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Magazine - Year 1985 - Version 2

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उस बीज की सार्थकता है जो उगे और वृक्ष बनकर फूलों, फलों से लदे। उसका गलना निरर्थक नहीं जाता। वरन् अपने जैसे हजारों बीज हर साल उत्पन्न करता है। इसी को वंश-वृद्धि कहते हैं। महामानव भी बीज की तरह गलते हैं और अपने छोटे से आकार को इतना विशाल बना देते हैं जिसकी शीतल छाया में अनेकों को विश्राम मिले और पक्षी घोंसले बनाकर आनन्दपूर्वक अपने परिवार समेत निर्वाह करें।

पू. गुरुदेव एक समर्थ बीज हैं। उनके गलने की सार्थकता इन्हीं दिनों परखी जा रही है। वे एक से अनेक हुए या नहीं, उनका वंश डूबा या चन्दन उद्यान की तरह अपने पौध से समूचे मलयागिरी को सुवासित करने में सफल हुआ या नहीं। राम के लव-कुश ने पिता की कीर्ति ध्वजा फहराई थी। कुंती के पांच पुत्र अपनी तथा साथ ही अपनी माता की भी यशोगाथा अजर-अमर बनाकर छोड़ गए। अपनी आकांक्षा भी ऐसी ही है। हम दोनों की अभिलाषा इन दिनों भी इसी स्तर की है। वह घटी नहीं वरन् बढ़ ही गई है।

पू. गुरुदेव अपने कर्त्तव्यों और संकल्पों के प्रति पूर्ण तथा जागरूक और प्रयत्नशील हैं। स्वयं प्रयत्न करने से लेकर अन्यान्य देवात्माओं के अनुदान हस्तगत करने में वे सफल होते रहे हैं। इन दिनों उनकी तत्परता और भी बढ़ गई है। उनका कोई संकल्प आज तक विफल नहीं हुआ, फिर अन्तिम संकल्प दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन का संकल्प अधूरा रहेगा, ऐसी आशंका किसी को भी नहीं करनी चाहिए। उनकी पीठ पर जो हाथ हैं, वे बड़े सबल हैं। इसी ढाल, तलवार के सहारे वे जो भी कदम उठाते हैं, उन्हें पूरा कर दिखाते हैं। दैवी सत्ता उन कार्यों की पूर्ति स्वयं करती और श्रेयाधिकारी अपने अनुचर को बनाती है।

यह पंक्तियां उनके संबंध में नहीं, वरन् परिजनों के संदर्भ में लिखी जा रहीं हैं। जिनमें जीवट है उन्हें उनका वंशधर बनना चाहिए और पिता की तुलना में पुत्र के अधिक समर्थ होने की उक्ति चरितार्थ करनी चाहिए। दशरथ की तुलना में उनकी संतान हर दृष्टि से वजनदार सिद्ध हुई।

हीरक जयंती के अवसर पर प्रत्येक जीवन्त प्रज्ञा पुत्र को अपने इसी अधिकार का दवा करना चाहिए और उसके लिए अपनी पात्रता सिद्ध करने की आत्मप्रेरणा से अनुप्राणित होना चाहिए। लक्ष्य स्पष्ट है। मार्ग प्रत्यक्ष हैं। पू. गुरुदेव को निर्देशन प्राप्त करना पड़ा, पर परिजनों को वैसी आवश्यकता नहीं है। वे बने हुए राजमार्ग पर चल सकते हैं, जिससे श्रेयाधिकारी बनने का, विभूतियां हस्तगत करने का सुयोग मिल सके। अपने वंशधरों की सर्वतोमुखी प्रगति की आशा करते हुए हम लोग यह उपेक्षा भी करते हैं कि वे अधिकार पाने के लिए कर्तव्य निबाहने का प्रयत्न भी करेंगे।

पू. गुरुदेव का जीवन उपासना, साधना और आराधना के त्रिविध अवलम्बनों के साथ आगे बढ़ा और ऊंचा उठा है। उसने इसी मूल्य पर परोक्ष दैवी अनुकम्पा और प्रत्यक्ष सम्पदा प्राप्त की है। अनुयायियों के लिए भी यही राजमार्ग है। वे आंधी, तिरछी मनुहार के सहारे विभूतिवान बनने की आशा न करें। आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के लिए इस राजमार्ग को छोड़कर कोई ‘‘शॉट कट’’ नहीं है। सीढ़ियों की उपेक्षा करके छत पर उछल कर नहीं चढ़ा जा सकता।

