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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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उत्कृष्टता सम्पन्न दिव्य जीवन जियें

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First 17 19 Last
एक अंधेरी रात्रि में निकोड़ेमस नामक युवा जिज्ञासु महाप्रभु ईसा के पास पहुँचा और बोला मैं आनन्द और शान्ति की खोज में हूँ कृपया उसका रास्ता बतलाएँ। उत्तर में ईसा ने कहा—‘दोस्त’ इन दोनों वरदानों को पाने से पूर्व तुम्हें अपना वर्तमान जीवन ही बदलना पड़ेगा। ऊँचे दृष्टिकोण अपनाने से, आनन्द और श्रेष्ठ क्रिया−कलाप बरतने से ही शान्ति को पाया जा सकता है।

नव जीवन से तात्पर्य है—ईमानदारी, भलमनसाहत, इज्जत और बहादुरी की जिन्दगी। इसके लिए नैतिकता के आदर्शों को समझने की ही नहीं अपने चिन्तन और व्यवहार में कूट−कूटकर भर लेने की आवश्यकता होती है। नीति का जीवन अपनाने के लिए प्राणवान निष्ठा की आवश्यकता होती है, उसे अपनाना ही पशु जीवन से छूटकर नव जीवन में, मनुष्य जन्म में प्रवेश पाना है।

माना कि अति उच्च कोटि के कार्य कुछ असाधारण व्यक्तियों के ही हिस्से में आते हैं। माना कि उनके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता होती है और उनकी सफलताएँ विशेष साधनों तथा विशेष परिस्थितियों के साथ जुड़ी रहती हैं, पर इससे क्या? साधारण नागरिक भी अपने सामने प्रस्तुत सामान्य कार्यों को करते हुए भी अपनी चारित्रिक क्षमता बनाये रह सकते हैं और सामने आये कार्यों में अपनी कुशलता का परिचय दे सकते हैं। इस प्रकार वे न केवल मनुष्यता की गरिमा को स्थिर रखने में वरन् पूरे समाज की समग्र प्रगति में परोक्ष रूप से चिरस्थायी योगदान दे सकते हैं। काम बड़ा करना पड़े या छोटा, यह ऊँचा हो या नीचा इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। महानता कामों में नहीं, व्यक्तित्व में जुड़ी होती है। ऊँचे स्थान पर जा पहुँचने का दावा तो पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ कौआ भी कर सकता है और खजाने की रखवाली करने वाला साँप भी अपने अमीर होने का गर्व कर सकता है। विष की मारक शक्ति से सभी घबराते हैं, आग के पास जाने से सभी डरते हैं, खुली बिजली का स्पर्श कौन कर सकता है, तलवार से भय प्रतीत होता है, साँप को देखते ही घबराहट पैदा होती है। ऐसे ही आतंकवादी अपने उद्दंड आचरणों से आतंक उत्पन्न कर सकते हैं। माचिस की एक तीली साल भर के श्रमपूर्वक कमाये हुए खलिहान को देखते−देखते जलाकर खाक कर सकती है, पर इससे उसका महत्व क्या बढ़ा? आतंक उत्पन्न करना शक्ति की नहीं दुष्टता की निशानी है और यह तथ्य स्मरण रखा जाना चाहिए कि दुष्टता दुर्बलता की निशानी है। जो सबसे अधिक दुर्बल होता है वह दुष्टता पर उतारू होता है। शक्ति तो साहस में सन्निहित रहती है और साहस उस चरित्र निष्ठा का नाम है जो अभावों और कठिनाइयों के बीच भी मानवी गौरव को अक्षुण्ण बनाये रख सके। जो पतन का पराभव अन्तिम सांस चलने तक स्वीकार न करे।

