साधना के विविध स्तर एवं पक्ष
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अध्यात्म साधना को ज्ञान और विज्ञान—इन दो पक्षों में विभाजित कर सकते हैं। ज्ञान पक्ष वह है जो पशु और मनुष्य के बीच का अंतर प्रस्तुत करता है और प्रेरणा देता है कि इस सुरदुर्लभ अवसर का उपयोग उसी प्रयोजन के लिए किया जाना चाहिए जिसके लिए वह मिला है। इसके लिए किस तरह सोचना और किस तरह की रीति−नीति अपनाना उचित है, इसे हृदयंगम कराना ज्ञान पक्ष का काम है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, प्रवचन, पाठ, मनन, चिन्तन जैसी प्रक्रियाओं का सहारा इसी प्रयोजन के लिए लिया जाता है।
इसी पक्ष का दूसरा चरण यह है कि धर्म, सदाचार, संयम, कर्त्तव्य−पालन के उच्च सिद्धान्तों को अपनाकर आदर्शवादी जीवन जिया जाय। अवाँछनीय चिन्तन और कर्तृत्व में ही मनुष्य की अधिकाँश शक्तियों का अपव्यय होता रहता है, दुर्बुद्धिग्रस्त और दुष्कर्म निरत व्यक्ति अपना ओजस् नष्ट करते रहते हैं और उस प्राण शक्ति को गँवा बैठते हैं जो उच्चस्तरीय प्रगति के लिए उसी प्रकार आवश्यक है जैसे मोटर के लिए पैट्रोल। बिना तेल के मोटर कैसे चलेगी, बिना प्रखर प्राण शक्ति के आत्मिक प्रगति किस प्रकार सम्भव होगी। अस्तु न साधना द्वारा चिन्तन को उत्कृष्ट और कर्तृत्व को आदर्श बनाया जाता है। यह जमीन को जोतकर खाद, पानी लगाकर उर्वर बना लेने की तरह है। ऐसी ही परिष्कृत मनोभूमि पर उपासना का बीजारोपण किया जाता है। तभी बोई हुई फसल लहलहाती है। ऐसी ही उर्वरा भूमि पर लगाया गया उद्यान फलता−फूलता देखा जाता है।
साधना का दूसरा पक्ष उत्तरार्ध उपासना है। विविध−विधि शारीरिक और मानसिक क्रिया कृत्य इसी प्रयोजन के लिए पूरे किये जाते हैं। शरीर से व्रत, मौन, अस्वाद, ब्रह्मचर्य, तीर्थयात्रा, परिक्रमा, आसन, प्राणायाम, जप, कीर्तन, पाठ, बन्ध, मुद्राएँ, नीति, धोति वस्ति, न्योलि, वज्रोली, कपाल भाति जैसे क्रियाकृत्य किये जाते हैं। मानसिक साधनाओं में प्रायः सभी चिन्तन-परक होती हैं और उनमें कितने ही स्तर के ध्यान करने पड़ते हैं। नादयोग, बिन्दुयोग, लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग, हंसयोग, षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण जैसे बिना किसी श्रम या उपकरण के लिये जाने वाले मात्र मनोयोग के सहारे संपन्न किये जाने वाले सभी कृत्य ध्यानयोग की श्रेणी में गिने जाते हैं। इसके साकार और निराकार दो वर्ग हैं। साकार में अमुक देवी−देवताओं के स्वरूप एवं सान्निध्य की भावना की जाती है। प्रकाश का—सूर्य का ध्यान भी साकार ध्यान में ही गिना जाता है। इसे कई लोग निराकार कहते हैं। उनकी परिभाषा के अनुसार मनुष्याकृति के भगवान ध्यान को साकार और सूर्य प्रकाश जैसे हाथ−पाँव रहित स्वरूप को निराकार कहा जाता है, पर बात ऐसी है नहीं। सूर्य प्रकाश की, षट्चक्रों की, कुण्डलिनी चक्र की, सहस्रार कमल की आकृतियाँ भी साकार ध्यान में ही गिनी जानी चाहिएँ।
