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Magazine - Year 1980 - Version 2

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आर्ष ज्योतिविज्ञान का पुनजीवन-नई वैद्यशाला

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अपनी पृथ्वी देखने में अपनी धुरी पर घूमती, अपनी कक्षा में दौड़ लगाती और आत्म निभ्रर दीखाती है, पर वास्तविकता वेसी है नही। सौर परिवार के सदस्यों की आकर्षण शक्ति उन्हे एक व्यवस्था क्रम में जकड़े हुए । उनमें गड़बडी पडे़ तो किसी भी ग्रह-नक्षत्र के अनियन्त्रित होकर किसी दूसरे के साथ टकरा जाने-स्वयं मरने और दूसरे को मारने का पूरा-पूरा खतरा उत्पन्न हो जायेगा। पृथ्वी को जीवन सूर्य से प्राप्त हुआ है। उीस की रोशनी और गर्मी से धरातल पर अगणित गतिविधियाँ चलती और अनेकों सम्पदाएँ उत्पन्न होती है। ऋतुओं की उपयोगिता सभी समझते है। वे अपने आप नहीं आ टपकती वरन् पृथ्वी और सूर्य की दूरी बदलते रहने से ही ऋतु परिवर्तन सम्भव होता है। पराश्रित तो किसी न किसी अंश में सभी ग्रह नक्षत्र होते है, पर पृथ्वी की जो विशेष स्थिति है। उसमें उसका अपना वैभव कम और अर्न्तग्रही अनुदान विशेष है। सूर्य तो पृथ्वी का जीवनदाता प्राण है। इस आदान-प्रदान का सिलसिला टूट जाय या घट-बढ जोय तो समझना चाहिए कि भूतल का सारा वैभव देखते-देखते तिरोहित हो जायगा। तब यहाँ श्मशान जैसी स्वबन्ध छाई होगी।

मात्र सूर्य से ही नहीं पृथ्वी को अन्याय ग्रह-नक्षत्रों से भी असंख्य अनुदान मिलते है उत्तरी ध्रुव की विशेषताओं में एक यह है कि उसका विचित्र चुम्बकत्व अपने उपयोग की आवश्यक वस्तुएँ अनन्त अन्तरिक्ष में खीचता रहता है। यह सूक्ष्म अनुदान एक ग्रह दूसरे की सुविधा के लिए आकाश में बखेरता रहता है। लेन देन तो दूसरे ग्रहों में भी चलता रहता है। पर इस सर्न्दभ में पृथ्वी की चतुरता और क्षमता अत्यधिक है कि वह दूसरो के द्वारा बखेरी हुई सम्पदाओं में अपने काम की चीजे बड़ी मात्रा में कुशलता पूर्वक समेट ले। यदि ध्रुवों के चुम्बकत्व में यह विशेषता न होती तो पृवी को ग्रह परिवार से ये गोरव न मिला होता जो अद्भुत सौभाग्य की तरह उपलब्ध है।

उपरोक्त विश्लेषण से इस तथ्य का रहस्योद्घाटन होता है कि मात्र व्यक्ति या समाज ही नहीं ग्रह-नक्षत्र भी एक दूसरे पर आश्रित हैं और पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान से अपना काम चलाते है। इसे बैंकिंग पद्धति या सहाकरी व्यवस्था के समतुल्य माना जा सकता हैं शासन, अर्थ, तन्त्र, कानून, समाज का स्वरुप आदि संसार की अधिकाँश गतिविधियाँ इसी आधार पर चल रही । यह सौर मण्डल ही नहीं सारा ब्रह्माण्ड उसी आधार पर जीवित ओर गतिशील है।

ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव समय-समय पर पृथ्वी पर पड़ता है। विशेषतया सूर्य की स्थिति में तनिक-सा भी उन्तर पड़ने पर उसकी प्रतिक्रिया तुरन्त ही धरातल पर दिखाई पड़ती है। तापमान घटने-बढ़ने का तो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव पड़ता ही है। अन्तरिक्ष में संव्याप्त सूक्ष्म तरंगों की स्थिति में हेर-फेर होने पर पृथ्वी के अनेक क्षेत्र अनेक प्रकार से प्रभावित होते है उसका प्रकृति सम्पदा तथा प्राणियों के शारीरिक मानसिक स्थिति पर अप्रत्याशित प्रभाव पड़ता है।सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के अवसर पर आदान-प्रदान में थोड़ा सा ही अन्तर पड़ता है। पर उसकी प्रतिक्रिया दूरगामी होती है कई बार तो उस व्यतिरेक का प्रभाव तत्काल ही दृष्टिगोचर होता है। चन्द्रमा की कलाएँ घटने-बढने से समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटों से सभी परिचित है। यह ग्रह प्रभाव ही है जो पृथ्वी की परिस्थितियों में फेर बदल प्रस्तुत करता है। मानसून, तूफान आदि की आकाश में घटित होने वाली घटनाओं में धरती की परिस्थितियाँ उतना कारण नहीं होती जितना कि सूर्य या सौर मण्डल के साथ पृथ्वी के साथ चल रहे तालमेल का व्यतिरेक।

