साधना का विज्ञान और स्वरूप
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ब्रह्म विद्या के- अध्यात्म विज्ञान के दो भाग हैं- एक आस्था पक्ष दूसरा क्रिया पक्ष। आस्था पक्ष में चिन्तन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले समस्त ज्ञान विस्तार को सम्मिलित किया गया है। वेद शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन, नीतिशास्त्र आदि इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए रचे गये हैं। पाठ, स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन का- कथा प्रवचनों का- माहात्म्य इसी आधार पर बताया गया है कि उस प्रक्रिया के सहारे मानवी चिन्तन का परिष्कार होता रहे। अवांछनीय पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार छुड़ाने में, यह ज्ञान साधना साबुन का काम करती है। विकृत मनोवृत्तियों से छुटकारा मिलता है और विवेक युक्त दूर दर्शिता का पथ-प्रशस्त होता है। प्रज्ञा, भूमा, ऋतंभरा इसी परिष्कृत चिन्तन का नाम है। ‘ज्ञानामुक्ति’, ‘नहिं ज्ञानेन सदृश पवित्र मिह विद्यते’ जैसी उक्तियों में सद्ज्ञान को अध्यात्म का प्राण माना गया है। वेदान्त दर्शन को तो विशुद्ध रूप से ज्ञान साधना ही कहा जा सकता है।
इसी सद्ज्ञान संवर्धन की बहुमुखी प्रक्रिया को अध्यात्म विज्ञान में ‘‘योग’’ नाम दिया गया है। योग का अर्थ है जोड़ देना। किस को किस से जोड़ देना- आत्मा को परमात्मा से। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं; वरन् शक्ति है। उत्कृष्ट आदर्शवादी आस्थाओं, आकांक्षाओं के रूप में ही उसकी अनुभूति, अपने विचार संस्थान में, की जा सकती है। आत्म साक्षात्कार का- ब्रह्म साक्षात्कार का अर्थ यही है कि अपनी आस्थाएँ परिष्कृत स्तर की देवोपम दीखने लगें। संकीर्ण स्वार्थपरता, अहंकारिता, विलासिता, एवं अनुदारिता जैसी दुष्प्रवृत्तियों के भव-बन्धनों से छुटकारा मिल जाय। परिष्कृत चिन्तन की परम सुखद प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए उसे ‘स्वर्ग’ कहा गया है। ललक और लिप्सा निकृष्टता एवं कुसंस्कारी आदतों के भव-बन्धनों को तोड़ फेंकने की स्थिति ‘मुक्ति’ कहलाती है। स्वर्ग किसी ग्रह नक्षत्र पर बसा हुआ गाँव नहीं है और न मुक्ति से किसी लोक विशेष में जाकर भगवान जी के साथ रंग रेलियाँ करने का मजा मिलता है। यह तो अलंकारिक आख्यायिकाएँ हैं। तथ्य इतना भर है कि, परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने वाला स्वर्गीय सुख सन्तोष पाता है और आत्मीयता के विस्तार के साथ संबद्ध, सेवा उदारता की नीति अपनाने वाले को लोभ-मोह की जकड़न से छुटकारा मिल जाता है। विवेकवान मनस्वी लोग- लोक प्रवाह की परवाह न करके स्वतन्त्र चिन्तन की नीति अपनाते हैं और जीवन मुक्ति का आनन्द लेते हैं।
योग का उद्देश्य ‘चित्त वृत्तियों’ का संशोधन है। महर्षि पातंजलि की योग परिभाषा यही है। पशु-प्रवृत्तियों को देव आस्थाओं में बदल देने वाले मानसिक उपचार का नाम योग है। यह विशुद्ध रूप से चिन्तन परक होता है। योगीजन इन्हीं प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं और अपने संग्रहीत कुसंस्कारों को उच्चस्तरीय आस्थाओं में परिणत करने के लिए भावनात्मक पुरुषार्थ करते रहते हैं। निष्कृष्टता जितने अंश में उत्कृष्टता के साथ जुड़ जाती है उतने ही अंशों में आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति हो चली; ऐसा माना जाता है।
