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Magazine - Year 1983 - Version 2

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Language: HINDI
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परिवर्तन चक्र में घूमता हुआ अपना ब्रह्माण्ड

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आकाश पर नजर डालने से एक काली चादर या कुछ जुगनू से बैठे चमकते दिखते हैं। दिन में एक फानूस जैसी और रात में लालटेन जैसी रोशनी चमकाते हुए दो गोले घूमते नजर आते हैं। मोटी दृष्टि यहीं समाप्त हो जाती है, पर जब गहराई में उतर कर वास्तविकता खोजने की बात चलती है तो प्रतीत होता है कि इस नगण्य के पीछे न जाने कितना बड़ा विशाल विस्तार छिपा पड़ा है। उसकी परतें उठाते चलने पर विशालता का अनन्त विस्तार आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है।

ब्रह्माण्ड का स्वरूप कभी मानवी मान्यता के अनुसार बहुत छोटा था पर अब पर्यवेक्षण से उसकी विशालता इतनी बढ़ चली है कि उसकी कल्पना करने तक में मस्तिष्क चकराने लगता है।

कभी ब्रह्माण्ड इतना छोटा भी रहा होगा जिसे कृष्णचन्द्र ने अपने मुख में रखी हुई गोली की तरह यशोदा या अर्जुन को दिखा सके। रामचन्द्र के लिए भी कदाचित यह सम्भव रहा हो कि वे बड़ी सुपाड़ी जितने ब्रह्माण्ड की झाँकी कौशल्या या काकभुसुण्डि को तनिक-सी मुस्कान बखेरकर भली प्रकार दिखा सकें। पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। अब कोई हनुमान सूरज को मधुर फल समझकर निगलने के लिए तैयार न होगा।

ब्रह्माण्ड के बारे में जैसे-जैसे जानकारियाँ बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे उसके विस्तार का दायरा बढ़ता जा रहा है। अभी वह बचपन की ही अवधि में है इसलिए उसे बहुत समय बढ़ना, फैलना और परिपुष्ट होने में लगेगा। प्रौढ़ता आने के उपरान्त ही वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ना आरम्भ होंगी। कमर झुकेगी। खाँसी, श्वास का सिलसिला चलेगा और घटते-घटते हारा-थका, जरा-जीर्ण होने पर वह मरण की तैयारी करेगा। मरने के उपरांत उसे फिर जन्म लेने में कितने समय भूतकाल जैसी गर्भावस्था में रहना होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह निश्चित है कि जन्म-मरण के चक्र में पदार्थों एवं प्राणियों की तरह ब्रह्माण्ड को भी गुजरना पड़ेगा। इससे पूर्व यह जन्म-मरण की स्थिति कितने बार आई होगी या भविष्य में कितनी बार आ सकती है, इस गतिचक्र का आदि अन्त क्या है, इस सम्बन्ध में उसका सृजेता ही कुछ कह सकता है। हम अल्पज्ञ प्राणी तो इतना ही कह सकते हैं कि वर्तमान कल्प का प्रस्तुत ब्रह्माण्ड अभी बचपन की अवधि में रह रहा है और क्रमशः बढ़ता-फूलता जा रहा है। सम्भवतः कुछ समय उपरान्त वह फलने भी लगेगा।

अपनी नीहारिका- मन्दाकिनी नाम से जानी जाती है। इसमें एक अरब से अधिक सौर-मण्डल जुड़े हुए हैं। इसका विस्तार एक लाख प्रकाश वर्ष आँका गया है। सम्बद्ध सौर मण्डल उसे केन्द्र मानकर अनन्त अन्तरिक्ष में अपनी निर्धारित कक्षा पर चलते हुए उसकी परिक्रमा करते रहे हैं। अपने सौर-मण्डल को उस परिक्रमा में प्रायः तीस हजार वर्ष लगते हैं। इतना भ्रमण कर लेने के उपरांत वह अपनी पुरानी जगह पर आता है।

आकाश में अपनी मन्दाकिनी जैसी लाखों आकाश गंगाएँ हैं। बहुचर्चित और शोध परिधि में जकड़ी गई ‘एन्डोमेण्ड्रा’ आकाश गंगा हमसे बीस लाख प्रकाश वर्ष दूर हैं।

आकाश को अत्यधिक प्रभावित करने वाले क्वासार तारे अब तक चार खोजे जा सके हैं। इनमें जो निकटतम हैं उसकी दूरी 800 करोड़ प्रकाश वर्ष मानी गई है। यदि वहाँ तक पहुँचने का कोई मनुष्य दावा करे और अब तक विनिर्मित राकेटों के सहारे ढाई हजार मील प्रति घण्टा की चाल से चले तो उसकी पूर्णायुष्य 100 वर्ष होने पर भी आठ करोड़ जन्म लेने पड़ेंगे। यदि वापस भी लौटना हो तो फिर इतने ही वर्ष और चाहिए। यह अनवरत गति होने का लेखा-जोखा है, बीच में तेल पानी लेने या सुस्ताने की आवश्यकता पड़ी तो समय और भी अधिक लग जायेगा।