अमुक वनस्पतियों का अमुक ऋतु में पैदा होना न होना-बढ़ना न बढना। इस बात पर निर्भर रहता है कि सौर ऊर्जा की अमुक मात्रा का अवसर उन्हे मिलता है या नहीं मिलता। पृथ्वी के रासायनिक प्रदार्थ तो सदा एक जैसे रहते है। फिर वनस्पतियों का एक रस पोषण मिलने और उपयुक्त तापमान रहने पर भी यह अन्तर क्यों होता है कि नियत समय पर ही अमुक वनस्पतियाँ उगे या न उगे। उस रहस्य का स्पष्टीकरण इतना ही है कि अन्तर्ग्रही अनुदान भू-मण्डल को समान रुप से प्रभावित नहीं करते वरन् उसके विभिन्न जड़, चेतन, घटको को भी अलग-अलग प्रकार के अनुदान देते है।

आत्म-हत्याओं ओर अपराधो के घटने-बढने की जाँच-पडताल से पाया गया कि समयानुसार सन्तुलन और विक्षोभ के भी ज्वार-भाटे आते है। इनसे प्रभावित होकर असंख्य मनुष्य उत्तेजना के कारण होने पर भी शान्त रहते और सामान्य परिस्थितियों में भी नाम मात्र के कारण आपे से बाहर होते देखे गये। इसे सामूहिक जीवन पर पड़ने वाला ग्रह प्रभाव कह सकते है। कितने ही वृक्षो में यह विशेषता पाई जाती है। कि ग्यारह वर्षीय सूर्य चक्र के अनुरुप उनमें रासायनिक उतार-चढाव होते है और वृद्धि में उत्साह तथा अवरोध पड़ता है।

बसन्त ऋतु में वृक्ष वनस्पतियों के फूलने का प्रत्यक्ष कारण तापमान के घट-बढ़ से भी जोड़ा जा सकता है। पर इसका क्या उत्तर है कि अधिकाँश प्राणियों में उन दिनों कामुकता उभरती है। और गर्भ धारण दौर व्यापक रुप से चलता है। इससे प्रतीत होता है कि ऋतुएँ न केवल परिस्थितियाँ को प्रभावित करती है। वरन् मनःस्थिति में भी परिवर्तन प्रस्तुत करती है। कहा जा चुका ळै। कि ऋतु परिवर्तन धरती की विशेषता नहीं, सूर्य की निकटता तथा दूरी की प्रतिक्रिया मात्रा है।

बिनाश की प्रस्तुत विभीषिकाओं में मानवी दुष्कर्मों की प्रधानता तो प्रमुख कारण है ही - पर उसके अतिरिक्त भी एक महत्वपूण्र तथ्य है-ग्रहो की स्थिति का भू-मण्डल पर प्रभाव। उसे न तो नगण्य ठहराया जा सकता और न उसे अमान्य रखा जा सकता है। इस सम्बन्ध में हम सब पूर्णतया अनजान है। यदि विनाशकारी अर्न्तग्रही विवरण का स्वरुप और स्तर समझा जा सके तो रोकथाम का उपाय ढूँढ निकालना भी कठिन नहीं है।

भौतिक विज्ञान मात्र प्रकृति क्षेत्र तक सीमित है। अध्यात्म विज्ञान का चेतना क्षेत्र पर अधिकार है। चेतना इतनी समर्थ है कि पदार्थ की स्थिति में आवश्यक परिवर्तन करती रही है और करती रहेगी। प्रस्तुत ग्रह संकट का निवारण कर सकने के लिए प्रकृति विज्ञानी अपनी असमर्थता व्यक्त कर सकते है। किन्तु चेतना की शक्ति को निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह अपनी प्रचण्ड सामर्थ्य से प्रकृति प्रवाह को मोड़ने और परिस्थिति में परिवर्तन करने की सामर्थ्य से सम्पन्न है।