पू. गुरुदेव की उपासना जो भी चली हो, हमें उसकी नकल करने की अपेक्षा निर्देशन को पर्याप्त मानना चाहिए। यह आपत्तिकाल है। इसकी तीन माला गायत्री का जप, प्रातः कालीन सूर्य का ध्यान करते हुए नियमपूर्वक करते रहने से काम चल जायेगा, आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के अन्तरंग और बहिरंग को सुव्यवस्थित करने के लिए इतना बहुत है। दो नवरात्रियों में अनुष्ठान भर कर लिए जांय।

दस लाख परिजनों में से आठ लाख भी यदि तीन-तीन माला जप करें तो संकल्पित प्रज्ञा पुरश्चरण की पूर्ति होती रह सकती है, और उसके भागीदारों में से प्रत्येक को इस युग साधना का भागीदार बनने का गौरव मिल सकता है।

दूसरा चरण है- साधना। अर्थात् आत्मशोधन। इसके लिए लोभ, मोह और अहंकार के भव बंधनों को शिथिल करना होगा। यही तीन हैं जो महिषासुर भस्मासुर, और वृत्तासुर की तरह मनुष्य को ईश्वर की प्रदत्त दिव्य सम्पदाओं को निगलते रहते हैं। इन्हीं की खुमारी में मनुष्य लालची, संग्रही बनता है। दरिद्रता, व्यस्तता और उद्विग्नता से घिरा रहता है। यदि इन्हें सीमित, अनुबन्धित किया जा सके, “वसुधैव कुटुंबकम्” की भावना का रसास्वादन किया जा सके, सादगी, सज्जनता और विनम्रता को अपनाया जा सके तो फिर कोई ऐसा न रहेगा जो अपनी परिस्थिति के अनुरूप परमार्थ न कर सके। जहाँ प्रेम-परमार्थ होगा वहाँ स्वार्थ और पाप के पैर टिकना कठिन है।

हाजी हसन, सन्त राबिया को उपदेश दे रहे थे कि शैतान से घृणा करना चाहिए। सन्त राबिया ने कहा- “मेरे रोम-रोम में अल्लाह की मुहब्बत भर गई है। नफरत करने के लिए मेरे पास कुछ बचा ही नहीं।”

परमार्थ में हमारी जितनी तत्परता होगी उतनी ही पवित्रता और प्रखरता बढ़ती जायेगी। पू. गुरुदेव को आत्म संयम के लिए पाप, दोष निवारण के लिए अलग से कुछ भी निग्रह साधन नहीं करना पड़ा, वे अपनी उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को इतनी मजबूती से पकड़े रहे कि स्वार्थ और पाप की उन तक पहुँच ही न हो सकी, जिसे वे मारते, रोकते या भगाते। परिजनों को भी यही करना होगा। दोष-दुर्गुणों को हटाने की चेष्टा करने से वे और भी जोर देकर चढ़ेंगे। हमें उन्हें भूला देने के लिए उत्कृष्टता अपनाने का लक्ष्य इतनी तन्मयता और भावना पूर्वक अपनाना चाहिए कि दिमाग खाली रहने ही न पायें और उसमें शैतान का प्रवेश होने के लिए कोई अवसर ही न रहे। प्रकाश होने पर अन्धकार दूर होता है। लाठी लेकर उसे मारने से तमिस्रा से छुटकारा पाना कठिन है। पवित्र जीवन जीना हो, दोष-दुर्गुणों से पीछा छुड़ाना हो तो सत्प्रयोजनों में सच्चे मन और सुनिश्चित संकल्प के साथ जुट पड़ना चाहिए। आत्मशोधन की समस्या इस प्रकार सहज ही हल हो जायेगी। आराधना की दिशा में जितना अग्रसर हुआ जायेगा, आत्म शोधन की साधना उसी अनुपात से सहज ही सधती जाएगी।