मनुष्य गरीब है या अमीर प्रश्न यह नहीं, वरन् यह है कि क्या उसने सच्चरित्रता बनाये रखने में अपने नैतिक साहस का परिचय दिया? क्या उसने अपने नागरिक कर्त्तव्य निवाहे? क्या उसकी सामाजिकता ऐसी रही जिसको सराहा जा सके। प्रतिष्ठा दिलाने वाले ऊँचे कार्य, ऊँचे पद हरेक के हिस्से में नहीं आते, पर यह हर किसी के लिए सम्भव है कि वह अपनी चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देकर सज्जनों की पंक्ति में सीना ताने खड़ा रहे। वस्तुतः यही सच्चे सम्मान की उपलब्धि है जिसे बिना दूसरों की सहायता के मात्र अपने बलबूते, हर भली−बुरी परिस्थिति में निश्चयपूर्वक पाया जा सकता है।

उदात्त परम्परा यह है कि समर्थ लोग अपनी सामर्थ्य का न्यूनतम लाभ अपने लिए रखें और शेष को उन्हें दे दें जिन्हें अपने पैरों खड़े होने के लिए सहायता अपेक्षित है। अपनी सुविधाओं में कटौती करना यह साध्य है, उत्पादन क्षमता बढ़ाते जाना प्रतिभा का चिन्ह है। इसमें संस्कृति का समन्वय होने पर सुविधाओं में कटौती करके बचाया हुआ अंश पतन के पराभव को दूर करने के लिए लगाना पड़ता है। पिछले लोग इस लाभ के बदले कृतज्ञता अनुभव करते हैं और जो सहयोग मिला उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हैं। इस प्रकार पारस्परिक सद्भावों के आदान−प्रदान में समर्थ और असमर्थ दोनों ही पक्ष लाभान्वित होते हैं। विग्रह से उत्पन्न ध्वंस को समझा जाना चाहिए और बर्बादी के लिए नष्ट की जाने वाली शक्ति का मिल−जुलकर उभय−पक्षीय प्रगति के प्रयत्नों में जुट जाना चाहिए। शान्ति का वातावरण इसी प्रकार बनेगा। सद्भावजन्य सहयोग का भवन इसी आधार पर खड़ा होगा। लड़कर नहीं हम मिलकर ही भलाई का लाभ ले सकते हैं।

हममें से प्रत्येक की ईमानदारी से अपनी कमियों पर विचार करना चाहिए और उन्हें दूर करने के लिए संकल्प बल का परिचय देना चाहिए। हम सत्य और असत्य के बीच का अन्तर करना सीखें। सन्मार्ग पर चलने के सत्परिणामों और कुमार्ग के दुष्परिणामों के सम्बन्ध में अपनी दृष्टि साफ रखें। अनीति अपनाकर सुखी बन सकने की सम्भावना अधिकांश लोगों के मस्तिष्क पर छाई रहती है। नीति का मार्ग अपनाये रहने पर समयानुसार सत्परिणाम मिलते हैं उस विश्वास को तत्काल लाभ की आतुरता अक्सर डगमगाती रहती है। ऐसी दूरदर्शिता का विकास होना चाहिए जो औचित्य और ईश्वर को समान मानकर चल सके और दोनों के प्रति अटूट श्रद्धा बनाये रह सके।

बाइबिल का एक मन्त्र है- दृष्टि के अभाव में मनुष्य भ्रष्ट हो जाते हैं। हमारी आँखों की ज्योति बुझ रही है और अन्धता गहरी होती जाती है। दृष्टि से यहाँ तात्पर्य दूरदर्शिता से है। उस विवेक से है जो मानवी गरिमा के उपयुक्त आचरण करने के लिए हमें प्रेरित नहीं बाधित भी करता है।

