
कुशल मांझी भवसागर को सहज पार करते हैं।
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संसार को भव सागर कहा गया है। इसका तरना मुश्किल है। जो तर नहीं पाते उन्हें विषय विकार रूपी मगरमच्छ नोंच खाते हैं और अस्थिर पिंजड़ा इतनी गहराई में डुबा देते हैं जिसका खोजने पर कहीं अता-पता भी न लगे।
वासना, तृष्णा और अहंता ही गाह्य है वे धूप अथवा चांदनी में मोहक खिलौने जैसे लगते हैं। प्रतीत होता है कि खेलने-खिलाने के लिए मित्र जैसा कुछ करने समीप आते हैं। मनुष्य बचता भागता नहीं वरन् उनके प्रत्यक्ष आकर्षण पर विमोहित होकर उनकी समीपता के लिए दौड़कर पहुँचता है। पर उनका प्रतिफल नितान्त भयंकर ही होता है। सारी शक्तियाँ इन्हीं के निमित्त बलि हो जाती हैं। भोगों को स्वयं नहीं भोगता वरन् भोगों द्वारा स्वयं की भोग लिया जाता है। लालच में बहुत कमाने का जो प्रयत्न किया जाता है वह दुर्व्यसन बढ़ाता है और दूसरों के काम आकर मुफ्तखोरी का अभिशाप लादा जाता है। यह है तृष्णा की परिणति। वासना का मौज मजा लूटने के लिए मनुष्य उस कुत्ते का उदाहरण बनता है जिससे सूखी हड्डी चबाते-चबाते अपना जबड़ा छील लिया था और उस रक्त को सूखी हड्डी से टपकता अनुभव करता था। जबड़ा पूरी तरह छिल जाने पर सूजे हुए मुँह की व्यथा को देखकर यह अनुमान लगाता था कि भूल हुई। अपनी असाधारण क्षति को कहीं बहार से मिलने वाला स्वाद समझता रहा। विषय भोगों की यही परिणति है। जिव्हा, जननेन्द्रिय, नेत्र आदि से जो सरसता अनुभव की जाती है। वह वस्तुतः अपनी जीवनी शक्ति को फुलझड़ी की तरह जलाने की बाल क्रीड़ा भर होती है।
अहंता का प्रदर्शन वेश विन्यास में, ठाट-बाट में, निर्बलों के उत्पीड़न में आमतौर से किया जाता है। विज्ञजनों की दृष्टि से यह खर्चीली उच्छृंखलता है। इससे मान बढ़ता नहीं, उलटे बचकानेपन का- मनचलेपन का दोष लगता है।
प्रिय लगते हुए भी परिणाम में अत्यन्त कष्टदायक वासना, तृष्णा और अहन्ता का यह त्रिगुण मनुष्य की बोटी-बोटी नोंच लेता है। परिणति में रोग शोक, आत्म प्रताड़ना और लोभ भर्त्सना के विषफल अनिच्छापूर्वक खाने पड़ते हैं। कुमार्गगामी को ईश्वर की अप्रसन्नता सहनी पड़ती है और दैवी अनुग्रह अनुदान से वंचित रहना पड़ता है।
सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन बिता देने के उपरांत चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के लिए बाधित होना पड़ता है। औसत एक वर्ष में एक योनि में रहने का लगाया जाए तो 84 लाख वर्ष लम्बे होते हैं कि उस अवधि को मानवी अस्थि पंजर रसातल को चला जाने जितना कहा जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
मनुष्य जीवन अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचा देने और विश्व उद्यान को सुरम्य सुविकसित बनाने के लिए मिला है। उसे व्यर्थ की खिलवाड़ों में गंवा देने से बढ़कर दूसरी मूर्खता और नहीं हो सकती। आमतौर से लोग इस दुर्भाग्य एवं अभिशाप की वैतरणी में तैरने उबरने में जीवन सम्पदा गवाँ बैठते हैं।