आराधना- लोक सेवा इन दिनों क्या होनी चाहिए, इसकी जानकारी दूरदर्शी विवेकवानों को समय-समय पर कराई जाती रही है और कहा जाता रहा है कि दुर्मति ही दुर्गति का कारण है। चिन्तन का भटकाव ही असंख्य समस्याओं का मूल है। सड़े कीचड़ में से दुर्गन्धित कृमि कीट उपजते हैं और रक्त के विषाक्त होने पर अनेकानेक चर्म रोगों का उद्भव होता है। प्रज्ञा युग के अवतरण के लिए हमें घर-घर युग चेतना का अलख जगाना और जन-जन के मन-मन में युग संदेश का आलोक पहुँचाना है। युग समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए हम कुछ समय के लिए धर्मशाला, मन्दिर, कूप, तालाब, औषधालय, प्याऊ, सदावर्त आदि ख्याति प्रदान करने वाले निर्माणों से हाथ खींच सकते हैं, और सर्वप्रथम सर्वोत्तम एवं सामयिक प्रज्ञा प्रसार को अग्रगामी बनाने के लिए प्रयत्नरत हो सकते हैं। इसके लिए जैसे-जैसे लोभ, मोह के बन्धन शिथिल होते जाँय, समय एवं साधन दान को आज की परम आवश्यकता मानते हुए हर परिजन को युग धर्म के निर्वाह में जुट जाना चाहिए।

पतन निवारण की इस सेवा के निमित्त दो ही उपाय हैं- (1) स्वाध्याय (2) सत्संग। इन्हीं दो के सहारे सद्ज्ञान का विस्तार हो सकता है और युग तमिस्रा से छुटकारा मिल सकता है।

सर्वविदित है कि प्रज्ञा परिवार की संरचना, संगठन और सत्प्रवृत्तियों की युग चेतना “अखण्ड-ज्योति” के माध्यम से बन पड़ी है। यह पू. गुरुदेव की परावाणी है। उसमें लेख नहीं छपते, वरन युग पुरुष का चिन्तन और चरित्र का सार संक्षेप लिपिबद्ध होकर कागज के पन्नों पर चिपका होता है। इस तथ्य पर हमें विश्वास करना चाहिए कि प्रज्ञा परिवार के विस्तार और उसके प्रयासों की जो विश्व भर में चर्चा है उसका श्रेय यदि किसी एक को देने का मन हो तो निःसंकोच उसे ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ को दिया जा सकता है। हरिद्वार और मथुरा के संस्थान 2400 प्रज्ञा पीठें, 12 हजार प्रज्ञा संस्थान एवं दस लाख प्रज्ञा परिजन उसी के बेटे, पोते, परपोते हैं। अब इस कल्पवृक्ष की सिंचाई की अनिवार्य आवश्यकता पड़ रही है, अन्यथा जितना कुछ पिछले दिनों बन पड़ा उसी में विराम लग जायेगा।

सिंचाई से तात्पर्य है उसकी ग्राहक संख्या की अभिवृद्धि। हीरक जयन्ती वर्ष में प्रत्येक भावनाशील परिजन से आशा की गई है कि वह उसके न्यूनतम एक दो ग्राहक तो इन दिनों बना ही दें। अपने मित्र स्वजनों, परिचितों को इसका महत्व समझाकर और दबाव देकर इतना कार्य कोई भी कर सकता है। इस कार्य प्रयास को हीरक जयन्ती की प्रथम भावाभिव्यक्ति के रूप में गिना जाएगा।

इसके अतिरिक्त झोला पुस्तकालयों और ज्ञानरथों का चलाना है। जो एकाकी हैं वे झोला पुस्तकालय चलायें। नव लिखित फोल्डरों को निकटवर्ती दस व्यक्तियों को पढ़ाते रहने का संकल्प लें और निबाहें। नये फोल्डर और पुस्तकें मँगाते रहने के लिए कुछ मासिक बजट की व्यवस्था बनानी होगी। अन्यथा एक बार पढ़ा देने के बाद गाड़ी ठप्प हो जाएगी।

