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Magazine - Year 1989 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रगतिशील अध्यात्म ही युगानुकूल

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देखने-सुनने में धर्म और विज्ञान एकदूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, पर वास्तविकता इससे भिन्न है। यह न तो परस्पर विरोधी हैं, न एकदूसरे से पृथक, वरन ये एकदूसरे के सहयोगी और पूरक हैं।

इस दिशा में भूल तब हुई, जब दोनों को एकदूसरे से पृथक मान लिया गया, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। दोनों एक रथ के दो पहियों के समान हैं, जिसमें एक के बिना दूसरे की गति संभव ही नहीं है। इस संबंध में अंग्रेज भौतिकविद डाॅ. फ्लेमिंग का कथन है कि, "यदि विज्ञान, धर्म से अलग होता, तो यह सृष्टि-संरचना आज हम भलीभाँति नहीं समझ पाते। इसे ठीक-ठीक समझने के लिए दोनों का ही आश्रय लेना पड़ता है।" कोई वस्तु 'कैसे' बनी? इसका उत्तर विज्ञान देता है, किंतु जब यह पूछा जाता है कि आखिर यह वस्तु 'क्यों' बनी? तो यहाँ विज्ञान मौन हो जाता है। यही विज्ञान की अंतिम सीमा है। इसके बाद धर्म की शुरुआत होती है। इस 'क्यों' का उत्तर वही दे सकता है। उदाहरण के लिए इस विश्व-ब्रह्मांड को लिया जा सकता है। इसकी रचना कैसे हुई? इसका उत्तर विज्ञान यह कहकर देता है कि अति आरंभकाल में एक महाविस्फोट हुआ और इसी से यह सृष्टि बनी, पर यह सृष्टि बनी क्यों? इसका उत्तर अध्यात्म देता है कि इसके पीछे भगवत् इच्छा थी। इसी प्रकार जीवन की उत्पत्ति संबंधी विज्ञान की मान्यता है कि जीवन का विकास कुछ रसायनों के संयोग से हुआ, पर प्रश्न यह है कि जड़ समझे जाने वाले इन तत्त्वों में गति कहाँ से आई? चलकर मिलने की प्रेरणा किसने दी? इसका उत्तर धर्म देता है, कहता है कि इसके पीछे परम सत्ता के एक से अनेक बनने की इच्छा ही मुख्य भूमिका निभाती है और प्रेरणा का उद्गम स्रोत बनकर सबको क्रिया के लिए प्रेरित करती है।

इस प्रकार देखा जाए तो ज्ञात होगा कि धर्म और विज्ञान एकदूसरे के सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। जब एक ही वस्तु से संबंधित दो प्रश्नों में से एक का उत्तर धर्म देता है और दूसरे का विज्ञान तो यह कैसे कहा जा सकता है कि दोनों एकदूसरे से पूरक नहीं हैं। इससे तो दोनों का एक समग्र युग्म बनता है। इस युग्म में से यदि किसी एक को भी निकाल दिया जाए तो हमें जो ज्ञान प्राप्त होगा, वह अधूरा होगा। विज्ञान को पृथक करने से हम संरचना संबंधी ज्ञान से अनभिज्ञ रहेंगे, जबकि धर्म— अध्यात्म के अभाव में हमें रचना के पीछे का प्रयोजन समझ में नहीं आएगा। अतः समग्रता दोनों के मिलने में ही संभव है।

कुछ लोगों का कहना है कि विज्ञान धर्म का समर्थन नहीं करता, पर इस कथन में यथार्थता की कमी नजर आती है। विज्ञान अपने विभिन्न प्रकार के प्रयोग-परीक्षणों से यही सिद्ध कर रहा है कि इस सृष्टि में सब कुछ सुनियोजित और सुसंबद्ध है। निष्प्रयोजन यहाँ कुछ भी नहीं। अध्यात्म इसी को दूसरे शब्दों में कहता है कि इस सृष्टि का सृजेता एक परोक्ष व्यवस्था तंत्र है और उसी की अभिव्यक्ति यह सुंदर-सुव्यवस्थित संसार है। इस तरह जब दोनों एक ही सच्चाई को अपनी-अपनी भाषा में अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त करते हैं, तो दोनों में भिन्नता कैसी? विज्ञान तर्क, तथ्य, प्रमाण का सहारा लेता है, तो अध्यात्म आस्था और विश्वास पर टिका हुआ है। विज्ञान प्रत्यक्षवाद को मानता है और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए तर्क, तथ्य, प्रमाण को कसौटी मानकर चलता है, जबकि धर्म— अध्यात्म व्यक्ति की अंतःसत्ता को परिष्कृतकर सच्चाई की जड़ तक पहुँचाता है। संभवतः इसीलिए अंग्रेज विद्वान ओलिवर लॉज ने कहा है कि, "धर्म और पूर्णताप्राप्त विज्ञान का क्षेत्र एक ही है।" यह सही भी है, क्योंकि भौतिक जगत में विज्ञान जो कार्य कर रहा है, उसी का संपादन अध्यात्म जगत में धर्म कर रहा है। अंतर सिर्फ इतना भर है कि एक प्रत्यक्ष है, तो दूसरा परोक्ष। अतः दोनों एकदूसरे के विरोधी कैसे हुए?

