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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अवसर प्रमाद बरतने का है नहीं!

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First 21 23 Last
मनुष्य शरीर की संरचना अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक समुन्नत है कि उसे निर्वाहजन्य किसी असुविधा के सहन करने का कोई कारण ही कहीं दृष्टिगोचर नहीं होना चाहिए। जब सभी जीव−जंतु क्रीड़ा कल्लोल करते हुए जीते हैं, कुहकते, फुदकते, चहचहाते दिन गुजारते हैं तो फिर विकसित मनुष्य को ही ऐसी कठिनाइयों से घिरा क्यों पाया जाना चाहिए जिनसे कि वह इन दिनों बुरी तरह ग्रसित देखा जाता है? रोग, शोक, अभाव, क्लेश, विद्वेष, अशान्ति के अनेकानेक कारण गर्दन दबोचे रहते हैं। चिन्ताओं, आशंकाओं से दिल धड़कता रहता है। हर कोई अपने ढंग की अनेकानेक समस्यायें गिनाता और आपत्तिग्रस्तों की तरह अपने को दयनीय परिस्थितियों में फँसा पाता है। इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए। सृष्टि के समस्त प्राणियों की तलना में हर दृष्टि से सुसम्पन्न प्राणी इस तरह दिन गुजारे मानों विपन्नताओं ने सभी ओर से घेर रखा हो।

तनिक गंभीरता से विचार करने पर कारण स्पष्ट हो जाता है। वासना, तृष्णा और अहंता के निविड़ भव बन्धनों ने उसे ऐसी बुरी तरह जकड़ रखा है कि चौबीसों घन्टे उन्हीं उलझनों द्वारा कसे गये जाल जंजाल बेतरह त्रास देते रहते हैं। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए मनुष्य इतना आकुल व्याकुल बना रहता है कि चैन की साँस ले सकने की फुरसत ही नहीं मिलती। कुछ उपलब्धियाँ हाथ भी लगती हैं तो आग में पड़ने वाले ईंधन की तरह जलन को और भी अधिक भड़काती है। मद्यपों जैसे कभी न पूरी होने वाली रट इस बुरी तरह खुमारी की तरह चढ़ी रहती है कि ‘और अधिक चाहिए’ के अतिरिक्त न तो कुछ और सोचते बनता है और न ऐसा कुछ समाधान ढूँढ़ने के लिए उत्साह उमंगता है कि मकड़ी की तरह अपने बुने हुए जाल को समेटने और जकड़न से त्राण पाने का मार्ग खोजा जा सके।

स्वाभाविक आवश्यकतायें स्वल्प हैं। उन्हें कुछ ही घंटों में अपने बलबूते ही पूरी किया जा सकता है। किसी से माँगने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए। अपना उत्पादन ही इतना अधिक है कि उसे यदि उर्वर भूमि में बोया जा सके तो एक से हजार, हजार से लाख का सिलसिला अनवरत रूप से चलता रह सकता है और प्रसन्नता लेकर प्रफुल्लता तक का आनन्द हर घड़ी अनुभव किया जा सकता है।

