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Magazine - Year 1989 - Version 2

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प्रकृति और मानव परस्पर अन्योन्याश्रित

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मानवी जीवन और प्राकृतिक परिवेश एकदूसरे से घनिष्टतापूर्वक जुड़े हैं। एक की गड़बड़ी से दूसरा प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। व्यवहारविज्ञानियों ने इन दिनों एक नए आयाम की खोज की है। उनके अनुसार समूचे संसार में फैले मानव समाज की व्यावहारिक गड़बड़ियों का एक महत्त्वपूर्ण कारण पर्यावरणीय असंतुलन है। इनका मानना है कि अच्छे समाज, अच्छे आदमी के लिए जरूरी है कि प्रकृति संपन्न और समृद्ध हो।

बात भी सही है। आजकल प्रकृति एवं समाज की पारस्परिक अंतःक्रिया इतनी व्यापक है कि उससे समूची मानव जाति प्रभावित हो रही है। पर्यावरणीय बिगाड़ का कारण औद्योगीकरण, नगरीकरण, ऊर्जा और कच्चे माल के पारंपरिक साधनों की घटोत्तरी, प्राकृतिक असंतुलनों के विघटन, विभिन्न जानवरों व पेड़-पौधों के खाने-पीने के साधनों के विनाश को बताया जाता है।

स्वच्छंद वैज्ञानिक प्रगति तथा तकनीकी सामर्थ्य ने मनुष्य को काफी ताकत दे दी है। हम पर्वतों को हटा सकते हैं। नदियों का मार्ग बदल सकते हैं। नए सागरों का निर्माण कर सकते हैं। मतलब यह कि हम प्राकृतिक जगत में काफी फेर-बदल कर सकते हैं, परंतु कौन−सी फेर-बदल उचित है, कौन-सी अनुचित? क्या करने से सत्परिणाम सामने आएंगे, क्या करने से दुष्परिणाम? इसे बिना सोचे-विचारे कोई काम करने लगा जाए तो इसे मूर्खता के सिवा और क्या कहा जाएगा?

अमेरिकन विद्वान जे.एम. हाक 'बिहैवियरल इकाॅलॉजी' में कहते हैं कि आज यह जाहिर हो गया है कि हम प्राकृतिक जगत पर अपने अंतहीन आक्रमण तथा बगैर सोचे-विचारे उसमें बड़े फेर-बदल करके इस अधिकार का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं कर सकते और हमें करना भी नहीं चाहिए; क्योंकि इसके परिणाम हानिकारक होंगे। आधुनिक अनुसंधानों से मालूम हुआ है कि जैवमंडल पर मनुष्य के अनवरत एकतरफा और काफी हद तक अनियमित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्यता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुद्यानों में रूपांतरित करने के स्थान पर मरुद्यानों को रेगिस्तानों में प्रतिस्थापित कर देगी।

व्यवहारविज्ञानी जे. स्टैनले के अनुसार जहाँ-जहाँ इस तरह वातावरण अस्त-व्यस्त हुआ है। वहाँ के निवासियों की मानसिक स्तर की अस्त-व्यस्तता प्रत्यक्ष दिखाई देती है। उनके व्यवहार में चिड़चिड़ाहट, झल्लाहट, मारपीट, आक्रामकता को स्पष्टतः देखा जा सकता है। स्टैनले ने अपनी किताब 'माइंड एण्ड इकॉलाॅजी' में इसे समझाते हुए कहा है कि, “व्यवहार के बीज मनुष्य के मन में रहते हैं। मानसिकता के अनुरूप ही शरीर की विभिन्न गतिविधियाँ, क्रियाकलाप संचालित होते हैं। परिवेश की गड़बड़ियों का सीधा असर चेतन और अवचेतन मन पर पड़ता है।”

श्रीमद्भागवत गीता में इस बात को और अधिक ढंग से समझाया गया है। इसमें प्रकृति के आठ अंग बताए गए हैं। इन्हें अष्टधा कहा गया है। पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि पाँच बाहरी और मन, बुद्धि अहंकार तीन आंतरिक। ये बाहरी और आंतरिक घटक आपस में खूब जुड़े हैं। बाहरी प्रकृति की हलचलें आंतरिक प्रकृति को हिलाए-डुलाए बिना नहीं रहती।

इसी सबको मद्देनजर रखते हुए ए व्हाइट का 'डि ह्यूमनाइजेशन आफ मैन' में कहना है कि, "प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए; क्योंकि ऐसी हर विजय हमें अमानव बनाने वाली होती है। यह सही है कि हरेक विजय से पहले वे ही परिणाम मिलते हैं, जिनका हमने भरोसा किया था; पर दूसरी और तीसरी बार में उसके बिलकुल भिन्न तथा अप्रत्याशित परिणाम होते हैं, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है। पिछली सदी तथा मौजूदा सदी के पूर्वार्द्ध में मनुष्य का लालच इतना बढ़ा-चढ़ा नहीं था, जो सारी मानव जाति के अस्तित्व की आवश्यक शर्त के रूप में सोचने को विवश करता, यह तकाजा करता कि समाज और उत्पादन के सिलसिले में प्रकृति पर हमारे हस्तक्षेप के दूरगामी परिणामों पर विचार किया जाए, लेकिन अब यह फौरी और आवश्यक हो गया है।

