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Magazine - Year 1980 - Version 2

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First 18 20 Last
युग सन्धि के पावन पर्व पर प्रस्तुत बसन्त ने जो अभिनव प्रेरणाएँ दी है। उनके अनुरुप देव परिवार के हम सब सृजन शिल्पी अपने-अपने कर्त्तव्य उत्तर-दायित्व को समझे। उनके निर्वाह का साहसिक प्रयत्न करें इसी युग सृजन की अग्रगामिता का गौरव है।

युग प्रवर्तन का उद्गम उल्लसा हिमालय के ध्रुव केन्द्र से उभरता है। उसकी प्रत्यक्ष जानकाीर ब्रह्मवर्चस् से मिलती है। इसे केन्द्र की अनुसन्धान और प्रशिक्षण की प्रचलित रीति-नीति में नये उभार लाने का निर्देश हुआ है।

ब्रह्मवर्चस् अनुसन्धान में अब तक (1) अध्यात्म का विज्ञान द्वारा समर्थन (2) तीनों शरीरों को निरोग परिपृष्ट बनाने वाली यज्ञोपचार प्रक्रिया (3) जन जीवन में अध्यात्म के समावेश की व्यावहारिक विधि व्यवस्था, यह तीनों काय्र अपने ढंग से भली प्रकार चल रहे है और सफलताएँ मिल रही है। उनसे विश्वास होता है कि आशा से कम समय में ही कुछ ऐसी उपलब्धियाँ प्रस्तुत की जा सकेंगी जिन्हे विश्व इतिहास की अभूत पूर्व घटना माना जा सके। इन प्रतिपादनों के सहारे मानवी चिन्तन और प्रवाह को नये आधार मिल सकेंगे। फलतः प्रस्तुत परिस्थितियों में काया-कल्प जैसी परिवर्तन दृष्टिगोचर हो सकेगा।

इस श्रृंखला में प्रस्तुत बसन्त से तीन नई धाराएँ जुडी रही है। (1) अध्यात्मवादी अन्तरिक्ष विज्ञान का अभिनय निर्धारण (2) प्रशिक्षण सत्र श्रृंखला में प्राण प्रखरता का विशिष्ट समावेश। (3) जागृतों को प्राण वितरण यह तीनों ही कार्यो में पिछले दिनों की अपेक्षा अधिक तत्परता एव अधिक ऊर्जा का समावेश किया जायेगा। यह कार्य तत्काल आरम्भ किया जा रहा है।

भौतिकी के अर्न्तगत आने वाली खगोलविद्या में अन्तर्ग्रही प्रभावों का आकलन किया जाता है और प्रकृति के अन्तराल में छिपी सामथर्यो के मणिमुक्तकों को डुबकी मार कर खोजा जाता है। उडाने अब परिवहन मात्र के लिए नहीं, अन्तग्रही सम्पदाओं के बटोरने के लिए हो रही है।

आत्मिकी की अन्तरिक्ष विद्या ज्योतिविज्ञान के नाम से प्रख्यात है। इसमें अदृश्य जगत से सर्म्पक साधने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने की जानकाीर तथा प्रक्रिया के दोनों पक्षो का समावेश है। जानकारी की वर्णमाला ग्रहगणित तब मिलती है। जब ब्रह्माण्डव्यापी चेतना प्रवाहों के साथ देवसत्ताओं के साथ घनिष्ठता जुड़ती है ओर उसके सहारे परिस्थितियों में परिवर्तन सम्भव होता है। प्रत्यक्ष जगत के हानि लाभों से सभी परिचित है। अन्तरिक्ष से जो सिद्धियाँ और विभूतियाँ पाई जा सकी है। उसका द्वार इसी विज्ञान के सहारे सम्भव होता है। योग साधना, मन्त्र विज्ञान, तपश्चर्या ब्रह्मविद्या की स्थूल गतिविधियाँ वस्तुतः अन्तरिक्ष को ही प्रभावित करती है और उसी महान भाण्डागार से अपने उपयोग की सम्पदाएँ उपलब्ध करती है। अध्यात्म और उसे प्रधानतया अन्तरिक्ष से सम्बन्धित माना जाना चाहिए।

