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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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लोक चिन्तन को उलटने का उपयुक्त अवसर यही

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मनुष्य के संकल्प और सुनियोजित पुरुषार्थ का महत्व कम नहीं है। फिर भी समय की अनुकूलता हो तो सफलता कम समय में और अधिक तेजी से मिलती है। हवा का रुख पीछे से आगे धकेलने वाला हो तो पैदल चलने वाले या साइकिल सवार को कम परिश्रम में अधिक दूरी पार कर लेने का अवसर मिलता है। ढलान पर बिना पेट्रोल खर्च किए ही मोटर लुढ़कने लगती है। नदी के बहाव में नावें भी गति पकड़ लेती हैं। लकड़ी के मोटे लट्ठे नदी में तैरते हुए इतनी लम्बी दूरी पार कर लेते हैं जिसके लिए परिवहन वाले ढेरों किराया माँगते। हवा का रुख अनुकूल देखकर बच्चे पतंगें उड़ाने के लिए दौड़ पड़ते हे। पनचक्की वाले अपनी मशीन चालू कर देते हैं। किसान बरसात के दिनों में बुवाई करते हैं और फसल को तेजी से बढ़ती पकती देखते हैं। माली भी ऋतु के अनुरूप पेड़ - पौधे लगाते और उद्यान की अभिवृद्धि में चमत्कारी प्रगति होती देखते हैं। कुम्हार भी सूखा मौसम देख कर आवा पकाता है।

रूस में लेनिन जेल में बन्द थे। जब उन्हें मुक्त किया गया तो आश्चर्य चकित होकर उन्होंने पूछा इतनी जल्दी सत्ता परिवर्तन का कठिन काम कैसे सम्पन्न हो गया? विवरण सुनने के उपरान्त उनने जाना कि क्रान्तिकारियों के प्रयासों का समय ने भी साथ दिया और कठिन कार्य सरल हो गया।

भारत की स्वतन्त्रता में सैनानियों का त्याग बलिदान तो प्रमुख था ही, पर उन दिनों अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी ऐसी बन गई थीं जिनमें ब्रिटेन इतनी दूरी पर इतने जाग्रत देश पर देर तक शासन कर सकना सम्भव नहीं देख रहा था। दबाव और झुकाव ने मिल-जुलकर अनुकूलता बना ली। ऐसे घटनाक्रम संसार में अन्यत्र भी बहुत बार घटित हुए हैं। जिनमें मूर्धन्य प्रतिमाओं का उफनता संकल्प, साथ ही लोक मानस का उस संदर्भ में भाव भरा उत्साह मिलकर ऐसी शक्ति बने जिसके कारण इतनी बड़ी और इतनी महत्वपूर्ण सफलताएँ मिलीं जिन्हें देखकर देखने वाले आश्चर्यचकित होकर रह गए थे। वर्षा की अनुकूलता किसान के श्रेय को अनेक गुना लाभदायक बना दिया है।

नवयुग के संदर्भ में प्रथम आवश्यकता यह समझी गई है कि अवाँछनीय चिन्तन को उलट दिया जाय आज हम सब भ्रान्तियों के युग में जी रहे हैं। भटकाव की दिशा में चल रहे हैं। परिणामतः सुख-सुविधा के लिए किए गए प्रयास कुछ ही समय में अनेक गुनी हानि लेकर सामने आ उपस्थिति होते हैं। फुरती उत्तेजना के लिए पिया गया नशा कुछ समय तो अपना चमत्कार दिखाता है पर थोड़े ही दिनों में पीने वाले के शरीर को पोला और मन को ढीला बना कर रख देता है। अर्थसंकट, परिवार विग्रह अपयश जैसी अनेकों हेय प्रतिक्रियाएँ सामने आ खड़ी होती हैं। इन दिनों का जीवन दर्शन किसी भी कीमत पर तात्कालिक लाभ उठा लेने का बन पड़ा है। भले ही पीछे वह अनीति मूलक होने के नाते कितने ही बड़े संकट क्यों न खड़े करे? छोटे-बड़े अपने अपने क्षेत्र में अपने अपने ढंग से इसी प्रवाह में बह रहे हैं। आदर्शों के प्रति आस्था टूटती जा रही है। मानवी गरिमा के साथ जुड़े हुए गौरव और वर्चस्व की उपेक्षा हो रही है। विवेक को दकियानूसी बताकर पीछे धकेल दिया गया है और मन मर्जी की उच्छृंखलता बरतना बड़प्पन समझा जाने लगा है। यह प्रचलन कुछ एक बलिष्ठों को ही अच्छा लगा। सर्व साधारण को उसका भारी त्रास सहना पड़ा। सोचा जाने लगा कि प्रचलित अनाचार का अन्त होना चाहिए। जिस दुश्चिन्तन को अपनाकर अच्छे भले आदमी अनाचारी वर्ग में जा सम्मिलित होते हैं उसका अन्त होना चाहिए। ऐसी व्यापक जन भावना ही ईश्वर इच्छा भी बन जाती है। अनाचार की प्रतिक्रिया का नाम ही दैवी अवतार है। प्रतिभाएँ जब संशोधन कार्य में जुटती हैं तो उनकी सहायता में दैवी अनुकूलन का सहयोग भी मिलता है। ध्रुव, प्रहलाद, हरिश्चंद्र से लेकर गाँधी - बुद्ध तक को देवी सफलताएँ हस्तगत हुई, जिन्हें मानवी सहयोग के साथ दैवी अनुग्रह भी जुड़ा हुआ कह सकते हैं। महाकाल की अदृश्य व्यवस्था सूक्ष्म जगत में इसका ताना-बाना बुनती रहती है। अनीति को हटाने और नीति को जिताने में उसकी बड़ी भूमिका रहती है। इस तथ्य के पक्ष में इतिहास के अनेकों घटनाक्रम ढूंढ़ें और प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

