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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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पेट के साथ तो अत्याचार न करें !

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अपने स्वास्थ्य में जो कमी है उसके कारण और निवारण पर विचार करते समय एक भयंकर भूल वह होती रहती है कि बाहरी कारणों को निमित्त माना जाता है और उन्हीं को घटाने या बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है। आमतौर से भोजन के स्तर के साथ स्वास्थ्य घटने−बढ़ने की संगति मिलाई जाती हैं। और सोचा जाता है कि यदि तथा कथित पौष्टिक, बहुमूल्य भोजन मिलने लगे तो स्वास्थ्य सुधर जायगा। यह बात रत्ती भर सत्य और चट्टान भर असत्य है। यदि पाचन तन्त्र बिगड़ा हुआ हो तो तथा कथित पौष्टिक भोजन पचने में और भी अधिक कठिन हो जायगा और आमाशय एवं आँतों पर दबाव डालकर उन्हें और भी अधिक कमजोर करेगा। शुद्ध एवं सुपाच्य खाद्य−पदार्थों की उपयोगिता समझी जा सकती है। शरीर में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थों का सन्तुलन आहार में बना रहे यह सावधानी रखना भी ठीक है, पर इतने भर को ही सब कुछ नहीं समझ बैठना चाहिए साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पेट और मुँह के पाचक रस सामान्य पदार्थों को भी अपने सम्मिश्रण से अपने काम का बना लेते हैं। यदि ऐसा न होता तो दुम्बे मेंढ़े की पूँछ में और सुअर के पेट में पाए जाने वाले चर्बी भण्डार के उत्पादन का समाधान कैसे होगा? इन बेचारों को घी मलाई कौन खिलाता है? जिसके सहारे वे इतनी चर्बी अपने शरीर में जमा कर सकते। जो खाया जायगा वह शरीर में बढ़ेगा इसमें तथ्य नगण्य और भ्रम पर्वत के सदृश्य है। यदि ऐसा ही रहा उपयुक्त उपचार माना जाता। यह उपहासास्पद प्रयत्न आये दिन चिकित्सक लोग दिखलाते रहते हैं। विटामिन बी की गोलियाँ शरीर की कमजोरी दूर करने के लिए आये दिन खाई खिलाई जाती हैं। उस भार का प्रायः सारे का सारा ही भाग पीले पेशाब के रूप में बाहर निकल जाता है। इस करकट की सफाई में शरीर को जो अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है उससे उलटी हानि ही उठानी पड़ती है। यदि यह शक्तिवर्धक−टानिक वस्तुतः वैसे ही रहे होते जैसा कि औषधि निर्माता ढोल पीटते रहते हैं। तब संसार में कदाचित ही कोई कमजोर रहा होता। उन्हें खरीदने के साधन किसी न किसी प्रकार हर कोई प्राप्त कर लेता और हृष्ट−पुष्ट दिखाई पड़ता। यही बात न केवल टॉनिकों के सम्बन्ध में वरन् घी मेवा आदि अन्य पौष्टिक पदार्थों के सम्बन्ध में भी कही जाती है। अमीर लोग इनका सेवन प्रचुर परिमाण में करते हैं। टानिक भी रोज ही पीते हैं फिर भी न दुर्बलता से पिण्ड छूटता है और न रुग्णता से। आमिष भोजन में अधिक पुष्टाई होने की भ्रान्ति भी मनुष्यों के मस्तिष्क पर अपना अँधेरा बखेरती और बढ़ाती ही जा रही है। मांसाहार इसी कारण तेजी से बढ़ रहा है, किन्तु उसका परिणाम भी विपरीत ही हो रहा है। गाँव में रहने वाला प्रोटीन अत्यधिक भारी और विषाक्त होता है। उसमें जितना लाभ सोचा जाता है। उससे अनेक गुनी हानि मांसाहारी उठाते हैं। रक्त में ‘यूरिया’ बढ़ने से उत्पन्न अनेक तरह की बीमारियाँ प्रायः मांसाहारियों को ही होती हैं। दुर्बलों को तो दुष्पाच्य मांस इतना भारी पड़ता है कि उनकी रही बची पाचन शक्ति का भी सफाया करके रख देता है। मछली का तेल, अण्डों का सत जैसे पदार्थ खिलाकर दुर्बलों को सशक्त बनाने की मृगतृष्णा बढ़ती तो अवश्य जा रही है और उस पुष्टाई के लोभ में उस और लम्बी दौड़ में भी अति उत्साह देखा जाता है। किन्तु परिणाम शून्य से अधिक कुछ दिखाई नहीं पड़ यदि वस्तुतः उससे प्रतिपादित लाभ मिल सका होता तो कम से कम सम्पन्न वर्ग में तो कोई दुर्बल दिखाई ही न पड़ता जबकि वस्तुतः उन्हें निर्धनों से भी अधिक अशक्तता और रुग्णता घेरे रहती है।

