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Magazine - Year 1989 - Version 2

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मानवी पुरुषार्थ का पूरक— अध्यात्मबल

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मनुष्य जब चारों ओर से अपने को असहाय पाता है, उसका स्वयं का पुरुषार्थ साथ नहीं देता तो एक ही अवलंबन शेष रहता है— परम सत्ता का। दैवी अनुदान सुपात्रों को संकटों से बचाते व प्रगति का पथ-प्रशस्त करते हैं। दैवी चेतना ने सदा-सदा से यह दायित्व निभाया है कि जो आततायी और अधर्मी हैं, उन्हें बलपूर्वक सही रास्ते पर लाया जाए और अवांछनीयता का उन्मूलन किया जाए। साथ ही जो दुखी हैं, उनके आँसू पोंछे जाएँ, हिम्मत उभारी जाए और अभावग्रस्तों को पुरुषार्थ हेतु सामर्थ्य प्रदान की जाए।

ऐसे अनेकों पौराणिक आख्यान विभिन्न धर्मग्रंथों में मिलते हैं, जो समय-समय पर स्रष्टा के युवराज— मनुष्य को दैवी सहायता मिलते रहने के रूप में प्रमाणित करते हैं कि आत्मशक्ति के पूरक के रूप में परमात्मशक्ति का अस्तित्व है। भले ही वह आँखों से दृष्टिगोचर न हो, उसकी अजस्र अनुकंपारूपी क्रियाकलापों को एक से उदाहरणों में सहज ही देखा व उस सत्ता पर विश्वास किया जा सकता है।

द्रौपदी निस्सहाय अबला के रूप में कौरवों की राजसभा में खड़ी थी। दुराचारी कौरवों द्वारा चीरहरण किए जाने पर किसी मानव ने नहीं, दैवी सत्ता ने उसकी लाज बचाई थी। दमयंती का बीहड़ वन में कोई सहायक न था। सतीत्व पर आँच आने पर स्वयं भगवत्सत्ता उसके नेत्रों से ज्वाला रूप में प्रकट हुई और उसने व्याध को जलाकर भस्म कर दिया। प्रहलाद को दुष्ट पिता से मुक्ति दिलाने एवं ग्राह के मुख से गज को छुड़ाने स्वयं भगवान आगे आए थे। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि में न जलने की सिद्धि प्राप्त थी, प्रह्लाद को लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई। प्रज्वलित अग्नि में वह भस्म हो गई, पर प्रह्लाद बच गए। निर्वासित पांडवों की रक्षा स्वयं भगवान ने की। अपने प्रिय सखा अर्जुन का रथ जोता एवं गीता का उपदेश देकर धर्म दर्शन का निचोड़ मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत किया। साथ ही महाभारत की भूमिका बनाकर सतयुग की स्थापना हेतु स्वयं भूमिका निभाई। नरसी भगत के सम्मान की रक्षा व मीरा को विष के प्याले से बचाने हेतु स्वयं भगवत्सत्ता आगे आई थी। भगीरथ के तप को सफल बनाने एवं पवन पुत्र हनुमान को उनकी शक्ति का बोध कराने में असंभव पुरुषार्थ संभव कर दिखाने में परमात्मसत्ता ही मुख्य भूमिका निभा रही थी।

देव पक्ष अहंतावश या असंयम से— विलासिता से जब कभी अपनी क्षमताएँ नष्ट करता रहा है और असुर पक्ष उस पर हावी हुआ है। दैवी चेतना ने स्वयं अवतार धारणकर देवों को संयम की प्रेरणा देकर उनका मनोबल बढ़ाया और विजय के लक्ष्य तक पहुँचाया है। साथ ही जिन असुरों ने विद्वता में, शक्तिसंचय में, सिद्धि-सामर्थ्य में महारत हासिल की और दुर्मतिवश पथभ्रष्ट हुए, उन्हें नष्ट करने का प्रयोजन भी उसी परम सत्ता ने पूरा किया है, जिसने वरदान दिया था। रावण जैसे असुरों ने जब अनाचार की अति कर दी और अपनी सामर्थ्य से ऋषियों, तपस्वियों एवं देवों का जीना दूभर कर दिया, तो ऋषिरक्त को संचितकर स्वयं ईश्वरीय शक्ति ने सीता के रूप में अवतरित होने का निश्चय किया। इन्हीं सीता का रावण ने अपहरण किया और भगवत्सत्ता ने रामरूप में उस रावण के सारे वंश को समूल नष्ट कर दिया। अनीति देर तक टिकती नहीं।