यह स्वीकारा जाना चाहिए कि इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता विचारक्रान्ति है। लोगों की सोच उस मान्यता के साथ जुड़ गयी है जो तुर्त फुर्त असीम लाभ पाने के लिए औचित्य को ताक पर उठाकर रख देती है। कहने को कोई नीति सदाचार का समर्थन वाणी से भले ही करे पर अधिकाँश लोगों का आचरण अन्धविश्वासों, ललक, लिप्साओं और चतुरता के सहारे कुछ भी कर गुजरने का स्वभाव बन गया है। इसी आधार पर वे विभूतियाँ उपज पड़ी है। इसी आधार पर वे विभूतियां उपज पड़ी उनके कारण अनाचार का बोलबाला होता दिखता है। सार्वजनिक हित बुरी तरह आहत होता है।

इस तथ्य को सभी जानते हैं कि मनःस्थिति के अनुरूप ही विचार संस्थान काम करता है। साधन और सहयोग जुटते हैं। फलतः परिस्थितियाँ बन कर खड़ी हो जाती हैं। परिस्थितियों का प्रत्यक्ष उपचार भी किया जाना चाहिए पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि सड़ी कीचड़ की खाई कृमि कीटकों, विषाणुओं और दुर्गन्ध भरे उफानों का सृजन करती ही रहेगी। जब तक उस उद्गम में भरी सड़न को हटाया न जाएगा। तब तक ऊपर से सुर्खी गीली का छिड़काव अथवा अगरबत्ती जलाने जैसे उपचार से स्थाई समाधान बन नहीं पड़ेगा। चेचक की फुन्सियों पर मरहम लगाने में कुछ हर्ज नहीं पर काम रक्त शोधक उपाय से ही चलेगा। अन्यथा फुन्सियाँ अच्छी होते ही अन्य प्रकार के रोग विस्फोट उभरते रहेंगे। रक्त के अशुद्ध रहते रुग्णता से निश्चिंतता कहाँ मिलती है? विष वृक्ष के पत्ते तोड़ने से नहीं उसकी जड़ काटने से काम चलता है।

इन दिनों सुविधा साधन पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़े चढ़े हैं पर उनके कारण लाभ मिलने के स्थान पर हानिकारक माहौल ही बन रहा है। इस उलटबाँसी का रहस्य इतना भर है कि जन मानस में दुर्बुद्धि भर जाने से दुरुपयोग का स्वभाव और अभ्यास बन गया है। फलतः अवांछनीय रीति से प्रयुक्त किया गया अमृत भी विष का काम करता है। शक्तियों का, साधनों का, साधनों का दुरुपयोग होते देखकर एक शब्द में यही कहा जा सकता है कि यह दुर्बुद्धि का कौतूहल है। यदि औचित्य की पक्षधर गतिविधियाँ अपनाई गयी होतीं, तो उनके प्रयोक्ता धन्य हो जाते और प्रस्तुत साधनों के सदुपयोग भर से इन समस्याओं में से एक भी टिक न पातीं जो जन जन तक को अभावों और अनाचारों के शिकंजे में कस कर नीबू की तरह निचोड़े जा रही हैं।