अध्यात्म विज्ञान का दूसरा पक्ष क्रिया परक है- इसे ‘तप’ कहते हैं। आत्म निर्माण इसका एक चरण है और लोक कल्याण दूसरा इन दोनों के लिए जो भी प्रयत्न करने पड़ते हैं; उनमें अभ्यस्त पशु-प्रवृत्तियों को चोट पहुँचती है। स्वार्थ साधनों में कमी आती है- और परमार्थ प्रयोजनों की सेवा साधना करते हुए कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। स्वार्थ सुविधा में कटौती करके ही परमार्थ की दिशा में कुछ किया जा सकता है। प्रत्यक्षतः यह सांसारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है और अभ्यस्त प्रवृत्ति से विपरीत पड़ने के कारण कष्ट, भय भी अनुभव होता है, इन कठिनाइयों को पार करने के लिए शरीर की तितीक्षा का, मन की सादगी का तथा इस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का, सामना करने योग्य आन्तरिक साहसिकता का सहारा लेना पड़ता है। अपने आपे को इसी ढाँचे में ढालने के लिए, जितने भी प्रयास किये जाते हैं; वे सब ‘तप’ की श्रेणी में गिने जाते हैं।
आज योग के नाम पर आसन, प्राणायाम, नेति, धेति बन्ध, मुद्रा आदि व्यायामों को ही योग माना जाने लगा है और व्रत, स्नान, मौन आदि कष्ट साध्य अभ्यासों का तप मान कर सन्तोष कर लिया जाता है। यह भुला दिया गया है कि साधन किसी साध्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का उद्देश्य- भावनात्मक स्तर को प्रयत्नपूर्वक ऊँचा उठाना है। यदि आस्थाओं का स्तर बदला जा सके और मात्र चित्र-विचित्र शारीरिक क्रियाएँ करते रहा जाय; तो इतने भर का प्रभाव शरीर तक ही सीमित रह जायगा। चेतना का वह परिष्कार न हो सकेगा जो; तपश्चर्या का मूल भूत उद्देश्य है।
आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए योग और तप के दोनों कदम बढ़ाते हुए, लेफ्ट राइट की परेड करते हुए; गतिशील होना पड़ता है। ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराएँ, गंगा यमुना की तरह जब मिलती हैं; तब प्रभु प्राप्ति का संगम- सुअवसर हाथ में आता है। भिन्न-भिन्न परम्पराओं में अपनी ज्ञान साधना और कर्मकाण्ड प्रक्रिया को कई तरह से निर्धारित किया है; पर सभी का मूल प्रयोजन समान है। समस्त संसार में प्रचलित अध्यात्म के ज्ञान पक्ष को योग और क्रिया पक्ष को तप की ही संज्ञा दी जा सकती है। गायत्री को योग और यज्ञ को तप के अर्थ में ही प्रयुक्त साधन के रूप में देखा समझा जाना चाहिए।
योग दर्शन को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) आत्मज्ञान (2) ब्रह्मज्ञान (3) तत्व ज्ञान (4) सद्ज्ञान।
आत्मज्ञान वह है- जिसमें जीव का, जीवन का, अन्त:चेतना के उत्थान पतन का निरूपण किया जात है और आत्म चिन्तन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास का सूक्ष्मदर्शी प्रकाश युक्त मार्ग दर्शन किया जाता है। दूसरे शब्दों में इसे जीवात्मा की विवेचना भी कह सकते हैं।
ब्रह्मज्ञान वह है- जिसमें परमात्मा की सम्पूर्ण सत्ता को व्याख्या को तो अचिंत्य नेति-नेति कह कर बौद्धिक असमर्थता प्रकट कर दी गई है; पर मनुष्य जीवन के साथ परमात्म सत्ता का जितना ताल मेल बैठता है उस पर; कई दृष्टियों से प्रकाश डाला जाता है। आत्मा के साथ परमात्मा का मिलन निस्संदेह लोहे और पारस के सम्पर्क से सोना बन जाने वाली किंवदंती सच्चे अर्थों में सार्थक देखी जा सकती है। अमृत और कल्पवृक्ष के लाभ माहात्म्य का जो अलंकारिक वर्णन मिलता है उसे परमात्मा के सान्निध्य से मिलने वाली भौतिक तथा आत्मिक उपलब्धियों को देखते हुए अक्षरशः सही माना जा सकता है। सिद्धियों का- चमत्कारी अलौकिकताओं का जो विवरण साधना ग्रन्थों में मिलता है; उसे परमात्म सत्ता के साथ जीवात्मा के सान्निध्य सम्पर्क की सुनिश्चित प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। ईश्वर प्राप्ति को जीवन लक्ष्य की पूर्ति- पूर्णता में परिणिति-परम पुरुषार्थ, परम लाभ आदि नामों से पुकारा जाता है। आत्मा को परमात्मा की उच्च स्थिति में विकसित कर लेने वाले व्यक्ति, निस्संदेह नर रूप में नारायण कहे जा सकते हैं। उनकी विशेषताओं और विभूतियों का वारापार नहीं रहता।
