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Magazine - Year 1983 - Version 2

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मनुष्य और भूलोक को देवताओं के अनुदान

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इस धरती पर जो जीवन है, वह यहीं से उत्पन्न हुआ या अन्तरिक्ष के किसी लोक से अनुदान की तरह प्राप्त हुआ? इस संदर्भ में अब विश्वस्त तथ्य सामने आते जा रहे हैं और यह माना जाने लगा है कि मनुष्य की सत्ता एवं संरचना पृथ्वी निवासी अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी भिन्न है कि उसे किसी देव लोक की सन्तति कहा जाय तो इसे स्वीकार करने के लिए पर्याप्त प्रमाण मिल सकेंगे।

विकास क्रम के अनुसार मनुष्य की योग्यता तथा साधन सुविधा का विकास अभी थोड़े ही दिन पूर्व हुआ है। उससे पूर्व वह नर वानरों के रूप में वनमानुषों की तरह निर्वाह करता माना जाता रहा है। यदि यह सही है तो प्रागैतिहासिक काल की ऐसी संरचनाएँ संसार भर में क्यों कर फैली हुई हैं, जिन्हें आज के समुन्नत लोगों से भी कहीं अधिक विकसित और साधन सम्पन्न लोगों द्वारा विनिर्मित ही कहा जा सकता है। जिनके बारे में कोई स्पष्टीकरण विद्वान दे नहीं पाते।

पृथ्वी पर देव लोक निवासियों के आवागमन के प्रमाण समय-समय पर मिलते रहे हैं और अभी भी मिलते रहते हैं। उड़न तश्तरियों के सम्बन्ध में कई जानकारियाँ ऐसी मिली हैं जिन्हें दृष्टि भ्रम या प्रकृति विपर्यय मात्र कहकर नहीं टाला जा सकता। इसी प्रकार कुछ घटनाएँ ऐसी भी सामने आती रहती हैं जिनसे कई मनुष्य देखते-देखते अदृश्य हो गये। वे या तो फिर लौटे ही नहीं या लौटे तो भिन्न स्थानों पर देखे गये या भिन्न-भिन्न स्थिति में पाये गये।

इन साक्षियों पर दृष्टिगत करने से यह विश्वास करने के अधिकाधिक कारण प्रत्यक्ष होते जाते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि इस धरती के साथ अन्य लोकवासियों- देवताओं का चिरकाल से किसी न किसी रूप में संपर्क बना हुआ है और वे अभी भी उसे किसी न किसी रूप में बनाये रहने के लिए अपनी ओर से प्रयत्न करते रहते हैं। अब अपनी बारी है कि उस आदान-प्रदान को अधिक सरल और सफल बनाने के लिए स्वयं भी कुछ प्रयत्न करें और एक ब्रह्माण्ड बिरादरी के सदस्य बनकर आज की अपेक्षा अधिक समुन्नत बनने का सौभाग्य कमायें।

ब्रिटेन के प्रसिद्ध खगोल वेत्ता सरफ्रेड हालल ने अपना नवीनतम अभिमत व्यक्त करते हुए कहा है- ‘प्रस्तुत प्रमाणों और तथ्यों को देखते हुए डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त सही नहीं मालूम पड़ता जिसमें एक कोशीय जीवों से क्रमशः विकसित होते-होते प्राणियों के वर्तमान स्वरूप की शृंखला जोड़ी गई है। जीवन की संरचना इतनी जटिल है कि उसे प्रोटीनों और रसायनों की परिणत नहीं कहा जा सकता। जीवन के विभिन्न घटक अपने आप में पूर्ण हैं और वे पीढ़ी दर पीढ़ी न्यूनाधिक हेर-फेर के साथ यथावत् बने रहते हैं। उदाहरण के लिए मछली को करोड़ों वर्ष अपने इसी रूप में निर्वाह करते ही गये पर उसमें कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं हुआ है। यही बात अन्य जीवधारियों के सम्बन्ध में भी सोची जा सकती है। यदि बन्दर से विकसित होकर आदमी बना तो फिर जो शेष जाति के बन्दर दृष्टिगोचर होते हैं वे क्यों उसी आदिम स्थिति में बने हुए हैं?

