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Magazine - Year 1989 - Version 2

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स्वच्छता, सुगढ़ता के पक्षधर— जीव-जंतु

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मनुष्येत्तर प्राणियों की दिनचर्या, आदतें, स्वभाव देखकर लगता है कि वे मनुष्य से कहीं अधिक अपने शरीर की, निवासस्थान की सफाई पसंद करते हैं। कुछ पशु-पक्षी तो नित्य स्नान करते देखे जा सकते हैं। कुछ आवश्यकतानुसार करते हैं, किंतु ऋतुओं के संधिकाल में वृहद सफाई का आयोजन करते हैं। इन सबके पीछे प्रकृति प्रेरणा ही रही होती है, जिसका पालन वे नियमपूर्वक एवं कड़ाई से करते हैं। इससे न केवल वे स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं, वरन् जीवन की रक्षा भी होती है।

ऋतुओं के संधिकाल में साँप अपने शरीर से केंचुल उतार देते हैं। सीपी, घोंघा आदि भी अपने शरीरों के खोल बदल देते हैं। मछलियाँ अपनी शक्ल में परिवर्तन कर लेती हैं। पक्षी अपने पंखों की निर्वाचन क्रिया कर डालते हैं। जिस प्रकार शीतऋतु बीतने पर वृक्ष अपने पुराने पत्ते गिरा देते है। अनेक जीव-जंतु अपने मुलायम रोए अथवा बालों को गिराकर नवीन बालों से सुसज्जित हो जाते हैं, किंतु यह क्रिया ऋतुचक्र कहकर टाल दी जाती है। यहाँ एक विचारणीय प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह अभियान प्रकृति द्वारा क्यों चलाया जाता है? विशेषज्ञों का इस संबंध में कहना है कि, "ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि जीवधारियों की त्वचा की ऊपरी परत में मैल जमा हो जाता है और परजीवी पलने लगते हैं। त्वचा, में टूट−फूट भी हो जाती है। इसलिए बदलना आवश्यक हो जाता है। इसीलिए ऋतुओं के संधिकाल में प्रकृति द्वारा विशेष स्वच्छता अभियान चलाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति के अधिकांश जीव-जंतु, वृक्ष-वनस्पति इस शोधन-प्रक्रिया में संलग्न देखे जाते हैं।"

कितने ही पक्षी नित्य स्नान करते हैं और अपने पंखों में छिपी गंदगी, पसीना तथा मैल और परजीवी जंतुओं को निकाल फेंकते हैं। वर्षा व गरमी के अतिरिक्त वे सर्दियों में भी स्नान करते हैं। कुछ पक्षियों के पंखों के नीचे तैलीय ग्रंथियाँ भी होती हैं, जिन्हें चोंच से नोंचकर वे तेल निकालते और परों पर तेल की कंघी जैसी करते देखे गए हैं। जलस्नान के बाद वे खुली धूप में अपने पंख सुखाते हैं, जिससे उन्हें विटामिन 'डी' प्राप्त होता है और वे वर्षभर स्वस्थ बने रहते हैं। कुछ पक्षी बालू, रेतस्नान का भी आनंद लेते हैं। इस का रहस्य यह है कि उनके परों में परजीवी पलने से खुजली होती है, अतः उन्हें नष्ट करने के लिए मृतिकास्नान करते हैं। मृतिकास्नान के उपरांत वे जलस्नान भी करते है। अतः शरीर की स्वच्छता का उन्हें पूर्ण ध्यान रहता है।

पक्षियों के अतिरिक्त पशु भी अपनी सफाई और स्नान का ध्यान रखते हैं। वे भी धूल में लेटकर परजीवियों से छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं अथवा कीचड़ और पानी में घुसकर उनसे मुक्ति पा लेना चाहते हैं। हिरन, गाय, बैल, हाथी स्वच्छ जल में स्नान करना पसंद करते हैं। हाथी, गैंडा, भैंसा आदि घंटों पानी में पड़े रहकर क्रीड़ा-कल्लोल करते रहते हैं। माँसाहारी और हिंसक जीव शेर, चीता, लकड़बग्घा तक स्नान करते हैं। हाथी धूल -मिट्टी में भी स्नान करना पसंद करता है, किंतु सुअर या भैंसे की तरह गंदी कीचड़ में लेटना पसंद नहीं करता।