ब्रह्मांडव्यापी समर्थ चेतनसत्ता जहाँ अपनी सूक्ष्मशक्तियों का प्रयोग अवांछनीयता के उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति के संवर्द्धन में, देवत्व के विकास में करती है, वहीं अत्याचार-अन्याय के विरोध में भी वह आगे आती है। संसार में ऐसे अनेकों महामानव हुए हैं, जिन्हें अपने सुधारवादी दृष्टिकोण या आंदोलन के कारण तात्कालीन शासकों और प्रशासकों के कोप का भाजन बनना पड़ा, पर वे उनका कुछ न बिगाड़ सके। अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ने वालों एवं सत्प्रयोजनों में निरत व्यक्तियों की रक्षा दैवी चेतना स्वयं करती है। संसार में ऐसे उदाहरणों को हर कहीं खोजा और देखा जा सकता है।

इंग्लैंड सरकार के विदेशी विभाग के सार्वजनिक कार्यालय में एक प्रत्यक्षदर्शी घटना की साक्षी में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज मौजूद है। यह 22 जुलाई 1850 को महारानी विक्टोरिया के विशेष प्रतिनिधि सर जस्टिनशील का लिखा हुआ है। उसमें उल्लेख है कि बहाई धर्म के संस्थापक महात्मा बाव को प्राचीन परंपराओं से भिन्न स्थापनाएँ करने के कारण तात्कालीन शासकों ने मृत्युदंड सुनाया। उन्हें 9 जुलाई 1850 को प्रातः 10 बजे सरेआम तवरीज के मैदान में गोली से उड़ाया जाना था। 10 हजार दर्शक उपस्थित थे। महात्मा बाव और उनके एक अनुयायी को रस्सों से कसकर अधर में लटकाया गया और ढाई-ढाई सौ सैनिकों की तीन टुकड़ियाँ भरी हुई बंदूकें लेकर खड़ी की गई। व्यवस्था के अनुसार गोलियाँ बराबर दागी गईं, पर 750 में से एक भी गोली नहीं लगी और महात्मा बाव अपने अनुयायी सहित साफ बच गए।

उक्त घटना कोई किवदंती नहीं है, वरन उसकी प्रत्यक्षदर्शी पुष्टि की गई है। इसी तरह एक अन्य घटना में मैसूर के राजा ने नई तोप के उद्घाटन के अवसर पर उस क्षेत्र के एक प्रख्यात साधु से आशीर्वाद माँगा। इनकार किए जाने पर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और साधु को उसी तोप की नली से बाँधकर उड़ा देने का हुक्म दिया। वैसा ही किया भी गया, पर साधु मरा नहीं। पहली बार जब उसे बारूद भरी नली ने उड़ाया तो 800 फुट ऊँचाई पर उछलकर वह दूर खड़े हाथी के हौदे पर जा गिरा। पकड़कर लाया गया और दुबारा फिर उसे उसी प्रकार तोप से कसा और उड़ाया गया। उस बार वह एक दूरस्थ झोंपड़ी के छप्पर पर जा गिरा और बच गया। तीसरी बार उसे क्षमा-याचना के साथ छोड़ दिया गया।

