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Magazine - Year 1985 - Version 2

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महानता की कसौटी

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हर वस्तु का व्यक्ति का मूल्याँकन उसके गुणों से किया जाता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं, जिसके आधार पर उसे घटिया या बढ़िया माना जा सके। आँखों से छवि देखकर किसी का महत्व समझा नहीं जा सकता। खिलौने भी असली जैसे ही बनने लगे हैं या बनाये जा सके हैं। देवताओं और महापुरुषों की प्रतिमाएं दुकानों पर बिकती हैं और मुट्ठी भर पैसों के बदले खरीदी जा सकती हैं। पर उनसे सिवाय मन बहलाने के और कुछ काम बनता नहीं। अच्छी दुधारू गाय दो हजार से कम में नहीं मिलती। पर खिलौने वाले उसे आभूषण, झूल पहनाकर- बछड़े समेत एक रुपये में ही बेच देते हैं। दो हजार वाली को घास, पानी, निवास की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। पर एक रुपये वाली को ऐसा कुछ भी नहीं चाहिए। जिस आले में रख दी उसी में चुपचाप रखी रहती है। इतना सब कुछ होते हुए भी कमी एक ही रहती है कि वह दूध एक बूँद भी नहीं देती। यदि दूध देती और घास पानी की माँग न करती तो एक रुपया तो क्या कोई उसे एक लाख की भी खरीद सकता था। पर बात वहाँ अड़ती है जहाँ उसके द्वारा कितना दूध दिये जाने का प्रश्न सामने आता है। इसका पता जाँच करने दुहने से ही चलता है। आजकल किसी के कहने का विश्वास करने का भी जमाना नहीं रहा। इसलिए परीक्षा ही हर जगह काम में आती है। इसके बिना गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती।

परीक्षा हर किसी को बुरी लगती है। फेल होने का डर हर शिक्षार्थी पर छाया रहता है। दिन-रात पढ़ाने ट्यूशन लगाने से लेकर मनौती मनाने तक के जो भी उपाय बन पड़ते हैं वह इसलिए किये जाते हैं कि फेल होने पर जो हानि तथा बदनामी होती है उससे पाला न पड़े। परीक्षा से सभी डरते हैं, पर उससे बचने का कोई उपाय है नहीं, बिना योग्यता सिद्ध किये। पात्रता कैसे प्रमाणित हो और उसके अभाव में कोई श्रेय सम्मान किसे, कैसे, कहाँ मिले?

मिट्टी की हाँडी खरीदते समय भी उसे ठोक बजाते हैं फिर जिसे कीमती समझा जाता है उसे कौन स्वीकारेगा। बाजार में नकली आभूषणों की भरमार है। काँच के टुकड़ों में रत्न जैसी पालिश करने और पीतल को सोने जैसा चमका देने की कला अब हर किसी को आती है यदि कसौटी या अँगीठी के पास उनको न ले जाया जाय तो कैसे पता चले कि वह आभूषण दो रुपये का है या दो हजार का?

मनुष्यों के स्तर के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसे जिस का काम के लिए प्रयुक्त किया जाता है उसके लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था की जाती है, पर काम इतने से भी नहीं चलता। पढ़ना या पढ़ाना- सीखना या सिखाना ठीक तरह हुआ कि नहीं इसकी जाँच-पड़ताल आवश्यक है। इसके बिना किसी निश्चय पर पहुँचना कठिन है और उस असमंजस की स्थिति में किसी को श्रेय मिलने या देने की बात बनती ही नहीं, इसलिए परीक्षा कितनी ही डरावनी क्यों न हो, उसके बिना काम चलता ही नहीं। उसे टाला नहीं जा सकता।

संसार के प्रत्येक प्रयोजन में परीक्षा को एक अनिवार्य आवश्यकता माना गया है। मनुष्य की योग्यताऐं तो विभिन्न परीक्षा माध्यमों से परखी ही जाती है। उससे भी बड़ी बात है प्रमाणिकता की। आदर्शवादिता ही वह कसौटी है जिसके आधार पर मनुष्य का वास्तविक मूल्याँकन होता है। इस प्रयोजन की पूर्ति चतुरता से नहीं होती। चतुर जनों की कहीं कोई कमी नहीं। वे हर जगह पर्याप्त मात्रा में भरे पड़े हैं। यों होते तो मूर्ख भी हैं। पर वे भी अपनी समझ के अनुसार चतुरता बरते बिना मानते नहीं। भले ही बात हाथों-हाथ खुल जाय।

चतुरता अर्थात्- चालाकी। इसे व्यवसाय से लेकर व्यवहार तक में हर जगह काम में लाया जाता है। इस प्रयास को नंगे शब्दों में कहा जाय तो बेईमानी या बदमाशी भी कहा जा सकता है। इस कला में प्रवीण पारंगतों की हर जगह भरमार है। किन्तु साथ ही यह बात भी है कि अपना बस चलने तक उससे बचने की ही लोग चेष्टा करते हैं। समझ काम न करे तो ही जाल में फँसते हैं।