पृथ्वी और अन्तरिक्ष का समान अस्तित्व है। एक को समीपवर्ती दूसरे को दूरवर्ती अथवा एक को प्रत्यक्ष दूसरे को परोक्ष कह सकते है। प्राचीन काल से भी इनके समन्वय की आवश्यकता समझी गई थी आज भी उसे फिर से क्रियान्वित करना आवश्कय हो गया है। दोनों के मध्य आदान-प्रदान का उतना ही क्रम चल रहा है। जितना कि प्रकृति प्रवाह से अनायास उपलब्ध हो सकता है इसकी अभिवृद्धि में मानवी प्रयत्न जुडने की आवश्यकता है प्रकृति से तो आग और बिजली जैसे तत्व भी अनादि काल से विद्यमान थे, पर मनुष्य ने उन्हे प्रयत्नपूर्वक हस्तगत किया है। अन्तरिक्ष के अनुदान अन्ततः उच्चस्तरीय है। उनकी उपलब्धि इस युग सन्धि की बेला में तो अनिवार्य रुप से आवश्यक हो गई है। बिनाश से सुरक्षा और विकास की सफलता में मानवी प्रयत्नों और साधनों को आवश्यक तो कहा जा सकता है, पर पर्याप्त नहीं। इस अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए अन्तरिक्षीय सहयोग इन दिनों नितान्त आवश्कय हो गया है। इस समन्वय का-आदान-प्रदान का-द्वार खुल जाने से कितनी सुखद सम्भावनाएँ सामने आ सकती है।

यह विज्ञान की शोध में प्रयुक्त हविष्य में सूक्ष्म क्षमताओं के समावेश का बहुत महत्व है। पुष्प नक्षत्र में उपलब्ध पुनर्नवा में अन्य समय की अपेक्षा अधिक उच्चस्तरीय रासायनिक पदार्थ पाये गये है। किस सामग्री एवं किस समिधा को कब बोया कब उखाड़ा तोड़ा जाय यह सतर्कता अपनाने पर हव्य पदार्थो की क्षमता में असाधारण हेर-फेर रहता है, तदनुसार प्रभाव परिणाम भी भिन्न होते है। ब्रह्मवर्चस् की यज्ञ शोध में जिन हव्य पदार्थो की आवश्यकता पडेगी वे उपयुक्त समय पर संग्रह किये जाने चाहिए। यह मुहूर्त प्रक्रिया सही ग्रह स्थिति को जानने से ही बन पड़ेगी। इसके लिए सही पंचाँग की नितान्त आवश्यकता है।

नव निर्माण में विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिनन विशेषताओं वाली प्रतिभाओ को नियोजित करना पड़ेगा। आन्तरिक्ष क्षमता ओर उथली प्रतिभा में भारी अन्तर होता है। जीवट और सुसंस्कारिता के आधार पर ही किसी व्यक्तित्व का सही मूल्याँकन हो सकता है। इस परख में सही जन्म कुण्डलियों के आधार पर आवश्यक सहायता मिल सकती है। इस दृष्टि से भी अपने कदम आर्ष ज्योतिविज्ञान का अभिनव निर्धारण करने की दिशा में बढ़ रहे है। पिछले फरवरी अंक के अन्तिम लेख में इस सर्न्दभ में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इन दिनों नव सृजन का प्रयोजन पूरा करने में अग्रिम भूमिका निभा सकने वाली आत्माएँ अवतरित हो रही है-हो चुकी है। उनकस पता लगाना आवश्कय उद्बोधन प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन भी एक ऐसा कार्य है। जिसके लिए हसी जन्म कुण्डलियों से आवश्यक सहायता मिल सकती है। ऐसी अवतरित आत्माओं के अभिभावकों को उनके सही परिपलन के सर्न्दभ में आवश्यक परामर्श दे सकना भी इस आधार पर सम्भव हो सकता है।

परिजनो से भी अपेक्षा की जा रही है कि जन्म कुण्डलियाँ बनवाने में जबावी लिफाफा भेजने का ध्यान अवश्य रखे। मिशन पर पहले से ही बढ़े आर्थिक भार को बढाये नहीं, लम्बे और जटिल गणित का हलकरने के लिए कम्प्यूटर की भी व्यवस्था की जा रही है।

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