
जल एक जीवन मूरि
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जल की व्यापकता और सुलीता के कारण हमारी दृष्टि उसके गुणों की ओर नहीं जाती । वस्तुतः दुनिया में पानी से बढ़कर दूसरी कोई औषधि नहीं। जल को जीवन कहा गया है। यह नामकरण उसके गुण को देखकर ही किया गया था। शरीर के पाचन, रक्त परिभ्रमण रस-स्राव स्नायु संचालन एवं सभी जैविक कार्यों में जल का अमूल्य योगदान है। यदि सही ढंग से जल का सेवन किया जाय तो बीमार पड़ने, एवं डाक्टरों के पास दौड़ने जैसा झंझट ही न पड़े।
शरीर शास्त्रियों के अनुसार काया का दो तिहाई भाग जल से ही भरा है। यह शरीर के 61 से अधिक प्रतिशत भाग को बनाता है। रक्त का 83 प्रतिशत भाग पानी ही है, जो आक्सीजन के अतिरिक्त रोगों से जूझने वाली कोशिकाओं की फौज को वहाँ पहुँचाता है जहाँ उसकी आवश्यकता होती है। खून के जलीय अंश के कारण ही रोग प्रतिकारक कण एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच पाते हैं। माँस पेशियों के द्रव्य में 75 प्रतिशत और हड्डियों की मज्जा में 22 प्रतिशत पानी है, जिसके कारण जोड़ों में चिकनाहट प्रतीत होती है और भीतरी अंग अवयव आपस में चिपकते नहीं, चमड़ी सूखती नहीं । शरीर की सूक्ष्मतम कोशिकाओं के भीतर विद्युत संवहनशीलता के आधार इलेक्ट्रोलाइट्स सोडियम व पोटेशियम है, जिनका उचित संतुलन पानी में घुले हुए लवणों के कारण ही स्थापित हो पाता है।
यह कथन कि मस्तिष्क निरंतर पानी पर तैर रहा है विलक्षण सा प्रतीत होता है। किंतु मस्तिष्क की सभी 15 विलियन कोशिकायें पानी के कणों से ही विनिर्मित हैं और उनका कुल परिमाण खोपड़ी की क्षमता का 60 प्रतिशत तक होता है। वसा ऊतकों में जल 20 प्रतिशत होता है। यहाँ तक कि सूखी दीखने वाली हड्डियों में 25 प्रतिशत और धारीदार पेशियों में 80 प्रतिशत जल ही होता है। शरीर की सभी कोशिकाएँ जल में डूबी रहती हैं ताकि व नम रह सकें जिससे रुधिर वाहिकाओं और कोशिकाओं के बीच पदार्थों को मार्ग में आने-जाने के लिए सुगम कर सकें। इसके द्वारा ही उपयोगी अंश फेफड़ों में और अनुपयोगी अंश किडनी में चला जाता है। इस प्रकार जल भोजन को पेट के अनुकूल बनाने से लेकर रक्त बनने की प्रक्रिया में सहायक है।
मात्र संरचना में ही नहीं वरन् शरीर की आँतरिक क्रियाओं में भी जल का महत्वपूर्ण स्थान है। यह शरीर में उत्पन्न दूषित पदार्थ की साँद्रता कम कर रक्त को पतला करके उसमें ओजस्वी कणों की वृद्धि करता है। सड़े-गले पदार्थों को घुलाकर, त्वचा, मूत्र तथा श्वास के द्वारा बाहर निकाल फेंकता है। शरीर के दूषित पदार्थ जब बाहर निकल जाते हैं तो रक्त परिशोधन की प्रक्रिया को बल मिलता है। भोज्य पदार्थ को गुर्दा के फिल्टर वाले पहले भाग से छन-छन कर दूसरे भाग वाले नली तथा लघु नलिकाओं के लंब मार्ग से गुजरना पड़ता है। इन्हीं मार्गों से उच्छिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने में जल गुर्दों की मदद करता है। संधि तथा आँतरिक अंगों के लिए जल स्नेहक (लुव्रिकेटर) की भूमिका निबाहता है। ताप नियंत्रक के रूप में शरीर से ऊष्मा हटाने में सहायक होता है। ज्यों ही शरीर गर्म हुआ कि अधिक रक्त त्वचा की ऊपरी सतह पर आ जाता है। उनके द्वारा प्रेषित स्वेद बूँदें रोम कूपों से वाष्पन क्रिया हेतु शरीर से बाहर जाती हैं। इसमें शरीर वातानुकूलित अर्थात् गर्मी में ठंडा एवं सर्दी में गरम होता है।
जल का उपयोग जितना अनिवार्य है उतना ही उसका कम प्रयोग अनेकानेक रोगों को जन्म देने वाला भी। चूँकि यह शरीर जल द्वारा ही संचालित है अतः इसके न्यूनतम सेवन से इसके अंदर अनेक गड़बड़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। शरीर में ऐंठन, मल उत्सर्जन में रुकावट, पेट दर्द, आदि का कारण जल की न्यूनता ही है ऐसे व्यक्ति प्रायः परेशान से रहते हैं एवं चिकित्सा के लिए डाक्टरों के पास रंग-बिरंगी गोलियों, चूर्ण आदि का सेवन करते हैं और मूल कारणों को न जानने के कारण कई अनेक रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। पेट में भारीपन के कारण शरीर में सुस्ती छाई रहती है, शरीर कमजोर हो जाता है और चेहरा निस्तेज।