आकार का अर्थ ही स्वरूप है। जहाँ किसी भी प्रकार की आकृति को ध्यान माध्यम बनाया जा रहा होगा वे सब साकार ध्यान गिने जायेंगे। निराकार वर्ग में वे ध्यान आते हैं जो शब्द, रस, गंध, स्पर्श इन चार तन्मात्राओं के सहारे संपन्न किये जाते हैं। सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से कई प्रकार की दिव्य ध्वनियों को सुनना नादयोग कहलाता है। जीभ पर मिश्री, मिर्च आदि का स्पर्श कराकर कुल्ला कर लेते हैं और उसी स्वाद की अनुभूति करते रहते हैं। इसी प्रकार अमुक गंध को एक बार सूँघकर नासिका द्वारा पीछे भी उसकी कल्पना की जाती रहती है। किसी ठण्डे, गर्म या मृदुल कठोर स्पर्श को हाथों से छूकर उसे हटा दिया जाता है और उसके हट जाने पर भी स्पर्श का अनुभव करने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। कान, नासिका, जिह्वा एवं त्वचा की—शब्द, गंध, स्वाद एवं स्पर्श की अनुभूतियों को निराकार ध्यान कहा जा सकता है। रूप तन्मात्र नेत्र इन्द्रिय का विषय है इसकी अनुभूति में किसी न किसी आकार की जरूरत पड़ती है, चाहे वह मनुष्याकृति का हो अथवा अन्य किसी आकार का। इन पर ध्यान केन्द्रित करने को साकार उपासना कहा जायगा।
स्थूल शरीर से श्रम परक, सूक्ष्म, शरीर से चिन्तन परक उपासनाएं की जाती हैं। कारण शरीर से केवल भावना की पहुँच है। निष्ठा, आस्था, श्रद्धा का भाव भरा समन्वय ‘भक्ति’ कहलाता है। प्रेम संवेदना इसी को कहते हैं। यह स्थिति तर्क से ऊपर है। मन और बुद्धि का इसमें अधिक उपयोग नहीं हो सकता है। भावनाओं की उमंग भरी लहरें ही अन्तःकरण के मर्मस्थल का स्पर्श कर पाती हैं। मनुष्यों में भी दो प्रेमीजन जब मिलते हैं तो भाव−विभोर हो जाते हैं और आनन्दातिरेक का अनुभव करते हैं। भाव भरी पुलकन केवल विश्वस्त, परमप्रिय एवं आत्मीयों के मिलन पर ही उभरती है। इसलिए भगवान के प्रति अत्यंत उच्चस्तरीय मान्यताएँ एवं भावनाएँ रखकर पुलकन भरे मिलन को—एक−दूसरे में आत्मसात हो जाने की गहन आस्था की अनुभूति को भक्तियोग कहते हैं। लययोग इसी को कहा जाता है। आत्म−समर्पण तादात्म्य भी इसी का नाम है। जीवन मुक्ति का वर्णन करते हुए सालोक्य सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य के चार भेदों में इसी स्थिति का विवेचन किया गया है। द्वैत को मिटाकर अद्वैत की अनुभूति, नदी का समुद्र में विलय, अग्नि में आहुति द्रव्य, दीपक पर पतंगों का जलना जैसे उदाहरण देकर इसी भाव स्तर का स्वरूप समझाया जाता है। गोपियों को कृष्ण की वंशी ध्वनि पर थिरकने वाले रास नृत्य में इन्द्रिय समूह एवं चिन्तन धाराओं का परब्रह्म के उदात्त संकेतों का अनुगमन ही है। ‘मैं’ और ‘तू’ में से एक को मिटा देने की बात सूफी संत और भक्त योगी एक स्वर से कहते रहे हैं। मैं मिटता है तो तू रह जाता है। “मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर” की—“अपनी खुदी मिटा दे तेरा खुदा मिलेगा” की—अनुभूति भक्तियोग में होती है। इसी तथ्य को थोड़े से शब्दों की उलट−पुलट में दूसरी तरह भी कहा जा सकता है—‘अयमात्मा ब्रह्म—प्रज्ञानं ब्रह्म—तत्वमसि—सच्चिदानंदोऽहम्’—शिवोऽहम् की मान्यता में ‘तू’ मिट जाता है और मैं रह जाता है। दोनों ही स्थितियों में एकता, एकरूपता—एक सत्ता का प्रतिपादन है। भक्त और भगवान के एक बन जाने की बात है। अयमात्मा ब्रह्म का आत्मा—निकृष्ट नर−पशु नहीं होता वरन् उसकी क्रिया, विचारणा एवं आकाँशा ठीक वैसी ही होती है, जैसी परमेश्वर की। इससे नीची स्थिति में ‘शिवोऽहम्’ की बात कहाँ बनती है। परमात्मा स्तर पर पहुँचा हुआ आत्मा अपनी अहंता को पूरी तरह खो चुका होता है। उसके साथ जुड़े हुए संकीर्ण स्वार्थपरता के सारे बंधन भी समाप्त हो जाते हैं ऐसा मनुष्य लोभ, मोह के बंधन से विरक्त होकर वैरागी जीवन जीता है और उच्चस्तरीय प्रेरणाओं को ईश्वर के संकेत मानकर उनका अनुगमन करता है।
