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Magazine - Year 1989 - Version 2

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प्रकाश रश्मियों की विज्ञान सम्मत ध्यान प्रक्रिया

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मनुष्य को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक दृष्टि से सुविकसित-समुन्नत बनाने में - दीर्घायुष्य प्रदान करने में रंगीन प्रकाश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विज्ञान जगत में उपचार की इस विधि व्यवस्था को फोटो क्रोमोथेरेपी, कलर ब्रीदिंग, कलर मेडिटेशन आदि नामों से जाना जाता है। वर्णों के आधार पर चिकित्सा की यह पद्धति भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। योग-साधनाओं में तो सूर्योपासना एवं रंगोपचार की अनेक विधाओं का उपयोग साधक की मनःस्थिति को दृष्टिगत रख समर्थ मार्गदर्शकों द्वारा किया जाता रहा है। भारतीय दर्शन के प्रवक्ताओं द्वारा ध्यान साधना में भिन्न-भिन्न रंग संवेदनाओं का प्रयोग प्रमुख विधा के रूप में किया जाता रहा है। यह प्रभाव उथली संवेदनात्मक प्रतिक्रिया तक सीमित न रहकर आध्यात्मिक विकास में अतीन्द्रिय क्षमताओं के उन्नयन में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने लगता है। उचित वर्ण का चुनाव कर उनसे लाभ उठा सकना हर किसी के लिए संभव है।

विभिन्न रंगों की सहज उपलब्धता प्रातःकालीन स्वर्णिम आभा लिए उदय होते सूर्य से होती है। अध्यात्म साधनाओं में सविता देवता की भौतिक उपासना सूर्य सेवन और आध्यात्मिक उपासना तेजस का ध्यान करते हुए की जाती है। भारतीय तत्वदर्शियों ने सविता को सहस्र किरणों वाला माना है और उनकी प्रधान एवं सुपरिचित किरणों को ‘सात रश्मि’ कहा है। वायु पुराण में उल्लेख है कि सूर्य की सहस्र रश्मियाँ हैं उनमें से सात प्रधान हैं। ऋग्वेद 10/139/1 में, कौशीतकि ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में भी सात रंग की रश्मियों का वर्णन है। उनके नाम - (1) सुषुम्णा (2) हरिकेशः (3) विश्वकर्मा (4) संपहंसु (5) अर्वावसु (6) विश्वश्रवः और (7) स्वराट्- गिनाये गये हैं। उन नामों में उन विशेषताओं का एवं शक्तियों का संकेत है जो भौतिक जगत में प्रगति का और आत्मिक जगत में ब्रह्मतेज का पथ प्रशस्त करती हैं। सात रंगों के रूप में हम उनका प्रत्यक्ष परिचय चर्म चक्षुओं से भी प्राप्त करते हैं। त्रिपार्श्व (प्रिज्म) से गुजारने पर इन्हें क्रमशः कढ्ढक्चत्रंघह्रक्र अर्थात् बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल रूप में देखा जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में यही सप्तरश्मियाँ सप्तज्ञान भूमिकाओं- शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंशक्ति, पदार्थाभावनी और तुर्यगा की द्योतक मानी जाती हैं। इन्हें सप्त साधन के रूप में अर्थात् शोधन, दृढ़ता, स्थैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष एवं निर्लिप्तता के अर्थ के भी साथ प्रयुक्त किया जाता है।

सूर्य की सात रंग की किरणें जब मनुष्य के व्यक्तित्व में समाहित होती हैं, तो वे कुछ विभूतियों, विशिष्टताओं के रूप में परिलक्षित होती हैं। ये हैं- साहस, पराक्रम, संयम, संतुलन, एकाग्रता, प्रफुल्लता एवं उत्साह। यही हैं वे विशेषताएँ जिनके आधार पर साधारण सामान्य स्तर का मनुष्य भी प्रतिभावान एवं सफल सम्पन्न बनता हैं इन गुणों की न्यूनता ही मानव को पिछड़ेपन से ग्रस्त रखती है। प्रकाश रंगों का भावप्रवण ध्यान न केवल उन कमियों को दूर करता है वरन साधक को सद्गुण सम्पन्न बनाता और अतीन्द्रिय शक्तियों को उभारता है। चेतना के उच्च आयामों की ओर आरोहण करने में इससे काफी सहायता मिलती है।