अपनी मन्दाकिनी से निकटवर्ती दूसरी आकाश गंगा देवयानी (एण्डोमेन्ड्रा) अधिक चमकीली और बड़ी होने के कारण आसानी से देखी जानी जाती है फिर भी यह एक आकाश गंगा परिवार के सदस्य हैं। उनका भी एक मण्डल है और 19 आकाश गंगाओं वाला समूह किसी अकल्पनीय दूरी वाले महा ध्रुव के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करती है। यह भ्रमण पथ 35 लाख प्रकाश वर्ष का है।

अब तक के खगोल पर्यवेक्षणों से 100 अरब आकाश गंगाओं का अस्तित्व खोजा गया है। इन खोज चित्र में मात्र 5 अरब प्रकाश वर्षों की ही परिधि पकड़ में आई जबकि समस्त ब्रह्माण्ड का विस्तार इससे भी कितना ही गुना अधिक है।

माना जाता है कि पदार्थ जब अत्यधिक घनीभूत हो जाता है तब ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होता है। इसी का एक पूरक सिद्धान्त यह भी है कि जब ऊर्जा अत्यधिक घनीभूत होती है तो पदार्थ के रूप में भी परिवर्तित हो जाती है। आत्यन्तिक तापमान 100 करोड़ अंश माना गया है। जब भी इतनी स्थिति पहुँचती होगी तो उसे ठण्डा करने की परिणति पदार्थ रूप में होने लगती है। इसी सिद्धान्त के अनुरूप ब्रह्माण्ड के आदि और अन्त का कारण खोजा जा रहा है। समझा जा रहा है कि तापमान की वृद्धि विकास बेला है और उसके चरम स्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त जो ढलान आता है उसे स्थिरता, ढलना, वृद्धता या मरण की तैयारी कह सकते हैं। मानवी आयुष्य क्रम की भाँति ही यह ब्रह्माण्ड भी बढ़ता, फैलता, सिकुड़ता और मरता, जन्मता रहता है।

ग्रह नक्षत्रों की बिरादरी में नये सदस्य बढ़ते रहते हैं और पुराने समाप्त होते रहते हैं। कुछ का तो सर्वथा अन्त हो जाता है और वे पुनः वापस बादल के रूप में लौट जाते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो अव्यवस्था अस्त-व्यस्तता के चंगुल में फँसकर अपनी दुर्गति करते हैं। कुछ नये बालकों की तरह जन्मते हैं और कुछ प्रेत पिशाच बनकर डरावनी विनाशकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते रहते हैं।

सन् 1054 में किसी विशाल तारे का विस्फोट देखा गया। शुक्र से भी अधिक चमकीला एक अनोखा तारा यकायक आकाश में प्रकट हुआ। वह इतना चमकदार था कि दिन में भी सरलतापूर्वक देखा जा सकता था। यह चमक कई सप्ताह तक रही।

चीनी ज्योतिषियों ने इस जानकारी को सुरक्षित रखा है और उसका कारण किसी तारे का विस्फोट माना है। ऐसे विस्फोटों को सुपरनोवा कहा जाता है। उसका छितराव अभी भी एक छोटे गैसीय गन्ध के रूप में देखा जा सकता है। वह क्रमशः फैल ही रहा है। ऐसे विस्फोट आकाश में सदा ही होते रहते हैं। उनके आधार पर पुरानों का अन्त और नयों का जन्म होता रहता है।

“हारवर्ड स्मिथ सोनियन सेन्टर फार ऐस्ट्रोफिजिक्स” के मूर्धन्य खगोल विज्ञानियों ने अपनी आकाश गंगा केन्द्र में कुछ तारे ऐसे पाये हैं जो शराबियों की तरह बुरी तरह लड़खड़ा रहे हैं और बेढंगी चाल से चल रहे हैं। लगता है उन्हें कोई झकझोर या दबोच रहा है। हरवर्ड गस्की का कहना है कि सम्भवतः वे किसी ब्लैक होल की पकड़ में आ गये हैं और वह उन्हें क्रमशः खींचता निगलता चला जा रहा है।

इसी प्रकार ‘सिगनस’ नक्षत्र समूह का एक तारा जो हमारे सूर्य से प्रायः बीस गुना बड़ा है किसी ब्लैक होल की पकड़ में आ गया है और वह उसके मुँह में घुसता चला जा रहा है।

आकाश में कितने ही ‘ब्लैक होल’ विद्यमान हैं। उनका अस्तित्व होते हुए भी दृष्टिगोचर नहीं होते। कारण कि उनका पदार्थ अत्यधिक सघन है। इस स्थिति में गुरुत्वाकर्षण चरम सीमा पर होता है। इतना चरम कि अपनी परिधि में काम करने वाले प्रकाश को भी बाहर नहीं जाने देता। प्रकाश ही एक ऐसा आधार है जिसके सहारे अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों का अस्तित्व, स्थान एवं क्रिया-कलाप जाना जा सकता है। चूँकि ब्लैक होल कहे जाने वाले तारों का पदार्थ अत्यधिक सघन होने के कारण प्रकाश के बाहर जाने की बात बनती ही नहीं। ऐसी दशा में उनके अस्तित्व का ज्ञान भी किसी को नहीं हो सकता है। अपने इर्द-गिर्द ही कोई छोटा ब्लैक होल यदि मौजूद है तो भी हम उसके सम्बन्ध में तनिक भी जानकारी प्राप्त न कर सकेंगे।

