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न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु:।
प्राप्तस्थ योगाग्निमय शरीरम्।।
श्वेता. 2।12
शरीर के योगाग्निमय होने पर उसे कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, मृत्यु भी नहीं होती।
दान, पुण्य, सेवा, सहायता, सामूहिक सत्कर्मों में सहयोग, लोक कल्याण की प्रवृत्तियों में रस लेना और उसके लिए समय, श्रम एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाना। अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने में लगने वाली चोटों को सहने के लिए साहस एकत्रित करना। उदारता के कारण अपनी सुविधाओं में कमी के लिए तैयार रहना। इसमें अप्रतिष्ठा एवं संबंधियों के स्वार्थों में कमी आने से उनकी नाराजगी सहने को प्रस्तुत रहना। लोक प्रवाह से विपरीत चलने के कारण उपहार, अपमान, विरोध एवं प्रहार की संभावना मान कर चलना और उनका धैर्य पूर्वक सामना करना। इस प्रकार की कष्ट सहिष्णुता तप साधना का दूसरा चरण है।
तीसरे तप वर्ग में विभिन्न प्रकार के साधनात्मक कर्मकाण्ड आते हैं। जप ध्यान, प्राणायाम, देवपूजा, संध्या, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि अनेकों सम्प्रदायों में प्रचलित अनेकों विधिविधान इसी उपासना वर्ग में आते हैं।
योग साधना के चार और तप साधना के तीन कुल मिलाकर अध्यात्म के सात सोपान हैं। इन्हीं को सप्तलोक- सप्तऋषि- सप्तमहाव्रत कहा गया है। सप्त-द्वीप, सप्त-समुद्र, सप्त-शिखर, सप्त-रत्न, सप्त-धातु, सप्त-सरोवर, सप्त-शिखर, स्वर सप्तक, सप्तसूर्य किरणें, सप्ताह आदि की संगति इन्हीं सात सोपानों से मिलती है। विभिन्न अलंकारों के साथ इन्हीं सात तथ्यों को मनीषियों ने विभिन्न प्रतिपादनों के साथ निरूपित किया है और जन मानस में विभिन्न प्रतिपादनों के साथ प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया है। अध्यात्म के ज्ञान पक्ष और विज्ञान पक्ष को समझने के लिए जो अनेकानेक शास्त्र पढ़ने को और विद्वानों के प्रवचन प्रतिपादन सुनने को मिलते हैं, उनमें इन सात महा तथ्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि उन्हें सही रीति से समझा और अपनाया जा सके तो मनुष्य में देवत्व का अवतरण हो सकना सुनिश्चित है।
विज्ञान पक्ष की साधना में तपश्चर्या को केन्द्र मान कर चलने वाले विधि-विधानों का उद्देश्य है- प्रसुप्ति से निवृत्ति- मूर्छना से मुक्ति। इसके लिए गर्मी उत्पन्न करनी पड़ती है। गर्मी पाकर प्रसुप्ति से मुक्ति मिलती है। सूर्योदय की बेला निकट आने पर प्राणियों की निद्रा टूटती है और वे जागते उठते एवं कार्यरत होते हैं। रात्रि में कलियाँ सिकुड़ी पड़ी रहती हैं; पर जैसे ही सूर्य निकलता है वे हँसने खिलने लगती हैं। मानवी सत्ता के अन्तर्गत बहुत कुछ है। अत्युक्ति न समझी जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि सब कुछ है। किन्तु है वह मूर्छित। इस मूर्छना के जगाने के लिए धूप, आग, बिजली आदि से उत्पन्न बाहरी गर्मी से काम नहीं चलता। उसका प्रभाव भौतिक जगत में ही अपनी हल-चल उत्पन्न करके रह जाता है। चेतना पर चढ़ी हुई मूर्छना को हटाने के लिए तप करना पड़ता है। उसके लिए भीतरी गर्मी की आवश्यकता पड़ती है। इसे कैसे उगाया और बढ़ाया जा सकता है, इसे विज्ञान को अध्यात्म की भाषा में तप कहते हैं।
तप की स्थूल प्रक्रिया सांकेतिक विधि वह है जिससे शरीर की स्वाभाविक सुख सुविधा को- वासना को रोका जाता है और मन की स्वाभाविक चंचलता को- अहंता और लोलुपता को प्रतिबन्धित किया जात है। मनोनिग्रह इसी का नाम है। निरोध से शक्ति उत्पन्न होती है। खुले मुँह की पतीली में खौलता हुआ पानी भाप बनकर ऊपर उड़ता रहता है और उसके तिरोहित होने में कोई अचंभे जैसी बात मालूम नहीं पड़ती, पर जब उसी को कड़े ढक्कन में बन्द कर दिया जाय तो फैली हुई भाप उस बर्तन को फाड़ कर भयंकर विस्फोट कर सकती है। स्टोव और प्रेशर कुकर फटने से दुर्घटनाएँ इसी निरोध का परिणाम होती हैं। इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह का माहात्म्य इसी आधार पर बताया जाता है। ब्रह्मचर्य की महत्ता का रहस्य यही है कि ‘ओजस’ को निम्नगामी अध:पतन से रोक कर ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। उस शक्ति को गन्दी नाली में बिखेरने की अपेक्षा मस्तिष्कीय चेतना में किया जाता है तो ब्रह्मलोक जगमगाने लगता है। यह निरोध का चमत्कार है।
