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Magazine - Year 1989 - Version 2

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उज्ज्वल भविष्य को साथ लिए इक्कीसवीं सदी, गंगावतरण की तरह, अपनी इस धारित्री को सुखद संभावनाओं से भरा-पूरा करने के लिए, अगले ही दिनों जन-जन को अपने अवतरण का आभास कराने के लिए चल ही पड़ी है। यह प्रभातपर्व उसी सूचना का उद्घोष कर रहा है। गंगा का प्रवाह गोमुख— गंगोत्री से एक पतली धारा के रूप में निःसृत हुआ है। बाद में वह अनेकानेक भागीदार नदी-नालों को अपने साथ समेटता हुआ, सोनपुर-पटना में कई मील चौड़ा हो गया है और गंगासागर के महामिलन तक पहुँचते-पहुँचते सहस्रधाराओं में विभाजित दीख पड़ने लगा है। युगचेतना का मत्स्यावतार भी इसी प्रकार अपने क्षेत्र-कलेवर का विस्तार करते-करते, समस्त विश्व पर छा जाने का मानस बना चुका है। युगसंधि इसी प्रसव वेदना की घड़ी है। इस सुनिश्चित संभावना को हम में से अधिकांश अपनी इन्हीं आँखों से देख सकने में समर्थ होंगे।

शुभारंभ एक क्षेत्र-बिंदु से होता है और उसका विस्तार समयानुसार-क्रमानुसार होता चला जाता है। नवस्थापित भ्रूण, सुई की नोंक के बराबर होता है। अभिवृद्धि का क्रम उसे एक समग्र शिशु ही नहीं बनाता, वरन क्रमानुसार वह परिपूर्ण प्रौढ़ मनुष्य बन जाता है। बीज को वृक्ष में विकसित होते हम सभी देखते हैं। नव्य समाज की भव्य संरचना का नियोजन, अपने दायरे में समेटेगा तो समस्त संसार को, किंतु उसका आरंभिक शिलान्यास छोटे रूप में शान्तिकुञ्ज परिकर में होता देखकर किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

आरंभ अपने घर से ही होता देखा गया है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए जिस भागीरथी प्रयत्न की आवश्यकता है, उसे कर गुजरने का भार नियंता ने अखण्ड ज्योति परिवार की छोटी मंडली को सौंपा है। क्रमशः उसके विकास-विस्तार की संभावना भी बढ़ेगी ही। इन दिनों सूत्रधार उसी का ताना-बाना बुन रहा है, श्रेयाधिकारियों को उनके संचित सुसंस्कारों के आधार पर एक छत्र-छाया के नीचे एकत्रित कर रहा है। यही है वह निर्धारित भूमिका, जिसे अनौचित्य का निवारण और औचित्य का अभिवर्द्धन करने में समर्थ देवताओं के संग्रहित बल पर आधारित, पौराणिक दुर्गावतरण के समतुल्य ही समझा जाना चाहिए। राम के रीछ-वानर, कृष्ण के ग्वालबाल, बुद्ध के परिव्राजक, गांधी के सत्याग्रही, निजी स्थिति में तो अकिंचन ही थे, पर उनके साथ जुड़ी हुई दिव्य सत्ता ने ही उनके माध्यम से वे प्रयोजन पूरे करा लिए थे, जिन्हें मोटे रूप में असंभव नहीं तो आश्चर्यजनक से कम नहीं समझा जा सकता। इस शृंखला में एक कड़ी अखण्ड ज्योति परिजनों की भी जुड़ती है, जो अपनी तुच्छ संख्या और शक्ति के होते हुए भी, विश्व-व्यवस्था में असाधारण हेर-फेर कर देने की तैयारी में लगे हैं। इनके संकल्प और पराक्रम नगण्य हो सकते हैं, पर तूफानों के साथ जुड़कर धूलिकणों को भी आकाश पर छा जाते जिनने देखा है, उनके लिए इसमें अनहोनी जैसी कोई बात लगेगी नहीं।

दशरथ कुमार विश्वामित्र आश्रम में अभीष्ट साधना करने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए गए थे। वसुदेव पुत्र भी संदीपन आश्रम की पढ़ाई के साथ बहुत कुछ साथ लेकर लौटे थे। बुद्ध विहारों ने धर्मचक्र-प्रवर्तन में, देखने में साधारण, किंतु पुरुषार्थ में अत्यंत शक्तिशाली महामानव विनिर्मित करके दिए थे। नालंदा, तक्षशिला की इमारतें भले ही साधारण रहीं हों, पर उन खदानों में ऐसे नररत्न उभरे, जिनने समूचे वातावरण को अपने समय में ऊर्जा और आभा से भर दिया। पुरातन गुरुकुलों का इतिहास भी ऐसा ही है।

