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Magazine - Year 1989 - Version 2

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वैचारिक क्रान्ति बनाम बन्धनमुक्ति

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हर कोई स्वतन्त्र रहना चाहता है। ढूँढ़ने खोजने पर भी न मिलेगा, जिसे बन्धन में रहना अच्छा लगता हो। परिवर्तनों की समूची कड़ी के पीछे किसी न किसी रूप में यही चाहत छुपी है। इन परिवर्तनों को क्रान्ति का नाम भी दिया गया है। इनमें से पहले नम्बर पर है-वैज्ञानिक क्रान्ति। इसके तहत आदमी के हाथ पैरों एवं दिमाग के क्रियाकलापों की स्थानापन्न मशीनें ढूंढ़ निकाली गई। इन तकनीकी सुविधाओं को सभी तक पहुँचाने हेतु एक और क्रान्ति हुई जिसे औद्यौगिक क्रान्ति कहा गया। इनके द्वारा यह आशा बाँधी गयी थी कि मनुष्य को तमाम कामों की उलझनों से छुटकारा मिल जाएगा।

मनोवैज्ञानिक एरिक फ्राँम ने अपनी रचना “एस्केप फ्राँम फ्रीडम” में इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट किया है। उनके अनुसार सारे बदलाव चाहे वे राजनीतिक हों या औद्योगिक अथवा वैज्ञानिक सभी का मकसद स्वतन्त्रता व सक्षमता को पाना रहा है। स्वतन्त्र होना मनुष्य की मूल भूत वृत्ति है। इसी के लिए उसने व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से तरह तरह के प्रयास किए हैं।

इनमें पूरी तरह सफल न होने का कारण है इसे बाहरी तत्व मान लेना। जबकि यह बाहरी न होकर आन्तरिक है। प्रख्यात विचारक जॉन डीवी अपनी किताब “फ्रीडम एण्ड कल्चर” में कहते हैं स्वतन्त्रता व सक्षमता एक दूसरे से बहुत घनिष्टतापूर्वक जुड़े हैं। शारीरिक मानसिक, बौद्धिक ताकत का सही व समुचित उपयोग तभी बन पड़ता है जब इनका संचालन स्व अर्थात् आत्मा के विधान से हो। इसके अभाव में इन सामर्थ्यों का जखीरा आदमी को उस पशु के रूप में बदल देता है जो दूसरों की तबाही के साथ खुद को भी तबाह कर लेता है।

श्री डीवी अपने इसी अध्ययन में बताते हैं स्वतन्त्र होने के लिए किए जाने वाले उपायों का असली क्षेत्र स्वयं का अन्तराल है। इसमें जरूरी फेर-बदल कर ठीक करने वाली क्रान्ति ही हमें सही माने में स्वतन्त्रता दिला सकती है। डीवी के इस कथन में भगवद्गीता के 16 वें अध्याय की विषय वस्तु तथा छान्दोग्य व बृहदाण्यकोपनिषद् में बताये देवासुर संग्राम की झलक देखी जा सकती है। इनमें यह बताया गया है कि अन्दर के असुरत्व को परास्त कर आत्मा का राज्य स्थापित करना वास्तविक क्रान्ति है।

पर आधुनिक चिन्तन संसार में केवल बाहरी बदलाव लाकर समाज में सुख शान्ति स्वतन्त्रता को स्थापित करने में जुटा हुआ है। इन प्रयासों व परिणामों को देखने से साफ होता है कि इनका आधार स्वतन्त्रता न होकर स्वच्छन्दता है इससे जुड़ने पर सक्षमता निर्माण के स्थान पर ध्वंस ही करती है।

स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता एक सी लगने पर भी पूरी तरह विरोधी हैं। पहले में व्यक्ति ओर समूह आत्मा को जीवन का केन्द्र मानता हुआ ऊँचे उद्देश्यों एवं आदर्शों के लिए जीता है। दूसरे में जीवन के आधार सुख-भोग भर रह जाते हैं। इनमें किसी तरह की विघ्न-बाधा बर्दाश्त नहीं होती। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज दोनों ही साधन सुविधाओं की बढ़ोत्तरी को सब कुछ मान बैठते हैं।

आजकल क्रान्ति अथवा बदलाव का दायरा इसी सीमा में सिकुड़ गया है। इस तरह के प्रयास संसार में पूरी तरह बदलने पर जोर देते हैं, पर भोग-सामग्रियों को जैसे का तैसा रखना चाहता है। फलतः शान्ति दूर भागती है और “अशान्तस्य कूतःसुखम” के तथ्य के अनुरूप वास्तविक सुख का नामोनिशान नहीं रह जाता। इतने पर भी स्वतन्त्रता के आभासी स्वच्छंदता को पाने के लिए साधना गतिविधियाँ, क्रियाकलाप लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