तप साधना का दूसरा पक्ष है- मंथन। समुद्र मंथन की वह पौराणिक आख्यायिका सर्वविदित है जिसमें देव-दानवों ने मिल कर समुद्र मथा था और चौदह बहुमूल्य रत्न पाये थे। जीवन एक समुद्र है। इसमें इतनी रत्न राशि भरी पड़ी हैं जिनकी संख्या सीमित नहीं की जा सकती। सिद्धियों और रिद्धियों की गणना अमुक संख्या में की जाती रहती है, पर वह बालकों की अपनी अनुभूति भर है जिसने जितना खोजा पाया उसने उतना बताया। समुद्र बहुत विस्तृत है। बच्चे उसमें कितना घुस सके और कितना पा सके इतने भर से यह अनुमान लगाना उचित नहीं कि समुद्र की समग्र सम्पदा इतनी स्वल्प ही है।
देव-दानवों ने समुद्र मथ कर कुछ ही समय में चौदह बहुमूल्य रत्न पाये थे। यह मंथन यदि अधिक समय तक- अधिक गहराई तक जारी रखा जा सके, तो उस आधार पर मिलती रहने वाली उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं मिल सकता।
यह मंथन प्रक्रिया ही तप साधना के अन्तर्गत किये जाने वाले सरल संक्षिप्त कर्मकाण्डों द्वारा आरम्भ होती है और इस आधार पर स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण और कारण से अनन्त में- प्रवेश करती चली जाती है। आरम्भ के छात्रों को जो कृत्य बताये जाते हैं वे उपहासास्पद लगते हैं और यह समझ में नहीं आता कि इतनी स्वल्प सी शारीरिक, मानसिक हलचलों से इतनी बड़ी उपलब्धियाँ किस प्रकार करतल गत हो सकती हैं। यहाँ इतना ही समाधान प्रस्तुत किया जा सकता है कि उपासनात्मक कर्मकाण्ड दिशा निर्देश है। दिशा सही होने और पहिया लुढ़कने लगने पर उसके परिणाम दूरगामी होना आश्चर्यजनक नहीं है।
रेल गाड़ी के चलने खड़े होने में झंडी और सिगनल की बड़ी भूमिका होती है। उनके हरे होने से गाड़ी चलती है और लाल होने से रुक जाती है। निस्संदेह झंडी या बत्ती के रंगों को इतनी शक्ति नहीं है कि वे रेल को रोक या धकेल सकें, फिर भी उनके द्वारा मिलने वाले दिशा निर्देश का अपना महत्व है। इस प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाय तो गाड़ियाँ या तो खड़ी रहेंगी अथवा आपस में टकरा कर नष्ट होंगी।
जंक्शन पर बराबर-बराबर कितनी ही गाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। इनमें से किस को किधर जाना है इसका निर्धारण एक छोटा सी ‘लीवर’ करता है। पटरियों में से किसे किस के साथ मिला दिया जाय यह निर्णय और कार्य तनिक सा है और उसे छोटा सा खलासी बड़ी आसानी से पूरा कर देता है। देखने सुनने में बात जरासी हुई, पर उसकी प्रतिक्रिया दूरगामी होती है। कुछ ही घण्टे बाद तलाश करने पर पता चलता है कि एक गाड़ी उत्तर को घूमी और दूसरी दक्षिण को। इस थोड़ी ही अवधि में दोनों के बीच सैकड़ों हजारों मील का फासला बन गया। जीवन के चौराहे पर से जिस भी दिशा में मोड़ दिया जाय वह अपने क्रम से चल पड़ता है और भिन्न दिशा में चलने वालों की तुलना में असाधारण रूप से भिन्न दिखाई पड़ता है। अनर्थ मूलक प्रवृत्ति में निरत और निरर्थक भटकाव में संलग्न लोगों की तुलना में परमार्थ परायण की प्रगति कितनी अधिक उत्साहवर्धक होती है इसे ऐतिहासिक महामानवों को मिली विभूतियों का पर्यवेक्षण करके आसानी से जाना जा सकता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों में से प्रत्येक जीवन धारा की दिशा मोड़ने में सहायक होता है। रेल की पटरियाँ सरल और सस्ती होती हैं, पर उनके बिना बहुमूल्य और जटिल इंजन अनेक डिब्बों सहित दौड़ते चले जाने में समर्थ नहीं हो सकता। उपासनात्मक कर्मकाण्डों की रेल पटरी से उपमा दी जा सकती है।
उपासनात्मक कर्मकाण्डों में प्रधानतः तीन हैं। (1) जप (2) ध्यान (3) प्राणायाम। इन्हीं के अन्तर्गत अन्यान्य अनेकों उपचारों की गणना होती है। इनका स्थानीय महत्व भी है। जिन अंग उपांगों के द्वारा यह हलचलें की जाती हैं उनके साथ जुड़े हुए सूक्ष्म शक्ति संस्थान भी झंकृत होने लगते हैं और उस जागरण का विशेष लाभ मिलता है। इन क्रिया-कृत्यों में मन:स्थिति को एक विशेष दिशा में विशेष स्तर पर नियोजित किये रहा पड़ता है, उस एकाग्रता, तन्मयता एवं विशिष्टता की संयुक्त प्रतिक्रिया अनोखे ढंग की होती है। उससे स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में सन्निहित दिव्य संस्थानों में जो हलचलें उत्पन्न होती हैं उनके प्रभावी परिणाम जब सामने आते हैं तो उन्हें साधना की चमत्कारी सिद्धि के रूप में देखा जाता है।

