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Magazine - Year 1976 - Version 2

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प्राण योग—प्रचण्ड ऊर्जा का उत्पादन

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शक्ति उत्पन्न करने का तरीका है—घर्षण। भौतिक जगत में इस प्रयोग से शक्तिशाली उपलब्धियां प्राप्त की जाती है। आत्मिक जगत में भी यही प्रक्रिया प्रयुक्त की जाती हैं। प्राणायाम साधना इस घर्षण प्रयोजन के लिए बहुत करके काम में लाई जाती है।

निर्जन सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के गीले सूखे पेड़ों को जला कर खाक कर देती है। यह मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की गई या लगाई गई नहीं होती, क्योंकि जो क्षेत्र सर्वथा निर्जन है वहाँ वैसा होने की कोई सम्भावना नहीं होती। यह आग सूखे पेड़ों की टहनियों के तेज हवा के कारण हिलने और आपस में टकराने के कारण उत्पन्न होती है। इस कार्य में बाँस सबसे अग्रणी है। झुरमुट में बाँस एक दूसरे से सटकर उगे होते हैं। तेज हवा से उनका टकराना स्वाभाविक है। सूखे बाँस आपस में रगड़ खाकर पहले गरम होते हैं। फिर चिनगारियाँ निकालने लगते हैं। यह आग बढ़ती और फैलती चली जाती है और दावानल का रूप धारण कर लेती है।

चकमक पत्थर के दो टुकड़े आपस में टकराकर चिनगारियाँ उत्पन्न करने की कला ही आदि मानव ने सीखी थी। पीछे लोहे और पत्थर को टकराकर भी आग निकालने की तरकीब निकाल ली गई। यज्ञ कार्यों में लकड़ियाँ रगड़ कर—अरुणि−मंथन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती थी। धूनी जलाकर अखण्ड अग्नि को सुरक्षित रखने का प्रचलन तो पीछे हुआ, आरम्भ में रगड़ से ही अग्नि उत्पन्न की गई। उस समय की साधन-हीन परिस्थितियों में यह अग्नि आविष्कार आज के रेडियो विज्ञान से भी बढ़कर महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ था और उसने मानवी प्रगति को सौ गुनी बढ़ा दिया था।

प्राणायाम में श्वास−प्रश्वास क्रिया को क्रमबद्ध—तालबद्ध—लयबद्ध बनाया जाता है और साँस लेने की साधारण−सी अनवरत प्रक्रिया की अव्यवस्था दूर करके उसे व्यवस्था के बन्धनों में बाँधा जाता है।

सामान्यतः श्वास का आवागमन फेफड़ों में तथा अन्य अवयवों में सिकुड़ने फैलने की हलचल उत्पन्न करता है। उसी से दिल धड़कता है—रक्त संचार होते हैं—माँस−पेशियों का आकुंचन−प्रकुँचन क्रम चलता है। जिस प्रकार पेंडुलम का हिलना घड़ी की गतिविधियों को स्वसंचालित रखने का आधार होता है उसी प्रकार श्वास−प्रश्वास क्रिया को एक प्रकार से शरीर की समस्त हलचलों का उद्गम केन्द्र कहा जा सकता है। कहावतों में अक्सर ऐसे प्रसंग आते हैं—’भगवान के यहाँ से जितने श्वास मिले हैं उतने दिन ही तो जीना है।’ ‘थोड़े से श्वास और शेष रहे हैं आदि। मृत्यु का मोटा ज्ञान श्वास चलना बंद हो जाने से ही किया जाता है। नाड़ी की धड़कन बंद होना श्वास बंद होने का ही लक्षण है।

साँस को जीवन कहा जाता है। तनिक गहराई से विचार करें कि हवा तो जड़ पंच−तत्वों में गिनी जाती है उसकी प्रतिक्रिया हलचल भी हो सकती है। तेज हवा से पत्ते हिलते हैं—धूलि कण, तिनके आदि उड़ते हैं, पर इससे जीवन तो उत्पन्न नहीं होता। हवा में जब स्वयं ही जीवन नहीं पाया जाता तो वह प्राणी को जीवन कहाँ से दे सकती है? यदि साँस लेने से जीवन का संबंध नहीं है तो उसे प्राण के अर्थ में क्यों प्रयुक्त किया जाता है और प्राण को जीवन का पर्यायवाची क्यों माना जाता है।