आस्था का तीसरा पक्ष है- सद्ज्ञान। इसे विचार विज्ञान कह सकते हैं। विचारों की प्रचण्ड शक्ति और उनकी प्रतिक्रियाओं से बहुत कम लोग परिचित होते हैं। तथ्य यह है कि हाड़-मांस के पुतले में जितना चेतन चमत्कार देखा जाता है; वह सब विचार वैभव का ही परिणाम है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, निकृष्टता- मनुष्य की प्रतिभा, वरिष्ठता और सर्वतोमुखी दुर्बलता का मूल्यांकन किसी के विचारों का स्तर देख कर ही किया जा सकता है। सफलता और असफलता के कारण से साधनों का, परिस्थितियों का नहीं, संकल्प शक्ति और व्यवस्था बुद्धि का ही प्रमुख महत्व रहता है। लोग गलत ढंग से सोचते हैं और गलत विचारों को अपनाते हैं। फलतः जीवन का स्वरूप और भविष्य दोनों ही अन्धकार से ढक जाते हैं। मस्तिष्क को जिस तरह सोचने की आदत है, उसका गुण-दोष के आधार पर विवेचन करते हुए मात्र औचित्य को अपनाने की साहसिकता को मनस्विता कहते हैं। मनस्वी लोग ही जीवन का सच्चा आनन्द लेते हैं और दूसरों के श्रद्धा भाजन बनते हैं। स्वाध्याय और सत्संग द्वारा श्रेष्ठ विचारकों से सम्पर्क साधा जाता है और चिन्तन मनन द्वारा आन्तरिक उत्कृष्टता को उभार कर उच्चस्तरीय निष्ठाओं पर आरूढ़ हुआ जाता है। दर्शन शास्त्र इसी काट छांट के लिए बना है। तत्वदर्शन के अन्तर्गत यों अन्य कई विषय भी आते हैं, पर उसका मूल प्रयोजन विचारणा का स्तर परिष्कृत करना ही माना गया है।
चौथा पक्ष सद्ज्ञान है। सद्ज्ञान का तात्पर्य है- नीति शास्त्र, व्यवहार कौशल, शिष्टाचार, सदाचार कर्तव्यपालन, उत्तरदायित्वों का निर्वाह। धर्म इसी को कहते हैं।मनुष्य सामाजिक प्राणी है उसे एकाकी नहीं, सह जीवन जीना पड़ता है। सहकारिता के बिना- पारस्परिक आदान-प्रदान के बिना न स्थिरता रह सकती है न प्रगति संभव हो सकती है। हमें परस्पर मिलजुल कर ही रहना होता है और सामाजिकता के नियमों का पालन करते हुए, नागरिक उत्तरदायित्वों को निवाहते हुए; सज्जनता का जीवन जीना पड़ता है। इस क्षेत्र में जहाँ जितनी उच्छृंखलता बरती जा रही होगी; वहाँ उतनी ही अशान्ति फैलेगी और विपन्नता उत्पन्न होगी। अपने आपके प्रति स्वजन सम्बंधियों के प्रति एवं सर्वसाधारण के प्रति हमारी रीति-नीति व्यवहार पद्धति क्या हो? उसकी सही और शालीनता युक्त गतिविधि अपनाने को लोक व्यवहार एवं सद्ज्ञान कहा जाता है।
अध्यात्म का योग पक्ष इन चारों ज्ञान प्रक्रियाओं के परिष्कार एवं समन्वय के आधार पर विनिर्मित होता है। इस पक्ष के पारंगतों को मनीषी, ऋषि, तत्वज्ञानी ब्रह्मवेत्ता, दृष्टा आत्मदर्शी आदि नामों से संबोधित किया जाता है। वे अपने में परमात्मा का दर्शन करते हैं। वह सब कुछ प्राप्त करते हैं जो इस संसार में पाने योग्य है।
अध्यात्म का क्रिया पक्ष जिसे तप कहते हैं- तीन भागों में विभक्त है (1) आत्म निग्रह के लिए की गई तितीक्षा, वासना और तृष्णा का निग्रह-नियन्त्रण। (2) परमार्थ प्रयोजनों के लिए सेवा साधना में त्याग बलिदान में उत्साह और अभ्यास (3) साधनात्मक कर्मकाण्डों के माध्यम आत्म शिक्षण की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण की प्रक्रिया।
आत्मनिग्रह में अस्वाद व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन, ऋतु प्रवाह का सहन, सादगी, मितव्ययिता, दिनचर्या निर्धारण और उसका कड़ाई से पालन। जैसी शरीर और मन की पुरानी अवांछनीय आदतों पर रोक-थाम के बरती हुई कड़ाई तप के- साधनों के तितीक्षा वर्ग में आती है।

