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Magazine - Year 1989 - Version 2

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मानवता का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है!

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मनुष्य स्वभाव की भी अजीब बनावट है। उपलब्ध सुविधाओं, सम्पदाओं और सफलताओं को नगद गिनता है और उन्हें उपेक्षा विस्मृति में डालता रहता है। अभावों, असुविधाओं, असफलताओं और आशंकाओं की खिन्नता सवार रहती है। कम ही लोग अपनी स्थिति में सन्तुष्ट और भविष्य के लिए आशान्वित देखे जाते हैं। अधिकाँश को चिंतायें शिकायतें ही बनी रहती हैं और अगले दिनों किन्हीं अनिष्टों के होने की भयभीत करने वाली कल्पना उठती रहती है। पर्यवेक्षण करने पर चिन्तातुर भयभीत और आशंकित लोग ही अधिक देखे जाते है। उपकारों का समूह याद ही नहीं रहता और छोटे से अपकारों के कारण उत्पन्न हुआ आक्रोश मस्तिष्क पर सवार रहता है।

यों सही चिन्तन अपनाकर इस तरह भी सोचा जा सकता था-कि जब सृजनात्मक सफलताओं के आधार पर मानवी प्रगति का सिलसिला अब तक चलता आया है तो प्रस्तुत कुछेक कठिनाइयों से साहस और विवेक का आश्रय लेकर क्यों सामना न किया जा सकेगा? समस्याओं का सुलझाना, कठिनाइयों को निरस्त करना और अवरोधों को उलटना क्यों संभव न होगा? मनोबल बढ़ने और उज्ज्वल भविष्य के आधार प्रस्तुत कर सकने वाले जब अनेकों तथ्य देखे और ढूंढ़े जा सकते है। तो निराश क्यों हुआ जाय? आशंकित और आतंकित क्यों रहा जाय? निषिद्ध चिन्तन के फेर में साहस और उत्साह क्यों गँवाया जाय? मिलजुल कर सृजन प्रयोजनों के निमित्त क्यों न सोचा जाय? जो उपयुक्त लगे उसे कर गुजरने का योजनाबद्ध उपक्रम क्यों न बनाया जाय? यदि सही स्तर का चिन्तन अपनाने की आदत रही होती तो निराश होकर मनोबल गँवाने और कल्पित उलझनों में सचमुच ही उलझ जाने से क्यों न बच सका गया होता?

इस मनोवैज्ञानिक भूल को इन दिनों बढ़ी-चढ़ी स्थिति में देखा जा सकता है। यों वे सर्वथा काल्पनिक भी नहीं उनके पीछे तथ्य भी हैं, पर ऐसे नहीं जिनके कारण विनाश के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़। प्रदूषण विकिरण युद्धोन्माद अतिवादी औद्योगीकरण, भोगवाद की लिप्सा, जनसंख्या विस्फोट, खनिज का असाधारण दोहन वनसम्पदा का उन्मूलन, प्रकृति असंतुलन जैसे अनेक कारण ऐसे है जिन पर जितनी गहराई से विचार किया जाय उतनी भयभीत करने वाली आशंकायें बढ़ती है। फिर मनुष्य का वैयक्तिक ओर सामूहिक चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ऐसा है जिनके कारण अवांछनीयता बढ़ती जाने की सहज संभावना मन में उतरती है। नशेबाजी जैसा दुर्व्यसन किस प्रकार मनुष्य को खोखला कर रहे है, आंखों के सामने है। दांपत्य जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन, व्यभिचार और उसके कारण परिवार संस्था का भावी संतति का पराभव सामने है। आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर है। पदार्थों में मिलावट दफ्तरों में रिश्वत, वस्तुओं की महँगाई विलासिता जन्य फिजूलखर्ची बढ़ते हुये अपराध यदि एक पंक्ति में रखकर देखे जायें तो उनका समुच्चय इतना बड़ा बन जाता है। कि जनमानस का भयभीत एवं निराश हो जाना स्वाभाविक है। यों सोचने का दूसरा पक्ष भी है कि मनुष्य ने पिछले ही दिनों जब इतनी बड़ी राजनैतिक-क्रान्तियाँ सम्पन्न की है, तो उसी पराक्रम को जिस दिन प्रस्तुत विपन्नता को हटाने में जुटा दिया जायेगा तो अभीष्ट परिवर्तन क्यों सम्पन्न न होगा? राज सिंहासन, सामन्ती गढ़ दासप्रथा आदि की चिर पुरातन अवांछनियतायें देखते-देखते धराशायी हो गई तो वर्तमान विषमताओं से क्यों नहीं जूझा जा सकेगा? पर इस प्रकार का विधेयात्मक चिन्तन करने वाले कितने है? अधिकाँश तो अशुभ चिन्तन में ही निरत देखे जाते है। उन्हें भविष्य अन्धकारमय ही दीखता है।

