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Magazine - Year 1994 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रेम ही परमेश्वर है।

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प्रेम अंतःकरण की भाव विभोर अवस्था का नाम है। हम अपनी आँतरिक शक्तियों को पहचान नहीं पाते, क्योंकि वे अतिसूक्ष्म है। हमारी स्थूल बुद्धि उन्हें अनुभव नहीं कर पाती इसीलिए योगी लोग विभिन्न योग साधनाओं द्वारा अपनी बुद्धि को सूक्ष्म और निर्मल बनाते हैं। चित्त को विषय-वासनाओं से मुक्त करके उसे किसी भी सूक्ष्म स्थिति में प्रवेश और चिंतन के योग्य बनाते हैं, तब कहीं उन भाव तरंगों की प्राप्ति और अनुभूति हो पाती है, जो अपने अंदर और बाहर सब तरफ तिल में तेल जल में विद्युत और शब्द में अर्थ की भाँति छिपे पड़े हैं। प्रेम भावनाओं के उद्रेक से अंतःकरण में अतिरिक्त कुछ और दिखाई ही नहीं देता इसलिए प्रेम जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। उसके लिए कठिन साधनाओं की आवश्यकता नहीं । आत्मारस है उसकी अनुभूति कराने की शक्ति केवल प्रेम को है। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट जानने के लिए हमें जीवन के उन क्षणों का स्मरण करना होगा जब हम किसी के प्रेम में भाव विभोर रहे हों। प्रेम में अद्वितीय रस, अनुपम सौंदर्य और रहस्यमय संगीत छिपा हुआ है। प्रेमी तो वीरान भी महल और राजप्रासादों में रहने वालों की अपेक्षा स्वयं को असीम तृप्त और परमानंद की स्थिति में पाता है। इसलिए लौकिक सुखों की तो उसे चाह भी नहीं होती।

संसार में जो भी कुछ सूनापन है वह प्रेम का अभाव है। संसार में जो कुछ भी सक्रियता है वह प्रेम की प्यास है। समस्त दुःखों के मूल में अंतःकरण की वह प्यास ही परिलक्षित होती है जो किसी से निष्काम, निर्विषय प्रेम पाने के लिए तड़पाया करती है। पुत्र मिल जाने के बाद उसे पालन-पोषण और विकास की चिंता आती है, धन के साथ इंद्रिय सुखों के प्रति आकर्षण की अनिवार्यता जुड़ी हुई है। पद के साथ महत्वाकांक्षाएं यश के साथ अहंकार का संबंध अनादि और अटूट है पर प्रेम में प्रेम की संतुष्टि के अतिरिक्त न तो कोई आकर्षण है न महत्वाकाँक्षा और न अहंकार । इसलिए वह आत्मानुभूति और ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम योग है। इससे ही मनुष्य उस सूक्ष्मतम सत्ता को पा सकता है। भगवान का भक्ति से संबंध बताते हैं, और कुछ नहीं प्रेम का ही दूसरा रूप है।

प्रेम की विलक्षणता यह है कि वह मिलन में भी उतना ही आनंद प्रदान करता है जितना विरह में आत्मसंतुष्टि । उन विरह के क्षणों में स्मृति अपना प्रभाव व्यक्त करती है और आत्मसंतोष के लिए जीवन को उत्सर्ग और सक्रियता से भर देती है। अगले मिलन के क्षणों की उमंग प्रेरणा देती है, प्रेमी की इच्छा और आदर्शों की पूर्ति की। भगवान की भक्ति और भगवान के प्रेम के साथ त्याग और सेवा को अनिवार्य स्थान दिया जाता है। वह विराट जगत के कण-कण में फैली चेतनता में सुख संतोष और सौंदर्य प्राप्त करने की दिशा प्रदान करता है। चंद्रमा किसके लिए चमक रहा है, क्यों चमक रहा है? आकाश को सितारों से क्यों भर दिया गया वे निरंतर जगमगाते क्यों रहते है।, वृक्ष ऊपर की ओर उठते जा रहे है। उन्हें ऐसी कौन सी चाह हे कि अपने भीतर के मधुर रस को फल बना कर भी उसका थोड़ा सा भी अंश अपनी जीभ पर न रखकर संसार को दान कर देते हैं। समुद्र कब से भरा है उसके भीतर कितनी प्रचंड हलचल है पर उसने आज तक अपनी मर्यादा भंग नहीं की। नदियाँ थोड़ा सा जल पाकर उमड़ पड़ती हैं, सीमाएँ तोड़कर खेत-खलिहान मकान, देवस्थान किसी की परवाह किए बिना सब को तोड़कर चल देती हैं पर समुद्र का मौन गांभीर्य आज तक नहीं टूटा। यह सब बताते हैं कि उन सब में ईश्वर अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करता है। सेवा से प्रेम की अभिव्यक्ति होने से ही जगत का कण-कण दूसरों को देने की नीति पर चल रहा है। मुसकराते हुए फूल-चहचहाते हुए पक्षी, कल कल करते निर्झर और लहराता हुआ पवन सब में एक ही लगन, एक उत्साह सेवा और उसके माध्यम से प्रेम की व्यापक अभिव्यक्ति है।

प्रेम की यही व्यापकता ही तो मानव जीवन को स्थूल जगत से उठाकर सूक्ष्म जगत के चिंतन की प्रेरणा देती है इसीलिए प्रेम जीवन की सबसे बड़ी मार्गदर्शक सत्ता है। वह आदमी को भौतिक सुख की अपेक्षा आध्यात्मिक तथ्यों में जीवन और प्राण का संदेश देती है इसलिए यह सबसे सबल शिक्षण है। हम किसी को कितना प्यार करते हैं उतना ही उसमें प्रेरणाएँ और प्रकाश भरने के अधिकार हैं। कहते हैं प्यार से समझाई हुई बातें जीवन भर नहीं भूलती जब कि भयवश सीखी हुई, दबाव में आकर सुनी हुई सारपूर्ण बातें भी लोग अधूरे मन से सुनते और कुछ ही दिन में भूल जाते हैं।

भगवान सृष्टि के कण-कण में हैं और प्रेम भी सृष्टि के कण-कण में है। परमात्मा विश्व की मूल प्रेरणा है और प्रेम भी सृष्टि के संपूर्ण क्रियाकलापों का संचालक है। परमात्मा एक ऐसा तत्व है जो अपने आप में परिपूर्ण है अपने भीतर से सब कुछ निकालता अपने ही भीतर सब कुछ समेटता रहता है। इसमें से ही जीवन का उल्लास, उमंग, सौंदर्य सब कुछ अपने भीतर से उमड़ता और भीतर ही संतुष्ट होता रहता है, न उसे बाह्य ? वस्तुओं की अपेक्षा होती है न उपेक्षा ही। अद्भुत साम्यता है दोनों में। सच है जिसने प्यार करना सीख लिया, प्रेम पा लिया, उसने परमेश्वर को पा लिया।

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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
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