संत कबीर के जीवन की एक घटना है। बनारस के तात्कालीन मुगल शासक से कट्टरपंथी मुल्लाओं ने कबीर की शिकायत कर दी। उनसे कहा गया कि वे अल्लाह के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं। शासक ने उन्हें हथकड़ी डालकर गंगा में फेंक देने का आदेश दिया। विज्ञसमुदाय ने जब ऐसा करने से उसे रोकना चाहा तो कहा गया कि यदि इसका भगवान या अल्लाह कोई सगा होगा तो नदी में डूबने और मरने से बचा लेगा। अतः उसके आदेशानुसार कबीर को नदी में फेंक दिया गया। थोड़ी ही देर में वे नदी के किनारे पर आकर बैठ गए। उन्हें देखकर दैवी कृपा के आगे अनाचारियों के मस्तक झुक गए। इसी तरह आचार्य शंकर को बलि चढ़ाने की इच्छा से एक तांत्रिक धोखे से उन्हें वधस्थल पर ले गया। आचार्य मुस्कुराते हुए खड़े रहे और वह उनके शरीर पर अपना खड्ग चलाता रहा। प्रत्येक बार में खड्ग शरीर के आर-पार यों निकलता रहा, मानों हवा में घूम रहा हो। इस दृश्य को देखकर तांत्रिक भयभीत हो उठा और उनके चरणों में गिर पड़ा।

आदिकाल से लेकर अब तक जितने भी संत, महापुरुष हुए हैं और जिन्होंने भी आत्मकल्याण तथा लोक-कल्याण की दिशा में कदम उठाया है, उन्होंने परमात्मा का आश्रय मुख्य रूप से लिया है। मनुष्य के पास शक्ति भी कितनी है। बहुत थोड़ा शरीरबल, उस पर विषयों के प्रलोभन, बहुत थोड़ा साधन-बल, उस पर भी सांसारिक गतिरोध। अपनी ही सामर्थ्य पर वह न तो आत्मकल्याण कर सकता है और न संसार की ही कुछ भलाई कर सकता है; पर जब भी उसने ईश्वर को अपना सहयोगी चुना और सहायता के लिए पुकार की, वह दौड़ा और उसकी शक्ति बनकर उसने उसका मार्गदर्शन किया है। दैवी चेतना ही सदैव शक्ति बनकर मनुष्य में अवतरित होती है एवं असंभव को भी संभव बनाकर दिखा देती है।

ईश्वर, जीव, प्रकृति की विवेचना ही अध्यात्म तत्त्वज्ञान का प्रमुख विषय है। इन तीनों की सत्ता मानवी काय-कलेवर में विद्यमान है। स्थूलशरीर प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। सूक्ष्मशरीर जीव चेतना का और कारणशरीर अंतःकरण का तारतम्य परब्रह्म के साथ जोड़ता है। इस समस्त ब्रह्मांड का प्रसार— विस्तार मनुष्य की प्रत्यक्ष सत्ता में अप्रत्यक्ष रूप से अपने मनोरम स्वरूप को दर्शाता है।

क्रिया और कल्पना यह दोनों तत्त्व अन्यान्य प्राणियों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते  हैं। मनुष्य में जो अतिरिक्त भावतत्त्व है, वही उसकी आध्यात्मिक विशेषता है। यही वह सीढ़ी है, जिसके सहारे परब्रह्म के साथ सघन सायुज्य बनता है। यही वह विशेषता है, जिसके कारण उसे ईश्वर का युवराज कहा जाता है।

क्रियायोग को सांसारिक सफलता के लिए, वैचारिक तत्त्व दर्शन को प्रज्ञा की उपलब्धि के लिए और भावयोग को दिव्य तत्त्व के साथ एकात्मता प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है, भक्तियोग सबसे ऊँचा है। मीरा कहती थी— 'सबसे ऊँची प्रेम सगाई'। प्रेम के बंधनों में बँधकर माता-संतान में, पति-पत्नी में, मित्र-मित्र में जो घनिष्टता पैदा होती है, उसका आनंद लेते सभी भावुकजन देखे जाते हैं। यही जब आदर्शों के समुच्चय— परब्रह्म के साथ जुड़ जाता है तो आत्मा परमात्मा में समर्पित होकर तद्रूप बन जाता है। इसी को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। चेतन जगत की विशालता ही परमेश्वर है, इसी के अनुरूप भक्तजन अपने को सुविस्तृत करते हैं। समर्पण साधना यही है। अद्वैत चिंतन इसी को कहते हैं। तादात्म्यता में ही ईश्वरदर्शन का ऐसा रसास्वादन मिलता है, जिसकी प्यास में जीव कस्तूरी के हिरन की तरह दिशा-दिशा में तलाशता-भागता फिरता है।

