
इच्छित संसार हर किसी के सामने
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भगवान का बनाया संसार समग्र और सर्वांग सुन्दर है। उसे कोई-कोई ही देख समझ पाता है। संसार एक अति महत्वपूर्ण विश्व कोश है जिसमें हर प्रसंग का सुविस्तृत विवरण विद्यमान है। इतने पर भी उसे पढ़ने और समझने वाले बहुत कम हैं। समझने में किसी कदर सफल होने वाले भी यह प्रयत्न नहीं करते कि जो सामने है उसे अपनाने और लाभ उठाने की कुशलता दिखा सकें।
हर मनुष्य का अपना बनाया हुआ एक स्वतन्त्र संसार है वह उसी में निवास और निर्वाह करता है। मकड़ी अपना जाला बुनती है। शहद की मक्खी अपना छत्ता बनाती है। रेशम के कीड़े अपने रेसे बनाते हैं। देवताओं का मन्दिर में और भूतों का श्मशान में निवास उनका अपना चुनाव है। संसार में कहाँ क्या नहीं है? पर रुझान अपना-अपना। गुबरीला कीड़ा अपने लिए गोबर तलाश करता और उसी में अपने ढंग की जिन्दगी जीता है। तितलियों और भौंरों की बिरादरी दूसरी है उन्हें अपनी रुचि की पुष्प वाटिकाएँ भी हर जगह मिल जाती हैं। वे उन्हें सरलतापूर्वक खोज निकालते हैं।
दुष्टों की संगति और सज्जनों की मंडली में प्रवेश पाने का श्रेय अपने ही रुझान को है। सजातीय अपनों को न्यौत बुलाते हैं। दूषित दृष्टिकोण रखने पर दुष्टों के साथ संपर्क बनता है और उनके सहवास से मिलने वाले दुःखद दुर्गुणों का उपहार हस्तगत होता है। विपरीत प्रकृति के साथ भिन्न स्तर के लोग कदाचित ही कभी फटक पाते हैं। चोरों के मुहल्ले में सन्त के पैर टिकेंगे ही नहीं। इसी प्रकार सज्जनों के बीच दुर्जनों का गुजारा नहीं। उनका मन उचटता है और अपने जैसी साथी तलाश करके उनके साथ तालमेल बिठा लेते हैं।
यह संसार क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। पूछने वाले से उलट कर यह पूछा जा सकता है कि यह संसार क्या नहीं है। यह भगवान का विराट् रूप है अथवा उसका सृजा हुआ चन्दन वन जैसा सुरम्य उद्यान। यदि कहा जाय कि यह नरक, भव-बन्धन, दुःखों का समुद्र है तो भी उस कथन को चुनौती नहीं दी जा सकती। यहाँ विषाणुओं से लेकर प्रेत पिशाचों तक अदृश्य जीवधारियों की अपनी-अपनी दुनिया ऐसी है जिसमें किसी एक साथ दूसरी की कोई समता नहीं। मछलियों का अपना संसार है और मच्छरों का अपना। उनकी इच्छाएँ, आवश्यकता, सुविधा असुविधाएँ ऐसी हैं जिसमें परस्पर कोई तालमेल नहीं। अपने समुदाय के अतिरिक्त वे दूसरे समुदाय का अस्तित्व या महत्व मानते भी होंगे या नहीं, यह कहना कठिन है।
किसानों, पहलवानों, कलाकारों, दार्शनिकों, अपराधियों के अपने-अपने दर्शन हैं। वे अपनी एक निर्धारित कार्यपद्धति अपनाते, अपने ढंग से सोचते और अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। कन्दराओं में रहने वाले तपस्वियों, वनवासियों, विलासियों, व्यवसायियों के चिन्तन रहन-सहन और प्रयत्नों को देखते हुए लगता है कि मनुष्यों के बीच देश, धर्म, भाषा, संस्कृति के आधार पर ही विभाजन नहीं हुए हैं वरन् दृष्टिकोण एवं जीवन दर्शन के भी इतने विभेद हैं जिन्हें पास-पास रखकर देखने अथवा उनके स्तर का मूल्याँकन करने पर प्रतीत होता है कि यहाँ अनेकता के बीच एकता विद्यमान है।
यह संसार माया, भ्रम, सत् असत्, क्षणिक भी हो सकता है और शाश्वत, सनातन, सत्, चित और आनन्द से परिपूर्ण भी। देखना यह है हम अपना संसार कैसा बनाते या बने बनाये किस संसार में प्रवेश करते हैं। सृष्टा ने जहाँ असंख्यों सुविधाएँ और विभूतियाँ मनुष्य को प्रदान की हैं वहाँ यह व्यवस्था भी बनाई है कि वह अपने लिए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ या निकृष्ट से निकृष्ट चुन सके। यहाँ असंख्यों संसार पहले से ही विद्यमान हैं इनमें से भले या बुरे किसी का भी अपने लिए चयन किया जा सकता है और उसमें इच्छानुसार प्रवेश तथा निर्वाह करते रहा जा सकता है।