आकाश की इन अन्धेरी गुफाओं में भरे पदार्थ का भार अत्यधिक होता है। वहाँ की एक चम्मच का भार अपनी धरती के 20 करोड़ हाथियों के बराबर भारी बैठेगा। जब कोई तारा मरता है तो उसका द्रव्य सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना सघन हो जाता है कि वह ब्लैक होल के रूप में परिणत हो सके।

यह ब्लैक होल ही है जो कभी-कभी इतने विशाल और इतने सशक्त होते हैं कि वे अपनी आकर्षक शक्ति से समीपवर्ती ग्रह तारकों को ही निगल जाते हैं। कई बार वे किसी ग्रह के किसी भाग विशेष को प्रभावित करते हैं और जो उस क्षेत्र की वस्तुओं को खींचकर अपनी खाई खड्ड जैसी झोली में समेट लेते हैं। अपनी धरती पर बारमूडा क्षेत्र में एक ऐसा ही ब्लैक होल का काम करता पाया गया है जो इस क्षेत्र से निकलने वाले कितने ही वायुयानों, जलयानों को निगल चुका है।

प्रस्तुत ब्रह्माण्ड की विशालता और विचित्रता का इस छोटी जानकारी के साथ ही अन्त ही नहीं हो जाता वरन् सम्भावनायें इतनी अधिक हैं जिनका अनुमान लगाने तक में मानवी बुद्धि मापने को असमर्थ दिखती है।

विज्ञात सृष्टि के आरम्भ में जिस गैस बादल के विस्फोट की चर्चा इन पंक्तियों में हुयी है। ठीक उसके समतुल्य एक दूसरा भी ठीक वैसा ही एक अपरिचित गैस बादल इस विनिर्मित ब्रह्माण्ड के इर्द-गिर्द भ्रमण करता पाया गया है। अनुमान यह लगाया जा रहा है कि वह भी किसी दिन अपना विकास विस्तार इसी प्रकार करेगा जैसा कि अपने इस विज्ञात मेघ ने किसी समय किया था। यदि वैसा हुआ तो उससे नयी समस्याओं का जन्म होगा।

इस संदर्भ में एक नया प्रतिपादन सोवियत खगोल विज्ञानियों ने किया है। उनने सुदूर अन्तरिक्ष में एक बृहत्तर वाष्पीय बादल को देखा है। यह ठीक उसी प्रकार का है जैसा कि विज्ञात ब्रह्माण्ड के आरम्भिक निर्माण काल में विस्फोट से पूर्व था। इन विज्ञानियों का कहना है कि सम्भवतः महा विस्फोट मूल द्रव्य के एक अंश का ही हुआ है और उतने से ही अपने ब्रह्माण्ड में गतिशील निहारिकाओं तथा ग्रह-नक्षत्रों का जन्म हुआ है। शेष अंश अभी भी अपनी आरम्भिक स्थिति में विद्यमान है। कह नहीं सकते कि वह सिकुड़ या फैल रहा है। यह भी विदित नहीं कि वह ठण्डा या गरम हो रहा है। दोनों ही स्थिति में वह अपनी वर्तमान गतिविधियों के अन्तिम चरण तक पहुँचने से पूर्व कोई बड़ा उपद्रव खड़ा करेगा। गरम हो रहा होगा तो ढाई अरब सेन्टीग्रेड तापमान तक पहुँचते-पहुँचते फट पड़ेगा और वैसे ही एक नये ब्रह्माण्ड को जन्म देगा जैसाकि हमारे परिचय घेरे में धीरे-धीरे आता जा रहा है। तब वह महा विस्फोट अपने वर्तमान ब्रह्माण्ड के साथ टकराकर ऐसी स्थिति में पैदा कर सकता है जैसा कि अपने सौर मण्डल में मंगल और बृहस्पति के मध्य परिभ्रमण करने उल्का खण्डों की शृंखला बनकर छितराई स्थिति में घूमते देखा जा सकता है। ठण्डा होने और सिकुड़ने की प्रक्रिया भी कम खतरनाक नहीं है। वह भी चरम सीमा पर पहुँचते-पहुँचते नये किस्म के संकट उत्पन्न करती है। यह भी हो सकता है कि वह अति दूरगामी गैस बादल अपने ब्रह्माण्ड के निकट चला आवे और परिवार का सदस्य बनकर रहने लगे। मानवी बुद्धि को उसकी सत्ता की ससीमता देखते हुये सृष्टा की इस विशाल संरचना के मर्मों को समझ सकना अति कठिन प्रतीत होता है तो भी हम क्रमशः सत्य और तथ्यों की ओर बढ़ ही रहे हैं। इस मार्ग पर चलते रहकर हम न केवल सृष्टि के रहस्यों को वरन् सृष्टा के सान्निध्य अनुग्रह को प्राप्त कर सकने में भी समर्थ हो सकेंगे।

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