विज्ञान एवं धर्म— अध्यात्म का एकदूसरे का विरोधी तो तब कहा जाता है, जब यथार्थ चिंतन की उपेक्षा करके किन्हीं पूर्वाग्रहों के साथ चिपके रहने पर बल दिया जा रहा हो। प्रायः हम इसे भुला देते हैं कि हमारी प्रगति क्रमशः ही हुई है और ऐसे ही अनंतकाल तक होती रहेगी। पूर्ववर्त्ती लोगों ने जो कुछ कहा या किया था, वह अंतिम था और सुधार की तनिक भी गुंजाइश नहीं, यह मान बैठने से प्रगति-पथ अवरुद्ध हो जाता है और सत्य की ओर अग्रगामी कदम रुक जाते हैं। विज्ञान ने अपने को इस स्थिति से अलग रखा एवं पिछली जानकारी से लाभ उठाकर आगे की उपलब्धियाँ हस्तगत करने के लिए प्रयत्न-पुरुषार्थ जारी रखा। अतः वह क्रमशः अधिक सफल— समुन्नत होता चला गया। अध्यात्म ने ऐसा नहीं किया और 'बाबा वाक्यं किं प्रमाणं' की नीति अपनाकर पहले के लोगों द्वारा कहे एवं पुस्तकों में लिखे वचनों को ही पत्थर की लकीर मानकर चलता रहा, जिससे वह उसी स्थिति में पड़ा रहा। इस बीच एक लंबा समय गुजर गया, परिस्थितियों में परिवर्तन आया और वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में पुरातन धर्म प्रतिगामी नजर आने लगा, जबकि होना यह चाहिए था कि समय और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी सुधार होते। विज्ञान ने इस दिशा में अधिक उदारता और साहस का परिचय दिया; फलतः आज वह अपनी आरंभिक अविकसित स्थिति से सुविकसित स्थिति में जा पहुँचा है, जबकि धर्म— अध्यात्म के साथ ऐसा न हो सका।

यों कहने को तो धर्म को शाश्वत, सनातन और अपरिवर्तनशील माना जाता है, पर तनिक सूक्ष्मदृष्टि से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह न तो अनादि है, अनंत और न अपरिवर्तनीय ही। समय और परिस्थिति के अनुरूप समय-समय पर इसमें भी सुधार, परिवर्तन होते रहे हैं। उच्चस्तरीय आत्माएँ, अवतारी, महापुरुष इसी प्रयोजन के लिए अवतरित होते रहे हैं। हाँ! इतना अवश्य है कि इस दिशा में इसकी गति विज्ञान की तुलना में धीमी रही है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि धर्म आज भी अपने मूल रूप में पड़ा हुआ है और इसमें किसी प्रकार का विकास-परिवर्तन हुआ ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि विज्ञान की भाँति इसका भी क्रमिक विकास होता आया है और आगे भी होता रहेगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि दोनों ही प्रगतिशीलता के पक्षधर हैं और बदलते काल के साथ-साथ युगानुकूल सुधार-परिवर्तन की आकांक्षा रखते हैं। ऐसे में दोनों को एकदूसरे का विरोधी कहना किसी प्रकार समीचीन न होगा।

वस्तुतः धर्म और विज्ञान एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं। एक हमें सच्चाई को तर्क, तथ्य, प्रमाण की कसौटी पर कसना सिखाता है, तो दूसरा नैतिक नियमों व उच्च आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाता है। एक उपार्जन की विधा बताता है, तो दूसरा 'शतहस्त समाहरं सहस्रहस्तं संकिर' कहकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग का निर्देश देता है, तरीका बताता व प्रयोजन समझाता है। एक प्रत्यक्षवाद पर आधारित है और दूसरा परोक्षवाद पर। एक के अनुसंधान का विषय पदार्थ जगत है, तो दूसरे का आत्मजगत। एक पदार्थ सत्ता का अन्वेषण स्थूलयंत्र उपकरणों के माध्यम से करने का प्रयास कर रहा है, तो दूसरा आत्मसत्ता का उद्घाटन साधना प्रयासों द्वारा करता है। दोनों मूल सत्ता के ही दो रूप हैं। विज्ञान— अध्यात्म उन्हें ही अपने-अपने ढंग से ढूँढ़ने का उपक्रम कर रहे हैं। दोनों के साथ रहने में ही समग्रता बनती है। अतः दोनों एकदूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। जीवन में अध्यात्म का, धर्म-धारणा का भी उतना ही महत्त्व है, जितना विज्ञान का। अस्तु जीवन में दोनों का समावेश ही कल्याणकारी हो सकता है। यह आज की सर्वोपरि आवश्यकता भी है।

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