प्रकृति का उत्पादन इतना कम नहीं है कि प्रस्तुत समुदाय की उचित आवश्यकताओं को पूरा न कर सके। हर पेट को रोटी और हर हाथ को काम मिल सके, इसकी व्यवस्था अत्यन्त सरलतापूर्वक जुटाई जा सकती है। यदि मूर्धन्यों के निहित स्वार्थ आड़े न आएं और कुछ लोक कुबेर जैसे सम्पन्न बनने की ललक छोड़ दें तो जितना कुछ इन दिनों उपलब्ध है उसी को मिल बाँट कर खाने पर सभी को सुखपूर्वक जीने का अवसर मिल सकता है। बुद्धिमानों की बुद्धि यदि अनपढ़ और अशिक्षितों को ऊँचा उठाने में लगे तो कोई कारण नहीं कि एक शिक्षित दो अशिक्षितों को पढ़ा लेने का व्रत लेकर आज की संव्याप्त अशिक्षा का समापन देखते -देखते सम्भव न कर सके, व्यक्तिगत विलासिता और अहमन्यता यदि इतने स्वेच्छाचार पर न उतरे तो तथाकथित सुविकसितों का वैभव-श्रम, कौशल और चिंतन सर्वसाधारण की समस्याओं का सुझाव प्रस्तुत न कर सके।

पिछड़े लोगों पर आलस्य, प्रमाद जैसी नासमझी छाई हुई है तो विकसित वर्ग पर निजी लिप्सा-लालसा भूत पिशाच की तरह हावी है। इन्द्र से कम क्लासी और कुबेर से कम सम्पत्तिवान बनने की किसी की महत्वाकाँक्षा है नहीं। ऐसी दशा में एक ओर खड्ड खुदेंगे और दूसरी जगह टीले उठेंगे। समानता और एकता के अभाव में बिखराव और संग्रह वाली धनीवृत्ति आए दिन संकट खड़े करती रहेगी। भले ही उनके लिए दम दिलासा देने वाले कुछ उपचारों का सिलसिला चलता रहे।

व्यक्ति अपना जीवनचक्र शालीनता का निर्वाह करते हुए किस प्रकार सुनियोजित करे यदि यह समझ जन जन में जगाई जा सके तो समझना चाहिए कि संसार की आधी समस्याओं का समाधान हो गया। प्रतिमाह यदि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार कर सके तो उनके पास जो असाधारण स्तर की क्षमताओं के भण्डार शेष रह जाते हैं वे पिछड़ों को उठाने में लग सकते हैं और खड्ड टीलों को पाटते हुए समतल भूमि बनाने की युग समस्या का सरलतापूर्वक समाधान कर सकते हैं।

व्यक्तिपरक संकीर्ण स्वार्थपरता, अदूरदर्शिता, उद्धत अहंता, ललक, लिप्सा, वासना, तृष्णा यदि किसी रूप में बनी और बढ़ती रहीं तो समझना चाहिए कि चल रहे सुधार उपचार मन बहलाव के कौतुक कौतूहल बनकर रह जाएंगे। सही रूप में स्थायी समाधान तभी सम्भव होगा जब मनुष्य की मानवी गरिमा, मर्यादा और .... .... प्रति निष्ठा उत्पन्न होगी। यह उत्पादन .... भी जिसके यहाँ भी, जब भी उठ खड़ा .... समझना चाहिए कि उसकी शक्ति और .... हजार गुनी हो गई और इतने भर से लोग मिल जुल कर उन सभी समस्याओं का हल कर लेंगे जिनका घटाटोप भावी विकास की अनन्त सम्भावनाएँ लेकर उमड़ रहा है।

व्यक्तियों से मिलकर समाज बना है। व्यक्ति गया-गुजरा होगा तो समाज की दुर्दशा बनी ही रहेगी। दुरुपयोग के रहते उस सभी उपार्जन का सत्यानाश होता रहेगा जो धन, बल, बुद्धि, कौशल आदि के नाम से जाना जाता है। इसके आधार पर कुछ लोक सुखी सम्पन्न हो सकते हैं पर सर्व साधारण के पिछड़ेपन को वे मुँह मोड़कर ही देखते रहेंगे। उपलब्धियों का अपव्यय ही करते रहेंगे।

विचार शक्ति इस विश्व की सबसे बड़ी शक्ति है। उसी ने मनुष्य के द्वारा इस ऊबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है। विनाश करना होगा तो भी वही करेगी। दीन, हीन और दयनीय स्थिति में पड़े रहने देने की जिम्मेदारी भी उसी की है। उत्थान पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है। वस्तुस्थिति को समझते हुए इन दिनों करने योग्य एक ही काम है, “जन मानस का परिष्कार”। इसी को विचारक्रान्ति का नाम दिया गया है। इसी की सफलता - असफलता पर विश्व का, मनुष्य का उत्थान पतन पूरी तरह निर्भर है। प्रमुखता और प्राथमिकता इसी को मिलनी चाहिए। विश्वात्मा की यहीं माँग है। दैवी शक्तियां इसी को सम्पन्न करने के लिए उद्यत हैं। प्रयोजन की पूर्ति के लिए जो कदम बढ़ायेंगे वे पाएंगे कि हवा अनुकूल चल रही है। ऐसी अनुकूल जिसमें अभीष्ट की सफलता अत्यन्त सरल सम्भव होती दीख पड़े।

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