संघर्षों को टालने का एक ही तरीका है- हर व्यक्ति नीति निष्ठा अपनाने के सम्बन्ध में अधिक सुदृढ़ और सुनिश्चित बनता जाय। हरेक को अपनी प्रामाणिकता प्राणों से अधिक प्रिय बने। अपनी ओर दूसरों की आँखों में ओछापन सिद्ध होना मरण तुल्य कष्टकारक प्रतीत होने लगे। दुष्टता के आक्रमणकारी अनाचारों की भर्त्सना होती है और उसके लिए सामाजिक तथा शासकीय दण्ड व्यवस्था भी है। प्रत्यक्ष और परोक्ष छल को भी इसी प्रकार के अनाचार में सम्मिलित किया जाना चाहिए। लोग असत्य व्यवहार और छल प्रपंच के व्यवहार को कुशलता मानने लगे हैं जबकि किसी को विश्वास देकर उसका हनन करना भी पीठ में छुरा भोंकने की तरह ही अपराध है। इन दिनों झाँसे पट्टी की नीति बढ़ रही है। जो विश्वास दिया गया था उसके प्रतिकूल आचरण करने में जिसे हानि हुई है वही पेट पकड़कर रह जाता है उसकी सामूहिक भर्त्सना नहीं होती। चरित्र का यह मूल्यवान ग्रन्थ है कि किसी जानकारी के सम्बन्ध में उसका कथन छल नीति पर आधारित और अप्रमाणिक नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार किसी को किसी प्रकार के नैतिक सहयोग का आश्वासन दिया गया है तो उसका निर्वाह होना चाहिए। शब्द जाल को व्यवहार कुशलता की तरह अपने प्रचलन में घुस नहीं पड़ने देना चाहिए। व्यक्तित्व की गरिमा को सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए। अनेक तरह के वादों में उत्कृष्टतावाद को प्रथम स्थान मिलना चाहिए। उसके अभाव में विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक प्रतिपादन छूँछ बनकर रह जायेंगे।

सुखी और सन्तुष्ट व्यक्ति अपने आपको “कृत कृत्य” हुआ कहता है। यह सौभाग्यशाली, सफल मनोरथ होने जैसा सुखी मनःस्थिति का आभास कराने वाला शब्द है। ‘कृत कृत्य’ का अर्थ है अपने कर्त्तव्यों को पूरा करके निवृत्त हुआ मनुष्य। जिसने अपने कन्धों पर आये हुए कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों को ठीक तरह पूरा कर लिया वह सचमुच ही सौभाग्यवान है। उसे सन्तोष पाने और प्रसन्नता अनुभव करने का सहज ही अवसर मिलता है।

निकम्मापन घृणा सूचक है। जो अपने नियत कर्त्तव्यों को पूरा नहीं कर पाता वह अपना प्रामाणिकता एवं प्रतिष्ठा खोता चला जाता है, भले ही वह इधर−उधर की भाग−दौड़ कितना ही क्यों न करता रहा।

हर मनुष्य के जीवन में समय-समय पर कई प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं, कई तरह के अवरोध उत्पन्न होते हैं, लोग कारणवश अथवा अकारण ही शत्रु बन जाते हैं। कई बार परिस्थितियाँ उलट जाती हैं और निकट भविष्य में किन्हीं दुर्घटनाओं की आशंका प्रतीत होने लगती है। ऐसी दशा में दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति बुरी तरह घबराने लगते हैं और अपना सन्तुलन गँवा बैठते हैं। घबराहट में अपना विवेक खो देते हैं और साथ ही साहस भी। फलतः ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठ जाते हैं जिनकी कोई आवश्यकता न थी। बहुत से भय काल्पनिक होते हैं। शत्रुता एवं प्रतिकूलता उतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं होती जितनी कि आँकी गई थी। धैर्यपूर्वक व्यवहार कुशलता के सहारे उन्हें संभाला या सुधारा जा सकता था। कुछ कठिनाइयां आतीं तो उसे सहा भी जा सकता था। किन्तु घबराहट में जो निर्णय किये गये उनने इतनी हानि पहुँचाई जितनी कि विपत्ति आ ही जाती तो भी नहीं हो सकती थी।

