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Magazine - Year 1982 - Version 2

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दो हाथों से ताली बजेगी, दो पहियों की गाड़ी चलेगी

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युग विभीषिकाएँ जिन स्रोतों से उभरी हैं, उन सभी को दृष्टि में रखना होगा और सभी छिद्रों को बंद करने की बात को महत्त्व देना होगा। उपचार का श्रीगणेश कहाँ से किया जाए, यह बात दूसरी है, पर अंततः छेद तो सभी बंद करने होंगे अन्यथा एक द्वार भी खुला रखने से चोरों के आवागमन का क्रम यथावत बना रहेगा।

अवांछनीयता से जूझने और औचित्य की प्राण-प्रतिष्ठा नए सिरे से करने के दुहरे मोर्चे पर लड़ने वालों को यह देखना होगा कि प्रस्तुत विभीषिकाओं को इस स्तर तक पहुँचाने में किन क्षेत्रों की कौन-कौन विकृतियाँ, किस अनुपात में, किस प्रकार, क्या भूमिका निभाती रही हैं। निदान सही बन पड़े तो उपचार में सरलता होती है, अन्यथा चिकित्सा पर हुआ व्यय और श्रम निरर्थक ही चला जाएगा।

यों एक शब्द में बात समाप्त करनी हो तो इस प्रकार भी कह सकते हैं कि व्यक्ति के मन में दुर्बुद्धि उपजी, कुकर्मों पर उतारू हुआ, दुष्प्रवृत्तियाँ पनपी और परिस्थितियाँ विषम होती चली गई, इसलिए परिस्थितियाें को सुधारने के लिए समाजव्यापी दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ना चाहिए। चूँकि समाज व्यक्तियों के समुच्चय का नाम है, इसलिए जन-जन की नीति-निष्ठा बनाने के लिए चिंतन को परिष्कृत किया जाए। इसके लिए लोक-मानस में उत्कृष्ट आदर्शवादिता को प्रतिष्ठित करने वाली विचार-क्रांति को प्रखर किया जाए। इसके लिए नवजागरण का अलख घर-घर जगाया जाए। जन-जन के मन तक नवचेतना का आलोक पहुँचाया जाए। मान्यताओं और परंपराओं का नए सिरे से दूरदर्शी विवेकशीलता के सहारे नया निर्माण-निर्धारण किया जाए। इसी सार-संक्षेप को प्रकारांतर से युगनिर्माण योजना द्वारा पिछले लंबे समय से कहा और लिखा जाता रहा है।

समय आया है कि बारीकी में उतरा जाए और ध्वंस को निरस्त करने और सृजन को गति देने के लिए नए सिरे से, व्यापक दृष्टिकोण लेकर संबंधित सभी पक्षों पर विचार किया जाए और देखा जाए कि व्यक्ति के स्वाभाविक प्रगतिक्रम को अग्रगामी बने रहने में व्यवधान कौन उत्पन्न करता है। किस प्रकार अड़चनें खड़ी करता और गतिरोधों की चट्टानें अड़ाता है। साथ ही कौन से ऐसे क्षेत्र हैं जो मानवी व्यक्तित्व, वर्चस्व, कौशल, स्वभाव, वैभव एवं बल-विवेक को प्रखर बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। इस संदर्भ में शिक्षा, साहित्य, कला, विज्ञान, उत्पादन, चिकित्सा, खेल, विनोद आदि अनेकों की उपयोगिता और क्षमता का उल्लेख किया जा सकता है और यह सिद्ध किया जा सकता है कि उनमें सुधार-परिष्कार बन पड़े तो व्यक्ति और समाज की स्थिति आज की तुलना में कल कहीं अधिक अच्छी हो सकती है।

