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Magazine - Year 1989 - Version 2

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भावाभिव्यक्ति का अनुदान सभी को प्रदत्त

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भाषा भगवान ने सब जीवधारियों को नहीं दी है, पर भाव सबको दिये है। सुख, दुःख, भय आशंका, प्रसन्नता, आशा जैसे भले बुरे अवसर परिस्थितिवश सभी के समाने आते रहते है। इसमें मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी सम्मिलित है। अपनी भाव-संवेदनाओं को वे शारीरिक हलचल अथवा विभिन्न संकेतों के आधार पर प्रकट करते है। जीव-जन्तुओं की सामर्थ्य को परखा तथा उनकी साँकेतिक भाषा को समझा जा सकें तो उनके प्रशिक्षण में इससे काफी सहायता मिल सकती हैं।

भावाभिव्यक्ति एवं बातचीत की कला में मनुष्य विशेष रूप से दक्ष है। भाषा उसे विरासत के रूप में अपने पूर्वजों से मिली है। बच्चे को भाषा ज्ञान विशेष रूप से नहीं कराना पड़ता। परिवार के लोगों के संपर्क से ही वह सीख लेता है। हिन्दी भाषी परिवारों के बालक हिन्दी, अँग्रेजी भाषी परिवारों के बच्चे अँग्रेजी तथा अन्य भाषी परिवारों के बच्चे पैतृक भाषा सहज ही सीख लेते है। यदि जन्म दाता गूँगे-बहरे हो तथा बालक को समाज का संपर्क न मिले तो वह बोलना भी नहीं सीख सकेगा। देखा जाता है कि जो बच्चे सुन नहीं पाते वे बोल भी नहीं पाते और अंततः गूँगे हो जाते हैं। भाषा की जानकारी उन तक नहीं पहुँच पाती। संकेतों के आधार पर ऐसे बालक किसी तरह अपना काम चलाते हैं।

मानवेत्तर प्राणियों के पास भी भाषा की कोई विरासत नहीं है, पर वे वार्तालाप गूँगे व्यक्तियों की तरह साँकेतिक आधारों पर करते है। द्रष्टा ने उन्हें ऐसी क्षमता प्रदान की है जिनके आधार पर वे विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ देने के लिए विभिन्न तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करते है। चिड़िया खतरे की सूचना देने के लिए एक तरह की तथा प्रसन्नता अभिव्यक्ति में दूसरे तरह की आवाज करती हैं। कुत्ते के भौंकने में वार्तालाप छिपा होता है। जिसका प्रत्युत्तर कुत्ते उसी भाषा में देते है। वाद्य की अपनी विशिष्ट भाषा होती हैं। बन्दर अपनी इच्छा को ध्वनियों में एवं अभिव्यक्तियों से दर्शाते है। चिंपेंजी मुस्कराकर, टिड्डे अपने संगीत द्वारा तथा कीट-पतंगे अपने रंगों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करते हैं। पक्षियों में तोता, मैना आदि को प्रशिक्षित करने पर तो उन्हें मानवी भाषा को भी दोहराते नकल उतारते देखा जाता है। कोयल की कूक जहाँ अपनी जाति वालों को बुलावा देती है। वहीं एक विशेष आवाज में चेतावनी भी देती है।

जिन्हें जीभ मिली ही नहीं, उनकी बात दूसरी है। वे अपना मन मसोस कर रह जाते हैं। अथवा अपने समूचे शरीर की छटपटाहट से अपनी पीड़ा का परिचय देते हैं। उदाहरण के लिए मछलियाँ प्रसन्न होने पर क्रीड़ा कल्लोल करने लगती है। जब उन्हें पानी से निकाल कर जाल में एकत्र किया जाता है तो उनकी छटपटाहट प्रत्येक भावनाशील क हृदय हिला देती है। मछलियाँ गंध के माध्यम से भी अपनी संवाद संप्रेषण प्रक्रिया पूरी करती हैं।

पशु पक्षियों को जीभ मिली है। वे उसके माध्यम से अपने भाव प्रकट करते रहते है। उनके साथी-सहयोगी उस शब्दावली के माध्यम से यह अनुमान लगा लेते हैं कि उन पर क्या बीत रही है और अपनी अनुभूतियों को साथियों पर कोई कैसे प्रकट करना चाहता है? यद्यपि अभी तक ऐसा नियमित शब्दकोष नहीं नहीं बना है कि किस प्राणी को अपने मनोभाव दूसरों पर प्रकट करने के लिए किस शब्दावली का प्रयोग करना पड़ता है।

जर्मनी के म्यूनिख विश्वविद्यालय के मूर्धन्य प्राणिशास्त्री डाँ. लारेन्स ने हंसो पर गहन अध्ययन किया और पा है कि उनमें विवाह आदि का सामाजिक स्वरूप होता है तथा स्नेह भरा दाम्पत्य जीवन और साथी के मर जाने या बिछुड़ने पर वे मानवीय विरह-व्यथा, संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं तथा ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन व्यतीत करते है। हंस एवं अधिकाँश अन्य प्राणी विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के द्वारा अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे रिलीजर मैकेनिज्म कहते हैं हंसो में लम्बी गर्दन के कारण उसे विभिन्न प्रकार से मरोड़ने की सैकड़ों मुद्रायें पायी जाती हैं जो कि उनकी भाषा के संकेत है। डाँ. लारेन्स के इन अध्ययनों से मानव व्यवहार विज्ञान को नये आयाम मिले हैं।