संसार भर में उपलब्ध होने वाले अद्भुत अवशेषों से इस बात की पुष्टि होती है कि पुरातन काल में किसी उच्च सभ्यता का अस्तित्व रहा है और वह अति मानवी स्तर की रही होगी।

मैक्सिको क्षेत्र में मिले वेधशाला स्तर के प्रायः 10 खण्डहरों को न तो प्रकृति कृति कहा जा सकता है और न मानव निर्मित कहने की बात में कुछ तुक है। फिर वे सब क्या हैं? पेरू की भूमि पर सैकड़ों मील लम्बी ज्यामिती रेखाएँ प्राकृत नहीं वरन् किन्हीं बुद्धिमानों द्वारा हाथ से खोदकर बनाई गई हैं। यह कैसे बनीं? किसने बनाईं?

मध्य एशिया में जावा- कम्पोडिया- अनकोरवाट आदि के खण्डहर भी यही कथा कहते हैं कि मात्र इन्हीं दिनों में विज्ञान का बोलबाला नहीं है इससे पूर्व भी बढ़ी−चढ़ी संस्कृतियों और क्षमताओं वाले लोग रहते थे। मिश्र के पिरामिड इसी तथ्य की साक्षी प्रस्तुत करते हैं। ईस्टर द्वीप के समुद्र तट पर अनेकों विशालकाय पाषाणों से बनी मानवाकृति प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। इन्हें आकू वाकू कहा जाता है पर इसका पता नहीं चलता कि इस निस्तब्ध क्षेत्र में किसने, किसलिए उतना अति कष्टसाध्य श्रम किया होगा।

गोवा मरुस्थल की चट्टानों पर मनुष्यों के विशालकाय पदचिह्नों के निशान पाये गये हैं। यह करोड़ों वर्ष पुराने हैं। कहा जाता है कि उन दिनों यहाँ कीचड़ थी जो अब जमकर चट्टान बन गई है। हो सकता है कोई मनुष्य उधर से निकले हों और उनके भारी चरण चिन्ह उस स्थान पर अपनी स्मृति छोड़ गये हों। ओडेसा नदी के तट पर गुफाओं की एक लम्बी शृंखला है। इनका निर्माण प्राकृत नहीं है वरन् उन्हीं विकसित उपकरणों के माध्यम से हुआ है। लाखों वर्ष पूर्व आदिम मनुष्य के लिए ऐसे साधन जुटाना कैसे सम्भव हुआ होगा। सहारा मरुस्थल की सफारा पहाड़ियों के समीप फ्रांसीसी सैनिकों ने विचित्र गुफाओं, चट्टानों और प्रतिमाओं का पता पुरातत्व विभाग को दिया था। इन 19 फुट ऊँची असाधारण प्रतिमाओं को शोध कर्ता प्रो. लहोते ने ‘मंगल ग्रह के देवता’ नाम दिया था। उसने वैसे ही वस्त्र पहन रखे हैं जैसे कि इन दिनों अन्तरिक्ष यात्रियों द्वारा पहने जाते हैं।

रूस के इटरूस्किया क्षेत्र में एक अति प्राचीन पाषाण शिला मिली है। जिस पर राडार उड़नतश्तरी की आकृति है और उसमें बैठने वाला अन्तरिक्ष सूट पहने हुए है।

आस्ट्रिया के माल्जवर्ग नगर में कुछ समय पूर्व एक 785 ग्राम का पादप का टुकड़ा मिला है। यह पाँच करोड़ वर्ष से भी अधिक पुराना आँका गया है। यह इतना पुराना है कि उस समय मनुष्य का अस्तित्व भी नहीं बन पाया था।

दक्षिण अमेरिका में एण्डीज पर्वत माला के अंचल में एक झील है रिरिकजि। इसके तट पर अत्यन्त प्राचीन सूर्य मन्दिर मिला है। उसमें एक ऐसी वेधशाला मिली है जो तत्कालीन काल गणना का परिचय देती है। इनमें 290 दिन का वर्ष और 24-24 दिन के महीनों के हिसाब से सारा गणित किया हुआ है। इसी क्षेत्र में लम्बी दूरी तक मीलों तक बिखरी हुई ज्यामिती रेखाएँ खुदी हुई पाई गई हैं। आश्चर्य यह है कि यह खुदाई करके चमकदार पत्थरों से भरी गई हैं। इन्हें चाँदनी रात में हवाई जहाज से भली प्रकार चमकता देखा जा सकता है।