उपरोक्त सभी आधारों की वरिष्ठता स्वीकार करते हुए भी यदि यह वर्गीकरण छोटा करना हो और जिनके अंचल में अनेक प्रसंग सिमटा सकते हैं उन्हें खोजा जाए तो फिर शक्तिमान तथ्य दो ही रह जाते हैं। अन्य संदर्भ उनकी शाखा-प्रशाखा के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इन दो में से एक है— शासन। दूसरा है— धर्म। दोनों ही क्षेत्रों में विकृतियाँ तो अनगिनत घुस पड़ी हैं, फिर भी अंततः आश्रय उन्हीं का लेना होगा। सुधार-समीक्षा के लिए कोसने, खीजने में हर्ज नहीं; किंतु तथ्यतः यही दो शक्तियाँ हैं जो मनुष्य के भाग्य, भविष्य को बनाने-बिगाड़ने की भूमिका निभाती हैं और निभाती रहेंगी। इनमें से एक को भी निषिद्ध नहीं ठहराया जा सकता है और किसी भी स्थिति में इनसे विमुख रहने, पीछा छुड़ाने की बात बन पड़नी संभव नहीं, इसलिए अच्छा होगा कि इन दो की खामियों को सुधारने की बात सोची जाए और उनके परिष्कृत स्वरूप के साथ उत्पन्न होने वाले प्रभाव की परिस्थितियाँ सुधारने में प्रयुक्त किया जाए।

मानवीसत्ता दो भागों में विभक्त है— एक पंचभौतिक प्रकृति पदार्थों से विनिर्मित शरीर। दूसरा, आस्था-भावना-विचारणा वाला चेतन। उसकी प्रेरणा का अनुगमन करते हुए काया विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ कठपुतली की तरह संपादित करती रहती है। जड़ और चेतन के सम्मिश्रण से यह समूचा संसार बना है। ब्रह्मांड की ही छोटी अनुकृति पिंड भी है। उसका प्रत्यक्ष रूप पदार्थ से बना है। वह पदार्थों की सहायता से ही जीवित रहता है, पदार्थों में ही रमण करता है। उसका दूसरा परोक्ष रूप चेतन है, जिसमें भाव-संवेदनाएँ, आस्थाएँ और विचारणाएँ अपने-अपने ढंग से काम करती हैं। इन्हें भी तृप्ति, तुष्टि, शांति चाहिए। वे कर्त्तव्यपालन, मर्यादा-निर्वाह एवं स्नेहसौजन्य अपनाने से उपलब्ध होती हैं। दूसरे शब्दों में इन्हीं को उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श, कर्त्तृत्व के नाम से जाना जाता है।

शरीर का अस्तित्व और उसका निर्वाह भौतिकी द्वारा होता है। भौतिकी के इस पक्ष का नियमन, निर्धारण राज्यसत्ता द्वारा होता है। उत्पादन, वितरण, परिवहन, संचार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, नियंत्रण, व्यवस्था, अनुशासन, न्याय, सुरक्षा जैसे विषय मनुष्यों के निर्वाहक्रम के साथ ही जुड़ते हैं, इसलिए शासन को मनुष्य की वैयक्तिक एवं सामूहिक निर्वाह-व्यवस्था के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। अभाव, अशक्ति, अज्ञान जैसी कठिनाइयों का समाधान करने की आशा-अपेक्षा शासन में रखी जा सकती हैं।

यों अब पुरातन वर्गीकरण ढीले पड़ गए और शासन के हाथ में चिंतन को प्रभावित करने वाली प्रचार क्षमता भी चली गई है। फिर भी उसका प्रमुख विषय प्रज्ञाजनों के निर्वाहक्रम में संतुलन बिठाए रहना ही है। रेडियो, टेलीविजन, सरकारी प्रेस, प्रकाशन, समाज कल्याण, जनसंपर्क, स्कूली पाठ्यक्रम आदि विभागों के माध्यम से यों सरकारें लोक-चिंतन को भी एक सीमा तक प्रभावित करती हैं, फिर भी उनका वह मूल विषय है नहीं। जहाँ तक नैतिक प्रश्नों का, व्यक्तित्व का, परिष्कृत करने वाले संदर्भों का, परंपराओं के प्रवाह का संबंध है, वे किसी नीतिनिष्ठ तंत्र से प्रसारित होने पर ही प्रभावी बनती हैं। अन्यथा चिह्नपूजा जैसी विडंबना बनकर रह जाती है। शासनतंत्र और अर्थतंत्र दोनों ही लगा-लपटों से भरे, कुचक्रों से सने रहते हैं। उनकी कूटनीति प्रमुखता को सभी जानते हैं, इसलिए इस मंच से किए गए प्रचार को सही होने पर भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं और किसी प्रयोजन विशेष के छिपे होने की गंध सूँघते हैं। स्पष्ट है कि सरकारी प्रचारतंत्र लोगों को उपयोगी जानकारियों देने तक अपनी प्रभाव क्षमता की इतिश्री कर लेता है। उसमें इतना दम-खम नहीं है कि व्यक्ति या समाज की पतनोन्मुख दिशाधारा को उलटकर उसे आदर्शवादिता के अंतरिक्ष में उछाल सके। यह कार्य विशुद्ध रूप से धर्मतंत्र का है।