वे कहते हैं कि टूटी-फूटी जैसी भी उनकी भाषा है, इसके आधार पर वे अपनी जाति वालों के साथ तो विचार विनिमय करते ही हैं, उनकी इस भाषा को और भी अधिक विकसित किया जा सकता है। इस विकास के आधार पर मनुष्य के साथ अन्य प्राणियों के विचार विनिमय का द्वार भी खुल सकता है।

“चिम्पेंजी इंटेलीजेन्स एण्ड इट्स वोकल एक्सप्रेशन” नामक पुस्तक में लोक द्वैय श्री ईयर्कस और श्रीमती लर्नेड ने चिम्पेंजी बन्दरों की लगभग 30 ध्वनियों को संगृहीत और विश्लेषित करके एक प्रकार से उनका भाषा विज्ञान ही रच दिया है। इसी प्रकार प्राणि विशेषज्ञ हरमन फ्रेबुर्ग ने अपनी पुस्तक “एडवेंचर ऑफ अफ्रीका” में ऐसे अनेकों संस्मरण लिखे हैं जिसमें गोरिल्ला और मनुष्य के बची बात-चीत, भावों का आदान प्रदान ओर सहयोग संघर्ष का परिचय मिलता है उनके अनुसार बन्दरों की भाव भंगिमा, उनकी मनःस्थिति को अच्छी तरह प्रकट करती है। यदि गंभीरता से उनके चेहरे पर दृष्टि जमाई जाय तो सहज ही पता चल जायगा कि वह इस समय किस मूड में है। उसके डराने प्रसन्न होने, क्रोध करने, स्वयं डरने, थक जाने, दुःख व्यक्त करने, साथियों को बुलाने आदि के स्वर ही नहीं, भाव भी होते है। जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।

भावना अन्तःकरण की भाषा है। वह प्रकट हुए बिना नहीं रहती। कोई प्राणी घुटन में आबद्ध नहीं रहना चाहता। अपने व्यक्तित्व का परिचय देने और भावों को प्रकट करने की इच्छा उन सभी प्राणियों में होती है जिन्हें जिव्हा मिली है। भले ही वह मनुष्य की तरह क्रमबद्ध रूप से वार्तालाप न कर सकें किन्तु अपने भावों को तो किसी न किसी रूप से प्रकट कर ही देते है। उदाहरण के लिए मनुष्य की तरह प्रकृति के परिन्दों में भी न केवल उन्नत श्रेणी के वरन् विलक्षण अभिव्यक्ति ओर भंगिमाओं भरे नृत्य की परम्परा पाई जाती है। मोर इस कला में बादशाह माना जाता है। ध्रुव प्रदेश में पाये जाने वाले पेंगुइन पक्षियों के विवाह नृत्य का ‘एक्शनसाँग’ देखने ही बनता है। भाव प्रदर्शन में ये प्राणी मनुष्यों को भी पीछे छोड़ देते हैं।

बाज, गोह, बिल्ली, साँप, आदि किसी आक्रामक जानवर की निकटता अनुभव करते ही पली इकट्ठा होकर चहचहाने लगते हैं। इसके कई उद्देश्य होते हे। एक तो सब साथियों को एक होकर संगठित होकर दूसरों के साथ मिलकर शोर मचाने चाहिए जिससे शत्रु यह न समझ कि वे एकाकी हैं, इसलिए हमला किया जा सकता है। दूसरा यह कि सभी पर्वती क्षेत्र में उस समुदाय की कोई और बिरादरी हो तो वह भी सचेत हो जाय। बचने का उपाय कर ले।

प्रसन्नता के अवसर पर भौंरे, कोकिला, मोर आदि अपनी विशेष वाणी बोलते हैं। उन शब्दों का मानवी भाषा में रूपांतरण तो नहीं किया जा सकता पर इतना आसानी से जाना जा सकता है कि यह पक्षी अपनी वर्तमान परिस्थितियों से प्रसन्न हैं।

हर प्राणी की भाव भंगिमा मनुष्य से मिलती जुलती हैं शब्द न पहचाने जा सकें तो आकृति, भाव भँगिमा देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन प्राणी अपनी क्या भाव संवेदना व्यक्त करना या विचार विनिमय करना चाहता है। यदि इसे समझा और उन्हें सिखाया जाय तो वे न केवल मनुष्य के साथ हिल मिल सकते हैं वरन् एक जाति का दूसरी जाति वाले अन्य जीवों के साथ व्यवहार संपर्क और अधिक बढ़ाया जा सकता है। हम सब समष्टि के घटक है। यह सहयोगी आदान प्रदान हमें परस्पर निकट तो लायेगा ही, यह भी प्रमाणित करेगा कि सभी जीवों में परमसत्ता समान रूप से विद्यमान है। जीवों के साथ एकता का सन्देश यदि मानव मानव में ही संव्याप्त हो सके तो मानवी गरिमा को चार चाँद लग जायेंगे।

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