यह कृतियाँ ऐसी हैं जिससे उस समय की सभ्यता तथा दक्षता का पता चलता है जबकि जीव विज्ञानियों के अनुसार मनुष्य नंगा फिरता था और मात्र पत्थरों के उपकरण काम में लाता था। ऐसी दशा में यह निर्माण किनने किये? इतनी जानकारी और साधन सामग्री कहां से आई? इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए किन्हीं अन्य लोकवासियों की कृति या सहायता की संगति बिठानी पड़ती है।

सभी देशों में पाये जाने वाली विभिन्न पुराण गाथाओं में अन्य लोकवासियों के साथ पृथ्वी वालों के चलते रहे सम्बन्ध सूत्रों का वर्णन है। इनके पीछे कुछ आधार होने की बात भी सर्वथा उपहासास्पद नहीं समझी जानी चाहिए। अभी भी उस स्तर के प्रमाण पुरातत्व वेत्ताओं को मिल रहे हैं जिसमें उन पदार्थों को इतर लोक वाली कोई अनुकृति कह कर झुठलाया नहीं जा सकता।

“इन्टेलिजेंट लाइफ इन दि युनिवर्स” ग्रन्थ में बेबोलीन क्षेत्र के भूतकालीन इतिहास के साथ जुड़े हुए अध्यायों पर सुविस्तृत प्रकाश डाला गया है और तथ्यों के साथ यह प्रामाणित किया गया है कि सुमेर तथा अक्कद देशवासियों की कला, संस्कृति तथा वैज्ञानिक क्षमता बहुत आगे बढ़ी-चढ़ी थी। यह सब उन दिनों की बात है जिसे मानवी विकास का पिछड़ा अध्याय कहा जाता है। उन पिछड़ी परिस्थितियों में आज की प्रगति से भी ऊँची स्थिति पर होना यह बताता है कि विकास क्रमिक गति से नहीं हुआ, वरन् या तो सनातन प्रवाह से बढ़ा या अनायास उछला है। जो हो, इस प्रगति प्रक्रिया में अन्य लोकवासियों का हाथ अवश्य रहा है।

अन्तरिक्ष में जीवन विषय पर लम्बी शोध करने वाले प्रो. जे. हाइन ने विश्वास पूर्वक कहा है- ‘अन्य लोकों में भी बुद्धिमान प्राणियों का निवास, उसके साथ साधने के लिए हम भूलोक निवासियों को विशेष रूप से प्रयत्न करने चाहिए।’

अब से 2500 वर्ष पूर्व जन्मे तत्कालीन महान तत्ववेत्ता ‘हेराल्कीट्स’ ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया था कि ब्रह्माण्ड के लोक-लोकान्तरों में न केवल समुन्नत स्तर के देव मानव रहते हैं वरन् वे धरती के साथ संपर्क साधने तथा सहयोग, आदान-प्रदान के लिए भी उत्सुक रहते हैं। इस प्रतिपादन के पक्ष में उन्होंने अनेकों तर्क और तथ्य भी प्रस्तुत किये थे। साथ ही वे यह भी कहते थे कि सत्य अनन्त है। मनुष्य उसमें से अपने विकास स्तर के अनुरूप एक सीमित भाग ही उपलब्ध कर पाता है। इसलिए जो इन दिनों देखा समझा जा रहा है उसी को सब कुछ नहीं मान बैठना चाहिए वरन् अविज्ञात की खोज के लिए प्रयत्नरत रहना चाहिए। वे देव मानवों के सम्बन्ध में भी यह तर्क प्रस्तुत करते थे। इस तथ्य के समर्थन में जो तथ्य मिलते हैं उन्हें आधार मानकर यदि चलते रहा जाय तो हम चैतन्य जगत की किसी सुविकसित बिरादरी के सदस्य बन सकते हैं।

हेराल्कीट्स के प्रतिपादनों से प्रभावित कितने ही मनीषियों ने इस संदर्भ में अपने प्रस्तुतीकरण किये हैं। उनने इस शृंखला को और भी आगे बढ़ाया है और विज्ञजनों में यह आशा विश्वास उत्पन्न किया है कि वे इस क्षेत्र का महत्व समझें और अनुसंधान में शिथिलता न आने दें। ऐसे विद्वानों में क्रेम अमलेण्ड, एण्ड्र थामस, हरमन कान, एल, दियोन, लेविस, रिचर्ड, यंग, एरिक वान, डानिकेन आदि की गणना अग्रणियों में की जाती है।

