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Magazine - Year 1994 - Version 2

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वृत्तियों का परिमार्जन, व्यक्तित्व का उदात्तीकरण

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स्वच्छ दीखने के दो तरीके हैं-अस्वच्छता को ढक देना या उसे साफ कर देना। आवरण चढ़ाने से अंतर इतना ही आयेगा कि निहित गंदगी बाह्य दृष्टि से ओझल बनी रहेगी। इतने पर भी उसकी सत्ता अपने स्थान पर यथावत् रहती और मौका पाते ही, आवरण हटते ही अपना परिचय पूर्ववत् देने लगती है।

मनुष्य की यह आम आकाँक्षा होती है कि दूसरों की नजरों में सम्मानित दीखे और सुसंस्कृत कहलाये। इसके लिए एकमात्र तरीका यही है कि व्यक्तित्व का रूपांतरण हो और उसे इतना प्रमाणिक, प्रखर और परिष्कृत बनाया जाय कि सौरभ बिखेरने वाले फलों की ओर जिस प्रकार भौंरे खिंचते चले आते हैं, वैसे ही लोगों की श्रद्धा और सहायता अनायास मिलती चले। यह किंचित कठिन प्रक्रिया है। इन दिनों लोग पुरुषार्थ प्रधान ऐसे कार्यों से प्रायः बचना चाहते और किसी ऐसे सरल संस्करण की तलाश में रहते हैं, जो आसान हो एवं सुविधाजनक भी, साथ ही देखने में भी ऐसा न लगे, जिससे जल्द ही उसके असल की नकल होने का अनुमान लगता हो। व्यक्तित्व के संदर्भ में ऐसा उपाय यही हो सकता है कि बुराई पर आकर्षक पर्दा डाल दिया जाय और सज्जन एवं सरल होने का प्रदर्शन किया जाय। ऐसे में कई बार व्यक्तित्व की पहचान में धोखा हो जाता है और बुरे के अच्छे होने का भ्रम होने लगता है।

मानवी व्यक्तित्व के तीन पक्ष हैं-भावना, विचारणा और व्यवहार। इनमें से व्यवहार शारीरिक प्रवृत्ति है, जबकि विचारणा मानसिक वृत्ति है। इन दोनों का संबंध स्नायु तंत्र से है, किंतु भाव-संस्कार का संबंध स्नायु संस्थान से नहीं होता, वह चेतना का विषय है, अतएव उसको परिष्कृत करने की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि जब ईर्ष्या, राग, द्वेष, घृणा आदि संवेगात्मक तत्वों के नियंत्रण की बात आती है, तो शरीर विज्ञानी और मनोविज्ञानी स्वयं को असहाय महसूस करने लगते और यह बता पाने में असमर्थ साबित होते हैं कि शरीर मन के किन हिस्सों द्वारा किस प्रकार इनका संचालन-उत्पादन होता है। अब तक मन के संबंध में काफी शोधें मनोविज्ञान क्षेत्र में हो चुकी हैं और मस्तिष्क के बारे में भी अगणित अनुसंधान शरीरशास्त्री कर चुके और कर रहे हैं, पर उक्त दोनों विधाओं के विशेषज्ञ यह सुनिश्चित कर पाने में एक प्रकार से विफल ही रहे हैं कि आखिर मन-मस्तिष्क में से कहाँ किस अंग में ठीक-ठीक इनकी अवस्थिति है? जबकि अध्यात्मवेत्ता इनका अवस्थान-स्थान भी बताते और उन्हें प्रभावित करने की पद्धति भी सुझाते हैं, कहते हैं उनका यदि उदात्तीकरण हो जाय, तो हर किसी के लिए ईर्ष्या को उत्फुल्लता में, राग को विराग में, द्वेष को सहयोग में और घृणा को प्रेम में बदल पाना संभव हो जायगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि नियंत्रण की प्रणाली स्थूल शरीर के ज्ञान-तंतुओं की क्रियाओं तक ही है, सीमित हैं। इसके आगे जो कुछ होता है, वह प्राकृतिक और संस्कारगत है एवं चेतना से संबद्ध है। इसका उदात्तीकरण अथवा शोध नहीं हो सकता है, रूपांतरण का इसके लिए अन्य कोई दूसरा तरीका नहीं। इस प्रकार नियंत्रण और रूपांतरण-बदलाव की यह दो पद्धतियाँ है। हम इन दोनों को भली-भाँति समझें और एक से स्थान पर दूसरे को प्रयुक्त न करें। दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ है। नियंत्रण के क्षेत्र में शोधन को न लायें और शोधन की जगह नियंत्रण का प्रयोग न करें। यह यदि सही-सही संपन्न हुआ, तो फिर शोधन के उपराँत नियंत्रण की आवश्यकता नहीं रह जायगी इतना सुनिश्चित है।

