व्यापक है। उसमें सामान्य स्तर के शिक्षार्थी भी आत्म निर्माण और समाज निर्माण की क्षमता विकसित कर सकते हैं। अगले दिनों कुछ समय तक जिन पाँच सत्रों की शृंखला शान्ति कुँज में चलेगी उसका उल्लेख अगले पृष्ठों पर अंकित है।

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