
परिवर्तन एक सुनिश्चितता
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ग्रीष्म की प्रचंडता प्रख्यात है। उसका दर्प घासपात का समूची जमीन पर से सफाया कर देता है, जलाशय सूख जाते हैं। अच्छी खासी जमीन तवे की तरह जलने लगती है। वायु का सहज प्रभाव अन्धड़ में बदल जाता है। लू चलती है, चक्रवात उठते हैं। उस माहौल में किसी से कोई कड़ा श्रम करते नहीं बन पड़ता है। उत्साह टूट जाता है और विश्राम के लिए अनुकूल स्थान की तलाश चल पड़ती है। न कृषि कार्य फलित होता है और न पशु समुचित दूध दे पाते हैं। यह प्रज्ज्वलन लम्बे समय चलता है तो समझना चाहिए कि पृथ्वी की स्थिति सूर्य के निकट रहने वाले की सी जलती बलती बन जाएगी । पृथ्वी की वर्तमान स्थिति का बने रहना संभव ही न होगा।
संतोष इसी बात का है कि सृष्टि व्यवस्था में परिवर्तन चक्र का गतिशील रहना एक सुनिश्चित नियति है। ग्रीष्म दो महीने ही टिकती है और शेष दस महीने संतुलित स्थिति में बीत जाते हैं। इस बीच दो दो महीने के युग्म तो ऐसे बीतते हैं जिसके कारण ग्रीष्म के आतंक को अनदेखा भी किया जा सके । वर्षा के दो महीने जल-थल एक कर देते हैं मखमली घास का हरा फर्श सर्वत्र बिछा देते हैं। पशुओं को हरा-भरा चारा मिलता है और गर्मी के दिनों में जो क्षति उठानी पड़ी थी, उसकी पूर्ति इन्हीं दिनों हो जाती है। मक्का जैसी कई फसलें इन्हीं दिनों उग पड़ती है और वर्षा समाप्त होने तक मनुष्य के लिए अनाज और शाक का प्रचुर भण्डार उपस्थित कर देती है इसी वर्षा काल के पानी को रोककर बाँध में इतना संचय हो जाता है कि साल भर तक जल की आवश्यकता पूरी होती रहे और पानी बिजली जैसा बहुमूल्य उत्पादन अनेक उद्योग एवं सुविधा साधनों का आधार बन सके। शीतकाल का पतझड़ भी कम कष्टदायक नहीं होता। पेड़ों तक पर पतझड़ सवार हो जाता है। उद्योग से लेकर जंगलों तक में हरे भरे पेड़ों के स्थान पर ठूँठ ही दीख पड़ते हैं। पर क्या यह दुर्दशा अधिक समय ठहरती है? संतुलन बनाने के लिए बसन्त दौड़ आता है। सुरभित फूलों के घास या गुल्म, क्षुप और पेड़ लद जाते हैं। रंग बिरंगे वस्त्र आदि पहनकर हरीतिमा नई नवेली जैसी सज जाती है। मोर, कोयल, भौंरे, तितली जैसे जीव-जन्तु भी उस परिवर्तन का अभिनन्दन उमंग, उत्साह से भावविभोर होकर करते हैं । मनुष्य की बात का तो कहना ही क्या? उनकी मस्ती रोके नहीं रुकती । हर्षोल्लास की अभिव्यक्तियाँ अपने-अपने ढंग से प्रकट होती हैं।
बसन्त मात्र आश्वासन देकर ही नहीं चला जाता। फूलों का स्थान फल ग्रहण कर लेते हैं। उनसे जीवधारियों को जीवन मिलता है। फलों में बीज पकते हैं। एक पेड़ में सौ फल तो एक फल में सौ बीज। बीजों के द्वारा नये वृक्ष उगते हैं औरों पेड़ों को विभिन्न वर्गों द्वारा काटे जाने पर होने वाली क्षति को पूरा कर देते हैं। पुराने भले ही कटते रहें, पर नयों का उत्पादन उस हानि की भरपाई करके रहता है।
पिछली शताब्दियों में मनुष्य की दुर्बुद्धि ने बढ़कर दुष्टता का, आचार का, दुरुपयोग का आतंक खड़ा करने में कुछ कसर नहीं छोड़ी है। सर्वत्र दीख पड़ने वाली खाइयां, खड्ड एवं खण्डहर उसकी साक्षी देते हैं। जलते हुए मरघट बताते हैं कि विनाश किस सीमा तक भयावह दृश्य खड़े कर चुका है और भविष्य को कितने अनगढ़ अस्त-व्यस्त होने की चेतावनी दे रहा है। यह सब कुछ सही होने पर भी एक सुनिश्चित आधार सान्त्वना देने के लिए पर्याप्त है कि नियति का परिवर्तन चक्र समस्वरता और शालीनता को ही लम्बे समय तक सहन एवं प्रोत्साहित करता है। विनाश से उसे घृणा है। असुरता उसे मान्य नहीं । इतिहास पुराणों में एक से बढ़कर दैत्य-दानवों की चर्चा है। उनके आतंक अनाचारों के भयावह वर्णन भी पढ़ने सुनने को मिलते रहते हैं पर वे लम्बी अवधि तक टिके कब ? रावण, कंस, वृत्रासुर, महिषासुर, भस्मासुर, हिरण्याक्ष आदि को रोमाँचकारी कृतियों का त्रास संसार ने सहा अवश्य पर वह सीमित समय तक ही टिक सका ।
इसी प्रकार जितनी आशंकायें एवं विभीषिकायें इन दिनों सामने अड़ती दिखती हैं। उनमें से अधिकाँश स्रष्टा के सृजन और प्रगति-परिवर्धन के प्रयत्नों के सामने टिकेंगी नहीं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।