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Magazine - Year 1994 - Version 2

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विशेष लेख - युगान्तरीय चेतना के उद्गम केन्द्र से सम्बन्ध जोड़ें

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यह अप्रकाशित लेख परमपूज्य गुरुदेव द्वारा बसंत पंचमी 1990 की वेला में लिखा गया था इसमें आने वाले समय की समस्त संभावनाओं का उल्लेख है। पाठकगण आगामी वर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर युग सन्धि महापुरश्चरण की प्रथम पूर्णाहुति आँवलखेड़ा में पूज्यवर की जन्मस्थली में मानने का आह्वान इस अंक में पढ़ रहे हैं, साथ ही एक लाभ हीरकों-प्राणवान कार्यकर्ताओं के रूप में एक उपहार युग देवता के चरणों में चढ़ाने का संकल्प भी। यह आह्वान हम सभी के के लिए है। अब समय ऐसा है कि “अभी नहीं तो कभी नहीं। ”

भगवान राम और कृष्ण ने अपने-अपने समय की धर्म की श्रख और अधर्म के परित्राण के लिए व्यापक क्षेत्र में वातावरण विनिर्मित किया और क्रिया-कलाप ऐसा अपनाया जिसका रामायण और महाभारत में सुविस्तृत उल्लेख है। उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया का कहीं भी अनुभव किया और अनुमान लगाया जा सकता है। मन्दिरों में उनकी प्रतिमायें और घरों में उनकी तस्वीरें विद्यमान हैं। इतने पर भक्तजनों की यह ललक उमंगती ही रहती है, कि मथुरा एवं अयोध्या पहुँच कर उस उद्गम का दर्शन किया जाय, जहाँ वे उनसे और बड़े होने पर बड़े काम कर सकने में समर्थ हुये।

इस्लाम धर्म के संस्थान दुनिया भर में फैले पड़े हैं। उन्हें कुरान के माध्यम से उनके संदेश अपने स्थानों पर अभी भी मिलते रहते हैं, किंतु उस समुदाय के प्रत्येक श्रद्धालु के मन में यह उमंग उठती रहती है कि जहाँ पैगंबर जन्में थे, उस “काया” के दर्शन हेतु सशरीर पहुंच जाय। लाखों लोग हर साल हज यात्रा पर जाते और उस प्रक्रिया को पूर्ण लेने पर अपने सौभाग्य की चर्चा “हाजी” शब्द नाम के आगे लगा कर गौरवान्वित होते हैं। ईसाइयों को ईसा के जन्म स्थान यरुसलम पहुँचने की प्रायः वैसी ही इच्छा रहती है। बौद्ध संप्रदाय के लोग तथागत की जन्मभूमि लुम्बिनी एवं निर्वाण स्थली कुषीनगर पहुँचने की इच्छा तो सँजोये ही रहते हैं। भले ही परिस्थितिवश वे वहाँ बड़ी संख्या में हर साल पहुँच न पाये। विदेश से लाखों व्यक्ति फिर भी हर वर्ष वहाँ आते हैं। सिख धर्म के जन्मदाता सद्गुरु की जन्मभूमि नानकाना यो अब पाकिस्तान में चला गया है पर वहाँ भी सिख धर्मानुयायी प्रायः प्रत्येक वर्ष पासपोर्ट लेकर जाते रहते हैं। अन्य धर्मों के संबंध में भी यही बात हैं। उद्गम तक पहुँचने की लालसा गहन श्रद्धा का परिचय देती है। वह श्रद्धा आगे चल कर धर्म धारणा को विकसित करने में सहायक भी होती हैं।

गंगा लंबा रास्ता पार करती हैं। उसका जल सुविस्तृत क्षेत्र में उपलब्ध रहता है। बंगाल पहुँचते.पहुँचते तो उसकी सहस्रों धाराएँ विभाजित हो गई हैं जिनमें लोग नहाते रहते और उसी का जल पीने आदि के उपयोग में लाते रहते हैं। इतने पर पूर्ण समाधान नहीं होता और जिनमें समर्थ हैं, वे गंगोत्री ही नहीं, गोमुख तक भी जा पहुँचते हैं। यमुना के प्रति श्रद्धा रखने वालों को अमरकंटक की यात्रा करके ही चैन पड़ता है।

कैलाश पर्वत में शिव का निवास माना जाता है। और पार्वती का प्रत्यक्ष स्वरूप मानसरोवर के रूप में बखाना गया हैं। यों सप्त सरिताओं का उद्गम भी मानसरोवर हैं।

