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Magazine - Year 1982 - Version 2

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Language: HINDI
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धर्मतंत्र की उपेक्षित, किंतु मूर्धन्य शक्तिसामर्थ्य

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समझा यह जाता रहा है कि धर्म कुछेक भावुक भक्तजनों, पुरातनपंथियों, पूर्वाग्रहग्रस्तों की रंग-बिंरगीं कल्पना उड़ानों का समुच्चय है। व्यक्तिवादी संकीर्णता का, परावलंबन का, पलायनवाद का दर्शन ही प्रकारांतर से धर्मधारणा का प्रतिपादन और कार्यक्षेत्र है। उसके प्रभावचक्र में फँसकर व्यक्ति यथार्थता का पर्यवेक्षण करने में असमर्थ हो जाता है। फलतः भ्रम-जंजालों में उलझता-उलझाता ऐसी रीति-नीति अपनाता है जो सार्वजनिक हित-साधन की दृष्टि से निरर्थक जैसी बनकर बैठ जाती है। आमतौर से विज्ञ समाज की मान्यताएँ धर्म के संवर्द्धन में इसी से मिलती-जुलती पाई जाती हैं और वे उसे कूड़ा-करकट समझकर उपेक्षा से मुँह मोड़ लेते हैं। अच्छा होता, वे उसे सुधारने का प्रयास करते और अवांछनीय, आधिपत्य एवं प्रचलन को निरस्त करके सुधारक का स्थान ग्रहण करते; पर ऐसा हुआ नहीं, होता नहीं— कारण यह है कि धर्मतंत्र की शक्ति एवं उपयोगिता के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया और उसे कूड़ा-करकट समझकर मनीषा और प्रतिभा द्वारा मुँह मोड़ लिया गया। यदि उस क्षेत्र की क्षमता, व्यापकता और उपयोगिता को समझा गया होता तो ऐसी सड़न और दुर्गति न होने देने के लिए विज्ञजनों ने निश्चय ही कुछ गंभीर सोचा और ठोस कदम उठाया होता।

प्राचीनकाल में हर क्षेत्र का विस्तार, कार्यक्षेत्र एवं प्रयोगतंत्र सीमित था। धर्म शब्द के अंतर्गत ही उन सभी संदर्भों का समावेश होता था जो मानवी चेतना को परिष्कृत-प्रगतिशील बनाए रहने के लिए आवश्यक थे। अब वैसी बात नहीं रही। जब विचारणा और व्यवस्था के सभी क्षेत्रों में विस्तार हुआ है तो धर्म के क्षेत्र विस्तार को भी पृथक-पृथक धाराओं में बहते हुए और अंत में एक सरोवर के रूप में जा मिलते हुए देखा जा सकता है। चेतना को, चिंतन को प्रभावित करने वाले मंत्रों में साहित्य, संगीत, कला की क्षमता सर्वविदित है। दर्शन से व्यक्ति और समाज के चिंतन को दिशा मिलती है। भाव-संवेदनाओं और आस्था-मान्यताओं को किसी बिंदु पर एकत्रित करना उसी का काम है। उत्कृष्टतावादी दर्शन को अध्यात्म कहते हैं। धर्मतत्त्व का बौद्धिक पक्ष यही है।