मनोभूमि में इतनी दृढ़ता और साहसिकता उत्पन्न करनी चाहिए जिसमें प्रतिकूलताओं से जूझने का साहस बना रहे। शूरवीरों और योद्धाओं का मानसिक स्तर बना रहें तो आधी विपत्तियाँ तो इतने भर से ही टल जाती हैं। आक्रमणकारी सदा दुर्बल मनःस्तर वालों को अपना शिकार चुनते और घात लगाते हैं उन्हें जहाँ तक यह प्रतीत होता है कि लोहा लेना पड़ेगा तो वे सहम जाते हैं और झंझट मोल लेने के स्थान पर अपना रास्ता ही बदल देते हैं। यदि टकराव हो ही जाय तो साहसी व्यक्ति अपनी सूझबूझ बनाये रहता है और अभ्यासी पहलवान की तरह दो-दो हाथ करके उनसे निपट लिया जाता है प्रतिकूलताएँ जितनी हानि पहुँचाती हैं, उससे कहीं अधिक भय जन्य दुर्बलता से अहित होता है। साहसी इस अतिरिक्त क्षति से बच जाते हैं। परिस्थितिवश जो थोड़ा बहुत सहन करना पड़ता है उसकी पूर्ति भी सूझबूझ वाले साहसी व्यक्ति कुछ ही समय में कर लेते हैं।

जब मनुष्य हँसता है तो उसके साथ हँसने का लाभ लेने के लिए अनेक आकर सम्मिलित हो जाते हैं। हँसी का मिठास वो वृद्ध सभी को समान रूप से प्रिय हैं, उदासी किसी को प्रिय नहीं। क्योंकि वह प्रत्यक्ष कुरूपता है। जो असन्तुष्ट और रुष्ट है वह किसी को क्या देगा? दुर्भाग्य ग्रसित से किसी को क्या मिलता है? हर किसी को पाने की अपेक्षा है। खोना कोई नहीं चाहता। प्रसन्न रहने वाले के समीप जो आता है वह प्रसन्नता लेकर जाता है किन्तु कुढ़ने वाले के पास तो देने के लिए कुछ होता नहीं। उलटा वह दूसरों को बोझिल करता है। फलतः उसकी घर बाहर सर्वत्र उपेक्षा ही होती है। मुँह लटकाये रहने की आदत वाले व्यक्ति उपेक्षा,उपहास और तिरस्कार के ही भागी बनते हैं। यह उदासीनता के अपराध का सामाजिक दण्ड है।

ईश्वर के अनुपम उपहार मनुष्य जीवन का महत्व और उपयोग समझा जा सके तो उसे पेट प्रजनन के लिए नहीं वरन् आदर्शों से ओत−प्रोत रखने के निर्णय पर पहुँचना पड़ेगा। दिव्य जीवन की रीति−नीति अपनाकर उस दिव्य लोक में निवास करने की अनुभूति मिल सकती है जिसमें परमेश्वर निवास करते हैं।

मार्टिन लूथर का कथन है− मनुष्य का जीवन उस परम विराट् जीवन का प्रवेश द्वार है जिससे सम्बद्ध होने के उपरान्त फिर कोई सन्ताप और अभाव शेष नहीं रह जाता। मैंने अपनी इसी सत्ता में गहराई तक उतर कर उस विराट् के दर्शन किये हैं। मेरी एकमात्र कामना यह है कि मेरे ही आत्मस्वरूप अन्य प्राणी भी अपने भीतर झाँके और अमरता,मधुरिमा और सुन्दरता के असीम आनन्द का रसास्वादन करें।

ईसा के बारे कहा जाता है कि उन्होंने अन्धों को आंखें दीं, कोढ़ियों को शुद्ध किया और मृतकों को जलाया था। इन कथन की पुष्टि उनके एक अभिवचन से होती है। शिष्यों को सम्बोधित करते हुए एक दिन क्राइस्ट ने कहा था−मैं कब्रों में गढ़े हुए लोगों को उबारने आया हूँ।

अन्धे वे हैं जिन्हें जीवन का मूल्य और सदुपयोग दीख नहीं पड़ता। मृतक वे हैं जिनमें आदर्शों को अपनाकर उपलब्ध होने वाले नव−जीवन के लिए उमंग उत्पन्न नहीं होती। अन्धों को आँखें मिलने और मुर्दा को जीवित होने का अवसर अभी भी आ सकता है, यदि उत्कृष्टता अपना कर दिव्य जीवन जीने का साहस जुटाया जा सके।

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