इन तथ्यों पर विचार करने से बाहरी कारणों में अस्वस्थ का एक बहुत बड़ा आधार टूट जाता है कि पौष्टिक आहार न मिलने से शरीर कमजोर हो गया। यदि यह मान्यता सत्य रही होती तो वनवासियों को कुपोषण वाले आहार पर पीढ़ियों से गुजारा करना पड़ रहा है उनका क्या हाल हुआ होता ? फिर उनमें औसत मनुष्य से अधिक बलिष्ठता और प्रकृति प्रकोपों को सहने की जो अद्भुत क्षमता पाई जाती है वह कहाँ से आती ? उनका आहार तो शरीर शास्त्रियों के द्वारा प्रतिपादित स्तर का नहीं होता फिर उनके बलिष्ठ और दीर्घायुष्य होने का क्या कारण समझा जाय?

आहार की ही तरह अन्य कारण भी स्वास्थ्य खराब होने के सोचे जा सकते हैं। जलवायु का प्रभाव तो होता है, पर इतना नहीं कि उसमें निर्वाह हो न सके। अमुक वस्तु अनुकूल नहीं पड़ती — अमुक गाँव मुहल्ला या घर फला नहीं जैसे प्रतिपादन खड़े करके दूसरों को दोषी ठहराने का प्रयत्न किया जाता है ताकि अपनी भूलों को प्रस्तुत संकटों का कारण समझने पर उत्पन्न होने वाली आत्म−ग्लानि से बचा जा सके। बाहरी अवांछनीयताओं के प्रति सतर्क रहना और जो अनुपयुक्त जँचे उसे सुधारना बदलना भी उचित है। इतने पर भी यह मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि बाहरी सुधार मात्र ने अनुकूलता उत्पन्न हो सकती है। वस्तुतः अधिकांश विग्रह अन्दर से ही उत्पन्न होते हैं और संकट बन कर बाहर आ खड़े होते हैं। स्वास्थ्य संकट भी प्रायः इसी आधार पर उत्पन्न होता है।

बिगड़े स्वास्थ्य का बहुत बड़ा दोष आहार सम्बन्धी आदतों में विकृतियों का घुस पड़ना है। आहार का स्तर ऊँचा हो इसमें मतभेद की गुंजाइश नहीं है। सुविधानुसार इस दिशा में हर कोई प्रयत्न करता है और करना भी चाहिए किन्तु उस भ्रम जंजाल को क्या कहा जाय जिसके कारण भोजन के स्तर की परख बन पड़ती है और खाने सम्बन्धी आदतों का पर्यवेक्षण सम्भव होता है। खाद्य पदार्थों से भी अधिक महत्व इस सन्दर्भ में अपनाई गई आदतों का ही है। उदाहरण के लिए अत्यन्त मोटा सर्वविदित सर्वमान्य तथ्य यह है कि कहीं भूख लगने पर खाया जाय। भूख का तात्पर्य यह है कि पेट ने पिछला पाचन कार्य निपटा लिया और नये को पचाने के लिए तैयार है। यदि भूख नहीं लगी है— पेट हलका नहीं है तो उसका सीधा अर्थ यह है कि पिछले आहार का पाचन नहीं हो सका हैं। अभी उसके निपटने में देर है। नया काम लदने का अभी समय नहीं आया। प्रकृति के यह संकेत इतने स्पष्ट होते हैं कि कोई बच्चा भी उसे समझ सकता है। कड़ी भूख और भोजन का तालमेल यदि बिठाये रहा जाय तो पाचन तन्त्र खराब होने और आहार से उत्पन्न रस रक्त के विषैले होने की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। किसी मजूर की गरदन पर बोझ लदा हो, उसे ढो रहा हो। जब तक वह उतरे नहीं तब तक नया लाद दिया जाय तो उस बेचारे की दुर्गति ही होगी। ठीक इसी प्रकार पेट ने जब तक पिछले लदान को पार करके साँस लेने जितना छुटकारा नहीं पाया है उससे पहले ही नई लादी लाद देना, विशुद्ध रूप से निर्मम अत्याचार है। एकाध दिन की बात हो तो सहन भी किया जाय पर जब इस निष्ठुरता को एक अधिकार ही मान लिया गया और छोड़ने बदलने की बात सोचने तक की गुंजाइश नहीं रखी गई, तो फिर कौन, किससे क्या कहें? पेट बेचारा बोलता नहीं, दरबार फरियाद भी नहीं कर सकता, पर सुपक−सुपक कर रोता अवश्य है। इसी रुदन को हलके पेट दर्द के रूप में देखा जा सकता है। कभी−कभी वह इस निर्मम अत्याचार से पीड़ित होकर मूर्छितों की तरह चित्त−पट्ट लेट जाता है। इसी को पेट का भारीपन कह सकते हैं। लगता है कि उदर में पत्थर जैसे जम गये। अल्सर, उलटी, मितली, मुँह के छाले, खट्टी डकारें, साँस के साथ आने वाली बदबू शिर दर्द आदि के रूप में आमाशय का अपच प्रकट होता है। थोड़ा आगे खिसक कर यदि वही आँतों में जा जमा तो पेट फूलना, दस्त, संग्रहणी, छोटे कीड़े, बवासीर, टट्टी साफ न होना, अपान वायु की अधिकता जैसे विकार बनकर वह सामने आता है। इन बीमारियों के और भी अनेक भेद−उपभेद हैं। जो मात्र अपच के कारण उत्पन्न होते हैं। अपच का सबसे बड़ा कारण है बिना भूख लगे खाना।