धर्म का स्वरूप आज पूजा-पाठ, रीति-रिवाज, कर्मकांड, कथा-प्रवचन, जप-तप तक सीमाबद्ध होकर अनेकानेक संप्रदायों में बँट गया है। पूर्वाग्रह ही उसकी पूँजी है। अपनी बात सच दूसरे की झूठ मान बैठने की हठवादिता उन्हें परस्पर एकत्रित तक होने नहीं देती। विचार-विनिमय से किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की, मिल-जुलकर धर्मोंपदेशक की दिशाधारा अपनाने की बात तो दुराग्रह के रहते बनती ही नहीं। धर्मध्वजों, निहित स्वार्थों ने भावुक जनता को अपने-अपने जाल-जंजालों में इस प्रकार जकड़ रखा है कि वे शोषकों के शोषण बने रहने वाले निरीह प्राणियों से अधिक कुछ रह ही नहीं जाते। औंधी-सीधी रंग-बिंरगीं कल्पनाओं में उड़ते रहने, निरर्थक विडंबनाओं में धन और समय गँवाकर स्वर्गमुक्ति झटक लेने, देवताओं को उँगली के इशारे पर नचाने के मनसूबे ही यह तथाकथित धर्मप्रेमी बाँधते रहते हैं। “राम मिलाई जोड़ी। एक अंधा एक कोढ़ी।” की उक्ति इन धर्मध्वजों और स्वर्गप्रेमी लोगों के साथ इसी प्रकार बैठी रहती है जैसे रिश्वत देने लेने वाले, जुआ खेलने-खिलाने वाले, नशा पीने-पिलाने वाले, रंडी-भडुए आपस में तालमेल बिठा लेते हैं। उनके व्यवसाय निषिद्ध होने पर भी चिरकाल से अपनी पटरी पर निर्बाध गति से चल रहे हैं। ठीक इसी प्रकार धर्म-व्यवसाय भी अपनी मंडी में, अपने ग्राहकों के सहारे सर्वत्र लुढ़कता-दौड़ता देखा जा सकता है।