कैलाश मानसरोवर यात्रा अब बहुत कठिन हो गई हैं। , फिर भी किसी प्रकार वहाँ तक ला पहुँचने वालो की बड़ी संख्या रहती हैं। उद्गमों तक जा पहुँचने और वहाँ से प्रेरणा लेकर आने की मान्यता अकारण भी नहीं हैं। उसके पीछे श्रद्धा-संवेदना का गहरा पुट लो लगा होता है।

युग निर्माण योजना का आरंभिक ताना-बाना जहाँ से बुना गया हैं-”इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य “ का उद्घोष जहाँ से किया गया हैं, उस महायुगाँतरीय चेतना का सामयिक केंद्र शांतिकुंज हैं। उसका सान्निध्य पाने के लिए प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु, प्रज्ञा-परिजन पहुँचते हैं और ऐसा कुछ लेकर लौटते हैं, जिसे बैटरी को नये सिरे से चार्ज किए जाने के समतुल्य समझा जा सके। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि जैसी कितनी पुरातन विशेषता भी यहाँ हैं। इसके अतिरिक्त इसे गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित होने के साथ-साथ और भी अनेक विशेषताएं उसके साथ जुड़ गई हैं। स्थापना के दिनों से लेकर अब तक नित्य नियमित रूप से लाखों की संख्या में गायत्री साधना यहाँ होती हैं। वर्ष भर में तो वह जप संख्या अरबों-खरबों की गणना तक जा पहुँचती हैं। नौ कुण्डों की विनिर्मित यज्ञशाला में नित्य नियमित रूप से यज्ञ होता है और वर्ष में आहुतियों की संख्या करोड़ों तक जा पहुँचती हैं। जिस अखण्ड-ज्योति की स्थापना इस महा मिशन के साथ साक्षी रूप में हुई थी। उस दीपक का प्रज्ज्वलन पिछले उनहत्तर वर्षों से अनवरत रूप से ज्योतिर्मय है। किसी दिव्य सत्ता का संरक्षण यहाँ गंगावतरण की तरह अवतरित होने की उपमा में इसके साथ जुड़ा देखा जा सकता है। गायत्री माता की प्राण -प्रतिष्ठा, सविता देवता का मन्दिर, शिव-अभिषेक, देवात्मा हिमालय की एक मात्रा जीवंत बोलती हुई प्रतिमा जो कि निर्माणाधीन हैं। सप्त ऋषियों की प्रतिमाएं यहाँ की विशिष्टताएं हैं जो देव संस्कृति के मूल आधार के यहाँ होने का प्रतिपादन करती हैं। ऐसी -ऐसी और भी अनेकानेक विशेषताएं हैं जो अपने ढंग की अनोखी कहीं या समझी जा सकती हैं।

मिशन के सूत्र संचालकों की चर्मचक्षुओं से भी देखी जा सकने वाली कायाएं वयोवृद्ध हों जाने पर भी सहस्रशीर्षा, सहस्र हाथ, सहस्रबाहु, सहस्रपाद ही नहीं सहस्र प्राण के रूप में अब तक तो स्थूल शरीर में भी विद्यमान हैं और विश्व मानव में प्राण फूंकने वाले तंत्र का सूत्र संचालन भी करते हैं। अगले दिनों यह काय कलेवर अदृश्य हो जायेंगे, तो उनकी प्राण चेतना से ओत-प्रोत सूक्ष्म शरीर यहाँ एक शताब्दी तक बनें रहने के लिए वचन बद्ध हैं। ;यह प्रक्रिया भाद्रपद पूर्णिमा 1994 से परमवंदनीया माता जी के महाप्रयाण के बाद तीव्रगति से संपन्न होती देखी जा सकती हैं।

अपने समय में नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय नव जीवन उभार सकने वालों को विनिर्मित प्रशिक्षित करने के लिये प्रख्यात रहे हैं। उनके उत्पादनों ने न केवल भारत न केवल एशिया वरन् समूचे संसार को बहुत हद तक पतन.पराभव से उबार कर देव संस्कृति के साथ कस कर बाँध देने में पाई। यह पुरातन काल की गौरव गाथा हैं। पर अब तो ऐसा कुछ कहीं दीख नहीं पड़ता। ईसाई मिशन अवश्य किसी हद तक उस शैली का अनुकरण कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति के विश्व संस्कृति के, विस्तार होने के रूप में वैसा ही कुछ आयोजन करते हुए ताना.बाना बुनते हुए शांतिकुंज को देखा जा सकता है।

अगले बाहर वर्षों की युगसंधि बेला में यहाँ से क्या कुछ किया जाने वाला हैं, उसके सुविस्तृत निर्धारणों की तो समय से पूर्व चर्चा करना तो अप्रासंगिक होगा। पर उन संकल्पों में से एक ही ऐसा है जिसकी रूपरेखा को सुनने वाले तक हतप्रभ होकर रह जाते हैं। सुनने वालों के कान सहमत