पेट भरा होने पर सिंह जैसे हिंसक पशु−सामने घूम रहे शिकार पर आक्रमण नहीं करते। बीमार कुत्ते के सामने रोटी डाली जाय तो वह उससे मुँह फेर लेगा। बहुत हुआ तो पंजे से छोटा गड्ढा बना कर फिर कभी के लिए उस टुकड़े को गाड़ तो देगा, पर खायेगा नहीं। इतनी समझ यदि मनुष्य को भी रही होगी। लदे को लादने की नादानी करे पालतू जानवरों को मार डालने वाले कदाचित ही कहीं देखे जाते हैं, पर हम हैं जो ऐसा ही अनर्थ आयें दिन करते हैं और बेचारे पेट को रेत−रेत कर काटते हैं। गोली से मार देने या कुत्तों से बोटी नुचवा कर मारने से पुराने मृत्युदंड की तुलना अब अधिक मानवी मानी जाने लगी है, पर हमारे तौर−तरीके अभी भी वही पुराने हैं। पेट को कुत्ता फाँसी के जंगली कायदे के अनुसार ही अर्ध मृत्यु का दंड देते हैं। अच्छा होता एक दिन ही पूरी शत्रुता निभा ली जाती और सताने और सताये जाने का सिलसिला एक दिन में ही निपट कर सदा के लिए समाप्त हो जाता है।

भरे पेट कर खाते रहने की आदत हमें अखरती तनिक भी नहीं। हमारे तथाकथित मित्र कुटुम्बी इसके लिए उत्साहपूर्वक उकसाते रहते हैं। भरे−पेट की बात कहने पर भी उनका आग्रह बना ही रहता है। तरह−तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों का प्रलोभन देकर− स्नेह भरे आग्रह की दुहाई देकर वे दबाव डालते हैं कि बिना भूख ही नहीं− थैले की गुंजाइश से भी अधिक भरा जाय। प्रकृति की दयालुता है कि पेट का थैला असाधारण रूप से सिकुड़ने फैलने वाली किसी विचित्र वस्तु से बनाया है अन्यथा आये दिन उसके फटने सिलाने का सिलसिला साइकिल के टायर ट्यूबों की तरह चलता रहता।

प्यास बुझते ही हम पानी पीना बन्द कर देते हैं ऐसा नहीं सोचते कि पेट की राई रत्ती जगह पानी से भर लें भले ही उसकी आवश्यकता न हो। पेट में जल भरते समय हमारी समझ ठीक काम करती है, पर वही न जाने क्यों भोजन करते समय नादानी में बदल जाती हैं। भूख शान्त होते ही खाना बन्द कर दिया जाय यही औचित्य की मर्यादा है किन्तु होता कुछ विचित्र ही है। ग्रास निगलने का सिलसिला तब तक चलता ही रहता है जब कि हवा पानी कि लिए सुरक्षित रहने वाला स्थान भी खाद्य−पदार्थों द्वारा अपहरण न कर लिया जाय। लगता है हम मात्र ठोस पदार्थों की ही उपयोगिता समझते हैं। पानी और हवा की भी आवश्यकता है यह पाठ पढ़ा ही नहीं गया। अन्यथा पेट भरते समय यह ध्यान रखा जाय कि आहार को उस क्षेत्र का आधा स्थान घेरने की ही छूट है। शेष एक चौथाई पानी के लिए और एक चौथाई हवा के लिए खाली रहने देना चाहिए। अन्यथा साँस लेना कठिन हो जायगा और पकाने−पचाने के लिए खाने से कुछ ही देर बाद पानी पीने की आवश्यकता पड़ेगी उसके लिए स्थान कहाँ से आवेगा? हांडी को गरदन तक भर दिया जाय तो पकने के लिए खाली जगह कहाँ रहेगी और खिचड़ी का ठीक तरह पकना कैसे सम्भव होगा? इस मोटी बात को हर चूल्हा पकाने वाला जानता है, एक हम हैं जो बुद्धिमान कहलाते हुए भी मूर्खता का परिचय देते हैं। खाद्य−सामग्री की बर्बादी,पेट पर अनावश्यक दबाव और इस ठूँस−ठाँस की प्रतिक्रिया से दुष्परिणाम यह तीनों हानियाँ लगातार उठाते रहते हैं। जानते हुए भी जो अनजान बना रहे, समझते हुए भी नासमझी बरते, उससे क्या कहा जाय? क्यों कहा जाय? अपनी स्थिति ऐसी विचित्र है।

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