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Magazine - Year 1992 - Version 2

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हर दिन नया जन्म हर रात नयी मौत

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मनुष्य जन्म वस्तुतः भगवान की सर्वोपरि कलाकृति है। इससे और कोई बहुमूल्य उपहार स्रष्टा की तिजोरी में है ही नहीं। जितनी सुविधा और संभावनायें मनुष्य जन्म में हैं, उतनी सृष्टि के और किसी प्राणि शरीर में नहीं। ऐसा क्यों हुआ? मनुष्य के साथ सृष्टा ने यह पक्षपात क्यों किया ? समझा जाना चाहिए कि समस्त प्राणियों के बीच जो वरिष्ठता विशिष्टता एवं असाधारण क्षमतायें हैं, उसका उपयोग उसे उन्हीं प्रयोजनों को प्रयुक्त करना है जिसके लिए कि इस धरोहर को सौंपा गया है। निजी क्षेत्र में अपूर्णताओं को पूर्ण करना, संचित कुसंस्कारों से पिण्ड छुड़ाना, स्रष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत बनाना-यह तीन ही वे कार्य हैं जिन्हें पूरा कर दिखाने के लिए मनुष्य जन्म मिलता है। जिनसे सही प्रयोग बन पड़ता है, उन्हें उपहार-पुरस्कार और पदोन्नति का अवसर मिलता है। महामानव, ऋषि, मनीषी, संत, ऐसे ही स्तर हैं जिन पर पहुँच कर व्यक्ति कृतकृत्य हो जाता है। असीम आत्मसंतोष प्रचुर लोक सम्मान और परिस्थितियों के अनुकूल नवल देव अनुग्रह पर्याप्त मात्रा में मिलता है। ऐसे देव मानव स्वयं तरते और दूसरों को तारते हैं। उन्हें पाकर देश, काल और समुदाय कृतकृत्य होता है।

इस तथ्य को आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े पड़े प्रायः पन्द्रह मिनट मस्तिष्क पर उभारते और जमाते रहना चाहिए, साथ- साथ यह भावना भी करनी चाहिए कि अभी नया जन्म हुआ। इसकी अवधि एक दिन की है। इस स्वर्णिम सुयोग का ऐसा सदुपयोग किया जाना चाहिए कि देने वाले को प्रसन्नता हो । लेने वाला उसे पाकर धन्य बने और इस आवरण से सारा वातावरण महक उठे । यह हर दिन नया जन्म वाला सूत्र है। सो जाना एक प्रकार का मरण है। इसलिये एक दिन को एक पूरा जन्म माना जा सकता है और उस अलभ्य अवसर का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने का सुनिश्चित संकल्प किया जा सकता है।

दिन भर में रोज हर किसी को विभिन्न प्रकार के क्रियाकृत्य करने पड़ते हैं पर उनके पीछे उद्देश्य कुछ न कुछ निश्चित रूप से समाविष्ट होते हैं। सबेरे से लेकर शाम तक जो भी चिन्तन उठे, जो भी कृत्य बने उन्हें तीन कसौटियों पर कसते रहने की अनवरत जागरुकता बरती जाय। 1-पशु प्रवृत्तियों वाले कुसंस्कार हावी तो नहीं हो रहे हैं। उनकी प्रेरणा से ऐसा कुछ तो नहीं बन रहा जिसे मानवी-गरिमा के अनुपयुक्त कहा समझा जा सके। (2) जन साधारण द्वारा अपनायी जाने वाली भेड़चाल से ऊँचा उठकर अपने कृत्यों में आदर्शवादिता का ऐसा पुट लगा रहा है या नहीं, जिसे अभिनंदनीय और अनुकरणीय माना जा सके । (3) विश्व उद्यान को अधिक सुशोभित और अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिए आवश्यक पुण्य परमार्थ की किसी अंश में पूर्ति हो रही है या नहीं।

प्रातः से लेकर सायंकाल तक उठने वाले हर विचार और शरीर से बन पड़ने वाले हर क्रियाकलापों के उपरोक्त तीन कसौटियों पर निरन्तर जाँच पड़ताल होती रहनी चाहिए। जो अनुपयुक्त दिखे उसे निरस्त करने और जो उपयुक्त दिखे उसे प्रोत्साहित करने का क्रम चलना चाहिए। चिन्तन और क्रिया के साथ- साथ समीक्षा का भी क्रम चलना चाहिए। वह समीक्षा भी ऐसी सशक्त होनी चाहिए जो अनौचित्य को हटाने और औचित्य को प्रतिष्ठित करने में सशक्त एवं सफल सिद्ध होती रहे ।

चिन्तन और क्रियाकलाप अपने ढंग से चलते रहें और समीक्षा तथा तितिक्षा अपने उद्देश्य को पूरा करने में लगे रहें । साधारणजन केवल चिन्तन और कर्म का ही भार वहन करते हैं, पर प्रज्ञायोग के साधकों को उसके अतिरिक्त आत्म निरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के चार प्रयत्नों को अपने प्रयासों में सम्मिलित करना पड़ता है। प्रातःकाल का हर दिन नया जन्म वाला उद्बोधन इसी स्तर की प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, यदि उसे गंभीरतापूर्वक समझा और अपनाया गया हो।