महान वैज्ञानिकों में से कुछ के विचार इस संदर्भ में बहुत विचारणीय हैं। आइन्स्टीन ने एक भेंट वार्ता में प्रो. चार्ल्स हैप गुड़ से कहा था कि अन्य लोकवासियों के सम्बन्ध में समुचित प्रमाण एकत्रित किये बिना सार्वजनिक प्रतिपादन करना तो ठीक न होगा किन्तु मैं व्यक्तिगत रूप से यह विश्वास करता हूँ कि प्रागैतिहासिक अवधि में अन्य लोकवासियों का आवागमन हमारी धरती पर रहा है।

अमेरिकी वैज्ञानिक चार्ल्सफोर्ट ने अपने ग्रन्थ ‘दि बुक ऑफ दि डैम्ड” में लिखा है कि मनुष्य के वास्तविक पूर्वज अन्तरिक्षवासी उच्च सभ्यता निभाते रहे हैं। प्रो. हरमैन हरवर्थ, जिन्हें रॉकेट सिद्धान्तों का जनक माना है, ने कहा था- भूतकाल में पृथ्वी पर अन्य लोकवासियों के आवागमन का सिद्धान्त मुझे असत्य नहीं लगता।

‘स्टेंजर्स फ्रॉम दि इकाई’ ग्रन्थ के लेखक विज्ञानी ब्रेड स्टेयर ने इन दिनों धरती पर उतरने वाली उड़नतश्तरियों की विवेचना करते हुए कहा है- ये उन्हीं लोगों का परिचय देती हैं जिनने भूतकाल में मानवी अस्तित्व उसके विकास को समर्थ बनाने में योगदान दिया होगा। वे धरतीवासी नहीं वरन् अन्य लोक से आते हैं, बुद्धि की दृष्टि से समर्थ प्रतिभावान हैं जीवशास्त्री टी. ऐन्डरसन ने अपने ग्रन्थ “ए बायोलॉजिस्ट लुक्स एवं यू. एफ. ओ.” में उड़नतश्तरियों को दृष्टि भ्रम नहीं माना और उन्हें किसी बुद्धिमत्ता भरे प्रयासों का अंग कहा है। वे कहते हैं- उन विकसित लोगों की नस्ल इस पृथ्वी पर भी उत्पन्न हो सकती है। सम्भव है, वे “मैक्रोमॉलिक्युल्स” अणुओं को किसी विशेष विधि से निषेचित करके धरती पर भी देव मानवों की एक समुन्नत बिरादरी उत्पन्न कर सकें।

अमेरिका के एक अन्तरिक्ष ज्ञाता ट्रेवर जेम्स ने अदृश्य आकाश की परिस्थितियों के इन्फ्रारेड फिल्म उतारे हैं। उनमें अन्य जानकारियों के अतिरिक्त आकाशगामी ऐसे प्राणियों के भी चित्र हैं जिन्हें सामान्य आँखों से नहीं देखा जा सकता। ये विचित्र प्राणी रचना में भिन्न प्रतीत होते हैं।

उड़न तश्तरियों के पृथ्वी पर अन्तरिक्ष से उतरते रहने की चर्चा बहुत दिनों से सुनने को मिलती रहती है। अब इससे भिन्न प्रकार के दृश्य भी सामने आने लगे हैं। बिजली एवं आग के सम्मिश्रण से बने गोले धरती पर गिरते और प्राणियों तथा पदार्थों को चोट पहुंचाते देखे गये हैं। ऐसी कितनी ही घटनाएँ नोट की गई हैं। हिन्द महासागर में एक जलयान ‘आइलिस’ को इस शताब्दी में ऐसे ही एक भयानक गोले का सामना करना पड़ा। सौभाग्य से ही वह उस आक्रमण से उबर सका।

सन् 1963 में अमेरिका में का एक जेट विमान जार्जिया के आकाश में ऐसे ही एक प्रहार में जलकर नष्ट हो गया। पायलट सिर्फ इतना ही सन्देह दे सका- “जो आक्रमण हुआ है उससे अब किसी के बचने की सम्भावना नहीं है।” स्पष्ट है कि वहाँ न कोई मानवी शत्र का आक्रमण ही सम्भव था और न अग्निकाण्ड जैसी कोई घटना ही घटित हुई। आकाश से किसी विद्युत पिण्ड के गिरने की ही सम्भवतः यह घटना थी।