दूसरा पक्ष कर्म है। इसमें प्रचलन-परंपरा का समावेश है। कर्मकांडों से लेकर रीति-रिवाजों तक की श्रद्धा इसी में केंद्रीभूत है। इसी व्यवहार-पक्ष को इन दिनों धर्म माना जाता है। वह विभिन्न समयों पर विभिन्न परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप, जहाँ-जहाँ जिस-जिस रूप में पनपा, उस विधि-व्यवस्था को संप्रदायों का रूप मिलता चला गया है। कहना न होगा कि मनुष्य की क्षुद्रता जहाँ भी अवसर पाती है, वहीं घुसपैठ किए बिना नहीं चूकती। धर्मधारणा का, संप्रदायों का दुराग्रही रूप बना और अध्यात्म स्वरूप चेतना के सुनियोजित आस्था विज्ञान के आधार पर लोक-मानस को उत्कृष्टता का पक्षधर बनाने वाला न रहकर देवाश्रित बनाने जैसी विडंबना में उलझ गया। पर्यवेक्षण से प्रतीत होता है कि धर्म की मूलसत्ता विशुद्ध वैज्ञानिक है, उसमें लोक-चिंतन की शालीनता को सहकारिता के प्रति निष्ठावान बनाना है। पूजा, उपासना, शास्त्र, कथा-सत्संग, दान-पुण्य-तीर्थ, भजन आदि क्रिया-कृत्यों के पीछे मूलभूत उद्देश्य एक ही है कि मानवी चिंतन, पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से विरत होकर पवित्रता और प्रखरता अपनाएँ, संयमी और उदारचेता बनें। चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा के सभी महत्त्वपूर्ण तथ्य उसमें कूट-कूटकर भरे हैं। चिथड़ों में लिपटा हुआ हीरा भी ग्राह्य है। प्रस्तुत विकृतियों के ढकोसले को उखाड़कर यदि अंतराल तक पहुँचने और वस्तुस्थिति का पता लगाने का प्रयत्न किया जाए तो पता चलेगा कि धर्म मानवी उत्कृष्टता का जीवन-प्राण है।

मनुष्य की काय-संरचना, पशु वर्ग के अन्य जीवधारियों से भिन्न नहीं है। विकासवादियों के अनुसार वह वानरवंश का है। यदि वैसा है तो मानना पड़ेगा कि पूर्वजों ने एक पेड़ से दूसरे पर उछल जाने की क्षमता भी क्रमशः गँवा दी और लंबी वाली सुशोभित पूँछ से भी हाथ धो बैठा। इस प्रकार पूर्वजों की तुलना में उत्तराधिकारी घाटे की दिशा में ही चले है, पर वस्तुतः वैसा है नहीं। निश्चित रूप से हम आगे बढ़े हैं। इस अभिवृद्घि में उसका बौद्धिक पक्ष ही प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। व्यक्ति आचार संहिता, समाज संगठन, शिक्षा, परिवार, विज्ञान, अर्थतंत्र, शासन, चिकित्सा आदि अगणित उपयोगी अवलंबनों के सहारे ही मनुष्य समर्थ, सुसंपन्न एवं सुसंस्कृत बन सका है। प्रकृति पर उसके आधार की चर्चा गर्वपूर्वक की जाती है।

वैज्ञानिक आविष्कारों ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। यह सारा चमत्कार मानवी चेतना के प्रगतिशील दिशाधारा में बहने का सत्परिणाम है। तात्पर्य एक ही है, मानवी सत्ता में प्रमुखता उसके चेतना पक्ष की है। शरीर तो औजार, उपकरण, वाहन मात्र माना जाता है। शरीर की सुडौलता, समर्थता, सक्रियता का भी आधारभूत कारण चिंतन-चेतना ही है। यदि वह गड़बड़ाने लगे तो भली-चंगी काया को रुग्ण, अक्षम, कुरूप बनने और अकालमृत्यु का ग्रास बनने में देर न लगे। हर दृष्टि से चेतना की ही गरिमा-वरिष्ठता सिद्ध होती है। इसी दशा में जो विज्ञान दर्शन निर्धारण-प्रवाह उसे सुनियोजित दिशाधारा प्रदान करता है, उस धर्मतत्त्व की महिमा उपयोगिता इतनी ऊँची ठहरती है कि उसे एक शब्द में मनुष्य का भाग्यविधाता कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। यदि उसका अस्तित्व उभरकर आगे न आया होता तो शारीरिक संगठन एवं मानसिक संरचना की दृष्टि से अनेक प्राणियों की तुलना में ओछा पड़ने वाला आदमी इतना ऊँचा न उठ सका होता, जितना कि इन दिनों जा पहुँचा है।