उच्चस्तरीय भाव-संवेदना विकसित करने के लिए आरंभिक अभ्यास यह है कि किसी परमार्थ प्रतीक को अपना इष्ट बनाकर उसके साथ आत्मीयता का सघन संबंध जोड़ा जाए। साकार उपासक इसके लिए किसी देव-प्रतिमा को अपना आराध्य बनाते हैं और उसकी प्रत्यक्ष स्थापना करके भावभरा सर्वोच्च रिश्ता जोड़ते हैं। देव-प्रतिमाओं के माध्यम से निराकार परब्रह्म की अचिंत्य छवि को दृश्यमान— साकार बनाते हैं। इस साकार उपासना में दो परिकल्पनाएँ करनी होती हैं। एक यह कि प्रस्तुत प्रतिमा धातु या पाषाण नहीं, वरन उच्च आदर्शों की संगठना है। उसके प्रत्येक अवयव में अपने-अपने स्तर की उत्कृष्टता छलकती है। इस प्रकार की मान्यता ‘विश्वास’ कहलाती है। इस स्थापना पर श्रद्धा का, आत्मीयता का आरोपण किया जाता है। उसके प्रति प्रेमभाव दर्शाने के लिए नवधा-भक्ति में प्रयुक्त होने वाले पूजा-अर्चन के पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करने होते हैं। वस्तुओं का यह उपादान वस्तुतः अपनी विभूतियों को विराट ब्रह्म के लिए स्थायी समर्पण करने की मानसिकता को जगाता है।

प्रकारांतर से साकार पूजा-अर्चना इस मानसिक पृष्ठभूमि का निर्माण है कि आदर्शों के प्रति अपना समय, श्रम, मनोयोग एवं साधना इस स्तर का अर्पित किया जाएगा कि जिसमें उदासीनता का पुट नहीं, गहरी उमंगों का भावुक समावेश हो। इस प्रयास को परमार्थपरायणता की तैयारी कह सकते हैं। बद्ध जीव संकीर्ण स्वार्थपरता के छोटे दायरे में नाली के कीड़ों की तरह हाथ-पैर पटकता रहता है। गूलर के पेड़ों में उगते रहने वाले भुनगों की तरह अंधी हलचलें करता रहता है; पर जब उसके अंतराल में प्रेमभावना का उदय होता है तो ‘स्व’ को ‘पर’ में समर्पित करने के लिए वह आतुर हो उठता है।

प्रेम को प्रतिमा के माध्यम से गुरु या महामानव को आधार मानकर विकसित तो किया जा सकता है, पर उसे उस दायरे में सीमित नहीं रखा जा सकता। सूर्य पूर्व से उदय तो होता है, पर सदा उदयाचल पर ही नहीं बैठा रहता। उसे समस्त जगती पर अपनी ऊर्जा-आभा बिखेरनी पड़ती है। भक्तजन किसी छोटे भगवान के साथ लिपटकर छोटे नहीं बने रहते, वरन महान के साथ जुड़कर अपना दृष्टिकोण, चिंतन एवं प्रयास, संपर्क-क्षेत्र से आगे बढ़ाकर अधिकाधिक सुविस्तृत करते जाते हैं। अग्नि के लिए समर्पित होने वाला ईंधन अग्निरूप ही हो जाता है। भक्त की समस्त भाव-संवेदनाएँ ईश्वर जैसी उदार एवं महान बनती जाती हैं। उसे सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं।

निराकार साधना का एक ही उपाय-उपचार है— 'ध्यान'। तत्परता, तन्मयता, प्रतिक्रिया ही एकाग्रता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। महान प्रयोजन के साथ जुड़ते ही चंचलता चली जाती है और उद्देश्य के प्रति ऐसी लगन लगती है कि अन्य कहीं मन दौड़ता ही नहीं। मनोनिग्रह को शक्तियों का, सिद्धियों का, विभूतियों का केंद्र माना गया है। यह मनोयोग साधने के लिए ध्यानयोग का आश्रय लेना पड़ता है। ध्यान का अर्थ है— " मानसिक बिखराव को रोककर उसे तीक्ष्ण बनाना और बाण की तरह निर्धारण में अपने साधनों को प्रविष्ट करवाना।" अर्जुन को मत्स्य-वेध की सफलता इसी आधार पर मिली थी। आतिशी शीशे के छोटे से दायरे में सूर्य-किरणों को एकत्रित करने पर केंद्रबिंदु पर आग जलने लगती है। ठीक इसी प्रकार ध्यान की सघनता से अन्यान्य विषयों पर मन नहीं भटकता। इष्ट और भक्त एक हो जाते हैं। ध्यानयोग की यही पृष्ठभूमि है।

