
आस्तिकता का शास्त्र – आयुर्वेद
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आप यहाँ ! नगर का प्रतिष्ठित डाक्टर-वह डाक्टर जिसे स्नान भोजन के लिए भी ठिकाने से समय नहीं मिलता, इस प्रकार अपनी जमी-जमाई क्लीनिक छोड़कर सुदूर देहात में एक नन्हा सा तम्बू डालकर आ टिकेगा, इसकी कोई कैसे संभावना कर सकता है ?
“मैं चिकित्सक हूँ-अतः इस समय मुझे यहाँ होना ही चाहिए था।” डाक्टर अवधेश जी चटपट उठ खड़े हुए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर आगन्तुक को नमस्कार किया।
केवल तीन राटी पड़ी हैं। एक में कंपाउन्डर तथा एक और सेवक है। एक में डाक्टर साहब का अस्पताल है और उसी के पिछले भाग में उनके रहने की भी व्यवस्था है। तीसरा तम्बू भोजनालय का काम देता है। उसी का एक भाग सामान रखने के भी काम आता है।
“आप सरकारी चिकित्सक तो हैं नहीं।” आगन्तुक एक टीन की कुर्सी पर बैठते हुए बोले-”नगर में भी आप सेवा कर ही रहे थे। वहाँ के रोगियों को भी तो चिकित्सक चाहिए।” दो-तीन टीन की कुर्सियाँ और एक छोटी सी मेज-जितने कम सामान में काम चल सके बस उतना सामान डाक्टर के पास था। वैसे एक चिकित्सक होने के कारण चिकित्सालय का ही सामान बहुत अधिक होना स्वाभाविक था।
“नगर के रोगियों की सेवा करने वाले पर्याप्त चिकित्सक वहाँ हैं।” डाक्टर ने शीघ्रतापूर्वक अपना इंजेक्शन का सामान ठीक करते हुए कहा। उनके पास रोगी आ रहे थे और उन्हें तुरंत इंजेक्शन देना था- ‘सरकारी चिकित्सक पर्याप्त नहीं हो रहे हैं, यह आप देख ही रहे हैं। यह सरकारी चिकित्सक का ही कर्तव्य नहीं है। रोग जहाँ असाध्य चुनौती देने वाला बन जाता है, किसी भी चिकित्सक का कर्तव्य वहाँ उसे पुकारता है।”
“तब आप मुझे भी अपना सहकारी बनालें।” आगन्तुक ने किंचित हँसते हुए कहा-”मैं” भी तो चिकित्सक ही हूँ।
“सच पूछिए वैद्य जी ! मैं तो स्वयं आपसे यह प्रार्थना करना चाहता था, किंतु हिचक रहा था।’ डाक्टर अवधेश एक क्षण स्थिर दृष्टि से वैद्य जी की ओर देखते खड़े रहे.............. “हम अंधेरे में ढेला फेंक रहे हैं। रोग नया है और उसकी कोई परीक्षित औषधि अभी किसी के पास है नहीं, किंतु रोग संक्रामक हे और अत्यंत उग्र भी । किसी मित्र को ऐसे स्थान पर रहने को कहना............. वैसे संभव है कि आयुर्वेद की सहायता कुछ कर सकें।
रोग तो हमारे लिए भी नया है, किंतु आयुर्वेद की पद्धति में कोई रोग नया नहीं होता।” वैद्य जी गंभीर हो गए और रोग के संक्रामक और उग्र होने का भय तो जैसा मेरे लिए है वैसा ही आपके लिए भी है।
एक ही शिविर में उसी दिन दो अच्छे चिकित्सक एक साथ कार्य करने लगे। यद्यपि दोनों की पद्धतियों में कोई ऐक्य नहीं था, किंतु चिकित्सा मात्र भले वे किसी पद्धति के हों............... सब एक स्थान पर एक हैं सबका लक्ष्य रोग को दूर करके रोगी के कष्ट को घटाते हुए मिटा देना है।
भारत में पहली बार प्लेग आया था। कोई औषधि तब तक आविष्कृत नहीं हुई थी। अनेक घर सूने हो गए। गाँव के गाँव उजड़ गए। ज्वर, गिल्टी और मृत्यु-जैसे मृत्यु ने अपना भयानक पंजा चारों ओर फैला रखा था और प्राणियों को शीघ्रतापूर्वक समेटे ले रहा था-ठीक उसी प्रकार जैसे भूखा बंदर दोनों हाथों से बिखरे चले उठा-उठा कर जल्दी-जल्दी मुख में भरता है।