बात यह है कि हवा मोटे तौर से एक पदार्थ प्रतीत होता है पर उसकी भीतरी परतों में और भी महत्वपूर्ण वस्तुएँ विद्यमान हैं। दूध में घी दिखाई तो नहीं पड़ता पर वह उसमें रहता अवश्य है और अमुक विधि से उसे अलग निकाला भी जा सका है। वनस्पतियाँ मोटे तौर पर हरियाली भी लगती हैं पर प्रयोगशाला में उनका विश्लेषण करने पर प्रोटीन, नमक चूना, चिकनाई आदि कितने ही स्तर के पदार्थ ढूंढ़े और निकाले जाते हैं। शरीर मोटे तौर पर माँस चमड़े का दीखता है पर विश्लेषण से उसमें ढेरों प्रकार के रासायनिक पदार्थ मिलते हैं। इसी प्रकार साँस में प्रवेश करने वाली हवा मात्र स्पर्श तन्मात्रा वाली प्रकृति की हलचल नहीं है उसके भीतर कितने ही महत्वपूर्ण तत्व भरे पड़े हुए हैं, इसे विज्ञानवेत्ता भली प्रकार जानते हैं। विज्ञानियों का कथन है कि चेतना जड़ शरीर में रहने वाली चेतन आत्मा की तरह है। वायु रूपी शरीर के भीतर एक चेतन शक्ति भरी पड़ी है—उसी को प्राण कहा गया है। हवा, हवा से सूक्ष्म ईथर—ईथर से सूक्ष्म प्राण—प्राण से सूक्ष्म ब्रह्म—इस प्रकार की परतों की कल्पना की जा सकती है। ऐसी परतों की जो पूरी तरह आपस में गुंथे और मिले हुए हैं। माँस में रक्त घुला रहता है और वायु में प्राण। सामान्यतया वे एकत्रित हैं, पर विशेष प्रयत्न द्वारा उन्हें पृथक किया जा सकता है और जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसे हस्तगत किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार वायु तत्व में घुले हुए प्राण तत्व को अलग से खींचा जा सकता है और उसे अपने प्राण में सम्मिलित करके अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

सामान्यतया साँस लेने से फेफड़ों में हवा पहुँचने और उससे रक्त को ऑक्सीजन मिलने तथा भीतर उत्पन्न हुई कार्बनडाई−ऑक्साइड को बाहर निकालने भर का—शरीर−यात्रा का—आवश्यक प्रयोजन पूरा होता है। इस श्वास−प्रश्वास क्रिया को विशेष ढंग से—विशेष क्रम से किया जाने लगे तो उससे भिन्न प्रकार की मंथन क्रिया आरम्भ हो जाती है। मंथन द्वारा दूध से घी निकलता है। रति क्रिया से वीर्यपात का आधार भी यह मंथन ही होता है। अनेक वैज्ञानिक प्रयोजनों में यह मंथन क्रिया की जाती है और उससे अणुओं का विकेन्द्रीकरण होने से छोटे रूप से अणु विस्फोट जैसी स्थिति उत्पन्न होती है और अनोखी उपलब्धियाँ मिलती हैं। दवाओं की घुटाई, पिसाई, घिसाई में भी प्रकारान्तर से यह मंथन क्रिया ही संपन्न होती है और सामान्य−सी जड़ी बूटियाँ चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती हैं।