इन क्रियाकलापों में जुटे लोगों की स्थिति कुछ वैसी है, जैसे कोई नदी के किनारे खड़ा होकर इसलिए परेशान हो कि नहीं ठहर जाय। नदी नहीं ठहरती, इसलिए वह दुःखी है। क्योंकि उसकी धारणा है कि नदी ठहर जाय तो मैं सुखी हो सकता हूँ। जबकि असलियत यह है कि सुखी होना मनकी स्थिति पर निर्भर है न कि नदी के ठहरने पर। इसी तथ्य को बताते हुए एरिक फ्राँम का कहना है कि स्वतन्त्रता की समस्या मनोवैज्ञानिक है न कि भौतिक।

स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छन्दता के लिए किए जा रहे इन परिवर्तनों तथा तरह तरह के प्रयासों ने समाज में असुरक्षा व अनिश्चितता का माहौल पैदा किया है। यही मानसिकता व्यावहारिक धरातल पर हिंसा व अपराध के रूप में दिखाई पड़ती है। इसको समझाते हुए मनोवैज्ञानिक जॉन गाल्टुँग का कहना है कि प्रत्येक वह काम जो मनो-सामाजिक विकास तथा जीवन बोध में बाधा पैदा करे, उसे अपराध की ही श्रेणी में रखा जाएगा।

इस तरह के क्रियाकलापों की पैदाइस का कारण स्वच्छन्दता है। आवश्यकता इस भ्रम को दूर करने की है। सही कहा जाय तो यह पशुओं का गुण धर्म है। उन्हें यह मालूम नहीं कि स्वतन्त्र होना हमारी ही कोई अवस्था है अथवा किन्हीं वस्तुओं का गुण है। अथवा यह कहा जाय कि उन्हें इस पर विचार करने के लिए रुचि अथवा समय नहीं। वह सहज ही इसे वस्तुओं में अथवा इस पर निर्भर मानकर देखा-देखी उन्हें जुटाने में समय और ताकत खपाता चला जाता है। चो उसे बार-बार धक्के क्यों न लगें, जीवन ही संकट में क्या न दिखाई देने लगे। उसमें न सृजन की भावना होती है न भावी कल्याण की चिन्ता।

आज स्थिति कुछ ऐसी ही है। डा. एरिक फ्राम के शब्दों में बौद्धिक व तकनीकी प्रगति की दृष्टि से मानव भले इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहा हो, पर भावनाओं की दृष्टि से वह अभी भी पाषाण युगीन है। बटे्रण्ड रसेल ने इसी को व्यक्त करते हुए “अथॉरिटी एण्ड इण्डिविजुअल” में कहा है कि उन्नत भावनाओं की उपेक्षा से हृदय का स्रोत लगातार सूखता जा रहा है। इसको बनाए रखने के लिए जरूरी है मानवीय स्वतन्त्रता का स्थापन।

श्री अरविन्द का “आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी” में इस की उपलब्धि के बारे में कहना है कि यह न तो वैज्ञानिक क्रांति से मिलेगी, न औद्यौगिक क्रान्ति से। राजनीतिक क्रान्ति भी इसके लिए काफी नहीं है। सही माने में इसका पाना तभी सम्भव है जब मानसिकता में बदलाव आए विचारों के परिवर्तन हो। इसके लिए अपेक्षित हे वैचारिक क्रान्ति।

इस क्रान्ति का क्षेत्र है मनुष्य का मन और साधन है सद्विचार। इस कल्याणकारी क्रान्ति की शुरुआत व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर करनी होगी। इसमें जुट पड़ने का मतलब है आदर्श परायण जीवन जीने के लिए जुट पड़ना। आदर्शवादी जीवन शैली का तात्पर्य है शारीरिक और मानसिक शक्तियों का सुदपयोग, सेवा, सहायता कर्तव्य परायणता के निर्वाह में करना न कि सुख भोग में। जीवन सही ढंग से आत्मा का यन्त्र बन सके। इसके विविध क्रियाकलापों में पवित्रता प्रखरता, सदाशयता आदि गुण स्थान पा सकें। इसके लिए बिना रुके प्रयत्न करना होगा। जैसे-जैसे मानसिकता में उच्चचिन्तन का शासन स्थापित होता जायगा। क्रान्ति की गति बढ़ती जाएगी। बढ़ती गति के साथ इसका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ेगा। जिससे व्यक्ति और समाज दोनों अपना खोया सौंदर्य पा सकेंगे।

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