इसके लिए मात्र मस्तिष्क द्वारा संभव होने वाले ध्यान चिन्तन से काम नहीं चलता वरन् प्रियतम के साथ एकाकार होने के भावोन्माद को जगाना पड़ता है। मीरा, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस आदि में यह उन्माद मुखरित हो उठा था। ऋषियों में तत्वदर्शी मनीषियों में यह सौम्य शाँत रस बनकर रचनात्मक प्रयोजनों में लगा रहता है। आवश्यकता पड़ने पर वह बुद्ध और गाँधी की तरह सामयिक समस्याओं के समाधान में अवतारी महामानवों की भूमिका भी सम्पन्न करता है।
इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए भक्ति का भावोन्माद उभारने वाले साधक भी देखे गये हैं दूसरे अत्यन्त शान्तिपूर्वक हिमालय में अपनी काया को गला कर हिम रूप बना देने जैसी अनुभूतियों से भी काम चला लेते हैं। तात्पर्य द्वैत को मिटा देने से है। आत्मा और परमात्मा की एकता की भावना जिस भी भाव−प्रक्रिया द्वारा संपन्न की जाय, वे सभी भक्तियोग के—लययोग के अन्तर्गत गिनी जाएंगी।
उपरोक्त तीनों प्रकार की साधनाएँ एक साथ चलती रहती हैं। आवश्यक नहीं कि एक के बाद दूसरी आरम्भ की जाय। एक ही कक्षा में गणित, इतिहास और साहित्य जैसे कई वर्ग चलते रहते हैं। कुछ में कइयों का सम्मिश्रण भी होता है, पोलो जैसे कई खेलों में शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक सूझ−बूझ का समान रूप से समन्वय करना पड़ता है। भोजन में रोटी दाल, शाक की मिली−जुली व्यवस्था रहती है। शरीर यात्रा के लिए अन्न जल और वायु का सन्तुलन बनाना पड़ता है। जीवन−यात्रा में शिर, धड़ और पैर के तीनों ही अंग साथ−साथ काम करते रहते हैं। इसी प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का समन्वित साधना क्रम भी चलता है। साथ−साथ तीनों का समान रूप से विकास भी होता चलता है।
साधना का सबसे स्थूल रूप पार्थिव पूजा है जो मात्र उपकरणों से धन एवं पदार्थों से संपन्न हो जाता है। प्रतिमा पूजन यही प्रथम बाल कक्षा है। देव मन्दिरों में स्थापित प्रतिमाओं को वस्त्र, नैवेद्य आरती, पुष्पहार, धूप, दीप आदि से पूजा जाता है। सूर्य को अर्घ्य धन दान, ब्रह्मभोज, भोग प्रसाद जैसे कार्य पार्थिव पूजा में गिने जाते हैं, इनमें से कुछ तो हवन यज्ञ अपंग असमर्थों की सहायता, सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में दान पुण्य जैसे लोकोपयोगी भी होते हैं, शेष उपकरणों की सहायता से किये जाने वाले कर्मकाण्डों तक सीमित रहते हैं। उन्हें भी निरर्थक नहीं कहा जा सकता है। पदार्थों और चेष्टाओं की सहायता से उच्चस्तरीय चिन्तन को उभारना भी जीवन को दिशा देने की दृष्टि से आवश्यक है। यथा समय इन सभी प्रयोजनों के समन्वय की आवश्यकता पड़ी है और यदि वह सब उद्देश्यपूर्ण रीति से किया गया हो तो समुचित लाभ भी मिलता है।