प्यूर्टोरिको जाने वाले एक विमान पर भी ऐसा ही आकाशी आक्रमण हुआ और देखते-देखते नष्ट हो गया। चीनी समुद्र के ऊपर उड़ता हुआ एक वायुयान भी उसी प्रकार नष्ट हुआ था। उसमें सवार सभी यात्री मारे गये थे।

1953 में दक्षिण जार्जिया के आकाश में ऐसा ही एक अग्नि पिण्ड दौड़ता हुआ पाया गया। अमेरिकी वायु सेना के एफ. 89 लड़ाकू विमान ने लगातार उसका एक घण्टे तक पीछा किया, बाद में लुप्त हो जाने के कारण उसे वापस लौटना पड़ा।

इस प्रकार की छोटी बड़ी अनेकों घटनाएँ, आकाश से अग्निबाण टूटने की तरह, समय-समय पर सामने आती रही हैं। इनके सम्बन्ध में दो अनुमान लगाये जाते रहे हैं कि यह किसी टूटी हुई उल्का के अधजले टुकड़े हो सकते हैं या फिर कोई सौर ऊर्जा से सम्बन्धित भँवर प्रवाह हो सकते हैं। किन्तु इन दोनों ही कारणों की पुष्टि कर सकने वाले कोई प्रमाण कहीं उपलब्ध नहीं हुए, जिनसे इन सम्भावनाओं की पुष्टि हो सके। अस्तु आशंका यही की जाती रही है कि यह किसी अन्य लोक से आया हुआ कोई भला या बुरा उपकरण ही हो सकता है।

वेस्वे प्राइज ने अपनी ‘भूतों की दुनिया’ पुस्तक में इस प्रकार के कितने ही उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनसे अदृश्य प्राणियों के आकाश में विचरण करने की मान्यता पुष्ट होती है।

धरती पर अन्य लोकवासी आते रहे हैं, यह बहुचर्चित विषय है। इसके साथ ही एक और सम्भावना व्यक्त की जाती है कि मनुष्य लोकवासियों को अन्य लोकवासी किसी जाँच पड़ताल के लिए पकड़ तो नहीं ले जाते। कई व्यक्तियों के अचानक गायब हो जाने और कुछ समय बाद अन्यत्र प्रकट होने की घटनाएँ ऐसी हैं जिन्हें सहज बुद्धि से अविश्वस्त ठहराया जा सकता है, पर गहरी जाँच पड़ताल करने पर उपलब्ध विवरणों से यह पता भी चलता है कि ऐसे विवरणों में तथ्य और प्रमाण भी ऐसे पाये गये हैं जिन्हें सहज ही उपहासास्पद भी नहीं ठहराया जा सकता।

लियोनार्ड अपने घर वैथम वेलवर्थ से गायब होकर किसी सुदूर वन प्रदेश में प्रकट हुआ। अगाथा क्रिस्टी के सम्बन्ध में 1926 की प्रख्यात रिपोर्ट है कि वे गुम हुईं और स्मृति गँवाकर कई वर्ष बाद प्रकट हुईं। कारलोस ने आप बीती सुनाते हुए कहा- ‘उसे कोई हवा में उड़ा ले गया और फिर बहुत दिन बाद अन्यत्र पटका। इस बीच वह कहाँ रहा और क्या करता रहा, इसका कुछ भी स्मरण नहीं है, लन्दन के ‘डेली मिरर’ में एक टैक्सी चालक का समाचार छपा था कि वह अपने कपड़े गाड़ी में छोड़कर देखते-देखते गायब हो गया।

निकोलाई रौकिक ने अपनी हिमालय यात्रा विवरण में तिब्बती लामाओं का ऐसा विवरण छापा है जिसमें उन्हें आकाश गमन और अदृश्य होने की सिद्धियों से सम्पन्न बताया गया।

इन तथ्यों के आधार पर यह मान्यता अधिकाधिक परिपुष्ट होती है कि मनुष्य देवलोक का अनुदान है और देवता उसके साथ सम्बन्ध बनाये रहने का भूतकाल में समुचित प्रयत्न करते रहे हैं और अब भी उनके वे प्रयास चल ही रहे हैं।

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