होते हैं और न सोच सकने वाले को चिंतन सहायता करता है कि क्या ऐसा भी इन विकट परिस्थितियों में बन पड़ना संभव हो सकता है। फिर भी संयोजक सत्ता का कथन हैं कि जो आज असंभव लगता है वह कल संभव होकर रहेगा।

प्रस्तुत संकल्प है “ एक लाख सृजन शिल्पियों का, हीरकों को खरादे तराशे रत्नों का उत्पादन, प्रशिक्षण और उनको नव सृजन के कार्य क्षेत्र में उभारा जाना “। प्राचीन काल के सतयुगी वातावरण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता के पक्षधर वातावरण में साधु.ब्राह्मणों, वानप्रस्थों की सृजन वाहिनियाँ राष्ट्र को, विश्व को जीवंत और जाग्रत रखने की व्रत धारणा को चरितार्थ करती रही होंगी। यह उन दिनों संभव भी रहा होगा, पर आज तो प्रवाह सर्वथा उलटी दिशा में बह रहा हैं। जिन्हें वासना, तृष्णा, अहंता ने कसकर के न जकड़ रखा हो, जो लोभ, मोह और अहंकार से ऊंचे उठकर आदर्शों के प्रति समर्पित होने की बात सोचते हों, ऐसे लोग जहाँ तहाँ ही नगण्य संख्या में ढूंढ़े मिलेंगे। अन्यथा सर्व साधारण पर संकीर्ण स्वार्थपरता का ही भूत सवार हैं। पैसे के अतिरिक्त और कुछ किसी को सूझ ही नहीं पड़ता। यहाँ तक कि अध्यात्म तत्वज्ञान के नगाड़े बजाने वाले भी स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि.सिद्धि जैसी विचित्र स्वार्थ परायणता की परिधि से आगे नहीं बढ़ पाते। मनोकामनाओं की पूर्ति वाले वरदान, की कामनाएं ही उन्हें दायरे में घेरे बटोरे रहती हैं। ऐसी दशा में सेवा साधना और आत्मशोधन और लोककल्याण की बात पर ध्यान कौन दे?

एक लाख सृजन शिल्पी इन्हीं दिनों भ्राँत जन समुदाय में से निकाल सकना कैसे बन पड़े? झुलसाने वाली ग्रीष्म आतप में शांति की शीतल मेघमाला कहाँ से उठेंगी? यही हैं वह असंभव जिसे संभव कर दिखाने की प्रतिज्ञा शांतिकुंज ने ली हैं और उस दिवा स्वप्न समझे जाने वाले संकल्प को सार्थक सिद्ध करने की घोषणा तक सर्वसाधारण के कानों तक पहुँचाई हैं। यह इसलिए करना पड़ की सर्वत्र छाई हुई निराशा और भावी संकटों की आशंका से उद्विग्न लोकमानस को नये सिरे से सोचने की, नये प्रकाश का उदय होने की साँत्वना मिले। आशा और उत्साह यदि सार्थक स्तर पर उभारा जा सकें तो बहुत कुछ ऐसा बन पड़ सकता है जिसकी कल्पना से भी हुलसित, पुलकित होने की पृष्ठभूमि बन चले।

यह सब किस प्रकार बन पड़ेगा। इसकी विस्तृत रूपरेखा का वर्णन-विवेचन भी समयानुसार सुनने, समझने का अवसर मिलेगा। इस अवसर पर तो इतना ही समझ लेना चाहिए कि छोटे आकार-विस्तार वाले शांतिकुंज से जो कुछ उभर रहा हैं, उसे विश्वमानव के आगत सौभाग्य के उफनने जैसा समझा जा सकता है। इसे अपने समय के समुद्र मंथन जैसा एक नियोजन भी कहा जा सकता है। टिटहरी द्वारा समुद्र से अण्डे वापस लेकर हटने की प्रतिज्ञा पूरी हो सकती हैं, तो “नया इनसान बनाने की, नया संसार बसाने” की उमंगों को क्यों असंभव या उपहासास्पद समझा जाना चाहिए।