इस प्रसंग को ब्रह्मवर्चस् शोध का एक और अंग माना गया है। और अब तीन विषय से बढ़ करर चार हो गये है। अन्तरिक्ष शोध के लिए प्राचीन काल के ज्योति विज्ञानियों द्वारा प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट रीति-नीति को अपनाया गया है साथ ही आधुनिकतम शोधप्रक्रिया के सिद्धान्तों का भी इसमें समुचित समावेश किया गया है। अब एक उसे चिर पुरातन और चिर नवीन का सामायिक समीकरण कहा जा सकता है।

ग्रह गणित सही होने पर अन्तरिक्ष की गतिविधि को सही समझा जा सकता है और अन्तर्ग्रही ही प्रभावों की धरती के वातावरण प्राणि समुदाय की परिस्थिति का-मनुष्य की मनःस्थिति का -भी सही आकलन हो सकता है। आधार सही न होने पर कुण्डली बनाना फलादिश निकालना तीरतुक्का भर रह जाता है। आयुर्वेद में यही हुआ। जड़ी बूटियों का स्तर गड़बडा देने से औषधियाँ प्रभावहीन बनी और वह चिकित्सा प्रद्धति अपनी गरिमा गंवाती चली गई। एलोपैथी इस सम्बन्ध में जागरुक है अतएव उसकी प्रामाणिकता बनी हुई है। ज्योतिविज्ञान को पुनजीवन देना इसलिए आवश्यक हो गया है कि युग सन्धि के बीस वर्षो में अन्तर्ग्रही प्रभावों का मनुष्य के भाग्य निर्धारण में असाधारण महत्व रहेगा। अतएव इस क्षेत्र के अनुकूलन का मूलभत आधार सही होना चाहिए। प्रस्तुत वेधशाला इसी उद्देश्य से बनाई गई है। अगले वर्ष से दृश्य गणित पचाँड इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए छपने की तैयारी की गई है। दृश्यगणित के लिए बहुमूल्य टैलिस्कोप और कम्प्यूटर लगाने की योजना चल रही है। इस आधार की सुसंस्कारी आत्माओं को ढूँढा और उन्हें उपयुक्त मार्ग दश्रन कर सकना भी सम्भव हो सकेगा।

युग सन्धि के इस प्रथम चरण में दूसरा काम जो हाथ में लिया गया है। वह प्राणदीक्षा का है। मन्त्रदीक्षा का स्वरुप प्राथमिक और सर्वजनीन है। बोल चाल की भाषा में परामर्श, मार्ग दर्शन, प्रशिक्षण की प्रक्रिया को मन्त्रदीक्षा कह सहते है। यह अध्यापक एवं उपाध्याय स्तर का काम है यह सरल ओर सर्वजनीन गायत्री मन्त्र को गुरुमन्त्र कहा गया है। विद्यारम्भ उपनमन के साथ उसे हर शिक्षार्थी को दिया जाता है। उसे मन्त्र धारण ॐ धारण कहते है। संक्षेंप में यह प्रवेशिका प्रकरण है इसे देने और लेने में विशेष अड़चन नहीं है।

अगला चरण प्राणदीक्षा का है। इसमें प्राण फूँके जाते है जीवितों में ही जीवट उभारी जा सकती है। और जिनकी अन्तःस्थिति में उर्वरता का समुचित अनुपात है। उनमें प्राण तत्व का अतिरिक्त आरोपण हो सकता है। विवेकानन्द, शिवाजी, चन्द्रगुप्त आदि को अपने मार्ग दर्शकों से इसी प्रकार के प्राण अनुदान प्राप्त हुए थे। कहना न होगा कि शिक्षा एक बात है और प्रगति के साधन जुटा देना दूसरी। मन्त्रदीक्षा को शिक्षा प्रेरणा कह सकते है। और प्राणदीक्षा को अनुदान हस्तान्तरण। सत्पात्रों को ढूँढने में जन्म गुण्डलियों का सहारा लिया जाएगा और प्राण संस्कारों का नया आधार आरम्भ किया जायेगा।

परिवार सत्र गायत्री नगर में आरम्भ होने जा रहे है। उसमें बालकों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन यज्ञोपवीत आदि संस्कर होंगे, इनमें प्राणदीक्षा के तत्व रहेंगे। जिनमें उर्वरता होगी उनमें इस बीजारोपण का सुनिश्चित प्रभाव पड़ेगा। सामान्यों को असामान्य बनाने में इस प्रक्रिया का असाधारण योगदान रहेगा।