शारीरिक सफाई के अतिरिक्त पशु-पक्षी अपने बिल, कोंतर, गुफा, घोंसले की सफाई का भी पूरा ध्यान रखते हैं और कितने ही पक्षी अपने घोंसलों में रोशनी तथा सुरक्षा का भी पूरा प्रबंध कर लेते हैं। सबसे विलक्षण घोंसला 'होर्नबील' पक्षी का होता है। होर्नबील की मादा वृक्ष की कोंतर में अंडे देती है, जिसे नर होर्नबील ऊपर से मिट्टी और घास-फूँस से इस तरह बंद कर देता है कि मादा केवल चोंच बाहर निकालकर केवल दाना, पानी और हवा ही ले सके तथा कोई शत्रु आक्रमण न कर सके। इतनी चतुराई से बनाए गए आवास की सफाई का होर्नबील को पूरा ध्यान रहता है। मादा अपनी अथवा बच्चों की बीट चोंच से बाहर निकाल देती है। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तब कोंतर का मुँह बड़ा कर दिया जाता है। मादा बच्चे बाहर निकलकर धूप, मृतिका और पानी से स्नान करते हैं। बाद में अपने पंखों का निर्वाचन भी।

इसी प्रकार वया पक्षी जिसे दरजी चिड़िया या बीवर्स के नाम से जाना जाता है, भी बड़े कलात्मक ढंग से अपना घोंसला बनाती है तथा बच्चों के रहने के लिए अलग प्रकोष्ठ की व्यवस्था बनाती है। पशु-पक्षियों में कम ही ऐसे पक्षी पाए जाते हैं, जो अपने रहने के स्थान को मल-मूत्र से गंदा करते हैं। चूहे, खरगोश, नेवला आदि बिल बनाकर रहते हैं। बच्चों के रहने के लिए अलग कक्ष की व्यवस्था भी रखते हैं। उनके नीचे घास-फूँस का बिछौना भी बिछाते हैं, किंतु कीड़े-मकोड़े परजीवी जंतु हो जाने पर बिछौना बदल देने में आलस नहीं करते तथा अपने निवासस्थान को को मल-मूत्र से गंदा भी नहीं करते। जहाँ तक बन पड़ता है। वे बिल के बाहर ही मल-मूत्र त्यागते हैं और भोजन के अवशेष गिराते हैं।

सहयोग, संगठन, सक्रियता की दृष्टि से ही नहीं, सफाई के मामले में मधु-मक्खियों की व्यवस्था देखते ही बनती है। इतने बड़े छत्ते में सारे काम-काज व्यवस्थित ढंग से बाँटे गए होते हैं। श्रमिक, मजदूर शहद एकत्रित करते हैं। छत्ता बनाने वाले कारीगर छत्ता बनाते हैं। यदि कहीं गंदगी नजर आती है अथवा किसी सहयोगी की मृत्यु हो जाती है तो मृतक लाश को छत्ते में नहीं रहने दिया जाता। उसे उठाकर मजदूर मक्खियाँ दूर फेंक आती हैं। इसी प्रकार कुत्ता, बिल्ली, बंदर आदि सब अपनी-अपनी तरह अलग-अलग ढंग से किसी न किसी तरह सफाई की व्यवस्था जुटा लेते हैं। बंदरों के यदि जुँए हो जाते हैं तो वे परस्पर एकदूसरे का सहयोग करके उन्हें पकड़कर निकाल फेंकते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक जीव अपने शरीर एवं निवास की सफाई सुरक्षा का ध्यान रखता है और प्रकृतिप्रदत्त स्वच्छता एवं सुरक्षा की प्रेरणा का अनुसरण करता है। इस नियम की वे कभी उपेक्षा या अवहेलना नहीं करते।

यह तो मनुष्य है, जो बुद्धि चातुर्य में तो स्वयं को प्रवीण-पारंगत मानता है, किंतु सफाई, सुगढ़ता के मामले में पक्षियों, जीव-जंतुओं से कहीं पीछे है। अस्वच्छता-अनगढ़ता ही रोगों को आमंत्रित करती है। यदि आत्मशोधन की आवश्यकता समझते हुए मनुष्य दर्शन-अध्यात्म की प्रेरणाओं को हृदयंगम करना जरूरी मानता है तो इसके बहिरंग पक्ष स्वच्छता से उसे शुभारंभ करना चाहिए। इसके लिए चाहें तो वह प्रकृति से, जीवों से प्रेरणा ले सकता है।

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