यही मंथन क्रिया हंस−योग की प्राण−प्रक्रिया में विशिष्ट स्तर पर होती है। उससे उत्पन्न ऊर्जा अपने कई तरह के भौतिक और आत्मिक प्रयोजन पूरे करती है। आदिम सभ्यता के विकास काल में चकमक पत्थर के टुकड़े आपस में टकराकर आग उत्पन्न की जाती थी। पीछे लोहे, पत्थर के टकराव से भी चिनगारियाँ उत्पन्न की जाने लगीं। अगर मंथन में—लकड़ियाँ आपस में रगड़ कर यज्ञ के लिए अग्नि उत्पन्न करना उस कर्म काण्ड का एक अंग रहा है। सूखे हुए बाँस अथवा अन्य कोई लकड़ियाँ तेज हवा के झोंकों से आपस में रगड़ने लगती हैं और उनसे उत्पन्न आग बढ़ते−बढ़ते दावानल बन कर बड़े−बड़े जंगलों को जलाकर खाक कर देती है। सीसे की छड़ एबोनाइट से घिसने पर बिजली उत्पन्न होने की बात साइन्स के छात्रों को स्कूली प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष दिखाई जाती है। यह सब घर्षण के चमत्कार हैं। ऐसी ही ऊर्जा श्वास क्रिया को मंथन क्रम में चलाने पर उत्पन्न होती है और उससे शारीरिक सुनिश्चित एवं मानसिक तीक्ष्णता को प्रखर बनाने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।

चलती रेस के पहियों में जब चिकनाई समाप्त हो जाती है अथवा अन्य किसी कारण से घिसाव पड़ने लगता है तो वही उत्पन्न होने वाली गर्मी धुरे तक को गला देती है और दुर्घटना की स्थिति बन जाती है। आकाश में कभी−कभी प्रचंड प्रकाश रेखा बनाते हुए तारे टूटते दिखाई पड़ते हैं यह तारे नहीं उल्का पिण्ड होते हैं। अन्तरिक्ष से छितराये हुए धातु पाषाण जैसे छोटे−छोटे टुकड़े कभी−कभी पृथ्वी के वायु−मण्डल में घुस पड़ते हैं और हमारे टकराने पर जल कर खाक हो जाते हैं, उसी जलने का तेज प्रकाश देखकर तारा टूटने का अनुमान लगाया जाता है। यह मात्र घर्षण क्रिया का चमत्कार है प्राणायाम में इसी प्रक्रिया को अपने ढंग से दुहराया जाता है और प्रकाश उत्पन्न करते देखा जाता है।

दही मंथन में ‘रई’ को रस्सी के दो छोर पकड़कर उलटा−सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है और उससे दूध में घुला हुआ घी उभर कर बाहर आ जाता है। बायें−दायें नासिका स्वरों से चलने वाले इड़ा पिंगला विद्युत प्रवाहों का अमुक विधि से मंथन करने पर दूध बिलोने जैसी हलचल उत्पन्न होती है उससे काया चेतना में भरा हुआ ओजस् उभर कर ऊपर आता है। इसको विधिवत् उत्पन्न और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। इस उपलब्धि को जीवन साहस एवं प्रखरता के रूप में कार्यान्वित होते देखा जा सकता है।

कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक दृष्टि से सुयोग्य होते हैं, पर साहस का अभाव होने से वे कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-कुशंकाओं से ग्रस्त रहने—आपत्तियों की—असफलताओं की सम्भावना उन्हें पग−पग पर डराती रहती है। थोड़ी−सी कठिनाई आने पर डरे घबराये दिखाई पड़ते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रगति के उपयुक्त अवसर सामने होने पर भी उन्हें गँवाते और गई−गुजरी स्थिति में आजीवन पड़े रहते हैं। इसके विपरीत साहसी व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन एवं उपयुक्त अवसर न होने पर भी दुस्साहस भरे कदम उठाते और आश्चर्यचकित करने वाली सफलताएँ प्राप्त करते देखे जाते हैं। ऐसे ही दुस्साहसी व्यक्ति इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम अमर करते देखे जाते हैं। किसी भी क्षेत्र की महत्वपूर्ण सफलताएं पाने के लिए ऐसी ही साहसिक मनोभूमि का होना आवश्यक है। इस आन्तरिक समर्थता को दूसरे शब्दों में ‘प्राण’ कहा जाता है। प्राणवान का अर्थ जीवित ही नहीं साहसी भी होता है। इस उपलब्धि को स्वास्थ्य और शिक्षा से भी बढ़कर माना जा सकता है। प्राणायाम के प्रयोग इस उपलब्धि से साधक को लाभान्वित करते हैं।