देखा गया है कि व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में स्वयं को बदलना चाहता है, बुराइयों को त्यागना चाहता है, आदतों को परिवर्तित करना चाहता है, बुराइयों को छोड़ना चाहता है, वासनाओं को त्यागना चाहता है, किंतु लाख कोशिशों के बावजूद उसे असफलता ही हाथ लगती है। तात्कालिक सफलता तो इसमें मिलती देखी गई है, पर वह चिरस्थाई नहीं होती। कारण की तलाश करने पर यही ज्ञात होता है कि जो प्रयास किये गये, वह कायिक अथवा मानसिक स्तर के उथली परत मात्र के थे इस स्तर पर मात्र नियंत्रण ही संभव है, रूपांतरण नहीं। जहाँ नियंत्रण होगा, वहाँ उसके हटने-घटने की संभावना भी बनी रहेगी। ऐसी स्थिति में दुष्प्रवृत्तियों को बार-बार सिर उठाने का अवसर मिलता रहता है। इसलिए सुधार-संशोधन संबंधी नियंत्रण की पद्धति अपूर्ण एवं अधूरी है। इसकी तुलना में यदि उदात्तीकरण को अपनाया गया, तो इससे संपूर्ण एवं चिरकालिक रूपांतरण होता तथा समस्या का स्थायी समाधान मिलता। कारण कि हमारी अधिकांश प्रवृत्तियों का संबंध संस्कार-चेतना से है। जब उसका परिमार्जन किया जाता है, तो उससे संबंधित समस्त चेष्टाओं का उदात्तीकरण हो जाता है। शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान इतनी गहराई में उतर कर वास्तविक निमित्त को नहीं समझ पाने के कारण ही बार-बार विफल रहते देखे जाते हैं।

काय शास्त्र के बारे में शरीर वेत्ता स्खलन को रोक लेना ही सर्वोपरि मानते और उतने से ही ब्रह्मचर्य की अखंडता स्वीकार लेते हैं। मनः शास्त्री उस पर दमन के द्वारा विजय प्राप्त करने की बात कहते हैं। ज्ञातव्य है कि कुचलने का यह तरीका हर जगह सफल नहीं होता। ‘काम’ स्वयं में एक प्रचंड ऊर्जा है। शक्तिशाली ऊर्जा को बहुत समय तक दमित-नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यदि किया गया, तो ऐसी विस्फोटक स्थिति पैदा होगी, जो व्यक्ति को सनकी, उन्मादी, पागल स्तर का बना देगी। इसलिए उस ऊर्जा का रूपांतरण होना चाहिए। यह रूपांतरण किस प्रकार का, कैसा हो? मनोवेत्ता यह बता पाने में नाकामयाब रहे, जबकि अध्यात्मवादियों के पास इसका सुनिश्चित उत्तर है। उनका कहना है कि यदि इस वासना के आवेग को सात्विक भावना में, ईश्वरीय अनुराग में बदल दिया गया, तो फिर ‘काम’ के सताने का सवाल ही पैदा नहीं होगा। इसके अतिरिक्त मनोविज्ञानियों के काम-दमन का प्रतिवाद करते हुए वे कहते हैं। कि इस रीति से मन प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से बराबर उस ओर ही लगा रहता है और जिसका अनवरत स्मरण हो रहा हो, उस ओर से मन भला कैसे हट सकता है? निश्चय ही इस नियंत्रण के माध्यम से काम-विकास का उद्दीपन ही होता रहता है। इस सूक्ष्म शास्त्र को न समझ पाने के कारण ही मनोविज्ञान का यह सूत्र कारगर न हो सका। अध्यात्म में इसकी दिशा मोड़ कर ईश्वरोन्मुख कर दिया जाता है। इसलिए सामान्यजन में जो ऊर्जा काम-विकार उत्पन्न करने में खर्च होती रहती है, वही शक्ति भगवद्परायण व्यक्ति में स्वतः ही रूपांतरित होकर उच्चस्तरीय बनती रहती है, अतएव वहाँ वासना के सताने की बात तो दूर उसकी स्मृति तक नहीं उभरती। यही वास्तविक रूपांतरण है।