जिन्हें पार होना है उन्हें दूसरा रास्ता अपनाना पड़ता है। इन्हें शरीर को नौका और मन को माँझी बनाना पड़ता है। जैसे शरीर सत्कर्मों में संलग्न है। जो असंयम के छिद्रों को मजबूती से बन्द किये रहता है उसकी नौका डूबती नहीं। डूबती तो तब है जब भार अत्यधिक लदा हो, भार का संतुलन सही न हो। पेंदे में छिद्र होने पर पानी भरने लगे। इन सभी बातों से जो अपने प्रत्यक्ष जीवन को- शारीरिक कर्म विधान को सम्भाले रहता है। जीवनक्रम संयम और सदाचार के साथ बिताता है उसकी नाव धोखा नहीं देती। इसके उपरान्त तो मांझी की कुशलता का प्रश्न रह जाता है। हवा के रुख के अनुरूप पतवार बांधता, दिशा और गति सही रखना एवं चम्पू बल्लियां इस प्रकार चलाते रहना जिससे दिशा और गति का संतुलन पतवार के अनुकूल बना रहे। ऐसे नाविक मझधार में अधिक तेज प्रवाह होने पर भी घबराते नहीं, मात्र अपनी सतर्कता बढ़ा देते हैं। बीच-बीच में भँवर पड़ते हैं और कहीं-कहीं ऊँचे चट्टान पड़ते रहते हैं। वे कहाँ हो सकते हैं माँझी अपनी लम्बी दृष्टि फेंककर पहले से ही अनुमान लगा लेता है और संकट के क्षेत्र से नाव को बचा कर इस प्रकार पार ले जाता है कि किसी संकट में न फँसना पड़े।
संसार सागर की सैर करने हमें भगवान ने भेजा है। रास्ते की सभी आवश्यकताओं से भरी-पूरी मजबूत नौका हमें प्रदान की है। हमारा शरीर ऐसा है जो संयमपूर्वक सँजोकर रखा जाय तो इसमें टूट-फूट होने का कोई कारण नहीं है। मन रूपी माँझी इतना सुयोग्य है कि वह यदि अपने लक्ष्य से ध्यान हटाकर चित्र-विचित्र दृश्यों के कौतुक-कौतूहल में न भरमाये तो इस सुदृढ़ नौका को सहज ही निर्धारित अवधि में लक्ष्य तक पहुँचा सकने में सफल हो सके।
माँझी का स्वयं पार होना और नाव को यथा-स्थान ले पहुँचना तो सरल है ही। इसके अतिरिक्त वह अनेकों को इस पार से उस पार पहुँचाता रहता है। अनेक जो कार्य स्वयं नहीं कर सकते उन्हें सहारा देकर स्वयं परिचय करा देता है। इसमें उसे कृतज्ञता प्रशंसा का लाभ तो मिलता ही है कई ऐसा उपहार भी दे जाते हैं जिससे उसका निर्वाह भी होता रहे और परिवार का भरण-पोषण भी चलता रहे।
यह समुद्र किसी के लिए खारी खारी और गरजते ज्वार भाटों से भरा-पूरा जहा है। जहा चट्टानों वाला ऐसा भी है कि नाव को डुबा दे और नाविक को जोखिम में धकेल दे। किसी के लिए ऐसा भी है कि लहरों के- सूर्योदय के फेनिल लहरों जैसे दृश्य दिखाये और प्रबल जैसी मूल्यवान वस्तु भरकर साथ लाये। जिन नाविकों को गोता खोरी भी आती है और मोती निकालने के क्षेत्र का ज्ञान है वे किसी साथी को नाव साधकर स्वयं नीचे गहराई में उतर जाते हैं और वहाँ से बहुमूल्य मोतियों से झोला भर कर वापस लौटते हैं। ऐसे साथी सहयोगी और मार्गदर्शक को ‘सद्गुरु’ कहते हैं। वह शिष्य के थकने या भटकने पर नाव को स्वयं खेने लगता है। जिसका मार्ग देखा हुआ है वह लाभदायक बिना जोखिम के क्षेत्रों में होकर नाव ले चलता है। उसके साथ रहते नौसिखिये माँझी को सब प्रकार की निश्चिन्तता रहती है।
जीवन रूपी समुद्र-यात्रा जोखिम भरी भी है और आनन्ददायक भी। अनाड़ी लोग इसके रहते हुए भी जोखिम उठाते और पश्चात्ताप करते हैं। नाव किनारे पर बाँधकर ऐसे ही पानी में भीतर घुस पड़ा जाय तो मगरमच्छों का ग्रास बनने में संदेह नहीं। किंतु जो नाव को सम्भाले रहते हैं उन्हें उसमें पहले से ही रखी हुई सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। मनोरम दृश्य देखते हैं और जिस लाभ को प्राप्त करने के लिए यह सरंजाम जुटाया गया है। उसे अनाड़ी तो हर बहुमूल्य वस्तु या अवसर को अपनी अदूरदर्शिता के कारण अस्त-व्यस्त नष्ट भ्रष्टकर सकते हैं।
संसार अनाड़ियों के लिए दुसह भवसागर है और बुद्धिमानों के लिए बहुमूल्य रत्न-राशि से भरा-पूरा लक्ष्मी का कोष भण्डार भी। अनाड़ी मगरमच्छों के ग्राह बनते और नाव को जर्जर बनाकर इतनी गहरी डुबा देते हैं कि फिर उसका कभी पता भी न चले। इसके विपरीत दूरदर्शी इस नाम द्वारा उसे सर्वसाधन सम्पन्न स्वर्ग जैसे द्वीप में जा पहुँचाते हैं जहाँ केवल आनन्द ही आनन्द है।