गायत्री नगर में सत्र श्रृंखला चलेगी। उसमें सृजन शिल्पियों का शिक्षण ही प्रधान होगा। जन साधारा के प्रशिक्षा सत्र भविष्य में नवनिर्मित शक्तिपीठों में चलते रहेंगे। हरिद्वार में समय दानायें को ही प्रशिक्षण का अवसर मिलेगा। इसमें युग सृजन के लिए सामयकि गतिविधियों की क्षमता उत्पन्न करना जहाँ उद्देश्य है वहाँ एक यह भी है कि जागृतों को जीवट प्रदान किया जाय। जीवट अर्थात् क्षमता। क्षमता स्वउपार्जित भी होती है और अनुदान स्तर की भी। दोनों ही उपायों से सृजन शिल्पियों के देव परिवार को इस योग्य बनाया जायेगा कि वे युग सन्धि में अपनी भूमिका सही रीति से निभा सकें। स्वयं धन्य बन सके और अपने कार्यक्षेत्र को अपने युग को धन्य बना सके।

प्राणदीक्षा का यह अनुदान मात्र गायत्री नगर में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले शिविरार्थियों को ही नहीं मिलेगा वरन् शक्तिपीठ उद्द्याटन के अवसर पर होने वाले युग सम्मेलनों में भी उपयुक्त व्यक्तियों को इस अनुदान का लाभ मिलेगा। गुरुदेव के इस प्रवास को तथ्यतः प्राणवानों को ढूँढने और उन्हे जीवट प्रदान करने की प्रक्रिया कह सकते है। युग सन्धि की प्रक्रिया आवश्यक समझी गई तभी प्रवाह का उपक्रम बना है अन्यथा उद्घाटन की रस्म इतनी बड़ी संख्या में इतनी लम्बी और इतनी थकाने वाली यात्रा पूरी करना उनकी व्यवस्तता को देखने हुए सम्भव न हुआ होता।

आशा की जानी चाहिए कि (1) गायत्री नगर में युग शिल्पी प्रशिक्षण और - (2) उद्घाटन समारोह में प्राण वितरण तथा (3) परिवार सत्रों में आते रहने वाले सद्गृहस्थों की नई पुरानी पीढ़ी को लिने वाले अनुदान इन तीनों को ही अपने-अपने स्तर की प्राण दीक्षा कहा जा सकता हैं यह व्यापक प्रक्रिया इन्हीं दिनों अपनाई जा रही है।

सभी परिजनों के जन्म दिन नोट किये जा रहे हैं इसके लिए अतिरिक्त विभाग बना देय गये हैं इस संकलन पर सूक्ष्म दृष्टिपात किया जाता रहेगा। आवश्यकतानुसार इस पर्यवेक्षण के सहारे परिजनों का उपयुक्त मार्गदर्शन किया जाता रहेगा। जन्म कुण्डली विभाग को गायत्री नगर की एक विशेष स्थापना ही कहा जाना चाहिए। प्रत्यक्षतः तो यह होई पंडिताऊ या ज्योतिष स्तर की प्रक्रिया प्रतीत होती है। पर वस्तुतः उसे देव परिवार की प्रगति और सुख शनित से देवी अनुदानों का ही रहस्यमय समावेश ही कहना चाहिए।

प्राण वितरण की सर्वोपयोगी एवं सर्वसुलभ प्रक्रिया वह है जो प्रातःकाल की प्राण संचार साधना के रुप में भी सभी परिजनों को घर बैठे उपलब्ध होती रहेगी। सूर्योदय से पूर्व एक घन्टा से लेकर सूर्योदय तक के एक घन्टे में कभी भी दस बीस मिनट एकाग्र बैठने और निर्धारित धारण करने से यह लाभ सरलता पूर्व क पाया जा सकता है। यह एक विशेष टानिक है जो हर जागृत को उसके स्तर का नव जीवन-प्रदान करेगा। यह उपक्रम आरम्भ तो अभी से हो गया है , पर उसका विधिवत् ओर सर्वजनीय उद्घाटन गायत्री जयन्ती से होगा।

