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Magazine - Year 1982 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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युगमनीषा कहाँ पाएँ ,कहाँ खोजें, कहाँ पुकारें?

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धन, शस्त्र, शासन, ज्ञान, विज्ञान और संघ की शक्तियाँ इन दिनों विभिन्न क्षेत्रों में अपने चमत्कार दिखातीं और मोर्चा फतह करती देखी जाती हैं। इनकी महत्ता और उपयोगिता में किसी प्रकार का संदेह न करते हुए भी सोचना यह पड़ेगा कि समस्त समस्याओं के प्रमुख कारण चिंतन के भटकाव को रास्ते पर लाने का उत्तरदायित्व कौन संभाले? कौन आगे बढ़े और कौन उसका सहयोगी रहकर व्यापक प्रयोजन को पूरा करे?

जहाँ तक आस्थासंकट का प्रश्न है, वहाँ तक, उस गहराई तक पहुँच सकने की क्षमता मात्र धर्म में ही दिखती है। धर्म शब्द से जिन्हें चिढ़— एलर्जी है, उन्हें युगमनीषा शब्द से उस तथ्य को समझना चाहिए। अंतराल के मर्मस्थल तक उपरोक्त छः प्रमुख शक्तियों में से एक भी एकाकी बलबूते समर्थ नहीं हो सकतीं। उनका संयुक्त प्रभाव भी सीमित परिणाम ही प्रस्तुत कर सकता।

युग समस्या के समाधान में युगमनीषा को अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए। कृष्ण आगे थे, पांडवों के सहयोग से महाभारत में विजय मिली। राम आगे थे, वानरसेना ने लंका को जीता। वशिष्टों के नेतृत्व में रघुवंशियों की पीढ़ियाँ सतयुगी व्यवस्था बनाती रहीं। चाणक्य ने चंद्रगुप्त के सहयोग से भारत को चक्रवर्त्ती बनाया। समर्थ के नेतृत्त्व में शिवाजी छत्रपति बने। सप्तऋषियों ने अपने समय में समस्त संसार को प्रगति और समृद्धि की ओर धकेला और जगद्गुरु की भूमिका निभाई। शंकराचार्य को मान्धाता का, बुद्ध को हर्षवर्धन अशोक का समर्थन मिला और बड़े काम संपन्न हुए। सहयोग सभी का चाहिए। भौतिक क्षेत्र की हर सामर्थ्य का भी इतने पर भी जनमानस के अंतस् की भाव-श्रद्धा का स्पर्श करते, उसे भ्रांतियों की तमिस्रा से उबारकर अरुणोदय के आलोक से संबद्ध करने का काम मनीषा के हिस्से में रहता है। उसके द्वारा उपेक्षा बरतने पर समाधान मिलेगा नहीं और बिल्ली के गले में घंटी बाँधने में असमर्थ चूहों की सभा बिना किसी निर्णय के विसर्जित होगी।

पिछले दिनों संसार में चमत्कारी परिवर्तन हुए हैं। उसमें दृश्यमान भूमिका किसी की भी क्यों न रही हो— श्रेय किसी को भी क्यों न मिला हो, परोक्ष पृष्ठभूमि बनाने में मनीषा ने ही अपनी गरिमा और प्रखरता का परिचय दिया है। कार्लमार्क्स की भूमिका के बिना वर्त्तमान साम्यवादी विस्तार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। नीत्से का दर्शन ही जर्मनी, इटली आदि को नाजी बनाने का निमित्त कारण था। दो महायुद्धों की जिम्मेदारी तत्त्वतः ऐसे ही दार्शनिक प्रतिपादनों के हिस्से में आती है। रुसों के प्रतिपादन ने विश्वमानव के चिंतन को प्रभावित न किया होता तो प्रजातंत्र की अभूतपूर्व कल्पना इतनी तूफानी गति से संसार के अधिकांश भाग को अपनी लपेट में न ले पाती। अपने समय में मेजिनी के प्रतिपादन पीड़ित पक्ष को तनकर खड़ा होने का साहस प्रदान करते रहे हैं। बुद्ध ने विचार-क्रांति की मशाल का भी तो समर्थ सहयोगियों की कमी रही होती, वह नेतृत्त्व न मिलता, तो अन्य माध्यमों से समय को उलट देने वाले उस बुद्धिवादी का कोई आधार ही खड़ा न होता। प्रश्न श्रेय-सहयोग का नहीं, वह किसी को भी मिल सकता है, किसी का भी हो सकता है; पर उन चिनगारियों को भुलाया नहीं जा सकता जो चमकी-भड़की और अपनी लपेट में वन-प्रदेशों को ईधन बनाकर दावानल की तरह गगनचुंबी बनती चली गई ।