जीवन के हर क्षेत्र में पग−पग पर संघर्ष की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत कठिनाइयों को चीरते हुए ही प्रगति सम्भव होती है। नाव पानी को चीरते हुए आगे बढ़ती है। मकान बनाने का कार्य नींव खोदने से आरंभ होता है। खेत को बोने से पहले उसे जोतना पड़ता है। अनेक योनियों में भ्रमण करते हुए जीव जिन पशु−प्रवृत्तियों का अभ्यस्त होता है, उन्हें घटाये−हटाये बिना मानवी गरिमा के अनुरूप गुण−कर्म स्वभाव उपार्जित नहीं किया जा सकता। आँतरिक अवाँछनीयताओं को हटाकर उस स्थान पर उत्कृष्टताओं की स्थापना करने के प्रयोग को साधना कहते हैं। यह साहसिकता के बिना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। बाहरी शत्रुओं से लड़ने के लिए जितना युद्ध कौशल चाहिए उतना ही शौर्य साहस अपने भीतर घुसे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद−मत्सर जैसे आत्म−शत्रुओं से लड़ने और परास्त करने के लिए आवश्यक होता है। दुर्बल मनः स्थिति के लोग अपनी भीतरी कमजोरियों को जानते हैं, उन्हें हटाना चाहते हैं, पर साहस के अभाव से उनके साथ लड़ने का पराक्रम प्रदर्शित नहीं कर सकते। फलतः आत्म−सुधार एवं आत्म−निर्माण का प्रयोजन पूरा कर सकना उनसे बन नहीं पड़ता। अपने को असहाय अनुभव करते हैं और थक कर प्रयत्न ही छोड़ बैठते हैं।

बाहरी युद्ध जीतने के भौतिक लाभ हैं किन्तु आंतरिक युद्ध में जीतने से तो विभूतियों का इतना बड़ा भण्डार हाथ लगता है जिसे पाकर मनुष्य जीवन सच्चे अर्थों में सार्थक माना जा सकता है। साधना को संग्राम कहा गया है। ‘साधना समर’ शब्द का अध्यात्म विज्ञान में बार−बार उल्लेख होता है। देवासुर संग्राम के अनेकानेक प्रसंग पौराणिक उपाख्यानों में आते हैं, यह अलंकारिक रूप मनुष्य जीवन के अंतरंग और बहिरंग क्षेत्रों में सदा होते रहने वाले संघर्षों का ही चित्रण है। दुर्गा सप्तशती और गीत की पृष्ठ भूमि इसी संघर्ष के आधार पर खड़ी है भगवती दुर्गा द्वारा असुरों का संहार और कृष्ण द्वारा अर्जुन के माध्यम से महाभारत का आयोजन प्रकारान्तर से इसी तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि साधना समर के क्षेत्र में प्रवेश किये बिना उन अवरोधों से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता जो मनुष्य को दयनीय दुर्दशा में डाले रहने के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी हैं।

भगवान के अवतार के प्रसिद्ध प्रयोजन दो हैं (1) अधर्म का उन्मूलन (2) धर्म का संस्थापन। अनाचार को निरस्त करके ही सदाचार की स्थापना हो सकती है। अस्तु सिक्के के दो भागों की तरह उन्हें परस्पर पूरक एवं अविच्छिन्न भी कह सकते हैं। उद्यान को विकसित करने वाला माली जहाँ खाद-पानी लगाता है वहाँ निराई, गुड़ाई, छंटाई, रखवाली जैसी कड़ाई भी बरतता है। आत्मोत्कर्ष के लिए जहाँ सत्प्रवृत्तियों का विकसित किया जाना, पुण्य प्रयोजनों को अपनाना अभीष्ट है, उतना ही दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए तत्परता बरतना भी आवश्यक है। भगवान के अवतार इस दुहरी क्रिया प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए ही होते रहे हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी प्रगति पथ पर बढ़ने वालों को इसी मार्ग का अवलंबन करना होता है। संक्षेप में इसे यों कह सकते हैं कि जिसके अन्तःकरण में भगवान की दिव्य ज्योति का अवतरण होगा, उसे अवाँछनीयताओं के विरुद्ध लोहा लेने के लिए पराक्रम प्रदर्शित करना होगा और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में जुटना होगा। यह दोनों ही प्रयोजन जिस आन्तरिक साहस द्वारा संपन्न होते हैं, उसी को ‘आत्म बल’ कहा गया है। साधना का एक उद्देश्य आत्मबल का उपार्जन भी है। प्राणायाम द्वारा उत्पन्न हुई आन्तरिक ऊर्जा इस उत्पादन में विशेष रूप से सहायक होती है। इन्द्रिय दमन, मनोनिग्रह, कुसंस्कारों का उन्मूलन, सत्प्रयोजन की दिशा में अनवरत प्रयाण, कठिनाइयों से संघर्ष, जन उपहास एवं विरोध का सहन जैसे महत्वपूर्ण कार्य बिना आन्तरिक साहस के अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकते।