भाव संवेदनाओं को उभारने में इनसे महत्वपूर्ण सफलता मिलती है। मानसिक विकास एवं मन के शिथिलीकरण में रंगों की ध्यान-धारणा का प्रयोग प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। योगाभ्यास की षट्चक्र वेधन प्रक्रिया में विभिन्न रंगों का ही ध्यान किया जाता है। आधुनिक काल के पाश्चात्य मनोचिकित्सकों-विशेषज्ञों ने भी मनोरोगों के निवारण में रंगों के ध्यान से आशातीत सफलता पाई है। व्यक्तित्व विकास में मानसिक एकाग्रता आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने प्रकृति के अनुरूप रंगों के ध्यान को उपयुक्त माना है।

प्रख्यात रंग चिकित्सा विज्ञानी एस.जी.जे. ओसिली ने अपनी पुस्तक- ‘‘कलर मेडिटेशन” में बताया है कि ध्यान के साथ रंगों का घनिष्ट सम्बन्ध है। मन भावना और रंग परस्पर गुँथे हुए हैं। उन्होंने प्रकाश के सात रंगों को सूक्ष्म शरीर स्थित सात चक्रों, एवं स्थूल शरीर की अंतःस्रावी ग्रंथियों के साथ संबंधित बताया है। श्वेत रंग को उन्होंने दिव्य प्रकाश का स्वरूप माना है जिसका केन्द्र सहस्रार चक्र और उससे जुड़ी पीनियल ग्रंथि है। श्वेत प्रकाश का ध्यान करने से ज्ञान केन्द्रों का अनावरण होता है। आज्ञाचक्र एवं उससे संबन्धित पिट्यूटरी ग्रन्थि पीले रंग का ध्यान करने से प्रभावित उत्तेजित होती है। विशुद्धि चक्र एवं थायराइड ग्लैण्ड नीले रंग से, अनाहत चक्र तथा उससे जुड़ी अंतःस्रावी ग्रन्थि थाइमस हरे रंग की प्रकाश रश्मियों से सक्रिय बनती एवं जाग्रत होती है। मणिपुर चक्र का सम्बन्ध एड्रीनल ग्रन्थियों से होता है। यही वह केन्द्र है जो सूर्य की विविध प्रकाश ऊर्जा तरंगों का अवशोषण करता है और समस्त शरीर को वितरित करता है। अन्यान्य चक्रों को उनके अनुरूप रंग प्रकम्पनों पूर्ति यहीं से होती है। इससे जहाँ शरीर की जीवनी शक्ति मिलती है वहीं चक्रों-कमलों से सम्बन्धित एवं नियंत्रित अंगों में रंगों का सही अनुपात बना रहता है। इस चक्र प्रभावित करने सक्रिय बनाने के लिए नारंगी रंग का ध्यान किया जा सकता है।

मनीषीगणों के अनुसार षट्चक्र प्राण ऊर्जा के केन्द्र माने गये हैं। उनसे प्रस्फुटित होने वाली ऊर्जा तरंगों से ही जीवन की समस्त गतिविधियाँ संचालित नियंत्रित एवं अभिप्रेरित होती है। तमसाछन्न होने के कारण इन शक्तियों का ज्ञान एवं सदुपयोग मनुष्य नहीं कर पाता और दीन-हीन स्थिति में पड़ा जीवन ऊर्जा का अपव्यय करता रहता हैं। इन शक्ति केन्द्रों के अपने विशिष्ट रंग, प्रभाव और सामर्थ्य होते हैं जिन्हें रंग विशेष के ध्यान द्वारा जाग्रत किया और उभारा जा सकता है। विशिष्ट रंग प्रकंपनों को आकर्षित कर अपने आभा मण्डल को -प्राण ऊर्जा को सशक्त, आकर्षक एवं सुखदायी बना सकना सभी के लिए सहज संभव है।