गायत्री नगर में देव परिवार बसने की सूचना गत अंक से सभी को मिल चुकी है निवृत्त एवं स्वावलम्बी प्रथम चरण में बुलाये गये है। द्वितीय चरण में वे बुलाये जायेंगे जिनकी छोटी गृहस्थियाँ है ओर स्वल्प अनुदान से जिनका निर्वाह हो सकता है। इस देव परिवार को केन्द्र की गतिविधियाँ में हाथ बटाने से लेकर विश्वव्यापी आलोक वितरण की योजनाओं की आग्रगामी बनाने के लिए कार्यक्षेत्र में जाने तक के अनेकानेक कार्य भार सौपे जाएँगे।

कुछ मिला कर हरिद्वार केन्द्र से युग सन्धि का प्रेरणा वितरण और मथुरा द्वारा उसका क्रियान्वयन ऐसा कदम है जिसमें नवयुग के अवतरण को विशेष बल मिलेगा। समय की विषमता को देखते हुए इससे कम तत्परता से काम चलने वाला भी नहीं था। जो आवश्यक है उसे समय पर करना ही उचित था। इस औचित्य को अपनाने के लिए जो प्रेरणा वसन्त पर्व पर उतरी है उसे तत्काल क्रियान्वित करने में तनिक भी प्रमाद नहीं बरता गया है।

शान्ति कुँज से उठने वाले इन अति महत्व पूर्ण कदमों के साथ-साथ समूचे देव परिवार को अपने चिन्तन और प्रयास में उस तत्परता का समावेश करना है-जो युग सन्धि के ऐतिहासिक अवसर पर युग प्रहरियों द्वारा अपनाई ही जानी चाहिए। यह समय न आलस्य का है न प्रमोद का। न ललक लिप्स में फँसे रहने का है न लोभ मोह के बन्धनों में जकड़े रहने का। वासना और तृष्णा किसी कृमि कीटक की योनि में भी पूरा करनेका अवसर रहता है। पेट ओर प्रजनन के लिए मरने खपने से कभी कोई रोक-टोक नही। युग सन्धि जैसे अवसर हजारो लाखो वर्ष बाद आते है। ऐसे अवसरों पर ही देवी नियन्त्रण मिलते है। जो उन्हे अनसुना करते है उनकी चतुरता बस्तुतः बहुत मँहगी पड़ती है। जो समय को पहचानने और अवसर न चूकने की तत्परता दिखाते है। वस्तुतः वे दूरदर्शी ही बुद्धिमान सावित होते है। लाभ और श्रेय कमाने की दृष्टि से सौभाग्यशाली वे ही बनते है।

जागरुक प्राणवानों को युग सन्धि के दिनों समय दान के लिए अदृश्य का आमन्त्रण उतरा हैं जिन्हे वह रुचे वे भविष्य में यह सुविधा होने पर यह करेंगे जैसे अपने सँजोना बन्द कर दे और यह देखे कि वर्तमान परिस्थितियों में वे अपने समय का कितना अंश नव सृजन के निर्मित लगा सकने में समर्थ हो सकते है। उसके लिए पुराने ढर्रे, पुराने अभ्यास ओर पुराने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता पड़ेगी। जिस ढंग से सोचने की और करने की आदत है उसके रहते कुछ बन नहीं पडेगा। बनेगा तब जब नया दृष्टिकोण अपनाया और नया निर्धारण किया जाय। जो ऐसा कर सकेंगे व देखेंगे कि ढर्रे में थोडी उलट-पुलट करते ही ढेरो समय ऐसा निकल पड़ा जिसे युग देवता के आमन्त्रण को स्वीकार करने और अनुदान का उत्साहवर्धक श्रद्धा´जलि प्रस्तुत करने की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माना जा सके। आये दिन अप्रत्याशित मुसीबते एवं आवश्यकताएँ सामान्य जन जीवन में आती रहती है और उनके निर्मित अपने वर्तमान ढरे में से ही समय किल आता हैं महत्व समझा जा सके तो कोई कारण नहीं कि युग की पुकार पर कुछ समय देने का अवसर ही न मिल सके। उदासी और उपेक्षा ही बाधक रही है। युगधर्म की अवमानना ही व्यस्तता का बहाना औढती रहती है। अन्तस् में परिवर्तन आसके तो उभरने वाला उल्लसा हर स्थिति के भावनाशील शक्ति को इतना अवसर प्रदान कर सकता है कि उतने में किया गया पुरुषार्थ चमत्कार प्रस्तुत कर सके।