जीवधारी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसे उल्टी बुद्धि से पाला पड़ता है। फलतः जिस डाल पर बैठता है उसी को काटता है। पतंगे को न जाने क्या लगता है कि जलते दीपक पर फटकता है और उससे कुछ पाना तो दूर अपने पर जलाकर बिलखता, कलपता हुआ मरता है। चींटियों और मछलियों को बिना परिश्रम का चारा तो सुहाता है पर यह नहीं दीखता कि इसके साथ कितना प्राणघातक जाल तना है। बालू को जलाशय समझने वाला हिरन मृगतृष्णा में भटकता प्यास प्यास करता मरता और नाहक बदनाम होता है। कस्तूरी के हिरन पर न जाने क्यों ऊत चढ़ती है कि नाभि से निकलने वाली गंध को कहीं अन्यत्र खोजता और थक थक कर दम दौड़ता है। सारंगी अजगर जब भूखा होता है तो अपनी ही पूँछ को निगलने लगता है और अपने आपे को स्वयं भक्षण करता हुआ दर्शकों के लिए अजूबा बनता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और जबड़ा छिलने पर निकलने वाले रक्त को सूखी हड्डी का रस समझ कर अपने खून का प्यास आप बनता है। आस्ट्रेलिया का ओपोसम जानवर इतने बच्चे जनता है कि वे कुछ बड़े होते होते अपनी मादा पर लद लेते हैं और उतना भार न सह सकने के कारण जन्मदात्री माता के लिए प्राणघाती बनते हैं। कामातुर मकड़ी आनन्ददायक नर मकड़े को दबोच कर उसे उदरस्थ करती है ओर सोचती है कि इस इस आनन्द को सदा सर्वदा के लिए में ही क्यों न भर लें। मक्खी का पेट भरने के लिए रत्तीभर चासनी पर्याप्त हो सकती है पर वह भरी कड़ाही में इसलिए कूदती है कि इस भण्डार से प्रलय काल तक मौज उड़ाती रहूँ। मनोरथ कहाँ पूरा होता है? पंख चिपक जाने पर वह उसी कड़ाही में डूब मरती है। चिड़िया शीशे में अपनी आकृति देखकर उससे लड़ती और चोंच को लहूलुहान करती है। काँच के महल में बन्द कुत्ता चारों और अपने ही प्रतिद्वन्द्वी भौंकते देखता है और उन्हें मजा चखाने की धुन में लड़ते लड़ते स्वयं ही दम तोड़ देता है। हिरन और साँप वंशी के धुन पर इतना मस्त हो जाते हैं कि इतना तक समझना कठिन पड़ता है कि यह सब उन्हें बन्दी बनाने के लिए रचा गया षड्यन्त्र मात्र है। रबड़ की हथनी को सहचरी बनाने के व्यामोह में हाथी पत्ते से ढके गड्ढे में गिरते और जंजीरों में जकड़े जाने पर गुलामी की जिन्दगी जीत हैं। कीटभक्षी पौधे अपनी सुन्दरता पर मोहित होकर दौड़ती आने वाली मक्खियों का खूब मजे से खून चूस लेते हैं। परले सिरे की ऐसी मूर्खतायें अन्य प्राणी भी करते रहते हैं। रोटी के टुकड़े के लालच में चूहे पिंजड़े में फँसते हैं और अन्तिम सांसें उसे में गिनते हैं। गधा गरदन के साथ बंधी हुई लकड़ी पर टँगी घास लपकने के लिए तेजी से आगे बढ़ता है पर दौड़ लगाते लगाते मुद्दतें बीत जाने पर भी वह घास मुँह तक नहीं पहुँच पाती।

मनुष्य से आशा की जाती है कि वह बुद्धिवादी के जाने के कारण अधिक समझदारी का परिचय देगा। देता भी है किन्तु जहाँ तक लालच बटोरने का प्रश्न है वह उस पागल जैसा आचरण करता है जो कूड़े में से निरर्थक चीजें बीनकर झोली भरता है और फिर उसमें आग लगाकर लपटें उठाने की सफलता पर अट्टहास करता है। अंधी भेड़ें एक के पीछे एक चलती ओर एक ही खड्ड में गिरकर मरती हैं। टिड्डियों का समुदाय तो बड़ा होता है पर जब वह उड़ने योग्य होता है तो फिर निरुद्देश्य किसी भी दिशा में दौड़ पड़ता है। फलतः वे सभी किसी रेगिस्तान में गुलसती अथवा समुद्र जैसे जलाशय में डूबकर मरती हैं। ऐसा ही कुछ मनुष्य भी करने लगे तो हैरत होती है कि बाहरी दुनिया में चकित कर देने वाली करामातें दिखाने वाला मनुष्य अपनी बारी आने पर क्यों इतना मूर्ख बनता है कि खुशी खुशी आत्मघात करने के लिए साज सँजोये और रोकने समझाने वाले से खम ठोंक कर लड़ने आये। नशेबाजी का खेल ऐसा ही है, जिसमें पैसा, स्वास्थ्य, समय परिवार, यश विश्वास सभी कुछ बरबाद होता है और अपने बुलाये यमदूतों द्वारा मनुष्य पिटते-पिटते दम तोड़ता है। तथ्य से अवगत होने पर भी नशेबाजी का प्रचलन दिन-दूनी, रात चौगुनी गति से बढ़ ही रहा है।

चतुरता और बुद्धिमत्ता को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वह है जो दुनिया और क्रियाकलापों में किसी भी प्रकार सफलता प्राप्त कर दिखाती है। इसके ऊपर नीति अनीति का दबाव प्रायः नहीं के बराबर होता है। जिस प्रकार भी अपना उल्लू सीधा होता है उसी को बहिरंग पक्ष ग्राह्य मानता है और बिना किसी हिचक के कर दिखाने के लिए जमीन आसमान के कुलावे मिलाता है।

मनुष्य का अन्तरंग पक्ष वह है जिसमें नीति, मर्यादा को प्रमुखता मिलती है। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी की कसौटी पर कसने के उपरान्त कोई निर्णय किया तथा कदम उठाया जाता है। इसमें अपनी ही तरह दूसरों के हितों का भी ध्यान रखा जाता है और इस संदर्भ में आत्मा का परमात्मा का अभिमत भी सुना जाता है।