योग साधनाओं, उपासनात्मक-क्रिया- कृत्यों-कर्मकाण्ड के विविध विधि-विधानों में भिन्न-भिन्न रंगों का निर्धारण है। तंत्र साधना में प्रायः लाल वर्ण को इसलिए महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि उसमें इष्टदेव को बल और आक्रोशपूर्वक वशवर्ती करना होता है। यह विचार यदि ठण्डे पड़ जायँ और साधक को बीच में ही साधना छोड़नी पड़े, तो न सिर्फ उसके अब तक के समय - श्रम बर्बाद होंगे, वरन प्राण - संकट भी उठ खड़े होंगे। इसीलिए ऐसी साधनाओं में लाल रंग के प्रयोग से निकलने वाली लाल प्रकाश तरंगें साधक की भावनाओं को वैसी ही उग्र बनाये रखने में मदद करती हैं, ताकि साधना निरुत्साह के कारण न टूटे। इसी प्रकार पूजा उपासना और सात्विक साधनाओं में प्रायः पीले अथवा श्वेत रंग का प्रयोग किया जाता है, जो साधक की सात्विक विचारधारा को उस काल में उद्दीप्त करते रहता है।

थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम एच.पी. ब्लैकेट्स्की ने अपनी कृति “प्रेक्टिकल आकल्ट्ज्म” में बताया है कि रंगों का मानव जीवन से घनिष्ट संबंध है। रंग विशेष के वातावरण में ध्यान करने पर मन की एकाग्रता सधती और ध्यान जनित आनन्ददायी अनुभूतियों का लाभ भी साधक को मिलता है। आधुनिक रंग चिकित्सा विशेषज्ञों ने इस संदर्भ में गहन अध्ययन एवं अनुसंधान किये है और पाया है कि मानवी चेतना रंगों से बहुत अधिक प्रभावित होती है। उनके अनुसार नारंगी रंग ध्यान करने अथवा उस वातावरण में रहने से मानसिक क्षमता बढ़ती है। इच्छाशक्ति-संकल्पबल को सुदृढ़ बनाने में इस रंग की महती भूमिका होती है। बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास के लिए इसे उपयुक्त पाया गया है। हरे रंग का ध्यान भी मानसिक प्रफुल्लता तथा शान्ति प्रदान करता है। स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदि भावनाओं को कम करने, उनका परिमार्जन परिष्कार करके परमार्थ की पवित्र कर्मों के सम्पादन की मैत्री की भावना उत्पन्न करने में हरा रंग बहुत सहायक होता है। सूक्ष्म शरीर के विकास में प्रधान भूमिका इसी की होती है। नीला रंग शीतल-सुखद माना गया है। मानसिक उत्तेजनाओं को समाप्त कर शान्ति प्रदान करने में इससे महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। आत्मिक विकास के लिए प्रयुक्त होने वाले ध्यान साधना में इसी रंग को प्रमुखता दी जाती है। इसे श्रद्धा, भक्ति एवं सत्याचरण की भावना को प्रेरित- उद्वेलित करने वाला माना गया है।

मूर्धन्य रंग चिकित्सा विज्ञानी मेरी एंडरसन के अनुसार लाल रंग अग्नि तत्व का द्योतक है। इसकी गणना रक्त एवं स्नायुओं को उत्तेजना प्रदान करने वाले तत्वों में की जाती है। इसकी अधिकता भौतिक शरीर के लिए अस्वास्थ्य कर होती है। अनेक भावनात्मक असंतुलनों को लाल रंग के अनुपात में संतुलन बिठाकर अथवा इसका ध्यान कर संतुलित किया जाता है। पीला रंग ज्ञान का, प्रतिभा का, तर्कबुद्धि का प्रतीक माना जाता है। शरीर में इसका सही अनुपात व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस रंग का सेवन करने या ध्यान करने से निराशा, अवसाद, उदासी चिन्ता, विषाद, आदि मानसिक विकास दूर होते है। आसमानी, गहरा नीला एवं बैंगनी रंग ठंडे प्रकृति के होने के कारण मानसिक प्रसन्नता प्रदान करते हैं। इनमें आसमानी रंग का ध्यान अंतर्ज्ञान का अंतःप्रज्ञा का बोध कराता है। उच्चस्तरीय अतीन्द्रिय सामर्थ्य एवं मानसिक क्षमताओं को जाग्रत करने में इस रंग से काफी सहायता मिलती है।