सुकरात, अफलातून, अरस्तू जैसे मनीषियों के परोक्ष अनुदानों के गुणगान मुकुटधारियों जैसे ढोल-ताशे बजाकर नहीं होते, फिर भी तथ्य बताते हैं कि उनकी भूमिकाएँ शत-सहस्र शासकों से बढ़कर रही है। जापान के गाँधी कागावा मूलतः समाजनिष्ठ सेवाभावी संत थे। समय ने सहयोग दिया और वे जापान के पतित वर्ग के मसीहा बन गए। ऐसे तो भारत में भी कबीर, विवेकानंद, दयानंद, गुरु गोविंद सिंह, विनोबा आदि की भूमिकाएँ भी अविस्मरणीय हैं। महत्त्वपूर्ण सेवा संस्थान खड़े करने बाबा साहब आक्टे, हीरालाल शास्त्री, श्रद्धानंद, स्वामी केशवानंद, राजा महेंद्र प्रताप, महामना मालवीय आदि के व्यक्तित्व और कृतकृत्य को चिरकाल तक स्मरण रखा जाएगा। ये प्रतिभाएँ वस्तुतः युगमनीषियों की श्रेणी में ही आती हैं। लेखनी, वाणी, संगठन आदि जिसे जो उपाय सूझा उसने वह अपनाया; किंतु लक्ष्य एक ही रहा दिग्भ्रांत लोक-मानस को आदर्श उत्कृष्टता अपनाने के लिए साहसिक उमंगों से भर देना।

धन, कौशल, बाहुबल आदि की कमी पहले भी नहीं थी, अभी भी नहीं है। शासन भूतकाल में भी सामर्थ्यवान रहे हैं। जनता की लोकशक्ति पहले भी विद्यमान थी, पर उन्हें दिशा न मिलने के कारण भटकाव की स्थिति बनी रही और उपरोक्त शक्ति-स्रोतों का अवांछनीय अपव्यय दुरुपयोग होता रहा। उस बिखराव को समेटकर एक बुहारी में कस देने और उसे सुनियोजित सृजन-प्रयोजन में लगा देने की व्यवस्था यदि बनी होती तो साधनों के अभाव का, प्रतिकूलता का रोना रोना पड़ता है और स्वल्प-साधनों में ही शांति, समृद्धि और स्नेह-सहकारिता का भरा-पूरा स्वर्गीय वातावरण आज की स्थिति में भी बना हुआ होता। अभाव उस प्रखरता का है जिसे न केवल उच्चस्तरीय प्रतिपादन प्रस्तुत करने पड़ते हैं; वरन निज की आदर्शवादिता का परिचय देते हुए जनसाधारण को आश्वस्त भी करना पड़ता है। युगमनीषा की यह दुहरी भूमिका निभाते हुए ही लोक-शिक्षण की वास्तविक क्षमता अर्जित करनी पड़ती है।