साधना-सामग्री का अपना महत्त्व है; पर वह है शरीर के लिए, सुविधाएँ उसी को चाहिए। पंचतत्त्वों का बना शरीर पदार्थों पर ही निर्वाह करता है। पदार्थों में ही मोद मनाता है। उसकी सत्ता एवं प्रकृति अपने सजातीय को चाहती, समेटती है तो यह स्वाभाविक है। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, अर्थतंत्र के आधार पर मिलनी वाली सुविधाएँ और शासन द्वारा की जाने वाली व्यवस्थाएँ मिल-जुलकर काय-कलेवर का, सामुदायिक विकास का आधार खड़ा करती है। यह आवश्यक तो है, पर पर्याप्त नहीं। अंतःचेतना का स्तर गया-गुजरा हो। उसमें आदर्शों का, मर्यादाओं का समावेश न हो तो पशु-जगत की तरह हर समर्थता अपने से छोटों के लिए संकट ही उत्पन्न करती चली जाएगी। पशुओं में प्रकृति ने मर्यादा— अनुशासन की चेतना रखी है, इसलिए वे विनाश भी सीमित ही कर पाते है। यों समर्थ स्वच्छंद मनुष्य की उच्छृंखलता तो सर्वनाश ही करके रख सकती है। उद्दंड मनुष्य अपना और दूसरों का अहित-ही-अहित करेगा। पशुता, पैशाचिकता की दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और उसे पवित्रता, प्रखरता प्रदान करते हुए सर्वजनीन विकास में सहभागी बनने की प्रेरणा धर्मतत्त्व के अतिरिक्त और कहीं से नहीं मिल सकती।

साधनों के उत्पादन में विज्ञान, अर्थतंत्र, शासन को समन्वित भूमिका ने मनुष्य को साधनसंपन्न बनाया है। उपभोग में विग्रह खड़ा न हो, समृद्धि का सही उपयोग हो। यह उत्तरदायित्व शासन वहन करता है। इतने पर भी मूल प्रश्न जहाँ का तहाँ बना रहता है कि यदि चेतना का स्तर गया-गुजरा रहा तो फिर जो कुछ हाथ में होगा। उसे दुर्व्यसनों में, दुष्प्रयोजनों में ही नियोजित किया जा सकेगा। फलतः परिणाम ऐसे भयंकर होंगे, जो दरिद्रता की तुलना में कहीं अधिक कष्टकारक सिद्ध होंगे।

इन पंक्तियों में यह कहा जा रहा है कि मानवी चिंतन के साथ उत्कृष्टता का जुड़ा रहना ही साधनों को सार्थक बना सकता है। चिंतन ऊँचा हो तो ऋषियों की तरह स्वल्प साधनों में भी बादशाहों से बढ़कर सुखी, समुन्नत एवं शानदार जीवन जिया जा सकता है। इसके विपरीत यदि आंतरिक निकृष्टता का बोलबाला हो, तो समझना चाहिए वैभव का वैसा ही दुष्परिणाम होगा जैसा कि रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, जरासिंधु, वृत्तासुर आदि को अपने समुदाय समेत भुगतना पड़ा था। महत्ता संपदा को, समर्थता को तो मिलनी चाहिए; पर यह नहीं भुला दिया जाना चाहिए कि दूरदर्शी, विवेकशीलता, मेधा, प्रज्ञा के अनुभव से वह सारी विभूतियाँ बंदर के हाथ पड़ने वाली तलवार का काम करेंगी और उस पुरुषार्थ, सौभाग्य का परिणाम हितकर न बनकर, विनाशकारी ही सिद्ध होगा। तथ्य को समझा जा सके तो चिंतन की उत्कृष्टता ही सर्वोपरि ठहरती है, उसे विकसित करने के एकमात्र अवलंबन— धर्मतंत्र को इस विश्व-व्यवस्था में सर्वोपरि स्थान सम्मान मिलता है।

फिर उसकी उपेक्षा क्यों हुई? उत्तर एक ही है कि उसका स्वरूप, प्रभाव एवं विनियोग ठीक प्रकार समझा नहीं गया। यदि वैसा होता तो शासनसत्ता को, अर्थव्यवस्था को, वैज्ञानिक उपलब्धियों को महत्त्व देने वाले यह भी सोचते हैं कि यदि चेतना को परिष्कृत कर सकने में एकमात्र समर्थसत्ता धर्म की पिछड़ी स्थिति में छोड़ दिया गया तो फिर अन्यान्य सभी उपलब्धियाँ निरर्थक बनकर ही नहीं रह जाएगी; वरन उनका दुरुपयोग होने पर वे विघातक भी सिद्ध होंगी ।