जहाँ छोटा, बड़ा संगठन है। प्रज्ञा परिवार की स्थापना प्रज्ञा संस्थान की योजना एवं प्रज्ञा पीठों की इमारत है, उन सबको यह समझना चाहिए कि जन-संपर्क साधने से ही जन समर्थन और जन सहयोग प्राप्त हो सकता है। इसलिए ज्ञानरथ से बढ़कर और सशक्त तरीका नहीं हो सकता। खादी प्रचार के लिए गाँधी जी देश के मूर्धन्य नेताओं को खादी की धकेल चलाने का निर्देश दिया था। उनके व्यक्तित्व के दबाव से खादी व्यापक और लोकप्रिय हो सकी। प्रज्ञा साहित्य का ज्ञानरथ चलाने के लिए प्रतिभाशाली लोगों को स्वयं चलाना चाहिए। यह कार्य नौकरों के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। जहाँ पर आवश्यकता हो वहाँ उन्हें रखा तो जा सकता है पर यह नहीं हो सकता कि नौकर ही सारे काम कर दें और नेता लोग घर बैठे अपना काम दूसरों पर टालते रहें। ज्ञानरथ के लिए धकेल गाड़ी और पढ़ाने या बेचने के लिए प्रज्ञा साहित्य दोनों का ही समान रूप से प्रयत्न करना चाहिए। पूँजी का भी इन दोनों कार्यों में समान नियोजन होता है। बाजार और गली मुहल्लों में घूमती धकेल गाड़ी को देखकर दर्शकों की उत्सुकता एवं जिज्ञासा उस संदर्भ में बढ़ती है और चलाने वालों को अपना लक्ष्य पूरा करने का अवसर मिलता है। सुलतानपुर उ.प्र. के सीनियर एडवोकेट बाबू लखनलाल ने वर्षों ज्ञानरथ स्वयं चलाकर यह सिद्ध किया है कि यदि कोई झिझक संकोच छोड़कर सच्चे मन और पूरे उत्साह के साथ काम किया जाय तो एक जिला स्तर के नगर को मात्र एक व्यक्ति नव चेतना से अनुप्राणित कर सकता है।

अखण्ड-ज्योति के नये सदस्य बनाना और झोला पुस्तकालय एवं ज्ञानरथ चलाना इतने भर कार्य से स्वाध्याय आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है। एक से दस का विस्तार होने लगे तो वर्तमान दस लाख परिजन इसी हीरक जयन्ती वर्ष में एक करोड़ में युग चेतना फूँकने का लक्ष्य पूरा कर सकते हैं।

सत्संग के लिए सबसे सरल, नाम मात्र के खर्च का और परिवार निर्माण का प्रयोजन पूरा करने का तरीका है विचारशीलों के जन्म दिन मनाना। इसका विधि विधान कठिन नहीं है। इसमें कोई भी शिक्षित व्यक्ति दो चार दिन के अभ्यास से प्रवीण हो सकता है। युग शिल्पी शिक्षण सत्रों में से एक-एक महीने की ट्रेनिंग लेकर लौटे हुए कितने ही प्रचारक हर क्षेत्र में पहुँच चुके हैं। जिस उत्साह से इन सत्रों में प्रचारक प्रकृति के लोग आ रहे हैं उससे प्रतीत होता है कि जन्म दिवसोत्सव मनाने के लिए गायकों, वादकों एवं वक्ताओं की कमी न रहेगी। यह आयोजन अपने छोटे क्षेत्र में एक नई उमंग भर सकते हैं और जिसका जन्म दिन है। उसे ‘हीरो’ बनाकर कुछ नई सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए बाधित कर सकते हैं। नव निर्माण का यह छोटा किन्तु बहुत ही सशक्त आधार है।

प्रज्ञा आयोजन भी इसी सत्संग प्रक्रिया को बड़े रूप में सम्पन्न करते हैं। शान्तिकुँज से जीप गाड़ियों में पाँच प्रचारकों की मण्डली वाद्य यन्त्रों, प्रवचन पंडाल, छोटी यज्ञशाला एवं लाउडस्पीकर समेत पहुँचती हैं। यह आयोजन प्रत्येक अच्छी संख्या वाले कस्बों में हो सकें इसके लिए सदैव प्रयत्न किए जाने चाहिए। जहाँ यह आयोजन सम्पन्न होते हैं वहाँ नई जागृति की लहर उत्पन्न होती है और नए सहयोगी उत्पन्न होते हैं। इन मण्डलियों को मात्र मार्ग व्यय देना पड़ता है जो आसानी से कही भी जुट सकता है।