बुद्धिवाद एक बात है और मनीषा दूसरी। बुद्धिवादी तो अपनी प्रखरता और चतुरता के बलबूते धुँआधार भाषण देने से प्रदर्शन जुलूस के घटाटोप खड़े करने में देखते-देखते सफल हो सकते हैं। प्रतिभावान संपन्नों का गला पकड़कर, इच्छित धनराशि एकत्रित कर सकते हैं और उसके सहारे आदर्शवादी ढकोसले भी कागजी रावण की तरह खड़े कर सकते हैं। यह चित्र-विचित्र तमाशे रोज ही देखने को मिलते हैं। अहंमन्यता यश, लिप्सा साथ ही धन अपहरण के अनेकों क्षेत्रों में यह दरबार लगाए रहने वाले मेजबान अपने को अभिनेता स्तर को नेता सिद्ध करने वाले कौतूहल रचते रहते हैं। यह विडंबनाएँ सायंकाल के लाल-पीले अंबर-डंबर की तरह सुहावनी तो लगती हैं; पर उनके बलबूते वैसा कुछ ऐसा बन पड़ने की आशा नहीं बँधती, जिसमें उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न साकार होते हैं।

बुद्धि व्यवसायियों की बिरादरी एक हैं, युगमनीषियों की, दूसरी बुद्धिवाद मानसिक विलक्षणता है। वह नट-गायक की तरह अपनी कला का चमत्कार दिखाता और चका-चौंधभरा आकर्षण उत्पन्न करता है। मनीषा न केवल आदर्शवादी प्रतिपादन करती है, न केवल लोक-शिक्षण में निरत होती है, पर साथ ही इस बात की आवश्यकता सर्वोपरि समझना है कि आदर्शवादी लोक-शिक्षण के लिए प्रवक्ता का चरित्र ऋषिकल्प होना चाहिए। उसे अपनी स्थिति संदेहों से परे और प्रामाणिकता की हर कसौटी पर खरी सिद्ध करनी होती है। जो दूसरों से कहा जा रहा है, उसे अपने निजी चरित्र-चिंतन से पूरी तरह उतारने के उपरांत ही दूसरों को यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि प्रतिपादन शक्य एवं व्यावहारिक भी है या नहीं। क्या कहा जा रहा है, इस पर मनोरंजन स्तर का ही ध्यान जाता है। प्रभाव तब पड़ता है, जब कौन कहता है वाली बात का समाधान मिल सके। भौतिक-क्षेत्र में प्रतिभा, संपन्नता, सुंदरता चतुरता, समर्थता एवं कला-कौशल का बखान करने से भी प्रभावोत्पादन बन पड़ता है, पर आस्थाओं को उछालने की सामर्थ्य उन्हीं व्यक्तित्वों में उत्पन्न होती है जो केवल आदर्शवादी प्रतिपादन करते हैं; वरन अपने उज्ज्वल चरित्र, सेवा-साधना तथा त्याग-बलिदान की दृष्टि से ही अपनी वरिष्ठता सिद्ध करते हैं। युगमनीषा के नाम से इसी वर्ग का उल्लेख किया जा रहा है। उन्हें युगऋषि भी कहा जा सकता है। बकवासी वाचालता की कीमत बाज़ार में कुछ भी क्यों न हो, पर जब वह आदर्शवादी लोक-शिक्षण के क्षेत्र में प्रवेश करेगा तो अपने व्यवसाय, निर्वाह, संचय, स्वभाव आदि के निजी स्वरूप का बहीखाता भी खोलकर, जनता के सामने प्रस्तुत करना पड़ेगा। इसके अभाव में नेता, अभिनेता की हैसियत प्रायः जैसी बनकर रह जाती है।

महाकाल ने युगमनीषा को पुकारा है। इसे कहाँ पाया, कहाँ बुलाया जाए। यह खोजने पर आँखों के सामने अँधेरा छाता है। धर्मोपदेशकों, देशभक्तों, साधु-संन्यासियों का क्षेत्र ढूँढ़ते हैं, कलाकारों, साहित्यकारों का दरवाजा खटखटाते हैं, धर्म-संप्रदायों मठ-मंदिरों, तीर्थों को खोजते हैं तो भी कुछ वैसा नहीं मिलता, जिससे युगमनीषा की आवश्यकता पूरी होती हो। सेवा संस्थानों की कमी नहीं, धर्मस्थान नित नए बनते हैं। इनमें आश्रय पाने वाले लगते तो धर्म-ध्वजियों जैसी आकृति के हैं, पर नंगे उधाड़कर देखते हैं तो लबादे के नीचे वही सब दिखता है, जिससे निराशा ही नहीं होती; वरन मर्मभेदी पीड़ा भी होती है। फिर कहा क्या जाए? क्या सबसे पूछा जाए? खोई हुई संस्कृति सीता का अता-पता भी तो कोई नहीं बताता। सभी स्तब्ध हैं। सर्वत्र असमर्थता का माहौल है।