ये कभी शरीर में उत्पन्न हो ही नहीं, इसके लिए प्रकृति ने मनुष्य के अनुकूल खाद्य पदार्थों में जल के अंश को संतुलित बनाया है। जिसे यदि प्राकृतिक रूप में लिया जाय तो कमी पूरी हो सकती है। “न्यूट्रिशन एण्ड डायट इन हेल्थ एण्ड डिजीज” के अनुसार हमारे भोज्य पदार्थों। में सत्तर प्रतिशत नमी होती है। बिना जलीय अंश के हम भोज्य पदार्थों का ग्रास गले से नीचे उतार नहीं पाते। ताजी सेम में 81 प्रतिशत और सलाद वर्ग के सब्जियों में 95 प्रतिशत पानी होता है। शुद्ध दूध में भी पानी की मात्रा अस्सी प्रतिशत होती है। भोजन के अन्यान्य पदार्थों में जलीय अंश कुछ न कुछ होता ही है। यहाँ तक कि शरीर को प्राप्त, होने वाले कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन के एक-एक ग्राम में क्रमशः, आठ, 1.06.41 ग्राम जल होने का अनुमान वैज्ञानिकों का है कुछ लोगों के मन में यह धारणा बन गई है कि चाय, कॉफी जैसे पेय पदार्थों से जल की कमी पूरी की जा सकती है। किंतु इसके सेवन से कैफीन नामक उत्तेजक जहरीला पदार्थ शरीर से जल की मात्रा को घटा देता है।
इस कमी को पानी पीकर दूर किया जा सकता है। प्यास प्रकृति की ओर से शरीर को एक संकेत मात्र है कि अब पानी पीना निताँत आवश्यक है। लेकिन इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि जब प्यास लगे तभी पानी पिया जाय। पानी तो पचाने के लिए, पचे को आत्मसात् करने के लिये ग्रहण किया जाता है। सामान्यतः व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम 8 से 10 गिलास पानी पीना चाहिए। इससे कम पानी पीना एक तरह रोगों को आमंत्रण देना है। प्रायः लोग पानी नहीं पीते और विशेषतः गर्मियों में, जबकि शरीर का बहुत सा पानी पसीने के रूप में निकल जाया करता है। ऐसे असावधानी के कारण लोग प्रायः उदर रोगों के शिकार हो जाते हैं।
कुछ लोग मोटापा कम करने, वजन घटाने के लिए पानी का प्रयोग कम करते हैं। जबकि पानी की पर्याप्त मात्रा शरीर की चर्बी से उत्पन्न बेकार जहरीले पदार्थों को बाहर निकाल देती है। इससे सही अर्थों में वजन घट जाता है।
शास्त्रों में लिखा है “भोजन के मध्य अधिक जल ग्रहण करना विष के समान है।” भोजन करते समय या तुरंत बाद एक साथ अधिक पानी पीने की प्रवृत्ति अच्छी नहीं समझी जाती। इससे भोजन को ठीक-ठीक चबा पाने की प्रक्रिया संभव नहीं हो पाती इससे पहले ही वह पेट में चला जाता है। भोजन करते समय बीच-बीच में थोड़े जल के उपयोग की सलाह केवल उस समय दी जा सकती है जब खाद्य पदार्थ अच्छी तरह चबाये नहीं जा सकते। यदि भोजन खूब चबाकर लिया गया हो तो वह स्वतः पानी जैसा तरल हो उठता है। उसे कंठ से नीचे उतारने के लिए पानी की कतई आवश्यकता नहीं । भोजन से 1/2 से लेकर 1 घण्टा बाद ही जल लिया जाना चाहिए।
सामान्यतया प्यास लगने पर ही लोग पानी पीते हैं परंतु पानी का सेवन कभी-कभी बिना प्यास के भी करते रहना चाहिए। कफ, प्रकृति वालों को तथा अधिक तरल भोजन करने वालों को प्यास कम लगती है। किंतु शरीर में मल जमा होने से जो गर्मी पैदा होती है उसको शीतल करने के लिए जल अवश्य लेना चाहिए। इसलिए प्यास न होने पर भी थोड़ी मात्रा में कई बार पानी लेने की आदत डालने की सलाह स्वस्थ विज्ञानी देते हैं
शरीर अपने विषों का निष्कासन पानी के माध्यम से करता है। इस प्राकृतिक प्रक्रिया में व्यक्ति का सहयोग पानी पीकर होता है। अँतड़ियों के लिए ऊषापान शरीर की निःसरण क्रिया को स्वाभाविक बनाता है। यदि प्रातः जल लेते समय मिचली आने लगे तो मात्रा को ध्यान में रखते हुए धीरे-धीरे आदत डालनी चाहिए। इसके द्वारा गुर्दों। की मदद उनकी नलिकाओं की सफाई में अच्छी तरह हो जाया करती है। प्रातः कालीन जल पाचन क्रिया तथा रक्त के अभिसरण में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहता है।
जल को जीवन मुरि कहा गया है।, यह औषधि है, गुणों की दृष्टि से अमृत प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संपदा है। भली भाँति प्रयुक्त होने पर यह जीवन रक्षक तथा पोषक सिद्ध हो सकती है। आवश्यकता है इसके महत्व को समझकर सही रीति से इसका सदुपयोग करने की ? जिससे जन साधारण बिना खर्च के शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ होते रह सकते हैं।