यहाँ इतना ही अनुरोध किया जा रहा हैं कि यदि ऐसे सशक्त उद्गम के साथ जुड़ने की बात मानी जा सकें तो उसकी परिणति सबके लिए एक प्रकार से श्रेयस्कर ही हो सकती हैं। हिमालय से पिघलने वाले ग्लेशियरों से जो नदियाँ जुड़ी हुई होती हैं, वे किसी भी ऋतु में सूखती नहीं उनकी जल धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहमान बनी रहती हैं। विद्युत उत्पादक समर्थ संस्थानों से जुड़े रहने वाले ट्राँसफार्मरों से जनरेटरों का करेंट कभी चुकता नहीं। यह जोड़ संयोग उन सभी छोटे -बड़े उपकरणों को गति देता रहता है, जो बिजली के सहारे चलते और अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरे करते हैं। बादलों का बरसना इसलिए अनादिकाल से जारी हैं कि वे समुद्र से उठने वाली भाप को अपना आधार अवलंबन बनाये हुए हैं।

नहरें इसलिए सिंचाई के निमित्त उपलब्ध रहती हैं कि वे बड़ी नदियों से निकलती हैं। यदि यह आधार उथले और घोटे रहे होते, तो वे उपलब्धियाँ हस्तगत न हो पातीं जो नदियों के, नहरों के, बिजली घरों के रूप में निरंतर कार्य करती देखी जाती हैं।

स्वावलंबन और वैयक्तिक पुरुषार्थ की भरपूर सराहना करते हुए भी इस तथ्य को समझाना ही होगा कि नीचे गिरने लिए हर कोई स्वतंत्र और समर्थ हैं, किंतु ऊंचाई की ओर प्रयाण करने के लिए किन्हीं समर्थ अवलंबनों के की आवश्यकता होती है। आकाश से भारी ऊंचाई से गिरने पर भी उल्काएं सरलतापूर्वक जमीन पर आ टपकती हैं, पर यदि कोई उपग्रह धरती से आकाश तक पहुँचाना हो तो उसके लिए शक्तिशाली राकेटों की व्यवस्था बनाये बिना काम चलता नहीं। पैरों के बल उछल कर तो कुछ फुट ऊंचाई तक ही अपना पुरुषार्थ दिखाया जा सकता है, पर यदि ऊंची और लंबी उड़ाने उड़ती हैं तो वायुयान का टिकट खरीदना और उस पर सवार होना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। समुद्र की लंबाई, गहराई और लहरों की उथल-पुथल को देखते हुए उस तैर कर पार करने की बात बनती नहीं। इसके लिए समुचित साधनों से संपन्न जलयान का आश्रय लेना पड़ता है। रेल या मोटर पर सवार होने वाले जितने कम समय में जितनी दूरी पार कर लेते हैं, उतना फासला एकाकी पुरुषार्थ पर निर्भर पदयात्री के लिए संभव नहीं होता।

नलों में पानी तभी तक चलता है जब तक कि उनका संबद्ध जल संपदा से भरी पूरी टंकी के साथ रहता है। बेल उतनी ही ऊंची चढ़ पाती हैं जितने ऊंचे पेड़ से लिपट लेने का सुयोग

उपलब्ध होता है अन्यथा वह जमीन पर फैलती छितराती रहेगी। शरीर के अंग अवयवों में गतिशीलता तभी तक रहती हैं जब तब कि उन्हें हृदय द्वारा -धमनियों द्वारा रक्त पहुंचाया जाता है। इस व्यवस्था के छिन्न−भिन्न हो जाने पर तो अच्छे भले अंग अवयव, निष्क्रिय निर्जीव बनकर रह जाते हैं।

सशक्त शक्ति उद्गम से संबंधित बने रहने में ही समझदारी हैं, यह इतिहास बताता है। आज का समय बड़ी विषमता से भरा हैं व अगले आने वाले दिन और भी विपन्नताएं, घनघोर संकट भरी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते चले आ रहें हैं। ऐसे में जो सुरक्षा कवच इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री, “ सतयुग की वापसी “ को संकल्पित इस केन्द्र के माध्यम से सबको मिल सकता है वह संभवतः अन्यथा कही उपलब्ध न हो सकेगा। हमारा आश्वासन हैं कि हम गायत्री महाप्रज्ञा के तत्वदर्शन तथा यज्ञ के सत्कर्म विस्तार की प्रेरणा के जन-जन तक विस्तार के द्वारा सूक्ष्म व कारण सत्ता रूप में और अधिक सक्रिय हो एक व्यापक समुदाय के मनो का-चेतना का भावनात्मक परिष्कार उन्हें सुसंस्कारित बनाकर साँस्कृतिक क्राँति का सरंजाम जुटायेंगे। इसके लिए मात्र अपने को शक्तिस्रोत से जोड़ लेना भर काफी हैं। शेष काम ऋषि सत्ताएं स्वयं करेगी। हमारा हर जाति, मत, पंथ, संप्रदाय, वर्ण, राष्ट्र के व्यक्ति से हैं व विश्वास है कि यह पुकार अनसुनी न रहेगी।

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