उदात्तीकरण और नियंत्रण के बीच उपरोक्त अंतर और उनकी सीमाओं को समझ लेने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक स्तर पर जो हमारी चेष्टाएँ और क्रियाएँ होती हैं तथा मानसिक स्तर पर जैसा हमारा चिंतन होता है, वह सब विशुद्धतः उन्हीं-उन्हीं स्तरों से संबंधित होते हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनका न्यूनाधिक लगाव भाव-संस्थान की संस्कार-चेतना से भी होता है। इसलिए मानवी चेष्टाओं को शुद्ध करने की जहाँ बात आती है, वहाँ उसके चित्तगत संस्कारों को भी ध्यान में रखना होगा? कारण कि मनुष्य 84 लाख योनियों की लंबी यात्रा के उपराँत यह शरीर धारण करता है, इसलिए चित्त में उनके भी सूक्ष्म संस्कार विद्यमान रहते हैं। इस आधार पर व्यक्तित्व भेद की व्याख्या भी अत्यंत सरल हो जाती है और यह बताया जा सकना शक्य हो जाता है कि यदि किसी में क्रोध, किसी में घृणा, किसी में प्रेम तत्व प्रबल है, तो ऐसा क्यों है? मनोविज्ञान की इस संबंध में जो व्याख्याएँ हैं, वह अत्यधिक दुरूह हैं और अधूरी भी, क्योंकि व्यवहार की व्याख्या वहाँ परिस्थिति के आधार पर की जाती है। यदि किसी व्यक्ति में घृणा की अधिकता है, तो इस बारे में उसका कहना है कि चूँकि उसे ऐसे किसी वातावरण में रहना पड़ा हो, जहाँ, तिरस्कार, अपमान, घृणा बड़े पैमाने पर मिला हो, अथवा बचपन में माता-पिता, भाई-बहन से फटकार मिलती रही हो, तो इसका परिणाम उसमें घृणा की उत्पत्ति के रूप में सामने आ सकता है। प्रेम, भय, क्रोध जैसी मानवी प्रवृत्तियों की व्याख्या, व्यवहार मनोविज्ञानी इसी प्रकार करते और कहते हैं कि परिस्थिति और समाज से वह जैसा कुछ सीखता है, वैसा ही बनता और विकसित होता चला जाता है। चूँकि व्यक्ति को समाज में पग-पग पर इन मनोवैज्ञानिक तत्वों से पाला पड़ता है, अतः उसमें ये सभी तत्व विकसित हो जाते हैं। घृणा-प्रेम के संदर्भ में व्यवहार मनोविज्ञान का यही निष्कर्ष है। इसके आगे उसके पास और कोई समाधान नहीं, किंतु मानवी व्यवहार इतना सरल कहाँ? वह इतनी जटिलताओं से भरा हुआ है कि केवल परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में उसकी न तो व्याख्या हो सकती है, न हल हो सकता है, किंतु यदि उसे हम क्रमशः व्यवहार जगत से विचार जगत, विचार जगत से भाव और संस्कार जगत तक ले जायँ, ओर चिंतन करें कि ऐसा व्यवहार हुआ, तो इसका कारण क्या हे? तो अंततः हम संस्कार जगत के उस मूल बिंदु पर पहुँचेंगे, जहाँ आकर मानवी आचरण को एक परिभाषा, सर्वांगपूर्ण व्याख्या तथा सर्वांगपूर्ण समाधान मिल जाता है। जब व्यवहार का उद्गम ज्ञात हो जाय, तो आदतों को बदल पाना सरल हो जाता है।

वस्तुतः हम जो कुछ भीतर हैं, वही बाहर अभिव्यक्त करते रहते हैं। हमारी संस्कार-चेतना शुद्ध अथवा मलिन जैसी होती है, आदतों के द्वारा, आचरण के द्वारा वह उन्हीं रूपों में प्रकट और प्रत्यक्ष होती रहती है। इसी से स्वभाव का निर्माण होता है। प्रकृति यदि हेय और निम्नस्तरीय है, तो इसके लिए भी अंतराल की वह भूमि ही जिम्मेदार है, और वह यदि उच्चस्तरीय है, तो उसका भी निमित्त वही है। व्यक्तित्व का सारा ढाँचा उसी निर्मित है, अतः व्यक्तित्व को बदलने के लिए उसे उत्कृष्ट बनाने के लिए हमें उसी संस्थान को परिमार्जित और परिष्कृत करना होगा। इसके लिए एकमात्र उपचार आध्यात्मिक ही है। जप, तप, व्रत, उपवास, ध्यान आदि कुछ ऐसे साधन हैं, जिनका यदि नियमित अभ्यास किया जात रहे, ते यह उस अपरिष्कृत आँतरिक भूमि पर सुनिश्चित असर डालते और गंदगी को आवृत्त करने की बजाय निकाल-बाहर करते हैं। आचरण संबंधी अस्वच्छता को दबाने की तुलना में मिटाना ही उत्तम होगा। रूपांतरण ओर उदात्तीकरण का यही एकमात्र आधार है। व्यक्तित्व संपन्न इसी के द्वारा बना जा सकता है। अपनाया इसे ही जाना चाहिए।

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