इन दिनों बहिरंग पक्ष को ही प्रमुखता मिल रही है। गौरवर्ण, युवा वय और साज−सज्जा यदि आकर्षक हो तो यह देखने की आवश्यकता नहीं समझी जाती कि पर्दे के पीछे एड्स सिफिलिस, टी.वी., कैन्सर जैसे रोगों के विषाणु संपर्क में आने वाले पर छूत का आक्रमण करने को तैयार तो नहीं बैठे हैं। चालाक और उद्दंड व्यक्ति हर कहीं रौब गाँठते और किसी को भी डराने-दबाने में सफल होते हैं। सम्पन्नों में भी अधिकाँश लोगों की सम्पदा औचित्य के सहारे ही कमाई हुई नहीं होती। नेतृत्व स्तर की आदर्शवादी स्पीचें झाड़ने वाले बहुधा रँगे सियार और बगुला भगत पाये जाते हैं।

इसके ठीक विपरीत ऐसे लोग भी होते हैं जो प्रामाणिकता और प्रखरता को अक्षुण्ण बनाये रहने के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने और ऊपर से दूनी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार होते हैं। उनकी काया नहीं, चरित्र प्रेरणा का स्त्रोत बनता है और असंख्यों को ऊँचा उठाने आगे बढ़ाने में सफल होता है महामानवों को इसलिए ऐसे ही लोग गढ़ते और मानवीय उत्कृष्ट आदर्शवादिता की रक्षा करते हैं। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय बनकर वे ही रहते हैं।

किन्तु उन अनगढ़ों को क्या कहा जाय जो चतुरता, विडम्बना और ठाटबाट की सज्जा के अतिरिक्त और किसी का लोहा मानने के लिए तैयार ही नहीं होते। उन्हें न देवता की जय बोलने में आपत्ति है और न दैत्य की अभ्यर्थना करने में। समर्थ से कुछ पाने या उसके दबाव से हैरान न होने का तानाबाना बुनते रहने में ही उन्हें अपनी खैर दीखती है। बहुमत इसी विडम्बना का होने से लोगों का झुकाव भी उन्हीं की ओर पाया जाता है। इसलिए तथाकथित लोकमत को न तो मान्यता दी जा सकती है और न उसके अनुसरण से गरिमा की रक्षा ही होती है।

बड़ों का विस्तार देखकर चमत्कृत होने की अपेक्षा औचित्य इसी में है कि महानता का अवलम्बन अभिवन्दन किया जाय। भले ही वह दुर्बल या पराजित ही क्यों न रह रहा हो।

यहाँ चर्चा बड़ों की नहीं की जा रही क्योंकि वे पानी के बबूले की तरह उबलते और तनिक ही उछल कूद दिखाकर अदृश्य के गत में समा जाते हैं। यहाँ विवेचन उनका हो रहा है, जिन्हें धरती खण्ड या समुद्र में दीप्तिमान प्रकाशस्तंभ कहते हैं। शेषनाग फन पर धरती को धारण किये हैं या नहीं, इसमें मतभेद हो सकता है। पर यह बात निर्विवाद है कि मनुष्य की गरिमा और महिमा मात्र उन आदर्शवादियों के कंधे पर टिकी हुई है, जिन से चिरस्थायी शान्ति और प्रगति की आशा की जा सकती है। विचारशील ओर विवेकवान इन्हीं को कहा जा सकता है।

चतुर लोग प्रचलित क्रियाकलापों में अपनी विशिष्टता का परिचय देते और जिस तिस प्रकार लाभ अर्जित कर दिखाते हैं किन्तु विवेकवानों को तो वही सोचना एवं करना पड़ता है जिससे मर्यादाएँ निभती रहें और शालीनता की उमंगे उभरती रहें। इन्हीं गौरवशाली मान्यता के धनी लोगों के सामने तीन समस्याएँ प्रमुख रहती हैं। एक यह कि अन्य प्राणियों के लिए सर्वथा सुलभ इतना कलात्मक जीवन स्रष्टा ने किस प्रयोजन के लिए प्रदान किया और उस विशिष्ट अनुदान का अधिकारी समझा? दूसरा यह कि जो आवश्यक साधन एवं वैभव प्राप्त है उसका आज की परिस्थितियों में सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता है? तीसरा यह कि जन्म की तरह मरण निश्चित है। वह कल भी हो सकता है और परसों भी। तब जिस परिवार में हाजिर होना होगा, वहाँ किस प्रकार किस रूप में अपनी जीवनचर्या का निर्धारण प्रस्तुत करना पड़ेगा? इन तीन प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए जो परीक्षार्थी विद्यार्थी की तरह तैयारी करता रहता है जो सही उत्तर देकर ससम्मान उत्तीर्ण होता है। उसी के बारे में समझा जाना चाहिए कि उसने मनुष्य जीवन का महत्व समझा और तदनुरूप व्यवहार करके उपलब्धियों को सार्थक कर दिखाया ऐसे लोग संख्या में भले ही थोड़े हों पर प्रतिभा, प्रखरता और प्रामाणिकता से सम्पन्न उन्हें ही कहा जायगा।