कुविचार मस्तिष्क पर छाये रहते हैं और शरीर को अकर्म करने की आदत पड़ी होती है; यदि पुराने अभ्यासों को काटा, उखाड़ा न जाय तो फिर उत्कर्ष के लिए आगे बढ़ चलना कैसे बन पड़ेगा। स्पष्ट है कि कुविचारों को सद्विचारों से ही निरस्त किया जा सकता है। काँटे से काँटा निकालने और विष से विष को मारने की उक्ति प्रसिद्ध है। मस्तिष्क में यदि कामुकता के विचार उठते रहते हैं, तो उनके काटने का एक ही उपाय है ब्रह्मचर्य के—पवित्र दृष्टिकोण के समर्थक विचारों को मस्तिष्क में जमा किया जाय। इस मार्ग पर चलने वाले हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य, दयानन्द आदि महामानवों के चरित्रों का चिन्तन किया जाय, उस पक्ष के समर्थन वाले तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरणों को पर्याप्त मात्रा में स्वाध्याय, मनन आदि की सहायता से संग्रह किया जाय। उन पर बार−बार गहराई से विचार किया जाय। कामुकता तथा शालीनता के दोनों पक्षों को अपनी−अपनी बात के समर्थन का अवसर देकर यदि विवेक द्वारा निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह फैसला करने का अवसर दिया जाय तो पुराने अवाँछनीय चिन्तन अभ्यास को आसानी से काटा जा सकता है। शारीरिक दुष्प्रवृत्तियों के संबंध में भी यही बात है। नशा, व्यसन, आलस्य जैसे दुर्गुणों से निपटना, कठोर संकल्प एवं दृढ़ निश्चय से ही सम्भव हो सकता है। व्यक्तित्व का कायाकल्प कर सकने वाले व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में शूर−वीर कहे जाते हैं और उन्हीं को भौतिक जगत की प्रत्येक दिशा में बढ़ चलने का द्वार खुला मिलता है। इस जीवन−प्राण कहे जा सकने वाले चेतना−तत्व को प्राण कहते हैं। प्राणायाम इसी उपलब्धि की साधना है।