बुद्धितंत्र को बहुत महत्त्व दिया जाता है। शिक्षा के स्कूली, अभ्यासी, परामर्शप्रधान अनुभव संबंधित कितने अवलंबन अपनाए जाते हैं और समझा जाता है कि जो जितना बुद्धिमान होगा वह उतना ही उपयोगी सिद्ध होगा, उतना ही समर्थसंपन्न होगा। यह मान्यता भी आंशिक रूप से ही सत्य है। बुद्धि के सहारे वैभव कमाया जाता है, उसमें संदेह नहीं, पर उस वैभव का श्रेष्ठतम सदुपयोग करके उसका वास्तविक, परिपूर्ण एवं श्रेयस्कर लाभ कैसे उठाया जा सकता है, इसका निर्धारण उस प्रज्ञा के बिना संभव नहीं जो धर्मधारणा के सहारे ही उत्पन्न एवं परिपक्व की जाती हैं।

यह धर्मतंत्र की दार्शनिक गरिमा हुई। उसका एक दूसरा पक्ष भी है— धर्मतंत्र का प्रस्तुत स्वरूप, सरंजाम का जनता पर प्रभाव और साधनों का बाहुल्य। यह दोनों ही शक्तिस्रोत ऐसे हैं, जिनके सहारे व्यक्ति और समाज की परिस्थितियों को जमीन से आसमान तक उछाला जा सकता है। नरक से विरत करके स्वर्ग के साथ जोड़ा जा सकता है।

आज धर्म के प्रति उपेक्षा— अवमानना का दौर है। फिर भी उसके जीर्ण-शीर्ण कलेवर को यथावत बनाए रहने में कितनी धनशक्ति और जनशक्ति नियोजित होती है, उसे देखकर आश्चर्य होता है। तीर्थ स्थानों के दर्शन, पर्वस्नान, चित्र-विचित्र कर्मकांड, पंडा-पुरोहितों को मिलने वाला दान, साठ लाख साधु-बाबाओं का मँहगा निर्वाह, मंदिर-मठों की प्रचुर आजीविका धर्म संस्थानों के भव्य भवन, उत्सव-समारोह, कुंभपर्व, क्षेत्रीय धर्म स्थानों के मेले आदि में निरंतर लगने वाली जनशक्ति और धनशक्ति का यदि लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो प्रतीत होगा कि देश में शिक्षा और चिकित्सा पर होने वाले खर्च की तुलना में वह कहीं अधिक है। इसी प्रकार शादियों पर होने वाले, मृतकभोज में लगने वाले धन का विवरण बने तो पता चले कि औसत भारतीय की एक तिहाई आमदनी इन्हीं प्रचलन-परंपराओं में खप जाती है, जिन्हें प्रकारांतर से धर्मप्रथा का अंग ही कहा जा सकता है। यह तो प्रत्यक्ष एवं सामूहिक रूप से धर्म-प्रयोजनों के लिए नियोजित होने वाली श्रम, संपदा की चर्चा हुई। व्यक्तिगत रूप से कितने लोग कितना जप-तप, पूजा-पाठ, व्रत-दान आदि इस निमित्त करते रहते हैं। उस सबका भौतिक आंकलन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि राजतंत्र में नियोजित शक्ति तो दबाव देकर वसूल की जाती है; किंतु धर्मतंत्र के लिए वह स्वेच्छा-श्रद्धा के आधार पर समर्पित किया जाता रहता है। विचारणीय हैं कि जब कलेवर के लिए इतना हो सकता है तो जीवंत धर्म के लिए कितना कुछ जनसहयोग अर्जित हो सकता है और उसके सुनियोजन से उज्ज्वल भविष्य की संरचना से कितना बड़ा योगदान संभव हो सकता है।

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