“अमुक को ज्वर आ गया है।” समाचार अकेला नहीं आता था- “उसके लड़के को गिल्टी निकल आयी है। उसके भाई की दशा बिगड़ रही है। पड़ोस के मकान में अमुक मर गया। उसका शव उठाने वाला कोई नहीं है।”
न डाक्टर को अवकाश था, न वैद्य जी को। किसी को दवा दी, किसी को इंजेक्शन। किसी को पुल्टिश बाँधी किसी को चूर्ण फँकाया। न स्नान का ठीक समय, न भोजन का।
बात यहीं तक नहीं थी। चिकित्सा के अतिरिक्त मृतकों को गंगाजी पहुँचाने का भी प्रश्न था और नित्य नहीं तो, दूसरे तीसरे दिन ऐसा अवसर आ ही जाता था कि वैद्य जी और डाक्टर साहब, दोनों ही शव को कंधा लगा गंगातट चले जा रहे हैं। वैसे यह कार्य उनके कंपाउन्डर रसोइया तथा नौकर को अधिक करना पड़ता था और जब वे अपना कार्य छोड़कर कोई मृतक लेकर चल देते तो वैद्य जी चूल्हा फूँकते दीख पड़ते और डाक्टर साहब कंपाउन्डर का स्थान भी ले लेते।
“आज चपरासी को ज्वर आ गया है।” यह होगा, पहले से जानी समझी बात होने पर भी जब हुई बहुत भयानक लगी। वैद्य जी ने डाक्टर साहब से कहा-”कंपाउन्डर रसोइया, आप और मैं............ आगे बोला नहीं गया उनसे।”
“हम सभी खतरे में हैं।” डाक्टर ने बिना हिचके कहा, “मैंने सबसे यह बात पहले ही बता दी है और रसोइया या कंपाउन्डर अपने घर जाना चाहो तो मैं उन्हें प्रसन्नता से छुट्टी दे दूँगा। मेरी प्रार्थना माने तो आप भी..................।”
‘मैं दूसरी बात कह रहा था।’ वैद्य जी बीच में बोल उठे ‘न कंपाउन्डर जायेगा इस प्रकार और न रसोइया। इनके बिना आपका काम भी नहीं चल सकता। लेकिन मैं ठहरा वैद्य मुझे किसी कंपाउन्डर, चपरासी, रसोइये की जरूरत नहीं होती। मैं दवा भी घोट लेता हूँ, रोगी भी देख लेता हूँ और अपने लिए दो टिक्कर भी ठोंक लेता हूँ ।
“तो यह कहिए कि आपकी नीयत ठीक नहीं है।” डाक्टर खुलकर हँस पड़े-’आप यहाँ से हमें भगा देना चाहते हैं। यह क्यों भूलते हैं आप कि यहाँ आप हमारे अतिथि होकर आये और अब भी उसी स्थिति में हैं।’
“तो आप इस ब्राह्मण अतिथि को अपना यह आवास दान कर दीजिए।” वैद्य जी भी हँसे-”अपने संगी-सेवक लेकर नगर का मार्ग देखिए।”
“आपने ठीक यजमान नहीं चुना” डाक्टर ने उसी विनोद के स्वर में उत्तर दिया-”मुझमें इतनी श्रद्धा नहीं हैं।”
तब मुझे यमराज को यजमान बनाना पड़ेगा।” वैद्य जी गंभीर हो गए, किंतु किसी के भी नगर लौटने की चर्चा यही समाप्त हो गई।
दो-तीन दिन यूँ ही बीते। स्थिति दिन पर दिन गंभीर होती गई। “वैद्यजी मैं निराश हो चला हूँ।” अंततः एक रात आधी रात के बीत जाने पर जब डाक्टर अपने बिस्तरे पर लेटे, उन्होंने समीप के बिस्तर पर लेटे वैद्य जी से कहा-”हम न रोगियों को बचा पाते हैं और न उनका कष्ट ही कुछ कम कर पाते हैं। उलटे हमने अपने आश्रितों के प्राण भी संशय में डाल रखे हैं। वे जाना चाहें आग्रह करने पर भी चले जाये तो उन्हें सवेरे ही भेज दीजिए।” वैद्य जी डाक्टर साहब के शिविर में, उनकी ही रावटी में रहने लगे थे, यह तो कहने की आवश्यकता नहीं है। वे कह रहे थे-”मैं आपकी रसोई भी बना दूँगा और पूरा नहीं तो भी, कुछ काम कंपाउन्डर का भी कर दूँगा।”
“लेकिन इससे लाभ ?” डाक्टर का स्वर खिन्न था। ‘लाभ ?’ वैद्य जी झटके से उठ बैठे अपने बिस्तरे पर- “आप इसमें कुछ लाभ नहीं देखते ? नगर लौट जाने की इच्छा हो रही है क्या ? “मैं अकेला कहाँ जा रहा हूँ।” डाक्टर और खिन्न हो गए थे- “आपको साथ लेकर जाना चाहता हूँ।