आवश्यकता तो योग्यता की भी पड़ती है और व्यवसाय प्रयोजनों में प्रायः उसी को प्रधानता दी जाती है किन्तु जहाँ तक महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदारी के कार्यों का सवाल है, वहाँ मात्र योग्यता ही नहीं मनुष्य की आदर्शवादिता भी परखी जाती है। व्यभिचारी भी अपनी पत्नी को दूसरे व्यभिचारी के साथ नहीं घूमने देता। शराबी भी अपनी बेटी को शराबी के हाथों नहीं ब्याहता। चोरी का कारोबार करने वाला भी घर के नौकरों का चोर होना बर्दाश्त नहीं करता। कारण ताकि अप्रमाणिक व्यक्ति जहाँ भी दाव लगाता है वहीं अपनी बात चलाते हैं। इस खतरे को जान बूझकर कौन बर्दाश्त करेगा? इसलिए महत्वपूर्ण कार्यों में योग्यता से भी अधिक प्रमाणिकता को महत्व दिया जाता है।

स्थिर प्रमाणिकता की परीक्षा मामूली व्यवहार देखकर नहीं जानी जा सकती। चतुर लोग थोड़े पैसे का या छोटे काम का प्रसंग हो, वहाँ ईमानदारी का परिचय देने की चतुरता बरतते हैं। ताकि विश्वास पैदा करने के उपरान्त कोई बड़ी घात चलाई जा सके। इसलिए जहाँ तक व्यक्ति की वास्तविक प्रामाणिकता परखने का सवाल है वहाँ एक ही पहचान है कि व्यक्ति ने जीवन में कितनी बार किस स्तर का कष्ट आदर्शों की रक्षा के लिए उठाया।

कसौटी या अँगीठी से दूर रहने वाले सोने का असली होने पर कैसे विश्वास किया जाय? जिसके जीवन में आदर्शों में खरा उतरने के लिए कष्ट उठाने का अवसर नहीं आया, जिसने अनुचित प्रलोभन या दबाव के सामने झुकने में इनकार नहीं किया, उसकी वास्तविकता के सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे अवसरों का इतिहास ही किसी के खरेपन का चिन्ह है।

किसी के पैसे सम्बन्धी ईमानदारी की मोटी पहचान यह है कि उसका खर्च बढ़ा चढ़ा तो नहीं है। फैशन के नाम पर, बड़प्पन के नाम पर, आवारागर्दी या शौक-मौज में जो आंखें मूँदकर पैसा खर्च करता है उसके लिए ईमानदारी की सीमित कमाई निश्चय ही कम पड़ेगी और वह जहाँ भी छेद पायेगा वहाँ उँगली डालने की कोशिश करेगा। ऐसे व्यक्ति अनुचित कमाई पर आश्रित रहते हैं। उनकी यह फिजूल खर्ची देखकर हर समझदार आदमी उनके साथ अर्थ व्यवहार करने में संकोच करेगा

एक कम्पनी में एकाउंटेण्ट की जरूरत थी। वेतन 500) था। कई व्यक्ति अर्जी लेकर इण्टरव्यू के लिए आये। मैनेजर ने योग्यता के आधार पर जिसे पसन्द किया उसे लेकर स्वीकृत के लिए मालिक के पास ले गया। मालिक ने सिर से पैर तक उस पर एक नजर डाली और नियुक्ति से इनकार कर दिया। बात टल गई।

बाद में मैनेजर ने कारण पूछा तो मालिक ने कहा- “इसके सूट की सिलाई ही 500 लगी होगी। इतने ठाट-बाट वाला हमारे यहाँ सीमित वेतन पर ईमानदार कैसे रह सकेगा। “आते ही अतिरिक्त आमदनी का कोई उपाय खोजेगा”। मैनेजर का समाधान हो गया। बाद में सादगी को, रहन-सहन को भी एक योग्यता में सम्मिलित किया गया और दूसरी नियुक्ति इसी आधार पर की गई। यद्यपि उस दूसरे आदमी की योग्यता कम थी।

बहुत ठाट-बाट से रहने वाली आम महिलाओं के चाल चलन पर सन्देह किया जाता है। उनकी मनचली मनोवृत्ति को घटिया चरित्र का परिचायक माना जाता है। इसी प्रकार मर्दों के लड़कों के सम्बन्ध में भी सोचा जाता है। शृंगारिकता आदमी के बड़प्पन की नहीं बचकानेपन की निशानी है। जो अपने पैसे को इस प्रकार उड़ाता है उसका दाव लगेगा तो दूसरे के पैसे को क्यों बख्शेगा?