यह पूछने की आवश्यकता नहीं कि समयदान का क्या करना है ? करने के लिए हर क्षेत्र में हर दिशा में पहाड़ जितने काम करने को पड़े है। युग को बदलना तभी सम्भव है जब उसका स्थान ्रहण करने को नया तत्पर हो। यो हटेगा उसका स्थान ग्रहण करने वाला चाहिए। इस अभाव की पूर्ति हुए बिना ही सभी क्रान्तियाँ निष्फल होती है। अवाँछनीय तो तोड़-फोड आवश्कय तो है पर पर्याप्त नही। ध्वंस की सार्थकता तब है जब रिक्ता को सृजन भर सके। ताजा उदाहरण अपने देश में सरकारे उलटने की दो पटको को बारीकी से देखने पर मिल सकता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त आई शिथिलता को भी इस तथ्य का उदाहरण माना जा सकता है। सृजन बलिष्ठ न होगा तो ध्वंस की तोड-फोड में वह काना कुण्डा भी हाथ से चला जायेगा जिसके सहारे कुछ तो काम चल रहा था असजकता, वयवस्था और अस्तव्यस्तता में तो हानि ही हानि है।

शुभारम्भ कहाँ से किया जाय ? इसका प्रथम चरण स्पष्ट है देव परिवार के सभी परिजन गायत्री शक्ति पीठो के केन्द्र को आधार मान कर अपने-अपने क्षेत्रों में संगठित हो और मिल जुल कर काम करे। इस वर्ष निर्माण कथा संगठन के यह दोनों कार्य पूरे होने चाहिए। शक्ति पीठ अपने काय्र क्षेत्र बनाले ओर समयदाीन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के सर्म्वधन का प्रयास करे। जो घर से बाहर नहीं जा सकते वे अपना समय स्थानीय सर्म्पक परिधि को साथ लेकर कार्य आरम्भ करे। जो घर से बाहर जा सकते है। वे परिवारजको की तरह नव युग का अलख जगाने और सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण करने को साथ लेकर परिभ्र्रमण करे। फरिवारिक उत्तदायित्व से निवृत्त लोगों से बार-बार कहा गया है कि वे घ्ज्ञर से बाहर चले और विश्व परिवार में अपनी आत्मीयता का विस्तार करे। ऐसे लोग शान्ति कु´ज अथवा शक्तिपीठों में रहकर उपासना, स्वाध्ययाय, संयम, सेवा की चतुविधि श्रेय साधना में संलग्न रह सकते है।

तात्कालिक काय क्रम तो सभी को यह सौपा गया है कि अपने क्षेत्रों के शक्तिपीठो तथा उद्घाटन समारोहो को सफल बनाने का प्रयत्न करे। झोला पुस्तकालय और चल पुस्तकालय बने, बढ़े और चले यह विचार क्रान्ति को सफल बनाने की कारगर भूमिका निवाहें यह आवश्कय है, जन्म दिनों, संस्कारो के माध्यम से परिबार निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बन सकता है। और महिला संगठन इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते है।

यह तथ्य हजर बार समझा और अपनाया जाना चाहिए कि हम सब मिल जुलकर ही महान तथ्य की पूर्ति कर सकने में समर्थ हो सकते है डेढ ईंट की मसजिद ढाई चावल की खिचडी पकाने की महत्वाकाँक्षा सजोने और अलग करने और अलग श्रेय पाने की ललक अपनाने की क्षुद्रता किसी को भी नहीं अपनानी चाहिए। नदियों के समन्वय से समुद्र बना है और उसी विशालता के सहारे वर्षा का उपक्रम एवं वनस्पति का उत्पादन बना हैं देव परिजनों को व्यक्तिगत महत्वकाँ से बचने की दूरदर्शिता अपनानी चाहिए और अनुशासित सैन्य दल की तरह सृजन प्रयोजनों में जुटना चाहिए। स्त्रोत के साथ जुड़ा रहने पर ही प्रवाह में ताजगी रहेगी। युग निर्माण के प्रस्तुत केन्द्र सूत्रों के साथ जितनी सघनता जुडेगी उतना ही अधिक ठोस एवं प्रभावी प्रतिफल उत्पन्न होगा। यह तयि गम्भीरता पूर्वक समझा और अपनाया भी जाना चाहिए। इसी में प्रयास की सफलता ओर सार्थकता सन्निहित है बिखराव में किसी के भी पल्ले कुछ नहीं पडेगा।

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