जिन्हें इन प्रश्नों से कुछ लेना देना नहीं है, जो इस तरह कभी सोचते नहीं, सोचने की आवश्यकता नहीं समझते, फुरसत नहीं पाते, उन्हें मनुष्य समुदाय के एक घटक तो कह सकते हैं पर है वे वस्तुतः किसी अन्य लोक के प्राणी। उन्हें पृथ्वी के यक्ष, गंधर्व, किन्नर भले ही कह सकते हैं। फूहड़ शब्दों में इन्हें बड़े आदमी, चतुरता के धनी, बहेलिये, कलावंत भी कह सकते हैं। सफलताओं के तमगे तो वे अनेकों लटकाये फिरते हैं पर वस्तुतः वे अपने आप में ही तन्मय, एकाग्र, समाधिस्थ बने रहते हैं। इन्हें दीन दुनिया से कुछ लेना देना नहीं। वे अपनी चतुरता के बल पर खोटे सिक्के की तरह दाव लगाने पर चल तो जाते हैं पर मनुष्यता की हर कसौटी पर अनुपयुक्त ही सिद्ध होते हैं। खरे सोने वे हैं जो कसौटियों पर सके जाने और आदर्शों की आग में तपने पर भी अपनी गरिमा अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। यही तो पवन की तरह प्राण बाँटते रहते हैं। बादलों की तरह बरसते और सूर्य की तरह स्वयं प्रकाशवान गतिशील रहकर हर कहीं आभा ऊष्मा बखेरते हैं इन्हीं के लिए उन तीन प्रश्नों का उत्तर सही रूप से दे सकना संभव होता है कि जीवन किस लिए मिला? उसके साथ किन कर्तव्य उत्तरदायित्वों का अनुबंध जुड़ा?

साधारण समय में साधारण रीति से भी सोचा और धीमा कदम उठाया जा सकता है। किन्तु कभी कभी ऐसे समय भी आते हैं जिनमें निर्णय तुरन्त करने और कदम अविलम्ब उठाने पड़ते हैं। पड़ोस में अग्निकाण्ड भड़क रहा हो और उसकी चिनगारियाँ अपने छप्पर तक पहुँच रही हों तो ऊँघते नहीं रहा जा सकता। रेल प्लेटफार्म पर खड़ी हो, गार्ड की सीटी बजने वाली हो तो चढ़कर अपनी जगह पकड़ने में फुर्ती ही दिखानी पड़ती है। परीक्षा की अवधि में पूरी एकाग्रता से पर्चे हल करने पड़ते हैं। उन क्षणों में कुकल्पनाओं में निरत रहना भारी घाटे का सौदा होता है। दुर्घटना घटित होने पर आहत का उपचार तुरन्त करना पड़ता है अन्यथा रक्तस्राव न रुकने पर प्राण संकट का खतरा स्पष्ट है। इन दिनों ऐसा ही समय है जिसमें एक पैर उत्थान की और दूसरा पतन की नाव पर रखा है। दोनों में से एक चयन करने में विलम्ब नहीं किया जा सकता, अन्यथा विपरीत दिशा में जाने वाली नौकाएँ असमंजस वाले मुसाफिर का कबाड़ा ही बना कर रख देंगी। गया समय फिर वापस लौटता कहाँ है? हनुमान ने, विभीषण ने, अर्जुन ने, बुद्ध ने अपने निर्णय तत्काल कर लिए थे।

यदि वे बात को फिर कभी के लिए टालते रहते तो उस सुयोग से वंचित ही रह जाते जो उन्हें समय को पहचान लेने के कारण सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सका। फसल के बोने और काटने की कुछ दिन की अवधि निर्धारित रहती है जो उसे गँवा देते हैं उनके हाथ से फसल की आधी कमायी निकल जाती है। प्रमाद यों सदा ही अतिशय घाटे का निमित्त कारण है। पर कईबार अलभ्य अवसर सामने होता है और वे अन्यमनस्कता तनिक भी सहन नहीं करते। घुड़दौड़ में अच्छे घोड़े वाला भी यदि अस्तव्यस्त गति का हो तो उसके हाथ पराजय के अतिरिक्त और क्या लगने वाला है। नारद का परामश्र मानने में जिनने आना कानी नहीं की वे ध्रुव, प्रहलाद, उमा, सावित्री की तरह अजर अमर हो गये। अन्यथा मूढ़मति बहुमूल्य संकेतों और संदेशों को भी इस कान सुनते और उन कान निकालते रहते हैं। ज्ञान की सार्थकता कर्म के साथ जुड़ने पर ही बन पड़ती है। इस प्रयोजन को चरितार्थ करने का ठीक यही समय है।

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