जार्ज बर्नार्ड शाॅ जैसे साहित्य-सृजेता, राममनोहर लोहिया जैसे समाजसेवी बहुत आग्रह करने पर भी विवाह के लिए इसीलिए तैयार नहीं हुए, वे कहते थे— "इससे ध्यान बटेगा और जिस एकाग्रतापूर्वक निर्धारित लक्ष्य में लगे हैं, उतनी तन्मयता फिर न रह सकेगी और कार्य में व्यवधान आ जाएगा।" ध्यानयोग का स्वरूप यही है कि चित्तवृत्तियों की भगदड़ रुक जाए और एक केंद्र पर पूरी तरह टूटे। बिखरी भाप निरर्थक चली जाती है, पर जब उसे एक केंद्र पर नियोजित किया जाता है तो रेलगाड़ी ले दौड़ती है। बारूद फैली हुई रहे तो चिनगारी लगने पर ‘भक’ से जल जाती है, पर जब उसे बंदूक की छोटी नली से भरकर एक निशाने पर दागा जाता है तो उसे बिस्मार करके रख दिया जाता है। फायर ब्रिगेड का पानी भी जब एक छोटी नली में होकर फेंका जाता है तो उसकी तेज धार अग्निकांड को बात-की-बात में बुझा देती है।

ध्यान-धारणा के लिए कोलाहल और हलचलों रहित स्थान चुनना चाहिए। पूर्व में मुख रखें। प्रातःकाल का वह समय निकालें, जिसमें सूर्य क्रमशः उदय होता हो। ऐसा स्थान या तो सबसे ऊपर वाली छत पर हो सकता है या ऐसा मैदान जिसमें पहाड़ियों, पेड़ों की ऊंचाई प्रातःकालीन सूर्यदिशा में बाधा न पहुँचाती हो। एक-दो सेकेंड ही खुले सूर्य का दर्शन करके आँखें बंद कर लेनी चाहिए और भावना करनी चाहिए कि चारों ओर संव्याप्त प्रकाश को अपने तीनों शरीरों में खींचा— भरा जा रहा है।

शरीर के तीन शक्तिकेंद्र है। नाभिस्थल— शरीर से संबंधित। मस्तिष्क— सूक्ष्मशरीर का केंद्रबिंदु। हृदय— कारणशरीर की भाव-संवेदनाओं का उद्गम। इन तीनों ही स्थानों पर छोटे कमलकेंद्रों की स्थापना भावनापूर्वक नियोजित करनी चाहिए। सूर्य का प्रकाश पाते ही कमलपुष्प खिलने लगते हैं। वहीं उपक्रम अंतराल के तीनों कमलों को सविता देव के अरुणोदय प्रकाश से खिलते हुए अनुभव करना चाहिए। कमलपुष्पों के प्रातःकालीन सूर्य-प्रकाश के साथ खिलने की स्थूल और सूक्ष्मशरीरों सहित विशेषतया हृदयकमल खिलने की अनुभूति उभारनी चाहिए। खिले कमलपुष्प की सुगंध, शोभा, कोमलता और सात्विकता का अधिकाधिक समावेश होता जाता है। भावना करनी चाहिए कि कारणशरीर हृदयकमल में इसी प्रकार सर्वतोमुखी विकास के दिव्य अनुदानों से लाभान्वित हो रहा है। इस साधना का पंद्रह मिनट से आरंभकर क्रमशः बढ़ाते हुए आधे घंटे तक पहुँचाने का निर्धारण करना चाहिए। इस प्रक्रिया से जो उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं, वे साधक को निहाल कर देती हैं।

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