अण्डा तब फूटता है जब उसके भीतर के बच्चे की अन्तः चेतना उस परिधि को तोड़कर बाहर निकलने की चेष्टा करती है। प्रसव पीड़ा और प्रजनन की घड़ी तब आती है जब गर्भस्थ शिशु की चेष्टा उस बंधन को तोड़ कर मुक्ति पाने की आतुर चेष्टा में संलग्न होती है। इन शिशुओं के संकल्प गिरे−मरे हों तो वे भीतर ही सड़−गल कर नष्ट हो जायेंगे। प्रगति के लिए पराक्रम और अवाँछनीयताओं के विरुद्ध संघर्ष का शौर्य साहस अपना कर ही किसी को उत्कृष्ट स्तर तक बढ़ चलने का अवसर मिलता है। पराक्रम विहीन व्यक्ति को प्रतिपक्षी शक्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट करके रख देती हैं। भगवान बुद्ध ने यों अपने समय के अनाचार से शूर वीरों की तरह लड़ाई लड़ी थी; पर पीछे उनके अनुयायियों ने बौद्ध धर्म का एक सरल पक्ष ही ध्यान में रखा —अहिंसा। यह भुला दिया गया कि आक्रमणकारी हिंसा की दुष्टता से लोहा लिये बिना अहिंसा की रक्षा नहीं हो सकती। हुआ भी यही। अहिंसा की आड़ में कायरता ने अड्डा जमा लिया। लोग जप तप का सरल आश्रय तो पकड़े रहे पर अनीति से जूझने की प्रखरता को व्यर्थ समझने की एकाकी दृष्टि अपनाते रहे। मध्य एशिया के लुटेरों ने इस दुर्बलता को समझा और वे भारत पर चढ़ दौड़े। शौर्य गँवा देने पर वे बहुसंख्यक और साधन−संपन्न होते हुए भी थोड़े−से लुटेरों का सामना न कर सके और पराधीनता के पाश में जकड़े गये। हमारी हजार वर्ष की गुलामी आक्रमणकारियों की वरिष्ठता का नहीं—हमारी आन्तरिक दुर्बलता का काला पृष्ठ है−जिसे एकाँगी अहिंसा वृत्ति को अपना कर भीरुता एवं कायरता के रूप में स्वभावगत बना लिया गया था। पराक्रम गँवा बैठा जाय तो मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, चूहे एवं शरीर में घुसे अदृश्य रोग कीटाणु तक अपने अस्तित्व के लिए खतरा बनकर खड़े हो जायेंगे। चोर, उचक्के, गुण्डे, ठग, आततायी अपने ही इर्द−गिर्द भरे पड़े होते हैं और उन्हें जब दुर्बलता का पता चलता है तो अति उत्साहपूर्वक आक्रमण करने के लिए टूट पड़ते हैं। प्रगति के लिए न सही, आत्म−रक्षा तक का उद्देश्य बिना प्रचंड पराक्रम विकसित किये सम्भव नहीं हो सकता। पराक्रम प्राण का गुण है इसी को पुरुषार्थ भी कहते हैं। प्राणवान पुरुषार्थी को ही पुरुष कहा गया है। नर और पुरुष में अंतर है। पुरुष शब्द पुरुषार्थी नर और नारी दोनों के ही अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए महापुरुष शब्द के अन्तर्गत महान नारियों की भी गणना होती है। यदि ऐसा न होता, तो महान नारियों की उपेक्षा भावना ही समझी जाती अन्यथा महापुरुष की तरह महा नारी का भी उल्लेख इतिहास पुराणों एवं शास्त्रों में रहा होता।

आत्म−बल इसी आँतरिक ऊर्जा का नाम है जो मनुष्य को भौतिक और आत्मिक क्षेत्र में पुरुषार्थ करने तथा आश्चर्यचकित करने वाली उपलब्धियाँ उपार्जित करने की आधार शिला सिद्ध होती है। इसी ऊर्जा को उपार्जित करना प्राणायाम करने का प्रधान उद्देश्य है। तालबद्ध, क्रमबद्ध—संकल्प युक्त विशेष विधान सहित श्वास क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। किस स्तर का प्राण उपार्जित किया जाय इसके लिए भिन्न−भिन्न विधि−विधान हैं। प्राण, अपान, अमान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण माने गये हैं। सूर्य की सात किरणों की तरह एक ही प्राण शक्ति के ये भेद उपभेद सन्निहित शक्ति के वर्गीकरण का ध्यान रखते हुए किये गये हैं। मस्तिका, भ्रामरी, उज्जायी, शीतला, सीत्कारी आदि अनेकों उनके विधि-विधान हैं। इनके उद्देश्य और प्रतिफल भी अनेक हैं। सूक्ष्मदर्शियों ने इन सब में ‘सोऽहम्’ साधना को सर्वोपरि महत्त्व की तथा सर्व-सुलभ स्तर की माना है। अन्य प्राणायामों के विधि-विधान में अन्तर पड़ने से हानि होने की संभावना भी है पर हंसयोग में —सोऽहम् प्राण साधना में वैसा कोई डर नहीं है। इसमें जप,ध्यान और प्राण इन तीनों ही आधारों का समन्वय है इसीलिए उसे गंगा-यमुना सरस्वती के संगम की तरह तीर्थराज तुल्य माना गया है उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता और सद्भाव सम्पन्नता के त्रिविध लाभ उपलब्ध होते हैं।

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