स्पष्ट है कि बलों में सबसे बड़ा बल मनोबल-आत्मबल है। उसकी तुलना में साधनबल, बुद्धिबल कौशल, साहस आदि की सभी क्षमतायें हल्की पड़ती है। सृजन या सुधार प्रयोजनों के लिए प्रतिभावानों का संगठित मनोबल उभारना आवश्यक है। इतना बन पड़े तो जो अनुपलब्ध है उसे जुटाया जा सकता है। अभावों अवरोधों को रिक्त किया जा सकता है। पर यदि मनोबल टूटने लगे तो समझना चाहिए कि अच्छा खासा व्यक्ति अपंग हो गया। उसके बूते कुछ करते धरते नहीं बन पड़ेगा वरन् दुर्भाग्य और विनाश की बात सोचते सोचते अपने आपके लिए भार बन जायेगा। संपर्क में आने वाले दूसरों को भी अस्तव्यस्त करेगा। इस प्रकार वह स्वयं ही एक विपत्ति बनकर वातावरण में चेतनात्मक प्रदूषण की भरमार करेगा।

पिछले दिनों कई भूले हुई हैं और उनमें से कितनी ही अभी विद्यमान हैं पर उनसे निबटने का तरीका तो एक ही है कि साहस पूर्वक औचित्य का पक्ष लिया जाय। अनौचित्य को बुहार फेंका जाय इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यकता इस बत की है कि जन साधारण का मनोबल बढ़ाया जाय उसे सही रीति से सोचने का अभ्यास कराया जाय। उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं से आश्वस्त कराया जाय। यह परिवर्तन बन पड़ने पर समझना चाहिए कि अन्य परिवर्तनों का सिलसिला स्वयं चल पड़ेगा ओर द्रुत गति से नव सृजन की दिशा में आगे बढ़ेगा, अभीष्ट परिवर्तन के सुयोग का सृजन करेगा।

इतिहास के कुछ पृष्ठ खोजने पर ऐसे तथ्य सामने आते है। जिनमें लोकमानस में प्रगति का पक्षधर उल्लास भर देते पर ऐसे कार्य बन पड़े जिन्हें चमत्कार स्तर का कहा जा सकता है। बुद्ध गाँधी दयानन्द, विवेकानन्द आदि लोक चिन्तन को झकझोर कर उल्टे प्रवाह को उलट कर सीधा किया था। नेपोलियन, मार्टिनलूथर, जोन ऑफ आर्क कार्लमार्क्स, लेनिन आदि ने किस प्रकार लोक चेतना को अपने पक्ष में मोड़कर कितनी बड़ी सफलतायें पाई थीं, इसे कौन नहीं जानता?

इन दिनों अपने देश को, विश्व को जहाँ अन्यान्य सृजन प्रयोजनों की आवश्यकता है। वहाँ लोक मानस में आशा जगाने और साहस उभरने की मनोवैज्ञानिक मुहीम भी चलाई जानी चाहिए। जिसमें एक कार्य तो शिकायतों का सिलसिला इस सीमा तक न बढ़ने देने की बात है जो जनता को निराशा के गर्त तक न पहुँचने दे। दूसरी ओर यह भी भरना है कि उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओँ की दिशा में इतना उत्साह जगाया जाय कि जीत में भागीदार बनने के लिए हर किसी का मन ललकने लगे। आशा प्रदीप्त हो तो मनुष्य अपनी सामान्य सामर्थ्य की तुलना में चौगुना सौगुना काम कर लेता है। मनुष्य शक्तियों का भण्डार है पर वे प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं यदि उन्हें आशा, उमंग और उत्साह साहस देकर जगाया जा सके तो उसका व्यक्तित्व और कर्तृत्व ऐसा बन पड़ता है जो असंभव को संभव करके दिखा सके।

भारत को आज ऐसे ही उल्लसित मनोबल की आवश्यकता है। उसे जुटाया जा सके तो निराशा की काली घटाओं को आँधी बन कर हटाया जा सकता है। सृजन के क्षेत्र में जो अनेकानेक कार्य करने को पड़े है, उन्हें यदि बिठाया जा सके तो जापान आदि जिन देशों ने युद्ध देशों ने युद्ध की बर्बादी के बाद सब कुछ संभालने में शक्ति झोंक दी थी और क्षति की खाई को समतल कर लिया था उसी प्रकार भारत का भी कायाकल्प हो सकता है।

इस संदर्भ में शान्तिकुँज ने एक नया नारा दिया है-’ इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य। इसका तात्पर्य है कि अगली शताब्दी हर दृष्टि से सुखद संभावनाओं, सफलताओं और प्रगति प्रयोजनों से भरी-पूरी होंगी। इस कथन के पीछे अनेकों तथ्य भी है। विभिन्न क्षेत्रों के मूर्धन्य आकलनकर्ता स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए उनकी प्रतिक्रिया का अनुमान लगाते हुए यह कहते है कि अगली शताब्दी अब की अपेक्षा कहीं अधिक सुखद संभावनाओं से भरी है। आध्यात्मवादी, दिव्यदर्शी भविष्य वक्ताओं का कथन भी यही है। शान्तिकुँज के प्रेरणा स्रोतों ने इस प्रतिपादन को और भी अधिक विश्वास-पूर्वक प्रतिदान, समर्थन दिया है। प्रस्तुत समय का मनोवैज्ञानिक उपचार इस आन्दोलन का पूरा पूरा समर्थन करता है। आवश्यकता उसके निमित्त जुड़ने व श्रेय अर्जित करने भर की है।

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