“देखो आवधेश।” इस बार वैद्य जी मित्रता के स्तर पर आ गए-मैं प्रारंभ से आग्रह कर रहा हूँ कि तुम नगर चले जाओ। अपने सेवकों को और इन शिविरों को भी ले जाओ। मुझे इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं। मैं सवेरे ही जमींदार की खाली छावनी की बैठक में डेरा डालूँगा।
“करेंगे क्या आप ?” डाक्टर भी उठकर बैठ गए।
“दवा घोटूँगा। रोगी देखूँगा। उन्हें दवा दूँगा। आश्वासन दूँगा।” वैद्यजी के स्वर में विनोद का लेश नहीं था-और किसी मृतक को उठाने वाला कोई न हुआ तो इतनी शक्ति इस शरीर में भगवान ने कृपा करके दी है कि अकेले उसे कंधे पर उठाकर गंगाजी में विसर्जित कर आऊँ।
“इससे क्या लाभ ?” डाक्टर ने फिर पूछा-”मेरी औषधियों के समान आपकी औषधियाँ भी प्रभावहीन सिद्ध हो रही हैं, यह तो आप देख ही रहे हैं।”
“औषधियाँ चुनने में हम प्रमाद नहीं करते” वैद्य जी अत्यंत गंभीर हो गए थे-”हमारी जितनी योग्यता है, जितना ज्ञान है उसका कोई भी भाग हमने छिपाया नहीं है और यही हम कर सकते हैं औषधि लाभ करे ही, यह तो न मेरे बस की बात है, न आपके। इसमें उद्विग्न होने की क्या बात ?”
“निष्फल उद्योग और वह भी खतरा उठाकर” डाक्टर ने वैद्य जी को समझाने के स्वर में कहा।
“उद्योग कर्तव्य है, इसलिए किया जाता है।” वैद्यजी इस बार तनिक जोश में आ गए, “आपकी चिकित्सा पद्धति की बात आप जाने किंतु आयुर्वेद तो आस्तिक शास्त्र है ? प्रारब्ध तथा ईश्वरीय विधान में आयुर्वेद को पूरा विश्वास है। हम विश्वास करते हैं कि जिसे जितना कष्ट प्रारब्धानुसार मिलना है-मिलकर रहेगा। निश्चित मृत्यु कोई टाल नहीं सकता।”
“तब भी आप चिकित्सा करते है” डाक्टर ने व्यंग किया “सो तो करता हूँ और यहाँ की चिकित्सा छोड़ने को प्रस्तुत नहीं वैद्य जी का स्वर स्थिर दृढ़ था-परिणाम अपने वश में नहीं है, अंतः उसका प्रभाव अपने कर्म पर क्यों पड़ने दिया जाय।”
“इस प्रयास का प्रयोजन ?”
“कर्तव्य पालन” वैद्यजी कह रहे थे-गीता ने भी यही कहा है-कर्मण्ये वा धिकारस्ते मा फलेपु कदाचन् हमारे प्रयास से रोगी को आश्वासन मिलता है। हममें दया मैत्री, करुणा, सेवा भाव का संचार होता है। प्रमाद को प्रश्रय नहीं मिलता सेवा का सात्विक आनंद, रोगी को आश्वासन एवं कर्तव्य पालन का पुण्यम आत्म प्रसाद इससे महान और कोई पुरस्कार आपको सूझता है।
“आप मेरे गुरु है।” डाक्टर साहब ने उठकर भावविभोर होकर वैद्य जी के चरण पकड़ लिए ‘स्वस्तिस्तु’ वैद्य जी हंसे- ‘ब्राह्मण की चरण वंदना करना आपको आया तो सही।’
‘चिकित्सक का ठीक कर्तव्य सुझाया आपने।’ डाक्टर परिहास ग्रहण करने की मनोभूमि में इस समय नहीं थे।
‘चिकित्सक का ही नहीं मनुष्य मात्र का ब्राह्मण को छोड़कर मानव कर्तव्य का निर्देष्टा कोई है भी तो नहीं। वैद्य जी इस चर्चा को समाप्त कर देना चाहते थे-’किसी भी क्रिया का फल कर्ता के वश में नहीं है वह है भाग्य विधाता के हाथ में। तब फल में आग्रह करके अपने कर्तव्य कर्म को जिसमें हमारी स्वतंत्रता है, कुण्ठित क्यों होने दिया जाय। कर्म में आस्था रखने वाले इन्हीं वैद्य ईशानचन्द्र ने अपने परवर्ती जीवन में ‘नैष्कर्म्य सिद्धि’ नामक ग्रंथ की भावप्रवण व्याख्या की और लोक हित में संन्यास लेकर स्वामी करुणानंद के नाम से जगत विख्यात हुए।