राजतंत्र अधिकारियों में घुसी हुई विकृतियों की छीछालेदारी अखबारों, हिस्सेदारी से वंचित राजनीतियों द्वारा किस प्रकार होती रहती है। इसे अखबारों के पाठक और वैसी सभाओं में पहुँचने वाले, संपर्क में आने वाले आए दिन पढ़ते-सुनते रहते हैं। ऐसी दशा में भी कोई यह नहीं सोचता कि शासन को समाप्त कर दिया जाए। यह और भी बुरी बात होगी। भला-बुरा जैसा भी कुछ ढाँचा बना हुआ है, उसे मान्यता तो मिली हुई है। अनुशासन का लकीर तो बनी हुई है। सुधार की आशा तो है, पर यदि शासनतंत्र रहा ही नहीं तो अराजकता फैलेगी, जंगल का कानून चलेगा और बड़ी मछलियाँ सभी छोटी कमजोरों को उदरस्थ करके रहेंगी, इसलिए शासन की खामियों को कोसते हुए भी कोई यह नहीं सोचता कि उस ढाँचे को समाप्त कर दिया जाए। ठीक यही बात धर्मतंत्र के संबंध में भी है। उसे सुधारने की बात ही सोची जानी चाहिए। अभी वह स्थिति नहीं आई कि फोड़े वाले हाथ को ही काटकर फेंक दिया जाए। अभी छोटे ऑपरेशन और मरहम-पुलटिस से काम चलने की गुंजाइश है। शासन और धर्म दोनों ही रुग्ण हो गए हैं। उनका उपचार होना चाहिए और बीमारी को मारने, बीमार को बचाने की गति अपनानी चाहिए। संव्याप्त अव्यवस्था को नियंत्रण में लाने के लिए उज्ज्वल भविष्य का उद्यान उगाने के लिए जिस मार्ग पर चलना है, उसके लिए शासनतंत्र और धर्मतंत्र के दोनों कदम क्रमबद्ध सुनियोजित रूप से तालमेल बिठाते हुए उठने चाहिए। विभीषिकाओं से मुक्ति पाने और सुनहरे लक्ष्य तक जा पहुँचने के लिए इन्हीं दोनों कदमों को प्रगति-पथ पर अग्रसर करना होगा। दोनों असंबद्ध रहेंगे, एकाकी अहंमन्यता में डूबे रहेंगे तो एक पहिए की गाड़ी किस प्रकार परिवहन का उद्देश्य पूरा करेगी? लंगड़ी दौड़ से कितनी दूरी, कितनी गति से पार हो सकेगी? यों काम तो एक हाथ वाले भी चलाते हैं, पर छैनी-हथौड़े का कारगर प्रयोग करने वाले जानते हैं कि दोनों हाथों के बिना कुछ कारगर परिणाम बन नहीं पड़ता। कोसने, झिड़कने की भी उपयोगिता है, पर उसका संतुलित प्रयोग होना चाहिए। संबंध-सूत्र तोड़ बैठने की बात सोची जाए तो पति-पत्नी का विग्रह घर-परिवार की सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा देगा। दोनों की अपनी क्षमता— उपयोगिता है, उसका चमत्कार तभी देखा जा सकता है जब सघन सहयोग का आधार बना रहे। बिजली के दो तार मिलने से ही करेंट प्रवाहित होता है। राजतंत्र और धर्मतंत्र का स्वरूप और कार्यक्षेत्र भले ही पृथक रहे। दोनों अपने-अपने उत्तरदायित्व अपने-अपने ढंग से निबाहें, पर साथ में यह भी ध्यान रखें कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण रहेगा। उस प्रयोजन की पूर्ति न कर सकेगा, जो संतुलन बना रहने पर सरलतापूर्वक संभव हो सकता है। हमारा चिंतन, सब कुछ या कुछ नहीं का रहा है। बैर और प्रीति के बीच का मध्यवर्ती मार्ग तालमेल बनाए रहना भी हो सकता है, उस दिशा में गंभीरतापूर्वक सोचा ही नहीं जाता। संघर्ष और सहयोग का समन्वय हो सकता है। एक आँख दुलार की, दूसरी सुधार की बनी रहे तो विकृतियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन साथ-साथ चल सकता है। कुशल माली यही करते हैं, निराई और सिंचाई का परस्पर विरोधी सिलसिला साथ-साथ चलाते रहते हैं और इसे विसंगति नहीं, पूरक प्रक्रिया मानते हैं। जिन्हें साथ-साथ जीना-मरना और रहना है, उन्हें सुधार और सहकार की रीति-नीति अपनानी चाहिए।

प्रस्तुत विकृतियाँ उपरोक्त दोनों ही क्षेत्रों के गड़बड़ाने से उत्पन्न हुई हैं। गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने के लिए दोनों ही लाइनों में जो टूट-फूट हुई है, उसे सुधारने की आवश्यकता है। सोचा जाना चाहिए कि यह विश्वसमाज— जनसमुदाय जड़ और चेतन के समन्वय से बना है। जहाँ तक मानवी व्यवस्था का संबंध है वहाँ भौतिक-क्षेत्र को समुन्नत-सुसंतुलित बनाने का काम शासनतंत्र को संभालना चाहिए और चेतना का भावना, मान्यता, विचारणा, दृष्टिकोण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता को, शालीन सुसंस्कारिता को प्रखर बनाए रहने का उत्तरदायित्व धर्मतंत्र को संभालना चाहिए। इसके बिना उस लक्ष्य तक पहुँचना संभव न हो सकेगा, जिसमें दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।


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