अब यह साफ जाहिर हो गया है कि मनुष्य द्वारा भौतिक चीजों के लिए प्रकृति के शोषण की शैली, जीवन जीने की शैली को भी बरबाद करती है और यह ऐसे बड़े पैमाने पर होता है कि समूची मानव जाति तथा अन्य जीवधारी उसकी चपेट में आ जाते हैं।

हमारा जीवन सरल, सौम्य और मृदुल बने, इसके लिए जरूरी है कि हम पृथ्वी पर जीवन-प्रणाली के विभिन्न तत्त्वों पर अपने प्रभाव को सावधानीपूर्वक देखें, समझें और सुधारें। पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप रूपांतरित करना एक सीमा तक तो ठीक है। विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकंपों, टाइफूनो, चक्रवातों, बाढ़ व सूखा, चुंबकीय और सौर आँधियों से भी संघर्ष करना पड़ेगा, परंतु यह केवल उन नियमों के अनुसार ही किया जा सकता है, जिनके द्वारा जैवमंडल एक अखंड व स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता तथा विकसित होता है। आज का पर्यावरणीय सवाल महज प्रदूषण तथा मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलापों के दूसरे नकारात्मक परिणामों तक सीमित नहीं है। यह हमारी जीवनशैली को गढ़ने से भी संबंधित है।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहले के वीरान क्षेत्रों में नई-नई बस्तियाँ बस जाने, जहरीले पदार्थों के व्यापक उपयोग तथा प्रकृति के निर्मम शोषण की वजह से विभिन्न जीव-जातियों के गायब होने की दर तेजी से बढ़ गई है। जीवाश्मवेत्ताओं का मानना है कि इसके इस खात्मे में इनका पारस्परिक आक्रामक व्यवहार भी एक बड़ा कारण है।

पिछले 2000, वर्षों में जो जातियाँ गायब हुई हैं, उनमें आधी से अधिक 1900 के बाद हुई हैं। जैविकीविदों की मान्यता है कि पिछले 350 सालों में, 19 वीं सदी के मध्य तक प्रति दस साल में प्राणियों की एक जाति या उपजाति नष्ट हुई है।

प्रकृति व प्राकृतिक साधनों के एक अंतर्राष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर साल एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग 1000 जातियों के गायब होने का खतरा है।

इस जैविकीय दारिद्रीकरण का प्रभाव बताते हुए एक व्यवहारविज्ञानी एफ.ए. बीमान का 'बिहेवियरल एग्रेशन एण्ड एनवायरनमेन्ट' में कहना है कि वर्त्तमान शती में पर्यावरण ध्वस्त होने के साथ शनैः शनैः मनुष्य का व्यवहार भी अधिकाधिक आक्रात्मक होता गया है। इससे पहले के मानवीय इतिहास के पृष्ठ सिर्फ कुछ व्यक्तियों की व्यावहारिक विकृतियों को ही बताते हैं। इन कुछ को छोड़कर शेष दुनिया के आदमियों ने पारस्परिक सरलता और सौम्यता ही पसंद की है, पर अब बदलते माहौल में सभ्य दुनिया के हर कोने में मानवीय व्यवहार के अमानवीकरण की झलक देखी जा सकती है।

इस अमानवीकरण को हटाने के लिए जरूरी है कि प्रकृति के साथ मनुष्य जाति के व्यवहार के तौर-तरीके बदलें। इसके लिए उस नीति को बदलना होगा, जिसके अंतर्गत प्रकृति पर विजय प्राप्त करने, उसके विभिन्न साधन-स्त्रोतों से मनचाही लूट-खसोट करने को ही सामाजिक लक्ष्य मान लिया गया है।

हम हँसी-खुशी की जिंदगी जी सकें, इसके लिए संतुलित रीति हर हालत में आख्तियार करनी ही होगी। इसके प्रयोग के तौर-तरीके, स्थान-परिवेश और उसकी अवस्थाओँ-आवश्यकताओं के अनुरूप अवश्य भिन्न हो सकते हैं। सहयोग, संरक्षण, सद्भाव का यह प्रवाह हमारे व्यावहारिक विकारों को धीरे-धीरे दूरकर निर्मल करता जाएगा। इसके लगातार बने रहने के लिए जरूरी है— हम सभी का एकजुट प्रयास, जो एकदूसरे में निरंतर इसके लिए प्रेरणा भरता रहेगा। यही 'डीप इकाॅलाॅजी' का तत्त्व दर्शन है।

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