हीरक जयन्ती वर्ष अभी दिसम्बर 85 तक चलेगा। सोचा जा रहा है कि इस अवधि में सभी प्रमुख प्रज्ञा परिजन हरिद्वार आने का प्रयत्न करें। इस अवधि में पाँच-पाँच दिन के “हीरक जयन्ती” सत्र चलेंगे। हर महीने तारीख 1 से 5, 6 से 10, 11 से 15, 16 से 20, 21 से 25 और 26 से 30 तक ये सत्र चलेंगे। हर महीने छः सत्र। आरम्भ होने से एक दिन पूर्व सायं काल तक शांतिकुंज पहुँच जाना चाहिए। पांचवें दिन दोपहर को भोजन के पश्चात सबको छुट्टी मिल जाएगी। बैटरी चार्ज करने के लिए जिस प्रकार पू. गुरुदेव को समय-समय पर हिमालय बुलाया जाता रहा है, ठीक इसी प्रकार इन पाँच दिवसीय सत्रों को उच्चस्तरीय आमन्त्रण माना जाना चाहिए। इनमें गुरुदेव से प्रत्यक्ष मिलना तो न हो सकेगा, पर उनके वीडियो फिल्म तैयार कर लिए गए हैं, जिनमें उनकी आज की स्थिति में झाँकी करने और वाणी सुनने का अवसर नित्य ही मिलता रहेगा।

इन पाँच दिवसीय सत्रों में दो दिन पूरे शांतिकुँज में रहना होगा। दो दिन दोपहर भोजन के बाद शाम तक ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला, हरिद्वार, कनखल इन समीपवर्ती चार तीर्थों के दर्शन का अवसर मिल जाएगा। पांचवें दिन छुट्टी। इन सत्रों में उन्हें प्रवेश न मिलेगा जो मिशन की पूर्व भूमिका से परिचित नहीं हैं। इसलिए आगन्तुक अपना विस्तृत परिचय लिखकर अलग-अलग कागजों पर भेजें और स्वीकृति मिलने पर ही आने की तैयारी करें। स्थान सीमित होने से अपनी तारीखों का निश्चय पत्र व्यवहार द्वारा पहले ही कर लेना चाहिए, चाहे जब जा पहुँचने और प्रवेश पाने का आग्रह करने की बात किसी भी प्रकार न बनेगी। स्थान की कमी के कारण तारीखों का पूर्व निश्चय एक प्रकार से अनिवार्य ही माना गया है।

सन 85 में एक-एक महीने के युग शिल्पी सत्र तारीख 1 से 30 तक हर महीने चलते रहेंगे। उनमें सुगम संगीत, प्रवचन, प्रज्ञा पुराण कथा, जड़ी-बूटी चिकित्सा, फर्स्ट एण्ड शिक्षण आदि विषय पूर्ववत चलते रहेंगे। दस दिवसीय सत्र बन्द रहेंगे। उनके स्थान पर पाँच-पाँच दिन के संपर्क सत्र चलेंगे। इनमें सम्मिलित होने का अवसर किसी भी वरिष्ठ प्रज्ञा परिजन को चूकना नहीं चाहिए।

पू. गुरुदेव के स्थूल शरीर की झाँकी न होने पर भी सन् 2000 तक उनकी आत्मा गायत्री तीर्थ (शांतिकुंज) में छायी रहेगी। इसलिए जन्म दिवसोत्सव, विवाह दिवसोत्सव, बच्चों के मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार और बिना दहेज प्रदर्शन के अपने लड़के लड़कियों के विवाह कराने एवं दिवंगत पितरों के श्राद्ध तर्पण कराने के लिए जो शांतिकुंज आना चाहें, उनका स्वागत ही होगा। हीरक जयन्ती जो आगामी बसन्त तक जारी रहेगी, का उपयोग शांतिकुंज से संपर्क साधने और युग चेतना को व्यापक बनाने के निमित्त ही किया जाना चाहिए।

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