महापुरुषों को अनेक बार संघर्ष करने पड़े हैं और आघात खाने पड़े हैं। अनीति से समझौता उनने नहीं किया, सिद्धान्त पर डटे रहे। प्रतिपक्षियों ने उन्हें सताने में कमी नहीं रहने दी। कई सुनहरे मौके हाथ से छोड़ने पड़े। इस कठिनाई को देखकर कोई यह भी कह सकता है कि सिद्धान्तवाद से क्या लाभ? उसे जो अपनायेगा उसे कष्ट हो कष्ट झेलने पड़ेंगे। बात किसी हद तक सही भी है। आमतौर से ऐसा ही घटित होता रहता है।

जिनने शराब, सिगरेट, पान, सिनेमा, आदि के अनावश्यक खर्च बढ़ा रखे हैं। वे अपने स्वास्थ्य और परिवार के साथ अत्याचार करने वाले ही माने जा सकते हैं। आदत सो आदत। जो अपने पैसे की-अपने परिवार की परवा नहीं करता। वह दूसरे किसी और की भी करेगा। अथवा उचित अनुचित का अन्तर करने के झंझट में पड़ेगा। इस सम्बन्ध में कैसे विश्वास किया जा सकता। सज्जनों में से हर एक को मितव्ययी बनना पड़ा है और सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्त को कड़ाई के साथ अपने तथा अपनों के साथ कार्यान्वित करना पड़ा है। इसमें उन्हें किसी मण्डली के सामने उपहासास्पद बनना पड़ा हो, तो उसे सहन करते हुए यह मानना चाहिए। कि अपने व्यक्तित्व के खरेपन की परीक्षा में होकर गुजरना पड़ा है।

इन दिनों लोक प्रचलन जैसा है उसे नीति और सदाचार की दृष्टि से बहुत ही गया गुजरा मानना चाहिए। बहुमत ऐसा ही है। लोगों का चिन्तन, रहन-सहन क्रिया-कलाप ऐसा है जिनमें अनीति उपार्जन, दुर्व्यसनों में अपव्यय तथा कुरीतियों का अन्धानुकरण स्वाभाविक है। जो सबके साथ चलेगा उसे अनिवार्यतः यही रीति-नीति अपनानी पड़ेगी। जिसे यह सहायता नहीं, आदर्शों का ध्यान है उसे अपनी गतिविधियां अलग से बनानी होंगी और वे सभी ऐसी होंगी जिनके कारण, पग-पग पर व्यंग, उपहास, तिरस्कार, विरोध सहना पड़ेगा और यदि अपनी गम्भीरता तथा सहिष्णुता उच्च कोटि की न हुई तो झगड़ा झंझट भी हो सकता है।

आदर्शवादी के सम्बन्ध में साधारण लोगों को एक भय रहता है कि समय आने पर यह हमारी पोल खोलेगा, निन्दा चुगली करेगा और झंझट खड़ा करेगा। अपने मन में चाहे वैसी बात न हो। भले ही उपेक्षा की नीति अपनाली हो, पर किसी को विश्वास दिलाना कठिन है। चोर की दाढ़ी में तिनका रहता है। सज्जनों और दुर्जनों में जो विरोध संघर्ष चिरकाल से बना रहा है उसका कारण एक ही है कि दुष्टता को यह भय रहता है कि सज्जन हमारे लिए कोई आफत पैदा न करें, इसलिए उन्हें रास्ते का रोड़ा-कंटक-समझकर- हटाने का ही प्रयत्न करते रहे हैं। स्पष्ट है कि आक्रमण में पहल करने वाला तात्कालिक नफे में रहता है। पीछे भले ही उसे अपनी करनी का फल पूरी तरह भुगतना क्यों न पड़े?

परोपकार के सेवा कार्यों ने लगने वाले को अपना समय, श्रम और पैसा किसी न किसी मात्रा में लगाना पड़ता है। इसका प्रतिफल तंगी से रहना और तथाकथित स्वजनों का विरोध और मित्रों का उपहार भी सहना पड़ता है। अनीति के साथ झगड़ने में आततायियों की असुरता अपनी शक्ति के अनुसार त्रास भी पहुँचाती ही रहती है। उसे धैर्य और साहसपूर्वक सहते हुए अपने निर्णय पर चट्टान की तरह अड़े रहना साधारण काम नहीं है। उस विपन्नता से जूझते रहना शूर और साहसियों का ही काम है।

यही हैं, वे परीक्षाएँ जिनमें होकर हर आदर्शवादी को एक नहीं तो दूसरी तरह गुजरना पड़ता है। जो देर तक गर्मी न सह सका और कच्ची मिट्टी के बने बर्तन की तरह पकने से पूर्व ही फूट गया उसकी बात अलग है तथा उलटी चलने वाली दुनिया से यदि अपने साथ ही उलटा व्यवहार हुआ है तो उसे साधारण स्वाभाविक ही मानना चाहिए। अपने मनोबल को तनिक भी शिथिल न होने देना चाहिए।

यही हैं वे कसौटियाँ जो व्यक्ति की आदर्शवादी प्रामाणिकता को खरा सिद्ध करती हैं और ऐसे खरे व्यक्ति ही स्वयं धन्य अपने संपर्क क्षेत्र को धन्य बनाते हैं।

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