ऐसी दशा में एक ही उपाय सूझता है कि अपने निजी परिवार को लेकर समय की माँग को टूटे-फटे साधनों से पूरा करने के लिए हिम्मत तो दिखाई जाए। संभव है, इस श्रीगणेश के उपरांत समर्थों का साहस उभरे तो सेतुबंध बँधते समय कहाँ से कुशल नल-नीलों का समुदाय आ टपके। गुरुगोविंद सिंह ने अपने पुत्रों की बलि चढ़ाई थी। “पाँच प्यारे” भी वही थे, जिनने बलिदान के लिए तलवार के सामने सिर झुकाया। बुद्ध के सहयोगियों में उनका पुत्र राहुल भी था। अशोक की बेटी संघमित्रा भी संन्यासिनी बनी थी। विवेकानंद की शिष्या निवेदिता ने भी हाथ बँटाने का निश्चय किया था। आवश्यक नहीं कि परिवार में वंशजों को ही गिना जाए। आदर्शों के क्षेत्र में हाथ बँटाने वाले, अनुगमन करने वाले सहयोगी भी वंशजों की श्रेणी में गिने जाते हैं। ऋषिगोत्रों का प्रचलन वंश-परंपरा से ही नहीं शिष्य परंपरा के आधार पर भी हुआ है।

दूसरों पर अपना क्या बस? विरानों पर अपना क्या अधिकार? उन्हें तो उपदेश ही दिए जा सकते हैं। बहुत हुआ तो अनुरोध, आग्रह तक बढ़ा जा सकता है; पर अपनों पर तो अपेक्षाकृत अधिकार होता है और आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी किया जाता है। हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी को भी बेच दिया था। नारद ने अपने चारों पुत्र सनक, सनद, सनातन और सनत कुमार भक्ति प्रसार के क्षेत्र में धकेल दिए थे। नचिकेता ने अपने पिता वाजिस्रवा से पूछा कि— "गायों के उपरांत एक मैं ही शेष रह गया हूँ, मुझे भी किसी को दान दे दीजिए न।" व्यंग-उपालंब की परवाह न करते हुए पिता ने उसे हाथ पकड़कर आचार्य यम के हवाले कर दिया। कहीं लोग शिष्य पुत्र होने की बात कहते हैं और “कुछ आदेश कीजिए” पूछते हैं तो इच्छा होती है कि यदि इन पर अधिकार चले तो नचिकेता की तरह इन्हें किसी महान उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया जाए। शुकदेव अपने पिता के इकलौते थे। पिता ने उन्हें रोका नहीं; वरन उकसाया। कुंती ने भी अपने पुत्रों को विलासी नहीं, देवमानव बनाया और वैसे ही कुछ कराने के लिए कृष्ण के हाथ में सौंपा। नारद के दर्शन तो असंख्यों ने किए थे, पर उनके शिष्य ध्रुव, प्रहलाद, वाल्मीकि जैसे कुछेक ही निकले। रामकृष्ण परमहंस के भी एक ही शिष्य था। विरजानंद के भी एक ही। यों वे दोनों तथाकथित सहस्रों शिष्यों से सदा ही घिरे रहते थे, पर काम के उन्हें भी कहाँ मिले?

नजर अखण्ड ज्योति परिवार पर है, उसमें आस्थावानों की संख्या कम नहीं लगती। मन आता है कि उन्हीं में से कुछ को युगमनीषा की छुट-पुट भूमिका निभाने और रीछ-वानरों के संयुक्त प्रयास से बन पड़े, महान पुरुषार्थ की पुनरावृत्ति का प्रयत्न किया जाए।

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