बैंगनी रंग सबसे अच्छा एवं शान्तिदायक रंग माना गया है। इसके प्रकम्पन मानसिक रूप से विक्षिप्त उन्मादी व्यक्ति को भी स्वस्थ बना देते हैं। मानसिक परिष्कार एवं आत्मोन्नति में सहायक होने के कारण इसे आध्यात्मिक रंग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। रंग चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि बैंगनी रंग के प्रकाश में ध्यान करने से मन की एकाग्रता सधती है साथ ही साधक ध्यान की गहराइयों में पहुँच जाता है। प्रसुप्त अंतःशक्तियों को जाग्रत करने तथा अन्तरात्मा तक पहुँचने में इस रंग के ध्यान से बहुत सहायता मिलती है। मैजेन्टा कलर भावनात्मक स्थिरता प्रदान करता है। लाल और बैंगनी रंगों के सम्मिश्रण से मैजेन्टा रंग बनता है। टरक्वाइज अर्थात् फीरोजी रंग का निर्माण पीले और हरे रंग के सम्मिश्रण से होता है। इस रंग का ध्यान मानसिक चंचलता-उग्रता को दूर करता है। मन की एकाग्रता एवं भावना की प्रगाढ़ता जितनी अधिक होगी, प्रतिफल भी उसी अनुपात में सामने आयेगा।

प्रकाश, ताप, विद्युत और चुम्बकीय शक्ति का आधार एवं केन्द्र विभिन्न रंगों वाली सूर्य प्रभा ही है। वेदों-उपनिषदों से इसे जीवनी शक्ति ‘प्राण’ के नाम से सम्बोधित किया गया है जिसकी पुष्टि अब विज्ञानवेत्ता भी करने लगे हैं। ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक मनीषी सर ओलिवर लाज ने अपनी कृति -”लाइफ एण्ड मैटर” में कहा है सूर्य की रंगीन किरणों में प्राण तत्व के सम्वर्धन की अद्भुत क्षमता हैं इनका अवशोषण अवधारण मनुष्य की शारीरिक मानसिक चेतना के विकास में सहायक सिद्ध होता है।

रंगों का मूल स्रोत सूर्य प्रभा है। शास्त्रकारों ने इसे ही - “रश्मीनाँ प्राणाना रसानाँ च स्वीकरणात् सूर्यः” कहा है अर्थात् प्रकाश रश्मियाँ ही समस्त प्राणियों की प्राण शक्ति - जीवनी शक्ति है। यही रश्मियाँ अपने अमृत रस से मनुष्य सहित सभी जीवधारियों को जीवन प्रदान करती है। सप्तव्याहृतियां अर्थात् गायत्री त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति और उष्णिक- यह सभी सविता देवता की सात रंगों वाली किरणों से उत्पन्न हुई हैं। चेतना के सात आयामों, ज्ञान-विज्ञान की सात भूमिकाओं की अधिष्ठाता सप्तव्याहृतियां इन्हीं रंग रश्मियों के अवयव हैं। प्राचीन ऋषि मुनि इन्हीं का पान करके व्याहृतियों तथा वेदमंत्रों का साक्षत्कार करते थे। याज्ञवल्क्य सहित सप्तऋषियों एवं समस्त मनीषियों ने इन्हीं का अमृत पान कर ज्ञान-विज्ञान के उच्चतम सोपानों पर आरोहण किया था। आज भी वह उपचार पद्धति सबके लिए खुली पड़ी है। अपनी मनः स्थिति, प्रकृति और सामर्थ्य के अनुरूप वर्णों का रंग-रश्मियों का चुनाव कर उनके प्रकम्पनों से लाभान्वित हो सकना सबके लिए सहज- सुलभ है। रंग ध्यान की प्रक्रिया निरापद भी है।

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