
चरित्र निष्ठा ही सर्वोपरि
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आचार्य अश्वत्थ को महाराज देवरथ ने यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त किया है, उन्हें आज ही आश्रम से प्रस्थान करना है। समस्त विद्यार्थीगण प्रातःकाल से ही चुप हैं। महर्षि के चलें जाने पर वे सब स्नेह शून्यता सी अनुभव किया करते। आश्रम के प्रत्येक बालक पर उनका पितृतुल्य प्यार था। इसलिये छात्र उन्हें अपनी माँ के समान मानते और जब कभी उनका वियोग होता तो दुःखी हो जाते। मनुष्य की आँतरिक निर्मलता और स्नेह में कितनी शक्ति है जो औरों को भी सगा सम्बन्धी बना लेती है।
आचार्य अश्वत्थ चले गये। जब तक वे बहार रहेंगे तब तक घर की सारी व्यवस्था वार्क्षी करेगा वे ऐसी व्यवस्था कर गये हैं -- यह बात विद्यार्थियों को अच्छी न लगी। वार्क्षी राजकुमार है इसलिये आचार्य प्रवर उसे अधिक महत्व देते हैं। यह बात सोचकर सभी छात्रों को क्षोभ उत्पन्न हुआ पर महर्षि उस बालक में कुछ और ही बात देखते थे जो अन्य किसी भी बालक में देखने को न मिलती थी।
छात्रों ने अपना क्षोभ गुरुमाता के सम्मुख व्यक्त किया तो उन्होंने समझाया भी - तात! वार्क्षी राजकुमार है सही, वह वैभव विलासिता पूर्ण वातावरण में पला है यह भी ठीक है, तो भी उसकी चरित्रनिष्ठा सर्वोपरि है तात! कर्तव्य के आगे सौंदर्य आकर्षण भी उसे बाँध नहीं पाते, इस विशेषता के कारण ही वह महर्षि प्रिय - पात्र बन सका है।
आचार्य महिषी के इस कथन पर भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ उन्होंने निश्चय कर लिया इस बार जब महर्षि वापस आयेंगे तब वे अपनी बात उनके समक्ष आवश्यक प्रकट करके उचित निराकरण की माँग करेंगे।
जब यह प्रसंग चल रहा था वार्क्षी लकड़ियां लेने गया हुआ था। वार्क्षी का सुगठित शरीर ओर राज्यकुलों वाली आभा का आकर्षण पहले ही क्या कम था पर आज जब कि वह साधारण वेष में ही लकड़ियाँ लेकर लौटा तो परिश्रम से तप्त मुखाकृति कुछ और अधिक ही गौरवर्ण और आकर्षक हो उठी थी। उसे देखते ही आचार्य अश्वत्थ की कन्या वेदवती का अन्तःकरण आन्दोलित हो उठा। वे पहले ही वार्क्षी से प्यार करती थी पर आज तो उसे सर्वथा एकाकी पाकर उसकी काम-वासना उद्दीप्त हो उठी। वह निःसंकोच वार्क्षी के समीप आ गई और पूछने लगी-”वार्क्षी! - अच्छा यह तो बताओ बसन्त ऋतु आती है तो कलियाँ उमंग से क्यों भर जाती हैं, क्यों वे अपना परिमल पराग सारे वातावरण में बिखेरने लगती हैं?”
वार्क्षी ने एक बार वेदवती की आँखों में अपनी आँखें डाली। आँखों में वारुणि-पान की सी अरुणाई झाँक रही थी। वार्क्षी ने हँसकर कहा”भद्रे! सम्भव है कली यह सब भ्रमर को आकर्षित करने के लिये करती हो किन्तु मुझे तो ऐसा लगता है कली स्वयम् नहीं हँसती उसमें साक्षात् ब्रह्म का सौंदर्य उल्लसित होता है”।
पर तुम मेरे अन्तःकरण की बात क्यों नहीं समझते वार्क्षी! यह कहते कहते वेदवती वार्क्षी के बिलकुल समीप आ गई। वार्क्षी की भुजायें वे अपने हाथों में लेना ही चाहतीं थीं किन्तु वार्क्षी पीछे हट गये और वहाँ से चुपचाप अपने पर्ण कुटीर की ओर चल पड़े। यौवन की उमंग, चरित्र के शान्ति-प्रवाह पर विजय न पा सकी।
सामने खड़ी आचार्य महिषी सब देख रहीं थी। वार्क्षी की इस दृढ़ता पर वे मुग्ध हुये बिना न रह सकीं। महर्षि वापस आये तो उन्होंने सारी बातें बताई-महर्षि ने कहा-भद्रे! जो साँसारिक आकर्षण में भी अपने आपको बचाकर अपने कर्तव्य की रक्षा करता है वही महानता का अधिकारी होता है। उन्होंने वार्क्षी को दुर्लभयोग -साधनायें सिखाई, विद्याध्ययन के उपरान्त वेदवती का पाणिग्रहण भी वार्क्षी के साथ ही करा दिया।