अखण्ड ज्योति पत्रिका के छपे पृष्ठ, प्रस्तुत परिकर के सदस्यों को उच्चस्तरीय प्रेरणा पहुँचाते रहे हैं। उनके पाठकों ने अपने में उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ उभरते देखी हैं। इस संकेत पर उन्हें लगने लगा है कि युग-परिवर्तन की इस संधिकाल में उन पर भी कुछ अतिरिक्त उत्तरदायित्व डाले जा रहे हैं। वे भारी-भरकम होते हुए भी ऐसे नहीं हैं कि किसी के निर्वाह और परिवार की व्यवस्था को गड़बड़ाएँ। अपनी उपलब्ध शक्तियों का एक बहुत छोटा अंश नवसृजन के लिए लगाते रहने पर भी इतना कुछ बन पड़ सकता है, जिसे अविस्मरणीय, अभिनंदनीय एवं ऐतिहासिक कहा जा सके। प्रतिभा परिष्कार का निजी लाभ मिलने के अतिरिक्त ऐसे पुण्य-परमार्थ का संचय भी, इस अनुपात में पड़ सकता है, जिसकी प्रतिक्रिया आत्मसंतोष, लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह के रूप में हाथों-हाथ देखी जा सके।

इसके लिए व्यक्तित्वों में सुधार-परिष्कार को किसी-न-किसी प्रकार समाविष्ट करना ही होगा। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में अखण्ड ज्योति परिजनों के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण, साधना-संदर्भ एवं परामर्श-अनुदान की विशेष व्यवस्था की गई है। यों यहाँ पहले से ही एक-एक मास के युगशिल्पी सत्र और नौ-नौ दिन के साधना-सत्र निरंतर चलते रहे हैं, पर वर्ष 1990 में एक विशेष व्यवस्था बनाई गई है कि इस अवधि में मात्र अखण्ड ज्योति के स्थायी सदस्य ही शान्तिकुञ्ज आएँ और वे पाँच दिन का एक सत्र संपन्न करें। पाँच-पाँच दिन के सत्र इसलिए रखे गए हैं कि लाखों परिजनों को इस एक वर्ष में ही अभीष्ट प्रेरणा देकर लाभान्वित किया जा सके। हर महीने पाँच सत्र होंगे (1) ता. 1 से 5 (2) ता. 7 से 11 (3) ता. 13 से 17 (4) ता. 19 से 23 (5) ता. 25 से 29; बीच का एक-एक दिन आने-जाने वालों की सुविधा के लिए छोड़ा है। इसके लिए शान्तिकुञ्ज में भी अखण्ड ज्योति परिजनों की एक नई सूची रखी जाने की व्यवस्था की गई है, ताकि जब वे आने का आवेदन करें, तो उनके संबंध में आवश्यक जानकारी यहाँ सहज ही तत्काल मिल जाए और मथुरा से सूचनाएँ मँगाने-भेजने में व्यर्थ समय नष्ट न हो।

इस लेख के साथ अतिरिक्त जानकारी-पत्रक जोड़ा गया है। आशा की गई है कि वर्त्तमान सदस्य, अपने संबंध में आवश्यक जानकारियाँ भरकर यथासंभव जल्दी भेज देंगे, ताकि महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए यहाँ उनका संग्रह और उपयोग किया जा सके।

साथ वाले पत्रक में हर परिजन की जन्मतिथि या तारीख, जन्मस्थान एवं समय की भी माँग की गई है। इस जानकारी के आधार पर उनके निमित्त विशिष्ट विधि से प्रेरणा अनुष्ठान किया जाता रहेगा और जन्मदिन के उपलक्ष्य में शुभकामनाओं और परामर्शों का एक पत्रक भी डाक से भेजा जाता रहेगा। चूँकि चर्चा आध्यात्मिक स्तर की है, अतः इन पंक्तियों में उनका सीमित उल्लेख ही किया जा रहा है। पाठकों की नवयुग के अनुरूप विशिष्ट भूमिका को देखते हुए इस संदर्भ में बहुत कुछ समझा-समझाया और किया जाना है। पत्रक के साथ छोटे साइज के फोटो भी माँगे गए हैं। इसके आधार पर व्यक्तित्वों का स्तर जाना जा सकना तो सरल रहेगा ही, इसके साथ चित्रों की एक विधा यह भी है कि उन तक ऐसा कुछ पहुँचाया जा सके, जो प्रगति-पथ पर अग्रसर करने में सहायक हो।

'इक्कीसवीं सदी में अखण्ड ज्योति परिजनों का योगदान' के नाम से एक विशाल ग्रंथ अनेक खंडों में प्रकाशित करने की भी योजना है, जिसमें उन प्रतिभाओं का सचित्र उल्लेख रहे और जिससे असंख्यकों को यह प्रेरणा मिल सके कि सामान्यों के लिए भी असामान्य पुरुषार्थ कर सकना कैसे संभव हो सकता है? प्रस्तुत इतिहास, असंख्यों में उत्साह भरने एवं नवचेतना उभारने में खरा सिद्ध हो सकेगा, ऐसा विश्वास है। जिनके पास फोटो न हो, उनके लिए शान्तिकुञ्ज में भी अति सस्ती व्यवस्था कर दी गई है।

सन् 90 के आरंभ में ही उपरोक्त जानकारी संपन्न कर ली जानी है, इसलिए आशा की गई है कि जिन्हें यह सब भेजने में आपत्ति न हो, वे इस कार्य को यथासंभव जल्दी ही पूर्ण करेंगे।

उपरोक्त विषयक पत्र, शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार के पते पर भेजें। अखण्ड ज्योति, मथुरा में तो प्रकाशन, मुद्रण प्रेस ही है; अस्तु चंदे का हिसाब-किताब ही वहाँ रहता है।

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