प्रातःकाल उठते ही शुभारंभ होता है। और रात्रि को सोने के लिए बिस्तर पर जाते उसका समापन । निद्रावस्था व्यक्ति का दैनिक स्वरूप है। स्मरण उसे भी रखा जाना चाहिए । लोग या तो मृत्यु को भूल रहते हैं या फिर उससे अतिशय भयभीत रहते हैं। मरने से डरना तो इसलिए व्यर्थ है कि परिवर्तन प्रकृति का अकाट्य नियम है। पुराने वस्त्र फट जाने पर नये वस्त्र बदलने ही पड़ते हैं। पुराने घर से काम नहीं चलता तो नये में जाना पड़ता है। यह लड़कियों के ससुराल जाने की तरह एक सुव्यवस्थित उपक्रम है। डर उन्हें लगता है जिनने जीवन की बहुमूल्य सम्पदा का दुरुपयोग किया भगवान के दरबार में जाकर जो यह न बता सके कि धरोहर का निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग हुआ या नहीं ? जिन्हें सन्देह हो वे डरें पर जिनने जीवन सम्पदा को लक्ष्य के लिए नियोजित किए रखा, उन्हें तो राष्ट्रपति के हाथों कोई बड़ा पुरस्कार पाने वालों के लिए उमंग भरी मनःस्थिति में जाने वालों के लिए महाप्रयाण के लिए चल पड़ते देखा गया है। इसकी पूर्व तैयारी के लिए जो करना आवश्यक है उसे बिना समय गंवाये आरम्भ कर देना चाहिए। भूतकाल की भूलों के लिए प्रायश्चित करना चाहिए । अनाचार के कारण समाज को पहुँचाई गया क्षति पुण्य परमार्थ के द्वारा पूरी करनी चाहिए मुख्य बात है अगले दिनों का सर्वोत्तम स्तर का योजनाबद्ध जीवनयापन। इसकी रूपरेखा विनिर्मित करने का उपयुक्त समय रात्रि को बिस्तर पर जाते समय का चिन्तन विषय है।

आज दिन भर जो सोचा व किया जाता रहा है, उसकी पूरी समीक्षा रात्रि को सोते समय किया जाना चाहिए जो ठीक बन पड़ा उसके लिए अपनी प्रशंसा करनी चाहिए और जितना गलत हुआ उसे अगले दिन सुधार लेने का निश्चय करना चाहिए। गलतियों की भरपाई करने के लिए कल के कार्यक्रम में ऐसे तथ्य जोड़ने चाहिए जो खोदे गये गड्ढे को पाट कर समतल कर देने की आवश्यकता पूरी कर सके। अगले दिन की परिस्थितियों का अनुमान लगाते हुए उनके साथ निपटने की रूपरेखा यदि रात को सोते समय ही बना ली जाय तो अधिक उपयुक्त है। इससे दूसरे दिन आँख खुलते ही जो दिन भर का कार्यक्रम बनाना है, उसके निर्धारण में इस पूर्व चिन्तन से सहायता मिलेगी ।

ध्यानयोग में सभी कल्पनाओं, चिन्ताओं और आवेशों को समाप्त कर दिया जाता है, तभी गहरी नींद आती है । आज की समीक्षा और कल की प्रतीक्षा में जो निराकरण निर्धारण किया जाता है उसके उपरान्त मस्तिष्क को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। समाधि स्थिति की भावना करनी चाहिए । इससे नींद भी गहरी आती है और डरावने स्वप्न की भी आशंका नहीं रहती । पूर्ण विश्राम मिलने से अगले दिन के लिए मानसिक संतुलन स्फूर्तिवान होकर जगता है। इस दैनिक अभ्यास से मरण के उपरान्त और नवीन जन्म से पूर्व वाला काल शान्त और सही रहता है। स्वर्ग नरक की प्रेत-पितर की यही स्थिति है । उस अवधि में कोई उद्विग्नता व्यथित न करने पाये । यह भी अपने हाथ की बात है। इसका अभ्यास हर रोज करने के लिए रात्रि का शयनकाल है । यों उस समय चेतना पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रहता, तो भी सोने के पूर्व की गई आत्मसमीक्षा उस में बहुत सहायक सिद्ध होती हैं । इस प्रकार का समीक्षा चिन्तन करते हुए सोने वाले को प्रायः गहरी नींद का आनन्द लेने से वंचित रहना पड़ता । दूसरे दिन उठने पर गत रात्रि को किए गए निर्धारण के अनुरूप अगले दिन का ढर्रा सरलतापूर्वक चल पड़ता है और अनवरत प्रगति क्रम में सिद्ध होता है।

प्रातःकाल का मन्त्र है-हर दिन नया जन्म । रात्रि को सोते समय की ध्यान-धारणा है-हर रात्रि नया मरण। उनका उच्चारण मात्र कर लेने से काम नहीं चलेगा। इनकी सुनियोजित कल्पना उभरनी चाहिए । उन्हें जीवन की सर्वोपरि समस्याओं का समाधान अनुभव करते हुए बिना नागा यह प्रयत्न करना चाहिए कि दोनों समय दोनों मान्यताओं के अन्तराल में गहराई तक जमाने का नियमित एवं निश्चित अवसर मिलता रहे।

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